यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
इन्स्टिट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़
लैंग्वजिज़ ऐंड कल्चर्ज़ ऑफ़
एशिया ऐंड ऐफ़्रिका
तोक्यो
यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ाॅरेन स्टडीज़
Mellon Project
प्रेमचन्द
गोदान
(Devanagari text reconstituted from Professor K. Machida's roman
transcription)
Chapter Twenty.
(unparagraphed text)
फागुन अपनी झोली
में नवजीवन की विभूति लेकर आ
पहुँचा था।
आम के पेड़ दोनों
हाथों से बौर के सुगन्ध बाँट
रहे थे, औरर
कोयल आम की डालियों में छिपी हुई
संगीत का गुप्त दान कर रही थी।
गाँवों में ऊख की बोआई
लग गयी थी।
अभी धूप नहीं निकली; पर होरी खेत में पहुँच
गया है।
धनिया,
सोना, रूपा तीनों
तलैया से ऊख के भीगे हुए गट्ठे
निकाल-निकालकर खेत
में ला रही हैं,
औरर होरी गँड़ासे से ऊख के
टुकड़े कर रहा है।
अब वह दातादीन की मज़दूरी करने लगा
है।
किसान नहीं,
मजूर है।
दातादीन से अब उसका
पुरोहित-जजमान का
नाता नहीं,
मालिक-मज़दूर का नाता
है।
दातादीन ने आकर डाँटा -- हाथ औरर फुरती से चलाओ
होरी!
इस तरह तो तुम दिन-भर में न काट सकोगे।
होरी ने आहत अभिमान के साथ कहा
-- चला ही तो रहा
हूँ महराज, बैठा
तो नहीं हूँ।
दातादीन मजूरों से रगड़ कर काम
लेते थे; इसलिए
उनके यहाँ कोई मजूर टिकता न था।
होरी उसका स्वभाव जानता था; पर जाता कहाँ!
पण्डित उसके सामने खड़े होकर
बोले --
चलाने-चलाने
में भेद है।
एक चलाना वह है कि घड़ी भर में काम
तमाम, दूसरा चलाना वह
है कि दिन-भर में भी
एक बोझ ऊख न कटे।
होरी ने विष का घूँट पीकर
औरर ज़ोर से हाथ चलाना शुरू किया, इधर महीनों से उसे
पेट-भर भोजन न
मिलता था।
प्राय: एक जून तो चबैने पर ही
कटता था, दूसरे
जून भी कभी आधा पेट भोजन मिला, कभी कड़ाका हो गया; कितना चाहता था कि हाथ औरर जल्दी उठे,
मगर हाथ जवाब दे रहा था।
उस पर दातादीन सिर पर सवार थे।
क्षण-भर दम ले
लेने पाता, तो
ताज़ा हो जाता; लेकिन
दम कैसे ले?
घुड़कियाँ पड़ने का भय था।
धनिया औरर तीनों लड़कियाँ ऊख
के गट्ठे लिये गीली साड़ियों से लथपथ, कीचड़ में सनी हुई आयीं,
औरर गट्ठे पटककर दम
मारने लगीं कि दातादीन ने डाँट बताई
-- यहाँ तमाशा क्या
देखती है धनिया?
जा अपना काम कर।
पैसे सेंत में नहीं
आते।
पहर-भर में
तू एक खेप लायी है।
इस हिसाब से तो दिन भर में भी
उख न ढुल पायेगी।
धनिया ने त्योरी बदलकर कहा -- क्या ज़रा दम भी न लेने
दोगे महराज!
हम भी तो आदमी हैं।
तुम्हारी मजूरी करने से बैल
नहीं हो गये।
ज़रा मूड़ पर एक गट्ठा लादकर लाओ
तो हाल मालूम हो।
दातादीन बिगड़ उठे -- पैसे देने हैं काम
करने के लिए, दम
मारने के लिए नहीं।
दम मार लेना है, तो घर जाकर दम लो।
धनिया कुछ कहने ही जा रही थी कि होरी
ने फटकार बताई -- तू
जाती क्यों नहीं धनिया?
क्यों हुज्जत कर रही है?
धनिया ने बीड़ा उठाते हुए कहा
-- जा तो रही
हूँ, लेकिन
चलते हुए बैल को औरंगी न देना
चाहिए।
दातादीन ने लाल आँखें निकाल
लीं -- जान पड़ता
है, अभी मिज़ाज ठंडा
नहीं हुआ।
जभी दाने-दाने को मोहताज हो।
धनिया भला क्यों चुप रहने लगी
थी -- तुम्हारे द्वार पर
भीख माँगने नहीं जाती।
दातादीन ने पैने स्वर में कहा
-- अगर यही हाल है तो
भीख भी माँगोगी।
धनिया के पास जवाब तैयार था;
पर सोना उसे खींचकर
तलैया की ओर ले गयी, नहीं बात बढ़ जाती; लेकिन आवाज़ की पहुँच के बाहर
जाकर दिल की जलन निकाली -- भीख
माँगो तुम,
जो भिखमंगे की जात हो।
हम तो मजूर ठहरे, जहाँ काम करेंगे, वहीं चार पैसे
पायेंगे।
सोना ने उसका तिरस्कार किया -- अम्माँ,
जाने भी दो।
तुम तो समय नहीं देखती,
बात-बात पर लड़ने बैठ जाती हो।
होरी उन्मत्त की भाँति सिर से ऊपर
गड़ाँसा उठा-उठाकर ऊख के
टुकड़ों के ढेर करता जाता था।
उसके भीतर जैसे आग लगी हुई थी।
उसमें अलौकिक शक्ति आ गयी थी।
उसमें जो पीढ़ियों का
संचित पानी था, वह इस
समय जैसे भाप बनकर उसे यन्त्र की-सी अन्ध-शक्ति
प्रदान कर रहा था।
उसकी आँखों में
अँधेरा छाने लगा।
सिर में फिरकी-सी चल रही थी।
फिर भी उसके हाथ यन्त्र की गति से,
बिना थके, बिना रुके, उठ
रहे थे।
उसकी देह से पसीने की धारा निकल रही
थी, मुँह से
फिचकुर छूट रहा था, सिर
में धम-धम का शब्द
होरहा था, पर उस पर
जैसे कोई भूत सवार हो गया हो।
सहसा उसकी आँखों में निबिड़
अन्धकार छा गया।
मालूम हुआ वह ज़मीन में
धँसा जा रहा है।
उसने सँभलने की चेष्टा
से शून्य में हाथ फैला दिये,
औरर अचेत हो गया।
गँड़ासा हाथ से छूट गया औरर वह
औरंधे मुँह ज़मीन पर पड़ गया।
उसी वक़्त धनिया ऊख का गट्ठा लिये आयी।
देखा तो कई आदमी होरी को
घेरे खड़े हैं।
एक हलवाहा दातादीन से कह रहा था -- मालिक तुम्हें ऐसी बात न
कहनी चाहिए, जो आदमी
को लग जाय।
पानी मरते ही
मरते तो मरेगा।
धनिया ऊख का गट्ठा पटककर पागलों की
तरह दौड़ी हुई होरी के पास गयी, औरर उसका सिर अपनी जाँघ पर रखकर
विलाप करने लगी --
तुम मुझे छोड़कर कहाँ जाते हो।
अरी सोना,
दौड़कर पानी ला औरर जाकर शोभा से कह
दे, दादा बेहाल
हैं।
हाय भगवान !
