यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन

बड़े घर की बेटी



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एक

बेनीमाधव सिंह गौरीपुर गाँव के ज़मींदार औरर नम्बरदार थे।
    उनके पितामह किसी समय बड़े धनधान्य
-सम्पन्न थे। गाँव का पक्का तालाब औरर मन्दिर,  जिनकी अब मरम्मत भी मुश्किल थी,  उन्हीं के कीत्र्तिस्तम्भ थे। कहते हैं,  इस दरवाज़े पर हाथी झूमता था। अब उसकी जगह एक बूढ़ी भैंस थी,  जिसके शरीर में पंजर के सिवा औरर कुछ शेष न रहा था।  [5] पर दूध शायद बहुत देती थी,  क्योंकि एक न एक आदमी हाँडी लिये उसके सर पर सवार ही रहता था। बेनीमाधव सिंह अपनी आधी से अधिक सम्पत्ति वकीलों को भेंट कर चुके थे। उनकी वर्तमान आय एक हज़ार वार्षिक से अधिक न थी। ठाकुर साहब के दो बेटे थे। बड़े का नाम श्रीकंठ सिंह था।  [10] उन्होंने बहुत दिनों तक परिश्रम औरर उद्योग के बाद बी.ाम्प्ऌ ए.ाम्प्ऌ की डिग्री प्राप्त की थी। अब एक दफ़्तर में नौकर थे। छोटा लड़का लालबिहारी सिंह दोहरे बदन का सजीला जवान था,  मुखड़ा भरा हुआ,  चौड़ी छाती। भैंस का दो सेर ताज़ा दूध वह सबेरे उठ,  पी जाता था। श्रीकंठ सिंह की दशा उसके बिल्कुल विपरीत थी।  [15] इन नेत्रप्रिय गुणों को उन्होंने ब.ाम्प्ऌ ए.ाम्प्ऌ के दो अक्षरों पर न्यौछावर कर दिया था। इन दो अक्षरों ने उसके शरीर को निर्बल औरर चेहरे को कांतिहीन बना दिया था। इसी से वैद्यक ग्रन्थों पर उनका विशेष प्रेम था। आयुर्वेदिक औरषधियों पर उनका अधिक विश्वास था। साँझ-सबेरे उनके कमरे से प्राय: खरल की सुरीली कर्णमधुर ध्वनि सुनाई दिया करती थी।  [20] लाहौर औरर कलकत्ता के वैद्यों से बड़ी लिखा-पढ़ी रहती थी।
    श्रीकंठ इस अंग्रेज़ी डिग्री के अधिपति होने पर भी अंग्रेज़ी सामाजिक प्रथाओं के विशेष प्रेमी न थे,  बल्कि वह बहुधा बड़े ज़ोर से उनकी निंदा औरर तिरस्कार किया करते थे। इसी से गाँव में उनका बड़ा सम्मान था। दशहरे के दिनों में वह बड़े उत्साह से रामलीला में सम्मिलित होतो औरर स्वयं किसी न किसी पात्र का पार्ट लेते। गौरीपुर में रामलीला के वे ही जन्मदाता थे।  [25] प्राचीन हिन्दू सभ्यता का गुणगान उनकी धार्मिकता का प्रधान अंग था। सम्मिलित कुटुम्ब-प्रथा के तो वे एकमात्र उपासा थे। आजकल स्त्रियों की,  कुटुम्ब में मिल-जुलकर रहने की ओर जो अरुचि हो जाती है,  उसे वे जाति औरर देश के लिए बहुत हानिकर समझते थे। यही कारण था गाँव की ललनाएँ उनकी निन्दक थीं। कोई-कोई तो उन्हें अपना शत्रु समझने में भी संकोच न करती थीं।  [30] स्वयं उनकी पत्नी का ही इस विषय में उनसे विरोध था। वह इसलिए नहीं कि उसे अपने सास-ससुर,  देवर,  जेठ से घृणा थी;  बल्कि उसका विचार था कि यदि बहुत कुछ सहन करने औरर तरह देने पर भी परिवार के साथ निर्वाह न हो सके,  तो आये दिन की कलह से जीवन को नष्ट करने की अपेक्षा यही उत्तम है कि अपनी खिचड़ी अलग पकायी जाय।
