यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन

Essay fb:  उसे मेरी नज़र लगी ?
by  ओमकार कौल

         जैसे-तैसे बस श्रीनगर बस अड्डे से अनंतनाग की ओर साढ़े नौ बजे रवाना हुई।  मुझे ड्राइवर के पीछे वाली सीट मिली।  कई दिनों की हड़ताल के बाद अनंतनाग के लिए यह पहली बस थी।  बस खचाखच भर गई।  बस डलगेट के स्टॉप पर रुकी औरर वहाँ कुछ औरर सवारियाँ चढ़ीं।  एक बाईस-तेईस वर्ष की सुन्दर युवती,  दो-एक वर्ष की छोटी बच्ची के साथ बस में चढ़ी।  युवती के चेहरे पर हल्का मेक-अप था औरर उसने शलवार क़मीज़ पर एक गहरे रंग का लाल शाल ओढ़ा हुआ था।  छोटी बच्ची के हाथ में पोटेटो चिप्स का पैकेट था।  युवती ने इधर-उधर नज़र दौड़ाई औरर छोटी बच्ची से बोली, " कोई भी सीट ख़ाली नहीं है। "  वाक़ई कोई भी सीट ख़ाली न थी।  वह छोटी बच्ची का हाथ पकड़कर आगे बोनेट पर बैठ गई।  मैंने दाएँबाएँ नज़र दौड़ाई।  किसी ने उसके लिए सीट ख़ाली न की।  कभी समय था कि महिलाओं को बस में खड़ा नहीं रहना पड़ता था।  उनके बैठने के लिए सीटें ख़ाली की जाती थीं।  मगर अब वह बात कहाँ !  लोग अब पढ़े-लिखे हैं,  अधिक जागरुक हैं औरर उन्हें अपने अधिकार मालूम हैं।  वे जानते हैं कि प्रजातंत्र में पुरुषों औरर महिलाओं को समान अधिकार प्राप्त हैं।  इस महिला को भी इस बात का एहसास है।  इसीलिये वह कोई सीट ख़ाली न देखकर सीधे बोनेट पर बैठ गई जैसे वह सीट उसके लिए ही सुरक्षित हो।
      गम्भीर होने के बावजूद उसका आकर्षण छिपा न रहा।  उसकी ओर नज़रें उठ जानी स्वाभाविक थीं।  मैं जैसे कोई जान
-पहचान निकालने की कोशिश में था।  जब-जब नज़र मिलती थी,  मैं दूसरी ओर देखता।  मुझे वह किसी कहानी की पात्र सी दिखाई देने लगी,  जो आम लोगों में खो गई थी।
      कंडक्टर ने पैसे वसूल किये।  उसे अवन्तीपुर तक जाना था।  अवन्तीपुर
!  पता नहीं वहाँ उसका कौन है ?  शायद नौकरी करती होगी।   मगर कौन-सी नौकरी ?  उसका हल्का मेक-अप,  लम्बी पतली भौंहें,  चेहरे का हल्का गुलाबी रंग  (  कुछ अपना औरर कुछ पाउडर का  हल्की सुर्मई आँखें देखकर लगता था कि एक ऐसे खातेपीते परिवार से है जिस में बहुओं को सजसंवर कर रहने के अतिरिक्त घर में औरर कोई काम नहीं होता।  इसका पति कोई अच्छी नौकरी करता होगा।  इसने पढ़-लिख कर भी कोई नौकरी न करने का फ़ैसला किया होगा।  मैं इन्हीं ख़्यालों में निमग्न था कि एकदम अन्धेरा-सा छा गया।
      ज्यों ही बस बटवारा के निकट पहुँची तो बस पर पथराव हुआ।  बस के शीशे टूट कर भीतर बिखर गये।  वह युवती बोनेट से नीचे गिर गयी।  एकदम कोहराम मच गया।  ड्राइवर बिना रोके बस आगे बढ़ाता रहा।  कुछ सवारियाँ चिल्ला रही थीं
 " ठहरो !"  औरर कुछ " चलते रहो !"   किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था।  कई सवारियों को चोट आई।  मेरे बायें कान के पास शीशे का एक टुकड़ा लगने से चोट आ गई थी।
      युवती सँभल कर उठी।  उसके कंधे पर एक बड़ा नुकीला पत्थर लग गया था औरर खिड़की के शीशे के टुकड़ों से चेहरे पर बहुत से ज़ख़्म आ गए थे।  ज़ख़्मों से ख़ून बह रहा था।  अपनी सीट से खड़े होते हुए मैंने उसे सीट पर बैठने के लिए कहा।  लेकिन मुझसे पहले ही मेरी दाईं ओर बैठे युवक ने सीट ख़ाली कर दी।  उसने हम दोनों को बैठने के लिए कहा।