अब मैं कहाँ जाऊँ।
अब किसकी होकर रहूँगी, कौन मुझे धनिया कहकर
पुकारेगा ।।।
लाला पटेश्वरी भागे हुए आये
औरर स्नेह भरी कठोरता से बोले
-- क्या करती है धनिया,
होश सँभाल।
होरी को कुछ नहीं हुआ।
गर्मी से अचेत हो गये
हैं।
अभी होश आया जाता है।
दिल इतना कच्चा कर लेगी, तो कैसे काम चलेगा?
धनिया ने पटेश्वरी के पाँव
पकड़ लिये औरर रोती हुई बोली
-- क्या करूँ लाला, जी नहीं मानता।
भगवान् ने सब कुछ हर लिया।
मैं सबर कर गयी।
अब सबर नहीं होता।
हाय रे मेरा हीरा!
सोना पानी लायी।
पटेश्वरी ने होरी के
मुँह पर पानी के छींटे दिये।
कई आदमी अपनी-अपनी
अँगोछियों से हवा कर रहे थे।
होरी की देह ठंडी पड़ गयी थी।
पटेश्वरी को भी चिन्ता हुई;
पर धनिया को वह बराबर साहस
देते जाते थे।
धनिया अधीर होकर बोली -- ऐसा कभी नहीं हुआ था।
लाला, कभी
नहीं।
पटेश्वरी ने पूछा -- रात कुछ खाया था?
धनिया बोली -- हाँ,
रोटियाँ पकायी थीं; लेकिन आजकल हमारे ऊपर जो बीत रही
है, वह क्या तुमसे
छिपा है?
महीनों से भरपेट रोटी
नसीब नहीं हुई।
कितना समझाती हूँ, जान रखकर काम करो; लेकिन आराम तो हमारे भाग्य
में लिखा ही नहीं।
सहसा होरी ने आँखें
खोल दीं औरर उड़ती हुई नज़रों से
इधर-उधर ताका।
धनिया जैसे जी उठी।
विह्वल होकर उसके गले से
लिपटकर बोली -- अब
कैसा जी है तुम्हारा?
मेरे तो परान नहों
में समा गये थे।
होरी ने कातर स्वर में कहा
-- अच्छा हूँ।
न जाने कैसा जी हो गया था।
धनिया ने स्नेह में डूबी
भत्र्सना से कहा --
देह में दम तो है नहीं, काम करते हो जान देकर।
लड़कों का भाग था, नहीं तुम तो ले ही डूबे
थे!
पटेश्वरी ने हँसकर कहा -- धनिया तो रो-पीट रही थी।
होरी ने आतुरता से पूछा
-- सचमुच तू रोती
थी धनिया?
धनिया ने पटेश्वरी को पीछे
ढकेल कर कहा -- इन्हें
बकने दो तुम।
पूछो, यह
क्यों कागद छोड़कर घर से दौड़े आये
थे?
पटेश्वरी ने चिढ़ाया -- तुम्हें हीरा-हीरा कहकर रोती थी।
अब लाज के मारे मुकरती है।
छाती पीट रही थी।
होरी ने धनिया को सजल
नेत्रों से देखा -- पगली है औरर क्या।
अब न जाने कौन-सा सुख देखने के लिए
मुझे जिलाये रखना चाहती है।
दो आदमी होरी को टिकाकर घर लाये
औरर चारपाई पर लिटा दिया।
दातादीन तो कुढ़ रहे थे कि
बोआई में देर हुई जाती है, पर मातादीन इतना निर्दयी न था।
दौड़कर घर से गर्म दूध
लाया, औरर एक शीशी
में गुलाबजल भी लेता आया।
औरर दूध पीकर होरी में
जैसे जान आ गयी।
उसी वक़्त गोबर एक मज़दूर के सिर पर
अपना सामान लादे आता दिखायी दिया।
गाँव के कुत्ते पहले
तो भूँकते हुए उसकी तरफ़ दौड़े।
फिर दुम हिलाने लगे।
रूपा ने कहा --
भैया आये, औरर
तालियाँ बजाती हुई दौड़ी।
सोना भी दो-तीन क़दम आगे बढ़ी; पर अपने उछाह को भीतर ही दबा गयी।
एक साल में उसका यौवन कुछ
औरर संकोचशील हो गया था।
झुनिया भी घूँघट निकाले द्वार
पर खड़ी हो गयी।
गोबर ने माँ-बाप के चरण छूए औरर रूपा को
गोद में उठाकर प्यार किया।
धनिया ने उसे आशीर्वाद दिया औरर
उसका सिर अपनी छाती से लगाकर मानो अपने
मातृत्व का पुरस्कार पा गयी।
उसका हृदय गर्व से उमड़ा पड़ता था।
आज तो वह रानी है।
इस फटे-हाल
में भी रानी है।
कोई उसकी आँखें
देखे, उसका मुख
देखे, उसका हृदय
देखे, उसकी चाल
देखे।
रानी भी लजा जायगी।
गोबर कितना बड़ा हो गया है औरर
पहन-ओढ़कर कैसा
भलामानस लगता है।
धनिया के मन में कभी अमंगल की
शंका न हुई थी।
उसका मन कहता था,
गोबर कुशल से है औरर प्रसन्न है।
आज उसे आँखों देखकर
मानो उसके जीवन के धूल-धक्कड़ में गुम हुआ रत्न मिल गया
है; मगर होरी ने
मुँह फेर लिया था।
गोबर ने पूछा -- दादा को क्या हुआ है, अम्माँ?