    आनन्दी एक बड़े कुल की लड़की थी। उसके बाप एक छोटी-सी रियासत के ताल्लुकेदार थे। विशालभवन,  एक हाथी,  तीन कुत्ते,  बाज-बहरी,  शिकरे,  झाड़-फानूस,  आनरेरी मजिस्ट्रेटी औरर ॠण,  जो एक प्रतिष्ठित ताल्लुकेदार के योग्य पदार्थ हैं,  वह सभी यहाँ विद्यमान थे।  [35] भूपसिंह नाम था। बड़े उदारचित,  प्रतिभाशाली पुरुष थे। दुर्भाग्यवश लड़का एक भी न था। सात लड़कियाँ हुईं औरर दैवयोग से सबकी सब जीवित रहीं। पहली उमंग में तो उन्होंने तीन ब्याह दिल खोलकर किये,  पर जो पन्हद््र-बीस हज़ार का कर्ज सिर पर हो गया तो आँखें खुलीं,  हाथ समेट लिया।  [40] आनन्दी चौथी लड़की थी। अपनी सब बहिनों से अधिक रूपवती औरर गुणशीला थी। इसी से ठाकुर भूपसिंह उसे बहुत प्यार करते थे। सुन्दर सन्तान को कदाचित् उसके माता-पिता भी अधिक चाहते हैं। ठाकुर साहब बड़े धर्मसंकट में थे कि इसका विवाह कहाँ करें।  [45] न तो यही चाहते थे कि ॠण का बोझ बढ़े औरर न यही स्वीकार था कि उसे अपने को भाग्यहीन समझना पड़े। एक दिन श्रीकंठ उनके पास किसी चन्दे का रुपया माँगने आये। शायद नागरी-प्रचारक चन्दा था। भूपसिंह उनके स्वभाव पर रीझ गये औरर धूमधाम से श्रीकंठ सिंह का आनन्दी के साथ विवाह हो गया।
    आनन्दी अपने नये घर में आयी
,  तो यहाँ का रंग-ढंग कुछ औरर ही देखा।  [50] जिस टीमटाम की उसे बचपन से ही आदत पड़ी हुई थी,  वह यहाँ नाममात्र को भी न थी। हाथी-घोड़ों की तो बात ही क्या,  कोई सजी हुई सुन्दर बहली तक न थी। रेशमी-स्लीपर साथ लायी थी,  पर यहाँ बाग़ कहाँ ! मकान में खिड़कियाँ तक न थीं,  न ज़मीन पर फ़र्श,  न दीवार पर तस्वीरें। यह एक सीधे-सादे देहाती गृहस्थ का मकान था।  [55] किन्तु आनन्दी ने थोड़े ही दिनों में अपने को इस अवस्था के ऐसा अनुकूल बना लिया,  मानो उसने विलास के सामान कभी देखे ही न थे।

दो

एक दिन दोपहर के समय लालबिहारी सिंह चिड़िया लिये हुए आया औरर भावज से कहाजल्दी पका दो,  मुझे भूख लगी है। आनन्दी भोजन बनाकर इसकी राह देख रही थी। अब यह नया व्यंजन बनाने बैठी। हाँडी में देखा तो घी पाव भर से अधिक न था।  [60] बड़े घर की बेटी किफ़ायत क्या जाने। उसने सब घी मांस में डाल दिया। लालबिहारी खाने बैठा,  तो दाल में घी न था,  बोलादाल में घी क्यों नहीं छोड़ा ?
    आनन्दी ने कहाघी सब मांस में पड़ गया।
    लालबिहारी ज़ोर से बोलाअभी परसों घी आया है,  इतनी जल्दी उठ गया ?  [65]
    आनन्दी ने उत्तर दियाआज तो कुल पाव भर रह गया होगा। वह सब मैंने मांस मेंस में डाल दिया।
    जिस तरह सूखी लकड़ी जल्दी से जल उठती है
,  उसी तरह क्षुधा से बावला मनुष्य ज़रा-ज़रा-सी बात पर तिनक जाता है।
    लालबिहारी को भावज की यह ढिठाई बहुत बुरी मालूम हुई। तिनककर बोलामैंके में तो चाहे घी की नदी बहती है !
