यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
हाथ देखने की कहानी
by कुसुम जैन
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मैं अमरीका के कुछ अजीब-ओ-ग़रीब अनुभव
बताना चाहूँगी।
बहुत साल पहले जब मैं यहाँ
पढ़ने के लिए पहली बार आई थी, तब अचानक हम बाज़ार में घूम रहे
थे, मैं अपनी
सहेली ( जापानी सहेली थी
मेरी ) कीमुको के
साथ चल रही थी तब अचानक मैंने देखा कि एक
अमरीकन औररत आई औरर उसने अपना हाथ मेरे
हाथ के ऊपर रख दिया औरर कहने लगी कि " मुझे मेरा भविष्य बताओ ! "
यह समझ में नहीं आया कि
मैं क्या कहूँ औरर यह क्या चाहती है।
मैं हक्की-बक्की-सी रह गई।
उसने फिर मुझे एक पच्चीस सेंट
दिये हाथ में रखे मेरे हाथ।
मैंने फिर उसको मना
किया कि " ( आ ) यह हाथ देखना नहीं आता। "
तो उसने मुझे
सोचा . . . एक डॉलर
औरर दिया यह सोचकरके कि शायद ये
पैंती-बत्ती सेंट कम
है।
फिर मैंने उसको मना किया
क्योंकि मुझे हाथ देखना नहीं आता।
उसको समझाने की कोशिश की।
उसने कहा कि " तुम बनजारन ( = gypsy ) हो, ना ? "
मैंने कहा, "
नहीं, मैं बनजारन नहीं हूँ। "
उसने फिर पाँच डॉलर
दिये, मेरे हाथ
में रखे।
फिर दस डॉलर रखे।
फिर उसने एक दस डॉलर औरर रखे।
बीस डॉलर रख दिये।
फिर मैंने उसको
समझाकर कहा कि " मैं बनजारन
नहीं हूँ।
मैं यहाँ पढ़ने आई हूँ औरर
मुझे हाथ देखना नहीं आता।
लेकिन मैं आपको शुभकामनाएँ
देती हूँ कि आपके साथ (?) बच्चा होगा। "
वह कहती है कि " नहीं, तुम, तुम
बिलकुल बनजारन लगती हो ! "
क्योंकि उस समय मैं
हमेशा ही बिन्दी लगाती हूँ औरर ज़्यादातर
तो हिन्दुस्तानी कपड़े ही पहनती हूँ,
सलवार-कमीज़,
साड़ी, वग़ैरह, तो इस
पोशाक को देखकरके वह सोच रही है कि
ज़रूर मैं बनजारन हूँ।
औरर उसको विश्व - - यकीन नहीं हो रहा था कि मैं
बनजारन नहीं हूँ।
औरर फिर बेचारी को बहुत निराशा लगी जब
मैं उसे कुछ - - उसकी कुछ मदद नहीं कर सकी, उसका भविष्य नहीं बता सकी।
तब मेरी सहेली ने कहा
था, " तुम उसको
झूठ-मूठ ही बता दो। "
मैंने कहा, "
मैं उसे झूठ-मूठ - - कैसे उसको धोखा दे सकती
हूँ ? "
तो उसके बाद फिर हम लोग लौट आए।
लेकिन यह अकेला हादसा नहीं
था।
इस तरह मेरे साथ तीन-चार
बार हुआ।
एक बार एक औररत आई, एक
अस्पताल के सामने ( प्रेस्बिटीरियन हॉस्पिटल था,
फ़लिाडेल्फ़यिा में )
।
उसने मुझे पकड़कर फिर कहा कि, " तुम फ़ॉच्र्युन-टेलर हो औरर मुझे बताओ
कि मैं कब ठीक हूँगी ? "
मुझे उसपे - -
बहुत सहानुभूति हुई
उसके साथ।
औरर मैंने कहा कि, " आप जल्दी ठीक हो जाएँ। "
कहती, " नहीं, मेरा हाथ
देखकर बताओ ! जब
मैं डॉक्टर से पूछती हूँ कि,
' मैं कब ठीक होऊँ - -
या हूँगी ? ' "
कहता है, ' जब तुम मर
जाओगी। ' "
तो यह सुनकर
मुझे बहुत दुख हुआ औरर
मैंने उसको गले से गला लगाया
औरर मैंने कहा, " मदर, माँ,
तुम जल्दी ठीक हो जाओगी।
आप ऐसा मत सोचो ( रहा ?? ) ।
सब तो अच्छा होगा आपके साथ। "
कहती है,
" नहीं, मेरा बेटा भी कब आएगा मुझे पता
नहीं।
मैं अकेली हूँ।
औरर इसलिए तुम मेरा हाथ देखकरके
बताओ कि सब मेरे साथ कब ठीक होगा। "
मैंने
कहा, " मैं आपको
सिफऱ् दुआएँ दे सकती हूँ,
शुभकामनाएँ दे सकती
हूँ।
लेकिन मैं ये कैसे हाथ
देखके बताऊँगी सब ठीक कैसे
होगा, कब होगा ?
लेकिन मेरे आपके
पूरे (??) सब
शुभकामनाएँ कि जल्दी सब ठीक होगा। "
वह भी निराश हो
गई ( थी ?? )
तब मैंने
बाद में बहुत काफ़ी सोचा कि आदमी जो
है या इनसान, वह ज़िन्दगी के
थपेड़े खाकरके एक आश्वासन चाहता है कि अब
उसके साथ कोई दुर्घटनाएँ नहीं
होंगी औरर सब सही-सही
ज़िन्दगी गुज़रती चली जाएगी।
इस आश्वासन के लिये कभी वह हाथ में
देखने में विश्वास करने लगता
है, तो कभी
भविष्यवाणियों में।
यह (?) कहीं से
वह - - उसके मन
में होता है, कहीं से उसको यह पूरा आश्वासन
मिल जाए कि अब वह बहुत थक चुका है,
ज़िन्दगी के थपेड़ों
से, दुखों
से, कहीं से उसको
एक सहारा मिल जाय, एक आश्वासन मिल
जाय कि अब ऐसा कुछ नहीं होगा।
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Recorded in Ann Arbor by कुसुम
जैन on 1 July 2002. Transcribed and posted 3-5 July 2002.
Audio file created and posted 2 July 2002.