धनिया घर का हाल कहकर उसे दुखी न करना
चाहती थी।
बोली --
कुछ नहीं है बेटा, ज़रा सिर में दर्द है।
चलो,
कपड़े उतरो,
हाथ-मुँह
धोओ?
कहाँ थे तुम इतने दिन?
भला इस तरह कोई घर से भागता
है?
औरर कभी एक चिट्ठी तक न भेजी।
आज साल-भर के
बाद जाके सुधि ली है।
तुम्हारी राह
देखते-देखते आँखें
फूट गयीं।
यही आसा बँधी रहती थी कि कब वह दिन
आयेगा औरर कब तुम्हें
देखूँगी।
कोई कहता था,
मिरच भाग गया, कोई डमरा
टापू बताता था।
सुन-सुनकर
जान सूखी जाती थी।
कहाँ रहे इतने दिन?
गोबर ने शर्माते हुए कहा
-- कहीं दूर नहीं गया
था अम्माँ, यह लखनऊ
में तो था।
' औरर
इतने नियरे रहकर भी कभी एक चिट्ठी न लिखी!
'
उधर सोना औरर रूपा भीतर गोबर का
सामान खोलकर चीज़ का बाँट-बखरा करने में लगी हुई
थीं; लेकिन
झुनिया दूर खड़ी थी;
उसके मुख पर आज मान का शोख रंग झलक रहा
है।
गोबर ने उसके साथ जो व्यवहार
किया है, आज वह उसका बदला
लेगी।
असामी को देखकर महाजन उससे वह
रुपये वसूल करने को भी व्याकुल हो
रहा है, जो उसने
बट्टेखाते में डाल दिये थे।
बच्चा उन चीज़ों की ओर लपक रहा था
औरर चाहता था,
सब-का-सब एक साथ मुँह में डाल
ले; पर झुनिया
उसे गोद से उतरने न देती थी।
सोना बोली -- भैया तुम्हारे लिए आईना-कंघी लाये हैं भाभी!
झुनिया ने उपेक्षा भाव से कहा
-- मुझे
ऐना-कंघी न चाहिए।
अपने पास रखे रहें।
रूपा ने बच्चे की चमकीली टोपी निकाली
-- ओ हो!
यह तो चुन्नू की टोपी है।
औरर उसे बच्चे के सिर पर रख दिया।
झुनिया ने टोपी उतारकर फेंक
दी।
औरर सहसा गोबर को अन्दर आते
देखकर वह बालक को लिए अपनी कोठरी में
चली गयी।
गोबर ने देखा, सारा सामान खुला पड़ा है।
उसका जी तो चाहता है पहले
झुनिया से मिलकर अपना अपराध क्षमा कराये;
लेकिन अन्दर जाने का साहस नहीं
होता।
वहीं बैठ गया औरर चीज़ें
निकाल-निकाल, हर-एक को
देने लगा, मगर रूपा
इसलिए फूल गयी कि उसके लिए चप्पल क्यों
नहीं आये, औरर
सोना उसे चिढ़ाने लगी, तू क्या करेगी चप्पल लेकर, अपनी गुड़िया से खेल।
हम तो तेरी गुड़िया देखकर
नहीं रोते, तू
मेरा चप्पल देखकर क्यों रोती
है?
मिठाई बाँटने की ज़िम्मेदारी धनिया
ने अपने उपर ली।
इतने दिनों के बाद लड़का
कुशल से घर आया है।
वह गाँव-भर
में बैना बटवायेगी।
एक गुलाब-जामुन रूपा के लिए ऊँट के
मुँह में जीरे के समान था।
वह चाहती थी,
हाँडी उसके सामने रख दी जाय, वह कूद-कूद
खाय।
अब सन्दूक़ खुला औरर उसमें
से साड़ियाँ निकलने लगीं।
सभी किनारदार थीं; जैसी पटेश्वरी लाला के घर
में पहनी जाती हैं, मगर हैं बड़ी हलकी।
ऐसी महीन साड़ियाँ भला कै दिन
चलेंगी!
बड़े आदमी जितनी महीन साड़ियाँ चाहे
पहनें।
उनकी मेहरियों को बैठने
औरर सोने के सिवा औरर कौन काम
है।
यहाँ तो खेत-खलिहान सभी कुछ है।
अच्छा!
होरी के लिए धोती के अतिरिक्त एक
दुपट्टा भी है।
धनिया प्रसन्न होकर बोली -- यह तुमने बड़ा अच्छा किया
बेटा!
इनका दुपट्टा बिलकुल तार-तार हो गया था।
गोबर को उतनी देर में घर की
परिस्थिति का अन्दाज़ हो गया था।
धनिया की साड़ी में कई पेंवदे
लगे हुए थे।
सोना की साड़ी सिर पर फटी हुई थी औरर
उसमें से उसके बाल दिखाई दे रहे
थे।
रूपा की धोती में चारों तरफ़
झालरें-सी लटक रही
थीं।
सभी के चेहरे रूखे, किसी की देह पर चिकनाहट नहीं।
जिधर देखो, विपन्नता का साम्राज्य था।
लड़कियाँ तो साड़ियों
में मगन थीं।
धनिया को लड़के के लिए भोजन की
चिन्ता हुई।
घर में थोड़ा-सा जौ का आटा साँझ के लिए संचकर
रखा हुआ था।
इस वक़्त तो चबैने पर कटती
थी; मगर गोबर अब वह
गोबर थोड़े ही है।
उसको जौ का आटा खाया भी जायगा।
परदेश में न जाने
क्या-क्या खाता-पीता रहा होगा।
जाकर दुलारी की दुकान से
गेहूँ का आटा,
चावल, घी उधार लायी।
इधर महीने से सहुआइन एक
पैसे की चीज़ भी उधार न देती थी; पर आज उसने एक बार भी न
पूछा, पैसे कब
दोगी।
उसने पूछा -- गोबर तो ख़ूब कमा के आया है
न?