    स्त्री गालियाँ सह लेती है,  मार भी सह लेती है,  पर मैके की निन्दा उससे नहीं सही जाती। आनन्दी मुँह फेरकर बोलीहाथी मरा भी तो नौ नाख का ! वहाँ इतना घी नित्य नाई-कहार खा जाते हैं।
    लालबिहारी जल गया,  थाली उठाकर पटक दी औरर बोलाजी चाहता है कि जीभ पकड़कर खींच लूँ।
    आनन्दी को भी क्रोध आया।  [75] मुँह लाल हो गया,  बोलीवह होते तो आज मजा चखा देते।
    अब अपढ़ उजड्ड ठाकुर से न रहा गया। उसकी स्त्री एक साधारण ज़मींदार की बेटी थी। जब जी चाहता,  उस पर हाथ साफ़ कर लिया करता था। उसने खड़ाऊँ उठाकर आनन्दी की ओर से फेंकी औरर बोला- " जिसके गुमान पर भूली हुई हो,  उसे भी देखूँगा औरर तुम्हें भी। "  [80]
    आनन्दी ने हाथ से खड़ाऊँ रोकी,  सिर बच गया;  पर अँगुली में बड़ी चोट आयी। क्रोध के मारे हवा से हिलते हुए पत्ते की भाँति काँपती हुई अपने कमरे में आकर खड़ी हो गयी। स्त्री का बल औरर साहस,  मान औरर मर्यादा पति तक है। उसे अपने पति के ही बल औरर पुरूषत्व का घमण्ड होता है। आनन्दी लोहू का घूँट पीकर रह गयी।  [85]

तीन

श्रकंठ सिंह शनिवार को आया करते थे। बृहस्पति को यह घटना हुई। दो दिन तक आनन्दी कोपभवन में रही। न कुछ खाया,  न कुछ पिया,  उनकी बाट देखती रही। अन्त में शनिवार को वह नियमानुकूल संध्या समय घर आये औरर बाहर बैठकर कुछ इधर-उधर की बातें,  कुछ देश औरर काल सम्बन्धी समाचार तथा कुछ नये मुक़द्दमों आदि की चर्चा करने लगे।  [90] यह वार्तालाप दस बजे तक होता रहा। गाँव के भद्र पुरुषों को इन बातों में ऐसा आनंद मिलता था कि खाने-पीने की भी सुधि न रहती थी। श्रीकंठ का पिंठ छुड़ाना मुश्किल हो जाता था। यह दो-तीन घंटे आनंदी ने बड़े कष्टों से काटे। किसी तरह भोजन का समय आया,  पंचायत उठी।  [95] जब एकांत हुआ तब लालबिहारी ने कहाभैया,  आप जरा घर में समझा दीजिएगा कि मुँह सँभालकर बातचीत किया करें,  नहीं तो एक दिन अनर्थ हो जायेगा।
    बेनीमाधव सिंह ने बेटे की ओर से साझी दीहाँ,  बहू-बेटियों का यह स्वभाव अच्छा नहीं कि पुरुषों के मुँह लगें।
    लालबिहारीवह बड़े घर की बेटी है,  तो हम लोग भी कोई कुर्मी-कहार नहीं हैं।
    श्रीकंठ ने चिंतित स्वर में पूछा- " आख़िर बात क्या हुई ?"
    लालबिहारी ने कहा- " कुछ भी नहीे,  यों ही आप ही आप उलझ पड़ीं।  [100] मैके के सामने हम लोगों को तो कुछ समझतीं ही नहीं। "
    श्रीकंठ खा-पीकर आनंग्ी के पास गये। वह भरी बैठी थी। हजरत भी कुछ तीखे थे। आनंदी ने पूछाचित्त तो प्रसन्न है ?  [105]
    श्रीकंठ बोलेबहुत प्रसन्न है,  पर तुमने आजकल घर में क्या उपद्रव मचा रखा है ?
