यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
इन्स्टिट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़
लैंग्वजिज़ ऐंड कल्चर्ज़ ऑफ़
एशिया ऐंड ऐफ़्रिका
तोक्यो
यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ाॅरेन स्टडीज़
Mellon Project
प्रेमचन्द
गोदान
(Devanagari text reconstituted from Professor K. Machida's roman
transcription)
Chapter Nineteen.
(unparagraphed text)
मिरज़ा खुर्शेद का हाता
क्लब भी है, कचहरी भी,
अखाड़ा भी।
दिन भर जमघट लगा रहता है।
मुहल्ले में अखाड़े के लिए
कहीं जगह नहीं मिलती थी।
मिरज़ा ने एक छप्पर डलवाकर अखाड़ा बनावा दिया
है; वहाँ नित्य
सौ-पचास लड़न्तिये आ
जुटते हैं।
मिरज़ाजी भी उनके साथ ज़ोर करते
हैं।
मुहल्ले की पंचायतें भी
यहीं होती हैं।
मियाँ-बीबी
औरर सास-बहू औरर
भाई-भाई के
झगड़े-टंटे यहीं
चुकाये जाते हैं।
मुहल्ले के सामाजिक जीवन का यही
केन्द्र है औरर राजनीतिक आन्दोलन का भी।
आये दिन सभाएँ होती रहती
हैं।
यहीं स्वयंसेवक टिकते
हैं, यहीं उनके
प्रोग्राम बनते हैं, यहीं से नगर का राजनीतिक संचालन
होता है।
पिछले जलसे में मालती
नगर-काँग्रेस-कमेटी की सभानेत्री चुन ली गयी है।
तब से इस स्थान की रौनक़ औरर भी बढ़
गयी है।
गोबर को यहाँ रहते साल भर
हो गया।
अब वह सीधा-साधा
ग्रामीण युवक नहीं है।
उसने बहुत कुछ दुनिया देख
ली औरर संसार का रंग-ढंग भी कुछ-कुछ समझने लगा है।
मूल में वह अब भी देहाती
है, पैसे को
दाँत से पकड़ता है,
स्वार्थ को कभी नहीं छोड़ता, औरर परिश्रम से जी नहीं
चुराता, न कभी हिम्मत हारता
है; लेकिन शहर की हवा
उसे भी लग गयी है।
उसने पहले महीने तो केवल
मजूरी की ओर आधा पेट खाकर थोड़े से
रुपए बचा लिये।
फिर वह कचालू औरर मटर औरर
दही-बड़े के
खोंचे लगाने लगा।
इधर ज़्यादा लाभ देखा, तो नौकरी छोड़ दी।
गर्मियों में शर्बत
औरर बरफ़ की दूकान भी खोल दी।
लेन-देन
में खरा था इसलिए उसकी साख जम गयी।
जाड़े आये,
तो उसने शर्बत की दूकान उठा दी औरर
गर्म चाय पिलाने लगा।
अब उसकी रोज़ाना आमदनी ढाई-तीन रुपए से कम नहीं।
उसने अँग्रेज़ी फ़ैशन के
बाल कटवा लिए हैं,
महीन धोती औरर पम्प-शू पहनता है, एक लाल ऊनी चादर ख़रीद ली औरर पान सिगरेट
का शौक़ीन हो गया है।
सभाओं में आने-जाने से उसे
कुछ-कुछ राजनीतिक ज्ञान भी
हो चला है।
राष्ट्र औरर वर्ग का अर्थ
समझने लगा है।
सामाजिक रूढ़ियों की प्रतिष्ठा औरर
लोक-निन्दा का भय अब
उसमें बहुत कम रह गया है।
आये दिन की पंचायतों ने
उसे निस्संकोच बना दिया है।
जिस बात के पीछे वह यहाँ घर से
दूर, मुँह
छिपाये पड़ा हुआ है,
उसी तरह की, बल्कि उससे भी
कहीं निन्दास्पद बातें यहाँ नित्य हुआ करती
हैं, औरर कोई
भागता नहीं।
फिर वही क्यों इतना डरे औरर
मुँह चुराये!