धनिया बोली -- अभी तो कुछ नहीं खुला दीदी!
अभी मैंने भी कुछ कहना उचित न
समझा।
हाँ, सबके
लिए किनारदार साड़ियाँ लाया है।
तुम्हारे आसिरबाद से कुशल से
लौट आया, मेरे
लिए तो यही बहुत है।
दुलारी ने असीस दिया -- भगवान् करे, जहाँ रहे कुशल से रहे।
माँ-बाप
को औरर क्या चाहिए!
लड़का समझदार है।
औरर छोकरों की तरह उड़ाऊ नहीं
है।
हमारे रुपए अभी न मिलें, तो ब्याज तो दे दो।
दिन-दिन बोझ
बढ़ ही तो रहा है।
इधर सोना चुन्नू को उसका फ़्र:ाक
औरर टोप औरर जूता पहनाकर राजा बना रही
थी, बालक इन चीज़ों
को पहनने से ज़्यादा हाथ में लेकर
खेलना पसन्द करता था।
अन्दर गोबर औरर झुनिया में
मान-मनौवल का अभिनय
हो रहा था।
झुनिया ने तिरस्कार भरी
आँखों से देखकर कहा -- मुझे लाकर यहाँ बैठा दिया।
आप परदेश की राह ली।
फिर न खोज, न
ख़बर कि मरती है या जीती है।
साल-भर के बाद
अब जाकर तुम्हारी नींद टूटी है।
कितने बड़े कपटी हो तुम।
मैं तो सोचती हूँ कि
तुम मेरे पीछे-पीछे आ रहे हो औरर आप
उड़े, तो
साल-भर के बाद
लौटे।
मर्दों का विश्वास ही क्या, कहीं कोई औरर ताक ली
होगी।
सोचा होगा, एक घर के लिए है ही, एक बाहर के लिए भी हो जाय।
गोबर ने सफ़ाई दी -- झुनिया,
मैं भगवान् को साक्षी देकर कहता
हूँ जो मैंने कभी किसी की ओर
ताका भी हो।
लाज औरर डर के मारे घर से भागा
ज़रूर; मगर तेरी याद एक छन
के लिए भी मन से न उतरती थी।
अब तो मैंने तय कर लिया है
कि तुझे भी लेता जाऊँगा; इसलिए आया हूँ।
तेरे घरवाले तो बहुत
बिगड़े होंगे?
' दादा तो
मेरी जान लेने पर ही उतारू थे। '
' सच! '
' तीनों
जने यहाँ चढ़ आये थे।
अम्माँ ने ऐसा डाँटा कि
मुँह लेकर रह गये।
हाँ, हमारे
दोनों बैल खोल ले गये।
'
' इतनी बड़ी
ज़बरदस्ती!
औरर दादा कुछ बोले
नहीं? '
' दादा
अकेले किस-किस से
लड़ते!
गाँववाले तो नहीं ले
जाने देते थे;
लेकिन दादा ही भलमनसी में आ गये,
तो औरर लोग क्या
करते? '
' तो आजकल
खेती-बारी कैसे
हो रही है? '
' खेती-बारी सब
टूट गयी।
थोड़ी-सी पण्डित
महाराज के साझे में है।
उख बोई ही नहीं गयी। '
गोबर की कमर में इस समय दो
सौ रुपए थे।
उसकी गर्मी यों भी कम न थी।
यह हाल सुनकर तो उसके बदन
में आग ही लग गयी।
बोला --
तो फिर पहले मैं उन्हीं से जाकर
समझता हूँ।
उनकी यह मजाल कि
मेरे द्वार पर से बैल खोल ले
जायँ!
यह डाका है,
खुला हुआ डाका।
तीन-तीन साल
को चले जायँगे तीनों।
यों न देंगे, तो अदालत से लूँगा।
सारा घमंड तोड़ दूँगा।
वह उसी आवेश में चला था कि
झुनिया ने पकड़ लिया औरर बोली -- तो चले जाना, अभी ऐसी क्या जल्दी है?
कुछ आराम कर लो, कुछ खा-पी लो।
सारा दिन तो पड़ा है।
यहाँ बड़ी-बड़ी
पंचायत हुई।
पंचायत ने अस्सी रुपए डाँड़
लगाये।
तीन मन अनाज ऊपर।
उसी में तो औरर तबाही आ गयी।
सोना बालक को कपड़े-जूते पहनाकर लायी।
कपड़े पहनकर वह जैसे सचमुच
राजा हो गया था।
गोबर ने उसे गोद में
ले लिया; पर इस समय
बालक के प्यार में उसे आनन्द न आया।
उसका रक्त खौल रहा था औरर कमर के रुपए
आँच औरर तेज़ कर रहे थे।
वह एक-एक से
समझेगा।
पंचों को उस पर डाँड़
लगाने का अधिकार क्या है?
कौन होता है कोई उसके बीच
में बोलनेवाला?
उसने एक औररत रख ली, तो पंचों के बाप का क्या
बिगाड़ा?
अगर इसी बात पर वह फ़ौजदारी में दावा
कर दे, तो
लोगों के हाथों में
हथकड़ियाँ पड़ जायँ।
सारी गृहस्थी तहस-नहस हो गयी।
क्या समझ लिया है उसे इन
लोगों ने!
