यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
इंस्टिट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़
लैंग्वजिज़ ऐंड कल्चर्ज़ ऑफ़
एशिया ऐंड ऐफ़्रिका
तोक्यो
यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ाॅरेन स्टडीज़
Mellon Project
प्रेमचन्द
गोदान
(Devanagari text reconstituted from Professor K. Machida's roman
transcription)
Chapter Nine.
(unparagraphed text)
प्रात:काल होरी के घर
में एक पूरा हंगामा हो गया।
होरी धनिया को मार रहा था।
धनिया उसे गालियाँ दे रही थी।
दोनों लड़कियाँ बाप के
पाँवों से लिपटी चिल्ला रही थीं औरर
गोबर माँ को बचा रहा था।
बार-बार होरी का
हाथ पकड़कर पीछे ढकेल देता; पर ज्योंही धनिया के मुँह
से कोई गाली निकल जाती, होरी अपने हाथ छुड़ाकर उसे
दो-चार घूँसे
औरर लात जमा देता।
उसका बूढ़ा क्रोध जैसे किसी
गुप्त संचित शक्ति को निकाल लाया हो।
सारे गाँव में हलचल पड़ गयी।
लोग समझाने के बहाने तमाशा
देखने आ पहुँचे।
शोभा लाठी टेकता खड़ा हुआ।
दातादीन ने डाँटा -- यह क्या है होरी, तुम बावले हो गये हो
क्या?
कोई इस तरह घर की लक्ष्मी पर हाथ छोड़ता
है!
तुम्हें यह रोग न था।
क्या हीरा की छूत तुम्हें भी लग
गयी।
होरी ने पालागन करके कहा -- महाराज,
तुम इस बखत न बोलो।
मैं आज इसकी बान छुड़ाकर तब दम
लूँगा।
मैं जितना ही तरह देता
हूँ, उतना ही यह सिर
चढ़ती जाती है।
धनिया सजल क्रोध में बोली
-- महाराज तुम गवाह रहना।
मैं आज इसे औरर इसके
हत्यारे भाई को जेहल भेजवाकर तब पानी
पिऊँगी।
इसके भाई ने गाय को माहुर
खिलाकर मार डाला।
अब जो मैं थाने में
रपट लिखाने जा रही हूँ तो यह हत्यारा
मुझे मारता है।
इसके पीछे अपनी ज़िन्दगी चौपट कर
दी, उसका यह इनाम दे रहा
है।
होरी ने दाँत पीसकर औरर
आँखें निकालकर कहा -- फिर वही बात मुँह से निकाली।
तूने देखा था हीरा को माहुर
खिलाते?
' तू क़सम खा जा कि तूने हीरा
को गाय की नाँद के पास खड़े नहीं
देखा? '
' हाँ,
मैंने नहीं
देखा, क़सम खाता
हूँ। '
' बेटे
के माथे पर हाथ रख के क़सम खा! '
होरी ने गोबर के माथे पर
काँपता हुआ हाथ रखकर काँपते हुए स्वर
में कहा -- मैं
बेटे की क़सम खाता हूँ कि मैंने
हीरा को नाँद के पास नहीं देखा।
धनिया ने ज़मीन पर थूक कर कहा
-- थुड़ी है।
तेरी झुठाई पर।
तूने ख़ुद मुझसे कहा कि हीरा
चोरों की तरह नाँद के पास खड़ा था।
औरर अब भाई के पक्ष में झूठ
बोलता है।
थुड़ी है!
अगर मेरे बेटे का बाल भी
बाँका हुआ, तो घर
में आग लगा दूँगी।
सारी गृहस्थी में आग लगा
दूँगी।
भगवान््, आदमी
मुँह से बात कहकर इतनी बेसरमी से
मुकुर जाता है।
होरी पाँव पटककर बोला -- धनिया,
ग़ुस्सा मत दिखा, नहीं
बुरा होगा।
' मार तो रहा
है, औरर मार ले।
जा, तू
अपने बाप का बेटा होगा तो आज
मुझे मारकर तब पानी पियेगा।
पापी ने मारते-मारते मेरा भुरकस निकाल लिया,
फिर भी इसका जी नहीं भरा।
मुझे मारकर समझता है मैं
बड़ा वीर हूँ।
भाइयों के सामने भीगी बिल्ली
बन जाता है, पापी कहीं
का, हत्यारा! '
फिर वह बैन कहकर रोने लगी
-- इस घर में आकर
उसने क्या नहीं झेला, किस किस तरह पेट-तन नहीं काटा,
किस तरह एक-एक लत्ते
को तरसी, किस तरह
एक-एक पैसा प्राणों की
तरह संचा, किस तरह
घर-भर को खिलाकर आप पानी
पीकर सो रही।
औरर आज उन सारे बलिदानों का यह
पुरस्कार!