इतने दिनों में उसने एक
पैसा भी घर नहीं भेजा।
वह माता-पिता
को रुपए-पैसे के
मामले में इतना चतुर नहीं समझता।
वे लोग तो रुपए पाते ही आकाश
में उड़ने लगेंगे।
दादा को तुरन्त गया करने की औरर
अम्माँ को गहने बनवाने की धुन सवार
हो जायगी।
ऐसे व्यर्थ के कामों
के लिए उसके पास रुपए नहीं हैं।
अब वह छोटा-मोटा महाजन है।
पड़ोस के एक्केवालों
गाड़ीवानों औरर धोबियों को
सूद पर रुपए उधार देता है।
इस दस-ग्यारह
महीने में ही उसने अपनी मेहनत औरर
किफ़ायत औरर पुरुषार्थ से अपना स्थान बना
लिया है औरर अब झुनिया को यहीं लाकर
रखने की बात सोच रहा है।
तीसरे पहर का समय है।
वह सड़क के नल पर नहाकर आया है औरर
शाम के लिए आलू उबाल रहा है कि मिरज़ा
खुर्शेद आकर द्वार पर खड़े हो गये।
गोबर अब उनका नौकर नहीं
है; पर अदब उसी तरह करता
है औरर उनके लिए जान देने को
तैयार रहता है।
द्वार पर जाकर पूछा -- क्या हुक्म है सरकार?
मिरज़ा ने खड़े-खड़े कहा --
तुम्हारे पास कुछ रुपए हों, तो दे दो।
आज तीन दिन से बोतल ख़ाली पड़ी हुई
है, जी बहुत
बेचैन हो रहा है।
गोबर ने इसके पहले भी
दो-तीन बार मिरज़ाजी
को रुपए दिये थे;
पर अब तक वसूल न कर सका था।
तक़ाज़ा करते डरता था औरर मिरज़ाजी रुपए
लेकर देना न जानते थे।
उनके हाथ में रुपए टिकते ही न
थे।
इधर आये उधर ग़ायब।
यह तो न कह सका, मैं रुपए न दूँगा या मेरे
पास रुपए नहीं हैं,
शराब की निन्दा करने लगा --
आप इसे छोड़ क्यों नहीं देते
सरकार?
क्या इसके पीने से कुछ फ़ायदा
होता है?
मिरज़ाजी ने कोठरी के अन्दर खाट पर
बैठते हुए कहा --
तुम समझते हो,
मैं छोड़ना नहीं चाहता औरर शौक़
से पीता हूँ।
मैं इसके बग़ैर ज़िन्दा नहीं रह
सकता।
तुम अपने रुपए के लिए न
डरो, मैं
एक-एक कौड़ी अदा कर
दूँगा।
गोबर अविचलित रहा -- मैं सच कहता हूँ मालिक!
मेरे पास इस समय रुपए होते
तो आपसे इनकार करता?
' दो रुपए भी
नहीं दे सकते?
'
' इस समय तो
नहीं हैं। '
' मेरी
अँगूठी गिरो रख लो। '
गोबर का मन ललचा उठा; मगर बात कैसे बदले।
बोला -- यह
आप क्या कहते हैं मालिक, रुपए होते तो आपको दे
देता, अँगूठी की
कौन बात थी?
मिरज़ा ने अपने स्वर में बड़ा दीन
आग्रह भरकर कहा --
मैं फिर तुमसे कभी न माँगूँगा
गोबर!
