यूनीवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
Dialogue dd: दो
सहेलियों की बातें
by कुसुम जैन
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आशा : अहा !
आइये, आइये। आज रास्ता कैसे भूल
गई ?
ललिता : आपसे तो वो भी
नहीं हुआ। मैं ही भूले
भटके आती हूँ तो आ जाती हूँ।
तू
तो कभी होश
भी नहीं लेती।
आशा : तू तो काफ़ी नाराज़ मालूम
होती है
।
धूप
में चलकर
आई है।
इसलिए
पारा
कुछ चढ़ गया
लगता
है। अच्छा पहले आराम से
बैठ।
ललिता : सच मुझे तुम पर कभी कभी
बहुत ग़ुस्सा आता है
।
आशा : तू विश्वास
नहीं करेगी। लेकिन सच
मैंने बहुत बार
सोची थी आने की।
ललिता : औरर अब कहेगी बस हर बार कुछ हो
गया। साफ़-साफ़ क्यों
नहीं कहती कि
मन ही
नहीं करता
सब दोस्ती-वोस्ती
दिखाने भर की
थी।
आशा : अब मैं क्या कहूँ ?
तू सुनती ही नहीं। एक
महीने पैर में तकलीफ़
रही।
ललिता : क्यों, क्या
हो गया था।
आशा : फोड़ा
हो गया था।
चल-फिर भी नहीं सकती थी।
कालेज भी नहीं जा सकी।
ललिता : अब कैसा है ?
आशा : अब तो ठीक है।
तू सुना अपने हालचाल। तेरे
उनका क्या हाल है
?
ललिता : सब मज़े में
है। उनकी तरक़्क़ी
हो
गयी इस महीने।
आशा : यह तो बड़ी ख़ुशख़बरी
सुनाई।
भई, बहुत
बहुत मुबारक।
ललिता : लेकिन इसके साथ-साथ बदली
भी
हो गई। बम्बई जाना
होगा।
आशा : तुम तो बहुत दूर
हो जाओगी।
ललिता : नई जगह में पता नहीं मन भी
लगेगा या नहीं
।
आशा : सभी सहेलियाँ अलग अलग
हो गईं।
ललिता : कालेज के दिन बड़े
याद
आते हैं।
आशा : हाँ, अब
तो सब सपना सा लगता है।
ललिता : बैठे-बैठे
जब कभी ख़्याल आता है
तो जी भर आता है
।
आशा : कभी कभी सोचकर हँसी भी आती
है
कि हम
कैसी शैतानियाँ
किया करते थे।
ललिता : लेकिन सभी टीचरें हमें
चाहती थीं
। मिलती
हैं तो पूछती
हैं चौगुड्डे के क्या हाल
हैं।
तुझे पता है सन्तोष के लड़की हुई
है ?
आशा : अच्छा !
कब ? तुझे कैसे मालूम
हुआ
?
ललिता : उसकी अम्माँ मिली थीं।
उन्होंने बताया था। एक हफ़्ता हुए
।
आशा : तू कब ख़ुशख़बरी सुना रही
है ?
ललिता : चल हट
! इतनी जल्दी थोड़ी
।
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Posted 10 May 2001. Glossing function restored by Lawrence Hook 28 Nov 2105.