बच्चा उसकी गोद में ज़रा-सा मुस्कराया, फिर ज़ोर से चीख़ उठा जैसे कोई
डरावनी चीज़ देख ली हो।
झुनिया ने बच्चे को उसकी
गोद से ले लिया औरर बोली -- अब जाकर नहा-धो लो।
किस सोच में पड़ गये।
यहाँ सबसे लड़ने लगो,
तो एक दिन निबाह न हो।
जिसके पास पैसे हैं,
वही बड़ा आदमी है, वही भला आदमी है।
पैसे न हों, तो उस पर सभी रोब जमाते
हैं।
' मेरा गधापन
था कि घर से भागा।
नहीं देखता, कैसे कोई एक धेला डाँड़
लेता है। '
' सहर की हवा खा
आये हो तभी ये बातें सूझने
लगी हैं।
नहीं, घर
से भागते क्यों! '
' यही जी चाहता
है कि लाठी उठाऊँ औरर पटेश्वरी, दातादीन,
झिंगुरी, सब
सालों को पीटकर गिरा दूँ, औरर उनके पेट से रुपए
निकाल लूँ। '
' रुपए की बहुत
गर्मी चढ़ी है साइत।
लाओ निकालो, देखूँ,
इतने दिन में क्या कमा लाये हा? '
उसने गोबर की कमर में हाथ
लगाया।
गोबर खड़ा होकर बोला -- अभी क्या कमाया; हाँ, अब
तुम चलोगी, तो
कमाऊँगा।
साल-भर तो
सहर का रंग-ढंग
पहचानने ही में लग गया।
' अम्माँ
जाने देंगी, तब
तो? '
' अम्माँ
क्यों न जाने देंगी।
उनसे मतलब? '
' वाह!
मैं उनकी राज़ी बिना न जाऊँगी।
तुम तो छोड़कर चलते बने।
औरर मेरा कौन था यहाँ?
वह अगर घर में न घुसने
देतीं तो मैं कहाँ जाती?
जब तक जी:ूँगी, उनका जस गाऊँगी औरर तुम भी क्या
परदेश ही करते रहोगे? '
' औरर यहाँ
बैठकर क्या करूँगा।
कमाओ औरर मरो, इसके सिवा यहाँ औरर क्या रखा
है?
थोड़ी-सी अकल
हो औरर आदमी काम करने से न डरे,
तो वहाँ भूखों
नहीं मर सकता।
यहाँ तो अकल कुछ काम ही नहीं
करती।
दादा क्यों मुझसे मुँह
फुलाए हुए हैं? '
' अपने भाग
बखानो कि मुँह फुलाकर छोड़ देते
हैं।
तुमने उपद्रव तो इतना बड़ा किया
था कि उस क्रोध में पा जाते, तो मुँह लाल कर
देते। '
' तो
तुम्हें भी ख़ूब गालियाँ देते
होंगे? '
' कभी
नहीं, भूलकर भी
नहीं।
अम्माँ तो पहले बिगड़ी थीं;
लेकिन दादा ने तो कभी
कुछ नहीं कहा, जब
बुलाते हैं,
बड़े प्यार से।
मेरा सिर भी दुखता है, तो बेचैन हो जाते
हैं।
अपने बाप को देखते तो
मैं इन्हें देवता समझती हूँ।
अम्माँ को समझाया करते
हैं, बहू को
कुछ न कहना।
तुम्हारे ऊपर सैकड़ों बार बिगड़
चुके हैं कि इसे घर में बैठाकर
आप न जाने कहाँ निकल गया।
आज-कल
पैसे-पैसे की
तंगी है।
ऊख के रुपए बाहर ही बाहर उड़ गये।
अब तो मजूरी करनी पड़ती है।
आज बेचारे खेत में
बेहोश हो गये।
रोना-पीटना
मच गया।
तब से पड़े हैं '
मुँह-हाथ
धोकर औरर ख़ूब बाल बनाकर गोबर गाँव का
दिग्विजय करने निकला।
दोनों चाचाओं के घर
जाकर राम-राम कर आया।
फिर औरर मित्रों से मिला।
गाँव में कोई विशेष
परिवर्तन न था।
हाँ,
पटेश्वरी की नयी बैठक बन गयी थी औरर
झिंगुरीसिंह ने दरवाज़े पर नया
कुआँ खुदवा लिया था।
गोबर के मन में विद्रोह
औरर भी ताल ठोंकने लगा।
जिससे मिला उसने उसका आदर किया,
औरर युवकों ने
तो उसे अपना हीरो बना लिया औरर उसके
साथ लखनऊ जाने को तैयार हो गये।
साल ही भर में वह क्या से क्या हो
गया था।
सहसा झिंगुरीसिंह अपने
कुएँ पर नहाते हुए मिल गये।
गोबर निकला;
मगर न सलाम किया, न
बोला।
वह ठाकुर को दिखा देना चाहता
था, मैं
तुम्हें कुछ नहीं समझता।
झिंगुरीसिंह ने ख़ुद ही
पूछा -- कब आये
गोबर, मज़े
में तो रहे?
कहीं नौकर थे लखनऊ
में?
गोबर ने हेकड़ी के साथ कहा
-- लखनऊ ग़ुलामी करने
नहीं गया था।
नौकरी है तो ग़ुलामी।
मैं व्यापार करता था।
ठाकुर ने कुतूहल भरी
आँखों से उसे सिर से पाँव तक
देखा -- कितना रोज़
पैदा करते थे?
गोबर ने छुरी को भाला बनाकर
उनके ऊपर चलाया -- यही
कोई ढाई-तीन रुपए मिल
जाते थे।
कभी चटक गयी तो चार भी मिल गये।
इससे बेसी नहीं।
झिंगुरी बहुत नोच-खसोट करके भी पचीस-तीस से ज़्यादा न कमा पाते थे।
औरर यह गँवार लौंडा सौ रुपए
कमाने लगा।
उनका मस्तक नीचा हो गया।
अब किस दावे से उस पर रोब जमा
सकते हैं?
वर्ण में वह ज़रूर ऊँचे
हैं; लेकिन
वर्ण कौन देखता है!