भगवान् बैठे यह अन्याय देख
रहे हैं औरर उसकी रक्षा को नहीं
दौड़ते।
गज की औरर द्रौपदी की रक्षा करने
बैकुंठ से दौड़े थे।
आज क्यों नींद में
सोये हुए हैं।
जनमत धीरे-धीरे धनिया की ओर आने लगा।
इसमें अब किसी को सन्देह नहीं
रहा कि हीरा ने ही गाय को ज़हर दिया।
होरी ने बिलकुल झूठी क़सम खाई
है, इसका भी
लोगों को विश्वास हो गया।
गोबर को भी बाप की इस झूठी क़सम
औरर उसके फलस्वरूप आनेवाली विपत्ति की
शंका ने होरी के विरुद्ध कर दिया।
उस पर जो दातादीन ने डाँट
बतायी, तो होरी
परास्त हो गया।
चुपके से बाहर चला गया, सत्य ने विजय पायी।
दातादीन ने शोभा से पूछा
-- तुम कुछ जानते
हो शोभा, क्या बात
हुई?
शोभा ज़मीन पर लेटा हुआ बोला
-- मैं तो
महाराज, आठ दिन से बाहर
नहीं निकला।
होरी दादा कभी-कभी जाकर कुछ दे आते हैं,
उसी से काम चलता है।
रात भी वह मेरे पास गये थे।
किसने क्या किया, मैं कुछ नहीं जानता।
हाँ, कल
साँझ को हीरा मेरे घर खुरपी
माँगने गया था।
कहता था, एक जड़ी
खोदना है।
फिर तब से मेरी उससे भेंट
नहीं हुई।
धनिया इतनी शह पाकर बोली -- पण्डित दादा,
वह उसी का काम है।
सोभा के घर से खुरपी
माँगकर लाया औरर कोई जड़ी खोदकर गाय को
खिला दी।
उस रात को जो झगड़ा हुआ था,
उसी दिन से वह खार खाये
बैठा था।
दातादीन बोले -- यह बात साबित हो गयी, तो उसे हत्या लगेगी।
पुलिस कुछ करे या न करे,
धरम तो बिना दंड दिये
न रहेगा।
चली तो जा रुपिया, हीरा को बुला ला।
कहना, पण्डित दादा
बुला रहे हैं।
अगर उसने हत्या नहीं की है, तो गंगाजली उठा ले औरर
चौरे पर चढ़कर क़सम खाय।
धनिया बोली -- महाराज, उसके
क़सम का भरोसा नहीं।
चटपट खा लेगा।
जब इसने झूठी क़सम खा ली, जो बड़ा धर्मात्मा बनता
है, तो हीरा का क्या
विश्वास।
अब गोबर बोला -- खा ले झूठी क़सम।
बंस का अन्त हो जाय।
बूढ़े जीते रहें।
जवान जीकर क्या करेंगे!
रूपा एक क्षण में आकर बोली
-- काका घर में नहीं
है, पण्डित दादा!
काकी कहती हैं, कहीं चले गये हैं।
दातादीन ने लम्बी दाढ़ी फटकारकर कहा -- तूने पूछा नहीं,
कहाँ चले गये
किया?
घर में छिपा बैठा न हो।
देख तो सोना, भीतर तो नहीं बैठा है।
धनिया ने टोका -- उसे मत भेजो दादा!
हीरा के सिर हत्या सवार है, न जाने क्या कर बैठे।
दातादीन ने ख़ुद लकड़ी सँभाली औरर
ख़बर लाये कि हीरा सचमुच कहीं चला गया है।
पुनिया कहती है लुटिया-डोर औरर डंडा सब लेकर
गये हैं।
पुनिया ने पूछा भी, कहाँ जाते हो; पर बताया नहीं।
उसने पाँच रुपए आले में
रखे थे।
रुपए वहाँ नहीं हैं।
साइत रुपए भी लेता गया।
धनिया शीतल हृदय से बोली
-- मुँह में
कालिख लगाकर कहीं भागा होगा।
शोभा बोला -- भाग के कहाँ जायगा।
गंगा नहाने न चला गया हो।
धनिया ने शंका की -- गंगा जाता तो रुपए क्यों ले
जाता, औरर आजकल कोई
परब भी तो नहीं है?