    आनंदी की तेवरियों पर बल पड़ गये औरर झुँझलाहट के मारे बदन में ज्वाला-सी दहक उठी। बोली- " जिसने तुम्हें यह आग लगायी है,  उसे पाऊँ तो मुँह झुलस दूँ। "
    श्रीकंठइतनी गरम क्यों होती हो,  बात तो कहो ?
    आनंदीक्या कहूँ,  यह मेरे भाग्य का फेर है,  नहीं तो एक गँवार छोकरा,  जिसको चपरासीगिरी करने का भी ढंग नहीं,  मुझे खड़ाऊँ से मारकर यों न अकड़ता।  [110]
    श्रकंठसब साफ़-साफ़ हाल कहो तो मालूम हो। मुझे तो कुछ पता नहीं।
    आनंदी
परसों तुम्हारें लाड़ले भाई ने मुझसे मांस पकाने को कहा। घी हाँड़ी में पाव भर से अधिक न था। वह मैंने सब मांस में डाल दिया।  [115] जब खाने बैठा तो कहने लगा,  दाल में घी क्यों नहीं ? बस,  इस पर मेरे मैके को भला-बुरा कहने लगा। मुझसे न रहा गया,  मैंने कहा कि वहाँ इतना घी तो नाई-कहार खा जाते हैं औरर किसी को जान भी नहीं पड़ता। बस,  इसती-सी बात पर उस अन्यायी ने मुझ पर खड़ाऊँ फेंककर मारी। यदि हाथ से न रोक लेती,  तो सिर फट जाता।  [120] उसी से पूछो कि मैंने जो कुछ कहा है,  वह सच है या झूठ।
    श्रीकंठ की आँखें लाल हो गयी। बोलेयहाँ तक हो गया ! इस छोकरे का यह साहस !
    आनंदी स्त्रियों के स्वभावानुसार रोने लगी,  क्योंकि आँसू उनकी पलकों पर रहते हैं।  [125] श्रीकंठ बड़े धैर्यवान् औरर शांत पुरुष थे। उन्हें कदाचित् ही कभी क्रोध आता था,  पर स्त्रियों के आँसू पुरुषों की क्रोधाग्नि भड़काने में तेल का काम देते हैं। रात भर करवटें बदलते रहे। उद्विग्नता के कारण पलक तक नहीं झपकी। प्रात:काल अपने बाप के पास जाकर बोले- " दादा,  अब इस घर में मेरा निर्वाह न होगा। "  [130]
    इस तरह की विद्रोहपूर्ण बातें कहने पर श्रीकंठ ने कितनी ही बार अपने कई मित्रों को आड़े हाथों लिया था। परन्तु दुर्भाग्य,  आज उन्हें स्वयं वही बात अपने मुँह से कहनी पड़ी। दूसरों को उपदेश देना भी कितना सहज है !
    बेनीमाधव सिंह घबराकर उठे औरर बोलेक्यों,  क्यों ?