उससे स्पर्धा करने का यह अवसर
नहीं, अब तो उसकी
चिरौरी करके उससे कुछ काम निकाला जा सकता
है।
बोले --
इतनी कमाई कम नहीं है बेटा, जो ख़रच करते बने।
गाँव में तो तीन आने भी
नहीं मिलते।
भवनिया (
उनके जेठे पुत्र का नाम था ) को भी कहीं कोई काम दिला
दो, तो भेज
दूँ।
न पढ़े न लिखे, एक न एक उपद्रव करता रहता है।
कहीं मुनीमी ख़ाली हो तो कहना।
नहीं साथ ही लेते जाना।
तुम्हारा तो मित्र है।
तलब थोड़ी हो, कुछ ग़म नहीं, हाँ, चार
पैसे की ऊपर की गुंजाइस हो।
गोबर ने अभिमान भरी हँसी के
साथ कहा -- यह ऊपरी आमदनी की
चाट आदमी को ख़राब कर देती है ठाकुर; लेकिन हम लोगों की आदत
कुछ ऐसी बिगड़ गयी है कि जब तक बेईमानी न
करें, पेट नहीं
भरता।
लखनऊ में मुनीमी मिल सकती
है; लेकिन हर-एक महाजन ईमानदार चौकस आदमी चाहता
है।
मैं भवानी को किसी के गले
बाँध तो दूँ;
लेकिन पीछे इन्होंने कहीं हाथ
लपकाया, तो वह तो
मेरी गर्दन पकड़ेगा।
संसार में इलम की क़दर नहीं
है, ईमान की क़दर है।
यह तमाचा लगाकर गोबर आगे निकल गया।
झिंगुरी मन में ऐंठकर रह
गये।
लौंडा कितने घमंड की
बातें करता है,
मानो धर्म का अवतार ही तो है।
इसी तरह गोबर ने दातादीन को भी
रगड़ा।
भोजन करने जा रहे थे।
गोबर को देखकर प्रसन्न होकर
बोले -- मज़े
में तो रहे गोबर?
सुना वहाँ कोई अच्छी जगह पा गये
हो।
मातादीन को भी किसी हीले से लगा
दो न?
भंग पीकर पड़े रहने के सिवा
यहाँ औरर कौन काम है।
गोबर ने बनाया -- तुम्हारे घर में किस बात की कमी
महाराज, जिस जजमान के
द्वार पर जाकर खड़े हो जाओ कुछ न कुछ
मार ही लाओगे।
जनम में लो, मरन में लो, सादी में लो, गमी में लो; खेती करते हो, लेन-देन
करते हो, दलाली
करते हो, किसी से
कुछ भूल-चूक हो
जाय तो डाँड़ लगाकर उसका घर लूट लेते
हो; इतनी कमाई से
पेट नहीं भरता?
क्या करोगे बहुत-सा धन बटोरकर?
कि साथ ले जाने की कोई
जुगुत निकाल ली है?
दातादीन ने देखा, गोबर कितनी ढिठाई से बोल रहा
है; अदब औरर लिहाज
जैसे भूल गया।
अभी शायद नहीं जानता कि बाप मेरी
ग़ुलामी कर रहा है।
सच है, छोटी नदी को
उमड़ते देर नहीं लगती;
मगर चेहरे पर मैल
नहीं आने दिया।
जैसे बड़े लोग बालकों
से मूँछें उखड़वाकर भी हँसते
हैं,
उन्होंने भी इस फटकार को हँसी में
लिया औरर विनोद-भाव
से बोले -- लखनऊ की हवा खा के तू बड़ा
चंट हो गया है गोबर!
ला, क्या कमा के
लाया है, कुछ
निकाल। '
सच कहता हूँ गोबर तुम्हारी
बहुत याद आती थी।
अब तो रहोगे कुछ दिन?
' हाँ,
अभी तो रहूँगा कुछ
दिन।
उन पंचों पर दावा करना है,
जिन्होंने डाँड़ के
बहाने मेरे डेढ़ सौ रुपए हज़म किये
हैं।
देखूँ,
कौन मेरा हुक़्क़ा-पानी बन्द करता है।
औरर कैसे बिरादरी मुझे जात
बाहर करती है। '
यह धमकी देकर वह आगे बढ़ा।
उसकी हेकड़ी ने उसके युवक
भक्तों को रोब में डाल दिया था।
एक ने कहा -- कर
दो नालिस गोबर भैया!
बुड्ढा काला साँप है -- जिसके काटे का मन्तर नहीं।
तुमने अच्छी डाँट बताई।
पटवारी के कान भी ज़रा गरमा दो।
बड़ा मुतफन्नी है दादा!
बाप-बेटे
में आग लगा दे,
भाई-भाई में आग लगा
दे।
कारिन्दे से मिलकर असामियों का
गला काटता है।
अपने खेत पीछे
जोतो, पहले
उसके खेत जोत दो।
अपनी सिंचाई पीछे करो, पहले उसकी सिंचाई कर दो।
गोबर ने मूँछों पर
ताव देकर कहा --
मुझसे क्या कहते हो भाई, साल भर में भूल थोड़े ही
गया।
यहाँ मुझे रहना ही नहीं
है, नहीं एक-एक को नचाकर छोड़ता।
अबकी होली धूम-धाम से मनाओ औरर होली का
स्वाँग बनाकर इन सबों को ख़ूब
भिंगो-भिंगोकर लगाओ।
होली का प्रोग्राम बनने लगा।
ख़ूब भंग घुटे, दूधिया भी, नमकीन भी, औरर
रंगों के साथ कालिख भी बने औरर
मुखियों के मुँह पर कालिख ही
पोती जाय।
होली में कोई बोल ही क्या
सकता है!