इस शंका का कोई समाधान न मिला।
धारणा दृढ़ हो गयी।
आज होरी के घर भोजन नहीं पका।
न किसी ने बैलों को
सानी-पानी दिया।
सारे गाँव में सनसनी फैली
हुई थी।
दो-दो
चार-चार आदमी जगह-जगह जमा होकर इसी विषय की
आलोचना कर रहे थे।
हीरा अवश्य कहीं भाग गया।
देखा होगा कि भेद खुल
गया, अब जेहल जाना
पड़ेगा, हत्या अलग
लगेगी।
बस, कहीं भाग
गया।
पुनिया अलग रो रही थी, कुछ कहा न सुना, न जाने कहाँ चल दिये।
जो कुछ कसर रह गयी थी वह
सन्ध्या-समय हलके के
थानेदार ने आकर पूरी कर दी।
गाँव के चौकीदार ने इस घटना की
रपट की, जैसा उसका
कर्तव्य था।
औरर थानेदार साहब भला अपने
कर्तव्य से कब चूकनेवाले थे।
अब गाँववालों को भी उनकी
सेवा-सत्कार करके
अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।
दातादीन,
झिंगुरीसिंह,
नोखेराम, उनके
चारों प्यादे,
मँगरू साह औरर लाला पटेश्वरी, सभी आ पहुँचे औरर
दारोग़ाजी के सामने हाथ बाँधकर खड़े
हो गये।
होरी की तलबी हुई।
जीवन में यह पहला अवसर था कि वह
दारोग़ा के सामने आया।
ऐसा डर रहा था,
जैसे फाँसी हो जायेगी।
धनिया को पीटते समय उसका एक-एक अंग फड़क रहा था।
दारोग़ा के सामने कछुए की
भाँति भीतर सिमटा जाता था।
दारोग़ा ने उसे आलोचक
नेत्रों से देखा औरर उसके हृदय
तक पहुँच गये।
आदमियों की नस पहचानने का
उन्हें अच्छा अभ्यास था।
किताबी मनोविज्ञान में
कोरे, पर व्यावहारिक
मनोविज्ञान के मर्मज्ञ थे।
यक़ीन हो गया,
आज अच्छे का मुँह देखकर उठे हैं।
औरर होरी का चेहरा कहे देता
था, इसे केवल एक
घुड़की काफ़ी है।
दारोग़ा ने पूछा -- तुझे किस पर शुबहा है?
होरी ने ज़मीन छुई औरर हाथ
बाँधकर बोला --
मेरा सुबहा किसी पर नहीं है सरकार, गाय अपनी मौत से मरी है।
बुड्ढी हो गयी थी।
धनिया भी आकर पीछे खड़ी थी।
तुरन्त बोली -- गाय मारी है तुम्हारे भाई हीरा ने।
सरकार ऐसे बौड़म नहीं
हैं कि जो कुछ तुम कह दोगे,
वह मान लेंगे।
यहाँ जाँच-तहक़िक़ात करने आये हैं।
दारोग़ाजी ने पूछा -- यह कौन औररत है?
कई आदमियों ने दारोग़ाजी से
कुछ बातचीत करने का सौभाग्य प्राप्त करने के
लिए चढ़ा-ऊपरी की।
एक साथ बोले औरर अपने मन
को इस कल्पना से सन्तोष दिया कि पहले
मैं बोला --
होरी की घरवाली है सरकार!
' तो इसे
बुलाओ, मैं
पहले इसी का बयान लिखूँगा।
वह कहाँ है हीरा? '
विशिष्ट जनों ने एक स्वर से
कहा -- वह तो आज
सबेरे से कहीं चला गया है सरकार!
' मैं
उसके घर की तलाशी लूँगा। '
तलाशी!