    श्रीकंठइसलिए कि मुझे भी अपनी मान-प्रतिष्ठा का कुछ विचार है।  [135] आपके घर में अब अन्याय औरर हठ का प्रकोप हो रहा है। जिनको बड़ों का आदर-सम्मान करना चाहिए,  वह उनके सिर चढ़ते हैं। मैं दूसरों का चाकर ठहरा,  घर पर रहता नहीं। यहाँ मेरे पीछे स्त्रियों पर खड़ाऊँ औरर जूतों की बौछारें होती हैं। कड़ी बात तक चिंता नहीं,  कोई एक की दो कह ले,  यहाँ तक मैं सह सकता हूँ।  [140] किन्तु यह कदापि नहीं हो सकता कि मेरे ऊपर लात-घूँसे पड़ें औरर मैं दम न मारूँ।
    बेनिमाधव सिंह कुछ जवाब न दे सके। श्रीकंठ सदैव उनका आदर करते थे। उनके ऐसे तेवर देखकर बूढ़े ठाकुर अवाक् रह गये। केवल इतना ही बोलेबेटा,  तुम बुद्धिमान होकर ऐसी बातें करते हो ?  [145] स्त्रियाँ इसी तरह घर का नाश कर देती हैं। उनको बहुत सिर चढ़ाना अच्छा नहीं।
    श्रीकंठ
इतना मैं जानता हूँ। आपके आशीर्वाद से ऐसा मूर्ख नहीं हूँ। आप स्वयं जानते हैं कि मेरे ही समझाने-बुझाने से इसी गाँव में कई घर सँभल गये;  पर जिस स्त्री की मान-प्रतिष्ठा का मैं ईस्वर के दरबार में उत्तरदाता हूँ,  उसके साथ ऐसा घोर अन्याय औरर पशुवत् व्यवहार मुझे असह्य है।  [150] आप सच मानिए,  मेरे लिए यही कुछ कम नहीं है कि लालबिहारी को कुछ दंड नहीं देता।
    अब बेनीमाधव सिंह भी गरमाये। ऐसी बातें औरर न सुन सके। बोलेलालबिहारी तुम्हारा भाई है,  उससे जब कभी भूल हो,  उसके कान पकड़ो। लेकिन.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ  [155]
    श्रीकंठलालबिहारी को मैं अपना भाई नहीं समझता।
    बेनीमाधव सिंहस्त्री के पीछे ?
    श्रकंठनहीं,  उसकी क्रूरता औरर अविवेक के कारण।
    दोनों कुछ देर चुप रहे। ठाकुर साहब लड़के का क्रोध शांत करना चाहते थे।  [160] लेकिन यह नहीं स्वीकार करना चाहते थे कि लालबिहारी ने कोई अनुचित काम किया है। इसी बीच में गाँव के औरर कई सज्जन हुक्का-चिलम के बहाने से वहाँ आ बैठे। कई स्त्रियों ने जब यह सुना कि श्रीकंठ पत्नी के पीछे पिता से लड़ने को तैयार हैं,  तो उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। दोनों पक्षों की मधुर वाणियाँ सुनने के लिए उनकी आत्माएँ तलमलाने लगीं। गाँव में कुछ ऐसे कुटिल मनुष्य भी थे,  जो इस कुल की नीतिपूर्ण गति पर मन ही मन जलते थे।  [165] वह कहा करते थे,  श्रीकंठ अपने से आप दबता है,  इसलिए वह दब्बू है। उसने इतनी विद्या पढ़ी,  इसलिए वह किताबों का कीड़ा है,  बेनीमाधव सिंह उसकी सलाह के बिना कोई काम नहीं करते,  यह उनकी मूर्खता है। इन महानुभावों की शुभकामनाएँ आज पूरी होती दिखाई दीं। कोई हुक्का पीने के बहाने औरर कोई लगान की रसीद दिखाने के बहाने आ-आकर बैठ गये। बेनीमाधव सिंह पुराने आदमी थे,  इन भावों को ताड़ गये।  [170] उन्होंने निश्चय किया कि वाहे कुछ भी क्यों न हो,  इन द्रोहियों को ताली बजाने का अवसर न दूँगा। तुरन्त कोमल शब्दों में बोलेअब तो लड़के से अपराध हो गया।
    इलाहाबाद का अनुभवरहित झल्लाया हुआ ग्रेजुएट इस बात को न समझ सका। उसे डिबेटिंग-क्लब में अपनी बात पर अड़ने की आदत थी,  इन हथकंड़ों की उसे क्या ख़बर ! बाप ने जिस मतलब से बात पलटी थी,  वह उसकी समझ में न आया,  बोलालालबिहारी के साथ अब इस घर में मैं नहीं रह सकता।  [175]
    बेनीमाधवबेटा,  बुद्धिमान लोग मूर्खों की बात पर ध्यान नहीं देते। वह बेसमझ लड़का है। उससे जो कुछ भूल हुई है,  उसे तुम बड़े होकर क्षमा कर दो।