फिर स्वाँग निकले औरर
पंचों की भद्द उड़ाई जाय।
रुपए-पैसे
की कोई चिन्ता नहीं।
गोबर भाई कमाकर आये हैं।
भोजन करके गोबर भोला से
मिलने चला।
जब तक अपनी जोड़ी लाकर अपने द्वार पर
बाँध न दे, उसे
चैन नहीं।
वह लड़ने-मरने को तैयार था।
होरी ने कातर स्वर में कहा
-- राढ़ मत बढ़ाओ
बेटा, भोला गोईं
ले गये, भगवान्
उनका भला करे; लेकिन
उनके रुपए तो आते ही थे।
गोबर ने उत्तेजित होकर कहा
-- दादा, तुम बीच में न बोलो।
उनकी गाय पचास की थी।
हमारी गोईं डेढ़ सौ में आयी
थी।
तीन साल हमने जोती।
फिर भी सौ की थी ही।
वह अपने रुपये के लिए दावा
करते, डिग्री
कराते, या जो
चाहते कहते, हमारे
द्वार से जोड़ी क्यों खोल ले
गये?
औरर तुम्हें क्या कहूँ।
इधर गोईं खो बैठे, उधर डेढ़ सौ रुपए डाँड़ के
भरे।
यह है गऊ होने का फल।
मेरे सामने जोड़ी खोल
ले जाते, तो
देखता।
तीनों को यहाँ ज़मीन पर
सुला देता।
औरर पंचों से तो बात
तक न करता।
देखता,
कौन मुझे बिरादरी से अलग करता है;
लेकिन तुम बैठे
ताकते रहे।
होरी ने अपराधी की भाँति सिर
झुका लिया; लेकिन
धनिया यह अनीत कैसे देख सकती थी।
बोली --
बेटा, तुम भी
अँधेर करते हो।
हुक़्क़ा-पानी बन्द
हो जाता, तो
गाँव में निर्वाह होता!
जवान लड़की बैठी है, उसका भी कहीं ठिकाना लगाना है कि
नहीं?
मरने-जीने
में आदमी बिरादरी ।।।
गोबर ने बात काटी -- हुक़्क़ा-पानी सब
तो था, बिरादरी
में आदर भी था, फिर
मेरा ब्याह क्यों नहीं हुआ?
बोलो।
इसलिए कि घर में रोटी न थी।
रुपए हों तो न हुक़्क़ा-पानी का काम है, न जात-बिरादरी का।
दुनिया पैसे की है, हुक़्क़ा-पानी कोई नहीं पूछता।
धनिया तो बच्चे का रोना सुनकर
भीतर चली गयी औरर गोबर भी घर से निकला।
होरी बैठा सोच रहा था।
लड़के की अकल जैसे खुल गयी
है।
कैसी बेलाग बात कहता है।
उसकी वक्र बुद्धि ने होरी के
धर्म औरर नीति को परास्त कर दिया था।
सहसा होरी ने उससे पूछा
-- मैं भी चला
चलूँ?
' मैं लड़ाई
करने नहीं जा रहा हूँ दादा, डरो मत।
मेरी ओर क़ानून है, मैं क्यों लड़ाई करने
लगा? '
' मैं भी
चलूँ तो कोई हरज़ है? '
' हाँ,
बड़ा हरज़ है।
तुम बनी बात बिगाड़ दोगे। '
होरी चुप हो गया औरर गोबर
चल दिया।
पाँच मिनट भी न हुए होंगे
कि धनिया बच्चे को लिए बाहर निकली औरर बोली
-- क्या गोबर चला
गया, अकेले?
मैं कहती हूँ, तुम्हें भगवान् कभी बुद्धि
देंगे या नहीं।
भोला क्या सहज में गोईं
देगा?
तीनों उस पर टूट
पड़ेंगे, बाज़ की
तरह।
भगवान् ही कुशल करें।
अब किससे कहूँ, दौड़कर गोबर को पकड़ ले।
तुमसे तो मैं हार गयी।
होरी ने कोने से डंडा
उठाया औरर गोबर के पीछे दौड़ा।
गाँव के बाहर आकर उसने निगाह
दौड़ाई।
एक क्षीण-सी रेखा
क्षितिज से मिली हुई दिखाई दी।
इतनी ही देर में गोबर इतनी
दूर कैसे निकल गया!
होरी की आत्मा उसे धिक्कारने लगी।
उसने क्यों गोबर को
रोका नहीं।
अगर वह डाँटकर कह देता, भोला के घर मत जाओ तो
गोबर कभी न जाता।
औरर अब उससे
दौड़ा भी तो नहीं जाता।
वह हारकर वहीं बैठ गया औरर बोला
-- उसकी रच्छा करो महाबीर
स्वामी!
गोबर उस गाँव में
पहुँचा, तो
देखा कुछ लोग बरगद के नीचे बैठे
जुआ खेल रहे हैं।
उसे देखकर लोगों ने
समझा, पुलीस का सिपाही
है।
कौड़ियाँ समेटकर भागे कि सहसा
जंगी ने उसे पहचानकर कहा -- अरे, यह तो
गोबरधन है।
गोबर ने देखा, जंगी पेड़ की आड़ में खड़ा झाँक
रहा है।
बोला --
डरो मत जंगी भैया, मैं हूँ।
राम-राम!
आज ही आया हूँ।
सोचा,
चलूँ सबसे मिलता आऊँ, फिर न जाने कब आना हो!
मैं तो भैया, तुम्हारे आसिरबाद से बड़े
मज़े में निकल गया।
जिस राजा की नौकरी मैं
हूँ,
उन्होंने मुझसे कहा है कि एक-दो आदमी मिल जायँ तो
लेते आना।
चौकीदारी के लिए चाहिए।
मैंने कहा, सरकार ऐसे आदमी दूँगा कि चाहे
जान चली जाय, मैदान
से हटनेवाले नहीं, इच्छा हो तो मेरे साथ चलो।
अच्छी जगह है।
जंगी उसका ठाट-बाट देखकर रोब में आ गया।
उसे कभी चमरौधे जूते भी
मयस्सर न हुए थे।
औरर गोबर
चमाचम बूट पहने हुए था।
साफ़-सुथरी, धारीदार
कमीज़, सँवारे हुए
बाल, पूरा बाबू साहब
बना हुआ।
फटेहाल गोबर औरर इस परिष्कृत
गोबर में बड़ा अन्तर था।
हिंसा-भाव
कुछ तो यों ही समय के प्रभाव से
शान्त हो गया था औरर बचा-खुचा अब शान्त हो गया।
जुआड़ी था ही,
उस पर गाँजे की लत।
औरर घर में बड़ी मुश्किल से
पैसे मिलते थे।
मुँह में पानी भर आया।
बोला --
चलूँगा क्यों नहीं, यहाँ पड़ा-पड़ा
मक्खी ही तो मार रहा हूँ।
कै रुपए मिलेंगे?