      मेरी बाईं कनपटी के पास भी शीशे का टुकड़ा लगने के कारण लहू बह रहा था।  मैंने जेब से रूमाल निकाला औरर लहू पोंछने लगा।  इतने में मेरे निकट खड़ा हुआ युवक अख़बार के काग़ज़ के एक टुकड़े से उस युवती के चेहरे से लहू पोंछने लगा।  उसके माथे पर
,  गाल पर औरर दाईं कनपटी पर ज़ख़्म आए थे।  ख़ून अधिक बह रहा था।  मैं अपना ज़ख़्म भूल कर रूमाल से उसके ज़ख़्मों का ख़ून पोंछने लगा।  ख़ून रुका नहीं।  मैंने अपने बैग में से एक काग़ज़ का पन्ना निकालकर उसके छोटे-छोटे टुकड़े करके उसके उन ज़ख़्मों पर लगा दिये।  मेरे साथ खड़ा युवक भी मेरी मदद करने लगा।
      यह अपने बाएँ हाथ से दाएँ कंधे को सहला कर बोली
,  " इसमें सख़्त चोट आई है। "  मैंने उसका कंधा हल्केहल्के हाथ से दबाया तो उसे थोड़ी सी राहत मिली।  मैं काफ़ी देर तक हल्के-हल्के उसका कन्धा दबाता रहा।
      मैं सोच रहा था कि यह क्या हुआ
?  उसका कन्धा दबाते हुए मैंने उससे पूछा,  " अब कन्धे में अधिक दर्द तो नहीं है ? "   उसकी आँखें एकदम आँसुओं से भर गई औरर वह फूटफूट कर रोने लगी।  उसके रोने से मेरी हिम्मत का बाँध भी टूट गया।  मुझे बहुत ही अफ़सोस हो रहा था।  मेरे समीप खड़े युवक ने उससे कहा,  " चिन्ता मत करो।  हम तुम्हारे भाई हैं।  मुस्लिम औरर हिन्दू सब बराबर हैं।  हम तुम्हारे लिए जान भी दे देंगे। "  इस मुस्लिम युवक के सांत्वना के ये शब्द सुनकर मेरी आँखें भी भर आईं।  मैंने रूमाल के एक साफ़ कोने से उसकी आँखों के आँसू पोंछे।  आँसुओं के साथ काले सुर्मे का रंग भी मिल गया।  पूरे रूमाल पर ख़ून के धब्बे थे।  मैंने बड़ी हिम्मत करके कहा, " आप चिन्ता न कीजिए ।  इसके अतिरिक्त मैं कुछ न कह सका।  मुझे गहरी चिन्ता थी कि बस पर आगे भी कहीं पथराव हो सकता है।  आज पता नहीं क्या हो जाएगा।  वह भी काँप रही थी।  उसने मेरे निकट खड़े युवक से विनती की कि वह खिड़की की तरफ़ सीट पर बैठे।  वह उसी सीट पर आधा सिमट कर बैठ गया।
      कुछ ही मिन्टों के इस सफ़र में कितना अपनापन पैदा हो गया था।  मैं अब उसकी गोद में बैठी बच्ची के सिर के बालों में से शीशे के छोटे
छोटे टुकड़े उँगलियों से निकाल रहा था। उस बच्ची को कोई विशेष चोट नहीं आई थी,  मगर वह एकदम सहमी सी थी।  उसके हाथ में पोटेटो चिप्स का पैकेट था औरर वह अपनी माँ के मुँह में एक टुकड़ा ज़बरदस्ती ठूँसना चाहती थी।  उसने पैकेट मेरी ओर भी बढ़ाया।
      बस अवन्तीपुर पहुँच गई।  ड्राइवर ने बस रोक दी।  वह एकदम खड़ी हुई।  अपनी गीली आँखें छुपाने के लिए उसने शाल का पल्ला चेहरे पर नीचे तक डाला औरर अपनी बेटी का हाथ पकड़कर बस से धीरे
-धीरे नीचे उतर गई।  वह हमारी ओर मुड़कर भी न देख सकी।  मैं बस की खिड़की से बाहर देखता रहा,  शायद यह देखने के लिए कि वह किस ओर जाएगी।
      बस चल पड़ी।  मुझे अपने चेहरे का ज़ख़्म दुबारा याद आया औरर ख़ून के धब्बे औरर आँसुओं से लथपथ रूमाल से मैं अपने ज़ख़्म को धीरे
धीरे दबाता रहा।  मैं जितना इसे दबाता गया,  दर्द उतना ही बढ़ता गया।  मैं बड़ी देर तक यही सोचता रहा कि शायद उसे मेरी नज़र लग गई।
[Hindi text first appeared in 1992 in  कश्मीरी कहानियाँ (pp. 79-82). Used with the permission of the editor and author.]
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Posted 17 May 2001.