    श्रीकंठउसकी इस दुष्टता को मैं कदापि नहीं सह सकता,  या तो वही घर में रहेगा या मैं रहूँगा। आपको यदि वह अधिक प्यारा है तो मुझे विदा कीजिए।  [180] मैं अपना भार आप सँभाल लूँगा। यदि मुझे रखना चाहते हैं,  तो उससे कहिए,  जहाँ चाहे चला जाये। बस,  यही मेरा अंतिम निश्चय है।
    लालबिहारी सिंह दरवाज़े की चौखट पर चुपचाप खड़ा,  बड़े भाई की बातें सुन रहा था। वह उनका बहुत आदर करता था।  [185] उसे कभी इतना साहस नहीं हुआ था कि श्रीकंठ के सामने चारपाई पर बैठ जाये,  हुक्का पी ले या पान खा ले। बाप का भी वह इतना मान न करता था। श्रीकंठ का भी उस पर हार्दिक स्नेह था। अपने होश में उन्होंने कभी उसे घुड़का तक नहीं था। जब इलाहाबाद से आते तो उसके लिए कोई न कोई वस्तु अवश्य लाते।  [190] मुग्दर की जोड़ी उन्होंने बनवा दी थी। पिछले साल जब उसने अपने से ड्योढ़े जवान को नागपंचमी के दिन दंगल में पछाड़ दिया,  तो उन्होंने पुलकित होकर अखाड़े में जाकर उसे गले से लगा लिया था। पाँच रुपये के पैसे लुटाये थे। ऐसे भाई के मुँह से आज ऐसी हृदयविदारक बात सुनकर लाल बिहारी को बड़ी ग्लानि हुई। वह फूट-फूटकर रोने लगा।  [195]
    इसमें सन्देह नहीं कि वह अपने किये पर आप पछता रहा था। भाई के आने के एक दिन पहले से ही उसकी छाती धड़कती थी कि देखूँ भैया क्या कहते हैं। मैं उनके सम्मुख कैसे जाऊँगा,  उनसे कैसे बोलूँगा,  मेरी आँखें उनके सामने कैसे उठेंगी। उसने समझा था कि भैया मुझे बुलाकर समझा देंगे। इस आशा के विपरीत आज उसने उन्हें निर्दयता की मूर्ति बने हुए पाया।  [200] वह मूर्ख था,  परन्तु उसका मन कहता था कि भैया मेरे साथ अन्याय कर रहे हैं। यदि श्रीकंठ उसे अकेले में बुलाकर दो-चार कड़ी बातें कह देते,  इतना ही नहीं,  दो-चार तमाचे भी लगा देते,  तो कदाचित् उसे इतना दु:ख न होता। पर भाई का यह कहना कि अब मैं इसकी सूरत नहीं देखना चाहता,  लालबिहारी से न सहा गया। वह राोता हुआ घर में आया। कोठरी में जाकर कपड़े पहने,  आँखें पोंछीं,  जिससे कोई यह न समझ सके कि रोया था।  [205] तब आनन्दी के द्वार पर आकर बोलाभाभी ! भैया ने निश्चय किया है कि वह मेरे साथ इस घर में न रहेंगे। वह अब मेरा मुँह नहीं देखना चाहते। इसीलिए मैं अब जाता हूँ। उन्हें फिर मुँह न दिखाऊँगा।  [210] मुझसे जो कुछ अपराध हुआ हो,  उसे क्षमा करना।
    यह कहते-कहते लालबिहारी का गला भर्रा आया।
    जिस समय लालबिहारी सिंह सिर झुकाये आनन्दी के द्वार पर खड़ा था,  उसी समय श्रीकंठ सिंह भी आँखें लाल किये बाहर से आये। भाई को खड़ा देखा,  तो घृणा से आँखें फेर लीं औरर कतराकर निकल गये,  मानो उसकी परछाहीं से दूर भागते हैं।
    आनन्दी ने लालबिहारी की शिकायत तो की थी,  लेकिन अब मन में पछता रही थी !  [215] वह स्वभाव से ही दयावती थी। उसे इसका तानिक भी ध्यान न था कि बात इतनी बढ़ जायगी। वह मन में अपने पति पर झुँझला रही थी कि यह इतने में गरम क्यों हो जाते हैं। उस पर यह भय भी लगा हुआ था कि मुझसे इलाहाबाद चलने को कहें तो कैसे क्या करूँगी। इस बीच में जब उसने लालबिहारी को दरवाज़े पर खड़े यह कहते सुना कि अब मैं जाता हूँ;  मुझसे जो कुछ अपराध हुआ है,  उसे क्षमा करना,  तो उसका रहा-सहा क्रोध भी पानी-पानी हो गया।  [220] वह रोने लगी। मन का मैल धोने के लिए नयन-जल से उपयुक्त्त औरर कोई वस्तु नहीं है।
    श्रीकंठ को देखकर आनन्दी ने कहालाला बाहर खड़े बहुत रो रहे हैं।
    श्रीकंठतो मैं क्या करूँ ?