मुझसे
खड़ा नहीं हुआ जा रहा है।
इस शराब की बदौलत मैंने
लाखों की हैसियत बिगाड़ दी औरर भिखारी
हो गया।
अब मुझे भी ज़िद पड़ गयी है कि
चाहे भीख ही माँगनी पड़े, इसे छोड़ूँगा नहीं।
जब गोबर ने अबकी बार इनकार किया,
तो मिरज़ा साहब निराश होकर
चले गये।
शहर में उनके हज़ारों
मिलने वाले थे।
कितने ही उनकी बदौलत बन गये
थे।
कितनों ही को गाढ़े समय पर मदद
की थी; पर ऐसे से
वह मिलना भी न पसन्द करते थे।
उन्हें ऐसे हज़ारों
लटके मालूम थे,
जिससे वह समय-समय पर
रुपयों के ढेर लगा देते थे;
पर पैसे की उनकी निगाह
में कोई क़द्र न थी।
उनके हाथ में रुपए जैसे
काटते थे।
किसी न किसी बहाने उड़ाकर ही उनका चित्त
शान्त होता था।
गोबर आलू छीलने लगा।
साल-भर के अन्दर
ही वह इतना काइयाँ हो गया था औरर पैसा
जोड़ने में इतना कुशल कि अचरज होता
था।
जिस कोठरी में वह रहता है,
वह मिरज़ा साहब ने दी है।
इस कोठरी औरर बरामदे का किराया बड़ी
आसानी से पाँच रुपया मिल सकता है।
गोबर लगभग साल भर से उसमें
रहता है; लेकिन मिरज़ा
ने न कभी किराया माँगा न उसने दिया।
उन्हें शायद ख़याल भी न था कि इस
कोठरी का कुछ किराया भी मिल सकता है।
थोड़ी देर में एक इक्केवाला
रुपये माँगने आया।
अलादीन नाम था,
सिर घुटा हुआ, खिचड़ी
डाढ़ी, औरर काना।
उसकी लड़की बिदा हो रही थी।
पाँच रुपए की उसे बड़ी ज़रूरत थी।
गोबर ने एक आना रुपया सूद पर रुपए
दे दिये।
अलादीन ने धन्यवाद देते हुए कहा
-- भैया, अब बाल-बच्चों को बुला लो।
कब तक हाथ से ठोकते रहोगे।
गोबर ने शहर के ख़र्च का
रोना रोया -- थोड़ी
आमदनी में गृहस्थी कैसे
चलेगी?
अलादीन बीड़ी जलाता हुआ बोला
-- ख़रच अल्लाह देगा
भैया!
सोचो,
कितना आराम मिलेगा।
मैं तो कहता हूँ, जितना तुम अकेले ख़रच
करते हो, उसी
में गृहस्थी चल जायगी।
औररत के हाथ में बड़ी बरक्कत
होती है।
ख़ुदा क़सम, जब
मैं अकेला यहाँ रहता था, तो चाहे कितना ही कमाऊँ खा-पी सब बराबर।
बीड़ी-तमाखू
को भी पैसा न रहता।
उस पर हैरानी।
थके-माँदे आओ, तो घोड़े को खिलाओ औरर
टहलाओ।
फिर नानबाई की दूकान पर दौड़ो।
नाक में दम आ गया।
जब से घरवाली आ गयी है, उसी कमाई में उसकी
रोटियाँ भी निकल आती हैं औरर आराम भी
मिलता है।
आख़िर आदमी आराम के लिए ही तो कमाता
है।
जब जान खपाकर भी आराम न मिला, तो ज़िन्दगी ही ग़ारत हो गयी।
मैं तो कहता हूँ, तुम्हारी कमाई बढ़ जायगी
भैया!
जितनी देर में आलू औरर मटर
उबालते हो, उतनी
देर में दो-चार
प्याले चाय बेच लोगे।
अब चाय बारहों मास चलती है!