होरी की साँस तले-ऊपर होने लगी।
उसके भाई हीरा के घर की तलाशी होगी
औरर हीरा घर में नहीं है।
औरर फिर होरी के जीते-जी,
उसके देखते यह तलाशी न होने
पायेगी; औरर धनिया
से अब उसका कोई सम्बन्ध नहीं।
जहाँ चाहे जाय।
जब वह उसकी इज़्ज़त बिगाड़ने पर आ गयी
है, तो उसके घर
में कैसे रह सकती है।
जब गली-गली
ठोकर खायेगी, तब पता
चलेगा।
गाँव के विशिष्ट जनों ने
इस महान संकट को टालने के लिए
काना-फूसी शुरू की।
दातादीन ने गंजा सिर हिलाकर कहा
-- यह सब कमाने के
ढंग हैं।
पूछो, हीरा
के घर में क्या रखा है।
पटेश्वरीलाल बहुत लम्बे
थे; पर लम्बे होकर
भी बेवक़ूफ़ न थे।
अपना लम्बा काला मुँह औरर लम्बा
करके बोले --
औरर यहाँ आया है किस लिए, औरर जब आया है बिना कुछ
लिये-दिये गया कब
है?
झिंगुरीसिंह ने होरी को
बुलाकर कान में कहा -- निकालो जो कुछ देना हो।
यों गला न छूटेगा।
दारोग़ाजी ने अब ज़रा गरजकर कहा
-- मैं हीरा के घर की
तलाशी लूँगा।
होरी के मुख का रंग ऐसा उड़
गया था, जैसे देह
का सारा रक्त सूख गया हो।
तलाशी उसके घर हुई तो, उसके भाई के घर हुई
तो, एक ही बात है।
हीरा अलग सही; पर
दुनिया तो जानती है, वह उसका भाई है;
मगर इस वक़्त उसका कुछ बस नहीं।
उसके पास रुपए होते, तो इसी वक़्त पचास रुपए लाकर
दारोग़ाजी के चरणों पर रख देता औरर
कहता -- सरकार, मेरी इज़्ज़त अब आपके हाथ है।
मगर उसके पास तो ज़हर खाने को
भी एक पैसा नहीं है।
धनिया के पास चाहे दो-चार रुपए पड़े हों; पर वह चुड़ैल भला क्यों
देने लगी।
मृत्यु-दंड पाये हुए आदमी की भाँति सिर
झुकाये, अपने
अपमान की वेदना का तीव्र अनुभव करता हुआ
चुपचाप खड़ा रहा।
दातादीन ने होरी को सचेत किया
-- अब इस तरह खड़े रहने
से काम न चलेगा होरी, रुपए की कोई जुगत करे।
होरी दीन स्वर में बोला
-- अब मैं क्या अरज
करूँ महाराज!
अभी तो पहले ही की गठरी सिर पर लदी
है; औरर किस
मुँह से मागूँ; लेकिन इस संकट से उबार लो।
जीता रहा, तो
कौड़ी-कौड़ी चुका
दूँगा।
मैं मर भी जाऊँ तो गोबर
तो है ही।
नेताओं में सलाह
होने लगी।
दारोग़ाजी को क्या भेंट किया जाय।
दातादीन ने पचास का प्रस्ताव किया।
झिंगुरीसिंह के अनुमान
में सौ से कम पर सौदा न होगा।
नोखेराम भी सौ के पक्ष
में थे।
औरर होरी के लिए सौ औरर
पचास में कोई अन्तर न था।
इस तलाशी का संकट उसके सिर से टल
जाय।
पूजा चाहे कितनी ही चढ़ानी पड़े।
मरे को मन-भर लकड़ी से जलाओ, या दस मन से;
उसे क्या चिन्ता!
मगर पटेश्वरी से यह अन्याय न देखा
गया।
कोई डाका या क़तल तो हुआ नहीं।
केवल तलाशी हो रही है।
इसके लिए बीस रुपए बहुत हैं।
नेताओं ने धिक्कारा -- तो फिर दारोग़ाजी से बातचीत
करना।
हम लोग नगीच न जायेंगे।
कौन घुड़कियाँ खाय।
होरी ने पटेश्वरी के पाँव
पर अपना सिर रख दिया --
भैया, मेरा उद्धार
करो।
जब तक जिऊँगा, तुम्हारी ताबेदारी करूँगा।
दारोग़ाजी ने फिर अपने विशाल वक्ष
औरर विशालतर उदर की पूरी शक्ति से कहा -- कहाँ है हीरा का घर?