    आनन्दीभीतर बुला लो।  [225] मेरी जीभ में आग लगे। मैंने कहाँ से यह झगड़ा उठाया।
    श्रीकंठ
मैं न बुलाऊँगा।
    आनन्दीपछताओगे। उन्हें बहुत ग्लानि हो गयी है।  [230] ऐसा न हो,  कहीं चल दें।
    श्रीकंठ न उठे। इतने में लालबिहारी ने फिर कहाभाभी ! भैया से मेरा प्रणाम कह दो। वह मेरा मुँह नहीं देखना चाहते,  मैं भी इसीलिए अपना मुँह उन्हें न दिखाऊँगा।  [235]
    लालबिहारी इतना कहकर लौट पड़ा औरर शीघ्रता से दरवाज़े की अेर बढ़ा। अन्त में आनन्दी कमरे से निकली औरर उसका हाथ पकड़ लिया। लाल बिहारी ने पीछे फिरकर देखा औरर आँखों में आँसू भर बोलामुझे जाने दो।
    आनन्दीकहाँ जाते हो ?
    लालबिहारीजहाँ कोई मेरा मुँह न देखे।  [240]
    आनन्दीमैं न जाने दूँगी।
    लालबिहारीमैं तुम लोगों के साथ रहने योग्य नहीं हूँ।
    आनन्दीतुम्हें मेरी सौगन्ध,  अब एक पग भी आगे न बढ़ाना।
    लालबिहारीजब तक मुझे यह न मालूम हो जाये कि भैया का मन मेरी तरफ़ से साफ़ हो गया,  तब तक मैं इस घर में कदापि न रहूँगा।

    Aan:ndiमैं ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूँ कि तुम्हारी ओर से मेरे मन में तनिक भी मैल नहीं है।  [245]
    अब श्रीकंठ का हृदय भी पिघला। उन्होंने बाहर आकर लालबिहारी को गले लगा लिया। दोनों भाई खूब फूट-फूट कर रोये। लालबिहारी ने सिसकते हुए कहाभैया ! अब कभी मत कहना कि तुम्हारा मुँह न देखूँगा।  [250] इसके सिवा आप जो दण्ड देंगे,  वह मैं सहर्ष स्वीकार करूँगा।
    श्रीकंठ ने काँपते हुए स्वर से कहालल्लू ! इन बातों को बिलकुल भूल जाओ। ईश्वर चाहेगा तो अब ऐसा अवसर न आवेगा।
    बेनीमाधव सिंह बाहर से आ रहे थे।
 [255] दोनों भाइयों को गले मिलते देखकर आनन्द से पुलकित हा गये,  बोल उठेबड़े घर की बेटियाँ ऐसी ही होती हैं।
    गाँव में जिसने यह वृत्तान्त सुना,  उसी ने इन शब्दों में आनन्दी की उदारता को सराहाबड़े घर की बेटियाँ ऐसी ही होती हैं।
Index to मल्हार.
Index to works of Pre-Independence prose.
Coded in December 2003 by विवेक अगरवाल. Posted on 5 Jan 2004.