रात को लेटोगे तो घरवाली
पाँव दबायेगी।
सारी थकान मिट जायगी।
यह बात गोबर के मन में
बैठ गयी।
जी उचाट हो गया।
अब तो वह झुनिया को लाकर ही
रहेगा।
आलू चूल्हे पर चढ़े रह
गये, औरर उसने घर
चलने की तैयारी कर दी;
मगर याद आया कि होली आ रही है; इसलिए होली का सामान भी लेता चले।
कृपण लोगों में
उत्सवों पर दिल खोलकर ख़र्च करने की
जो एक प्रवृत्ति होती है, वह उसमें भी सजग हो गयी।
आख़िर इसी दिन के लिए तो
कौड़ी-कौड़ी जोड़ रहा
था।
वह माँ,
बहनों औरर झुनिया के लिए एक-एक जोड़ी साड़ी ले जायगा।
होरी के लिए एक धोती औरर एक चादर।
सोना के लिए तेल की शीशी ले
जायगा, औरर एक जोड़ा
चप्पल।
रूपा के लिए जापानी चूड़ियाँ औरर
झुनिया के लिए एक पिटारी, जिसमें तेल, सिन्दूर औरर आईना होगा।
बच्चे के लिए टोप औरर फ़्र:ाक
जो बाज़ार में बना बनाया मिलता है।
उसने रुपए निकाले औरर बाज़ार चला।
दोपहर तक सारी चीज़ें आ गयीं।
बिस्तर भी बँध गया, मुहल्लेवालों को ख़बर हो
गयी, गोबर घर जा रहा
है।
कई मर्द-औररतें उसे बिदा करने
आये।
गोबर ने उन्हें अपना घर
सौंपते हुए कहा -- तुम्हीं लोगों पर
छोड़े जाता हूँ।
भगवान् ने चाहा तो होली
के दूसरे दिन लौटूँगा।
एक युवती ने मुस्कराकर कहा -- मेहरिया को बिना लिये न
आना, नहीं घर में
न घुसने पाओगे।
दूसरी प्रौढ़ा ने शिक्षा दी -- हाँ,
औरर क्या, बहुत
दिनों तक चूल्हा फूँक चुके।
ठिकाने से रोटी तो
मिलेगी!
गोबर ने सबको राम-राम किया।
हिन्दू भी थे, मुसलमान भी थे, सभी में मित्रभाव था, सब एक-दूसरे
के दु:ख-दर्द के
साथी।
रोज़ा रखनेवाले रोज़ा रखते
थे।
एकादशी रखनेवाले एकादशी।
कभी-कभी
विनोद-भाव से
एक-दूसरे पर
छींटे भी उड़ा लेते थे।
गोबर अलादीन की नमाज़ को उठा-बैठी कहता, अलादीन पीपल के नीचे स्थापित
सैकड़ों छोटे-बड़े शिवलिंग को बटखरे
बनाता; लेकिन साम्प्रदायिक
द्वेष का नाम भी न था।
गोबर घर जा रहा है।
सब उसे हँसी-ख़ुशी बिदा करना चाहते हैं।
इतने में भूरे एक्का लेकर
आ गया।
अभी दिन-भर का धावा
मारकर आया था।
ख़बर मिली,
गोबर घर जा रहा है।
वैसे ही एक्का इधर फेर दिया।
घोड़े ने आपत्ति की।
उसे कई चाबुक लगाये।
गोबर ने एक्के पर सामान रखा,
एक्का बढ़ा, पहुँचाने वाले गली के
मोड़ तक पहुँचाने आये, तब गोबर ने सबको
राम-राम किया औरर एक्के
पर बैठ गया।
सड़क पर एक्का सरपट दौड़ा जा रहा था।
गोबर घर जाने की ख़ुशी में
मस्त था।
भूरे उसे घर पहुँचाने की
ख़ुशी में मस्त था।
औरर घोड़ा था पानीदार, घोड़ा चला जा रहा था।
बात की बात में स्टेशन आ गया।
गोबर ने प्रसन्न होकर एक रुपया
कमरे से निकाल कर भूरे की तरफ़ बढ़ाकर कहा
-- लो, घरवाली के लिए मिठाई लेते जाना।
भूरे ने कृतज्ञता-भरे तिरस्कार से उसकी ओर
देखा -- तुम
मुझे ग़ैर समझते हो भैया!
एक दिन ज़रा एक्के पर बैठ गये तो
मैं तुमसे इनाम लूँगा।
जहाँ तुम्हारा पसीना गिरे, वहाँ ख़ून गिराने को
तैयार हूँ।
इतना छोटा दिल नहीं पाया है।
औरर ले भी लूँ, तो घरवाली मुझे जीता
छोड़ेगी?
गोबर ने फिर कुछ न कहा।
लज्जित होकर अपना असबाब उतारा औरर टिकट
लेने चल दिया।
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Recoded: 20 Sept. 1999 to 6 Oct 1999.
Chapter Nineteen posted: 13 Oct. 1999.