मैं उसके घर की तलाशी
लूँगा।
पटेश्वरी ने आगे बढ़कर
दारोग़ाजी के कान में कहा -- तलासी लेकर क्या करोगे
हुज़ूर, उसका भाई आपकी
ताबेदारी के लिए हाज़िर है।
दोनों आदमी ज़रा अलग जाकर
बातें करने लगे।
' कैसा आदमी
है? '
' बहुत ही
ग़रीब हुज़ूर!
भोजन का ठिकाना भी नहीं! '
' सच? '
' हाँ,
हुज़ूर, ईमान से कहता हूँ। '
' अरे तो
क्या एक पचासे का डौल भी नहीं है? '
' कहाँ की बात
हुज़ूर!
दस मिल जायँ,
तो हज़ार समझिए।
पचास तो पचास जनम में भी
मुमकिन नहीं औरर वह भी जब कोई महाजन खड़ा
हो जायगा! '
दारोग़ाजी ने एक मिनट तक विचार करके
कहा -- तो फिर उसे
सताने से क्या फ़ायदा।
मैं ऐसों को नहीं
सताता, जो आप ही मर
रहे हों।
पटेश्वरी ने देखा, निशाना औरर आगे जा पड़ा।
बोले --
नहीं हुज़ूर,
ऐसा न कीजिए, नहीं फिर
हम कहाँ जायँगे।
हमारे पास दूसरी औरर
कौन-सी खेती
है?
' तुम
इलाक़े के पटवारी हो जी, कैसी बातें करते
हो? '
' जब ऐसा ही
कोई अवसर आ जाता है,
तो आपकी बदौलत हम भी कुछ पा जाते
हैं।
नहीं पटवारी को कौन पूछता
है। '
' अच्छा
जाओ, तीस रुपए दिलवा
दो; बीस रुपए
हमारे, दस रुपए
तुम्हारे। '
' चार मुखिया
हैं, इसका ख़्याल
कीजिए। '
' अच्छा
आधे-आधे पर
रखो, जल्दी करो।
मुझे देर हो रही है। '
पटेश्वरी ने झिंगुरी से
कहा, झिंगुरी ने
होरी को इशारे से बुलाया, अपने घर ले गये, तीस रुपए गिनकर उसके हवाले
किये औरर एहसान से दबाते हुए
बोले -- आज ही कागद
लिखा लेना।
तुम्हारा मुँह देखकर रुपए दे रहा
हूँ, तुम्हारी
भलमंसी पर।
होरी ने रुपए लिये औरर
अँगोछे के कोर में बाँधे
प्रसन्न मुख आकर दारोग़ाजी की ओर चला।
सहसा धनिया झपटकर आगे आयी औरर
अँगोछी एक झटके के साथ उसके हाथ से
छीन ली।
गाँठ पक्की न थी।
झटका पाते ही खुल गयी औरर सारे
रुपए ज़मीन पर बिखर गये।
नागिन की तरह फुँकारकर बोली
-- ये रुपए कहाँ लिये
जा रहा है, बता।
भला चाहता है,
तो सब रुपए लौटा दे, नहीं कहे देती हूँ।
घर के परानी रात-दिन मरें औरर दाने-दाने को तरसें, लत्ता भी पहनने को मयस्सर न
हो औरर अँजुली-भर रुपए लेकर चला है इज़्ज़त
बचाने!
ऐसी बड़ी है तेरी इज़्ज़त!
जिसके घर में चूहे
लोटें, वह भी
इज़्ज़तवाला है!
दारोग़ा तलासी ही तो लेगा।
ले-ले
जहाँ चाहे तलासी।
एक तो सौ रुपए की गाय गयी, उस पर यह पलेथन!
वाह री तेरी इज़्ज़त!
होरी ख़ून का घूँट पीकर रह गया।
सारा समूह जैसे थर्रा उठा।
नेताओं के सिर झुक
गये।
दारोग़ा का मुँह ज़रा-सा निकल आया।
अपने जीवन में उसे ऐसी
लताड़ न मिली थी।
होरी स्तम्भित-सा खड़ा रहा।
जीवन में आज पहली बार धनिया ने
उसे भरे अखाड़े में पटकनी दी, आकाश तका दिया।
अब वह कैसे सिर उठाये!
मगर दारोग़ाजी इतनी जल्दी हार
माननेवाले न थे।
खिसियाकर बोले -- मुझे ऐसा मालूम होता
है, कि इस शैतान की
ख़ाला ने हीरा को फँसाने के लिए ख़ुद
गाय को ज़हर दे दिया।
धनिया हाथ मटकाकर बोली -- हाँ, दे
दिया।
अपनी गाय थी, मार
डाली, फिर किसी दूसरे का
जानवर तो नहीं मारा?
तुम्हारे तहक़ीक़ात में यही निकलता
है, तो यही लिखो।
पहना दो मेरे हाथ में
हथकड़ियाँ।
देख लिया तुम्हारा न्याय औरर
तुम्हारे अक्कल की दौड़।
ग़रीबों का गला काटना दूसरी बात
है।
दूध का दूध औरर पानी का पानी करना
दूसरी बात।
होरी आँखों से
अँगारे बरसाता धनिया की ओर लपका; पर गोबर सामने आकर खड़ा हो
गया औरर उग्र भाव से बोला -- अच्छा दादा,
अब बहुत हुआ।
पीछे हट जाओ, नहीं मैं कहे देता
हूँ, मेरा
मुँह न देखोगे।
तुम्हारे ऊपर हाथ न उठाऊँगा।
ऐसा कपूत नहीं हूँ।
यहीं गले में फाँसी लगा
लूँगा।
होरी पीछे हट गया औरर धनिया शेर
होकर बोली -- तू हट
जा गोबर,
देखूँ तो क्या करता है मेरा।
दारोग़ाजी बैठे हैं।
इसकी हिम्मत देखूँ।
घर में तलाशी होने से इसकी
इज़्ज़त जाती है।
अपनी मेहरिया को सारे गाँव
के सामने लतियाने से इसकी इज़्ज़त नहीं
जाती!
यही तो बीरों का धरम है।
बड़ा बीर है,
तो किसी मर्द से लड़।
जिसकी बाँह पकड़कर लाया, उसे मारकर बहादुर न कहलायेगा।
तू समझता होगा, मैं इसे रोटी कपड़ा देता
हूँ।
आज से अपना घर सँभाल।
देख तो इसी गाँव में
तेरी छाती पर मूँग दलकर रहती हूँ कि
नहीं, औरर उससे
अच्छा खाऊँ-पहनूँगी।
इच्छा हो,
देख ले।
होरी परास्त हो गया।
उसे ज्ञात हुआ, स्त्री के सामने पुरुष कितना
निर्बल, कितना निरुपाय
है।
नेताओं ने रुपए चुनकर उठा
लिये थे औरर दारोग़ाजी को वहाँ
से चलने का इशारा कर रहे थे।
धनिया ने एक ठोकर औरर जमायी
-- जिसके रुपए
हों, ले जाकर
उसे दे दो।
हमें किसी से उधार नहीं लेना
है।
औरर जो देना है, तो उसी से लेना।
मैं दमड़ी भी न दूँगी, चाहे मुझे हाकिम के
इजलास तक ही चढ़ना पड़े।
हम बाक़ी चुकाने को पचीस रुपए
माँगते थे, किसी
ने न दिया।
आज अँजुली-भर रुपये ठनाठन निकाल के दिये।
मैं सब जानती हूँ।
यहाँ तो बाँट-बखरा होनेवाला था, सभी के मुँह मीठे होते।
ये हत्यारे गाँव के मुखिया
हैं, ग़रीबों का
ख़ून चूसनेवाले!
सूद-ब्याज
डेढ़ी-सवाई, नज़र-नज़राना,
घूस-घास जैसे भी
हो, ग़रीबों
को लूटो।
उस पर सुराज चाहिए।
जेल जाने से सुराज न
मिलेगा।
सुराज मिलेगा धरम से, न्याय से।
नेताओं के मुँह
में कालिख-सी लगी
हुई थी।
दारोग़ाजी के मुँह पर
झाड़-सी फिरी हुई थी।
इज़्ज़त बचाने के लिए हीरा के घर की
ओर चले।
रास्ते में दारोग़ा ने स्वीकार
किया -- औररत है बड़ी
दिलेर!
पटेश्वरी बोले -- दिलेर है हुज़ूर, कर्कशा है।
ऐसी औररत को तो गोली मार
दे।
' तुम
लोगों का क़ाफ़यिा तंग कर दिया उसने।
चार-चार तो
मिलते ही। '
' हुज़ूर
के भी तो पन्द्रह रुपए गये। '
' मेरे
कहाँ जा सकते हैं।
वह न देगा,
गाँव के मुखिया देंगे औरर
पन्द्रह रुपये की जगह पूरे पचास रुपए।
आप लोग चटपट इन्तज़ाम कीजिए। '
पटेश्वरीलाल ने हँसकर कहा
-- हुज़ूर बड़े
दिल्लगीबाज़ हैं।
दातादीन बोले-बड़े आदमियों के यही लक्षण
हैं।
ऐसे भाग्यवानों के
दर्शन कहाँ होते हैं।
दारोग़ाजी ने कठोर स्वर में
कहा -- यह ख़ुशामद फिर
कीजिएगा।
इस वक़्त तो मुझे पचास रुपए
दिलवाइए, नक़द; औरर यह समझ लो कि आनाकानी
की, तो मैं
तुम चारों के घर की तलाशी लूँगा।
बहुत मुमकिन है कि तुमने
हीरा औरर होरी को फँसाकर उनसे
सौ-पचास
ऐंठने के लिए यह पाखंड रचा हो।
नेतागण अभी तक यही समझ रहे
हैं, दारोग़ाजी
विनोद कर रहे हैं।
झिंगुरीसिंह ने
आँखें मारकर कहा --
निकालो पचास रुपए पटवारी साहब!
नोखेराम ने उनका समर्थन किया
-- पटवारी साहब का इलाक़ा है।
उन्हें ज़रूर आपकी ख़ातिर करनी चाहिए।
पण्डित नोखेरामजी की चौपाल आ
गयी।
दारोग़ाजी एक चारपाई पर बैठ गये
औरर बोले --
तुम लोगों ने क्या निश्चय
किया?
रुपए निकालते हो या तलाशी करवाते
हो?
दातादीन ने आपत्ति की -- मगर हुज़ूर । । ।
' मैं
अगर-मगर कुछ नहीं
सुनना चाहता। '
झिंगुरीसिंह ने साहस किया
-- सरकार यह तो सरासर । । ।
' मैं
पन्द्रह मिनट का समय देता हूँ।
अगर इतनी देर में पूरे पचास
रुपए न आये, तो
तुम चारों के घर की तलाशी होगी।
औरर गंडासिंह को जानते
हो।
उसका मारा पानी भी नहीं माँगता। '
पटेश्वरीलाल ने तेज़ स्वर से
कहा -- आपको अख़्तियार
है, तलाशी ले
लें।
यह अच्छी दिल्लगी है, काम कौन करे, पकड़ा कौन जाय।
' मैंने पचीस साल थानेदारी की
है जानते हो?
'
' लेकिन
ऐसा अँधेर तो कभी नहीं हुआ। '
' तुमने
अभी अँधेर नहीं देखा।
कहो तो वह भी दिखा दूँ।
एक-एक को
पाँच-पाँच साल के
लिए भेजवा दूँ।
यह मेरे बायें हाथ का खेल
है।
डाके में सारे गाँव को
काले पानी भेजवा सकता हूँ।
इस धोखे में न रहना! '
चारों सज्जन चौपाल के अन्दर जाकर
विचार करने लगे।
फिर क्या हुआ किसी को मालूम
नहीं, हाँ, दारोग़ाजी प्रसन्न दिखायी दे
रहे थे।
औरर चारों सज्जनों के
मुँह पर फटकार बरस रही थी।
दारोग़ाजी घोड़े पर सवार होकर
चले, तो
चारों नेता दौड़ रहे थे।
घोड़ा दूर निकल गया तो
चारों सज्जन लौटे; इस तरह मानो किसी प्रियजन का संस्कार
करके श्मशान से लौट रहे हों।
सहसा दातादीन बोले -- मेरा सराप न पड़े तो मुँह न
दिखाऊँ।
नोखेराम ने समर्थन किया
-- ऐसा धन कभी फलते
नहीं देखा।
पटेश्वरी ने भविष्यवाणी की
-- हराम की कमाई हराम में
जायगी।
झिंगुरीसिंह को आज ईश्वर की
न्यायपरता में सन्देह हो गया था।
भगवान् न जाने कहाँ हैं कि
यह अँधेर देखकर भी पापियों को
दंड नहीं देते।
इस वक़्त इन सज्जनों की तस्वीर
खींचने लायक़ थी।
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Recoded: 20 Sept. 1999 to 6 Oct 1999.
Chapter Nine posted: 13 Oct. 1999.