गोबर ने बड़े आत्मविश्वास से
कहा -- इसकी कुछ चिन्ता न
करो।
सब कुछ अपने ही हाथ में है।
जो चाहोगे, वह हो जायगा।
हमने सोचा, जब घर में ही आदमी है, तो बाहर क्यों जायँ।
जंगी ने उत्सुकता से पूछा
-- काम क्या करना
पड़ेगा?
' काम चाहे
चौकीदारी करो, चाहे
तगादे पर जाओ।
तगादे का काम सबसे अच्छा।
असामी से गठ गये।
आकर मालिक से कह दिया, घर पर है नहीं, चाहो तो रुपए आठ आने रोज़ बना
सकते हो। '
' रहने की जगह
भी मिलती है? '
' जगह की कौन
कमी।
पूरा महल पड़ा है।
पानी का नल,
बिजली।
किसी बात की कमी नहीं है।
कामता हैं कि कहीं गये
हैं? '
' दूध लेकर
गये हैं।
मुझे कोई बाज़ार नहीं जाने
देता।
कहते हैं, तुम तो गाँजा पी जाते हो।
मैं अब बहुत कम पीता हूँ
भैया, लेकिन दो
पैसे रोज़ तो चाहिए ही।
तुम कामता से कुछ न कहना।
मैं तुम्हारे साथ
चलूँगा। '
' हाँ-हाँ,
बेखटके चलो।
होली के बाद। '
' तो पक्की
रही। '
दोनों आदमी बातें करते
भोला के द्वार पर आ पहुँचे।
भोला बैठे सुतली कात रहे
थे।
गोबर ने लपक कर उनके चरण छुए
औरर इस वक़्त उसका गला सचमुच भर आया।
बोला --
काका, मुझसे जो
कुछ भूल-चूक
हुई, उसे क्षमा करो।
भोला ने सुतली कातना बन्द कर दिया
औरर पथरीले स्वर में बोला -- काम तो तुमने ऐसा ही
किया था गोबर, कि
तुम्हारा सिर काट लूँ तो भी पाप न
लगे; लेकिन अपने
द्वार पर आये हो, अब
क्या कहूँ!
जाओ,
जैसा मेरे साथ किया उसकी सज़ा भगवान्
देंगे।
कब आये?
गोबर ने ख़ूब नमक-मिर्च लगाकर अपने भाग्योदय का
वृत्तान्त कहा, औरर
जंगी को अपने साथ ले जाने की
अनुमति माँगी।
भोला को जैसे
बेमाँगे वरदान मिल गया।
जंगी घर पर एक-न-एक उपद्रव करता
रहता था।
बाहर चला जायगा,
तो चार पैसे पैदा तो करेगा।
न किसी को कुछ दे, अपना बोझ तो उठा लेगा।
गोबर ने कहा -- नहीं काका,
भगवान् ने चाहा औरर इनसे रहते बना
तो साल दो साल में आदमी हो
जायँगे।
' हाँ,
जब इनसे रहते
बने। '
' सिर पर आ पड़ती
है, तो आदमी आप
सँभल जाता है। '
' तो कब तक
जाने का विचार है?
'
' होली
करके चला जाऊँगा।
यहाँ खेती-बारी का सिलसिला फिर जमा दूँ, तो निसचिन्त हो जाऊँ।
'
' होरी से
कहो, अब बैठ के
राम-राम करें। '
' कहता तो
हूँ, लेकिन जब
उनसे बैठा जाय। '
' वहाँ किसी
बैद से तो तुम्हारी जान-पहचान होगी।
खाँसी बहुत दिक कर रही है।
हो सके तो कोई दवाई भेज
देना। '
' एक नामी बैद
तो मेरे पड़ोस ही में रहते
हैं।
उनसे हाल कहके दवा बनवा कर भेज
दूँगा।
खाँसी रात को ज़ोर करती है कि दिन
को? '
' नहीं
बेटा, रात को।
आँख नहीं लगती।
नहीं वहाँ कोई डौल हो,
तो मैं भी वहीं
चलकर रहूँ।
यहाँ तो कुछ परता नहीं
पड़ता। '
' रोज़गार का
जो मज़ा वहाँ है काका, यहाँ क्या होगा?
यहाँ रुपए का दस सेर दूध भी कोई
नहीं पूछता।
हलवाइयों के गले लगाना पड़ता
है।
वहाँ पाँच-छ: सेर के भाव से चाहो तो एक
घड़ी में मनों दूध बेच
लो। '
जंगी गोबर के लिए दूधिया
शर्बत बनाने चला गया था।
भोला ने एकान्त देखकर कहा -- औरर भैया!
अब इस जंजाल से जी ऊब गया है।
जंगी का हाल देखते ही हो।
कामता दूध लेकर जाता है।
सानी-पानी,
खोलना-बाँधना, सब
मुझे करना पड़ता है।
अब तो यही जी चाहता है कि सुख
से कहीं एक रोटी खाऊँ औरर पड़ा रहूँ।
कहाँ तक हाय-हाय
करूँ।
रोज़ लड़ाई-झगड़ा।
किस-किस के
पाँव सहलाऊँ।
खाँसी आती है, रात को उठा नहीं जाता; पर कोई एक लोटे पानी को भी
नहीं पूछता।
पगहिया टूट गयी है, मुदा किसी को इसकी सुधि नहीं
है।
जब मैं बनाऊँगा तभी बनेगी।
गोबर ने आत्मीयता के साथ कहा
-- तुम चलो लखनऊ
काका।
पाँच सेर का दूध
बेचो, नगद।
कितने ही बड़े-बड़े अमीरों से मेरी
जान-पहचान है।
मन-भर दूध की
निकासी का ज़िम्मा मैं लेता हूँ।
मेरी चाय की दूकान भी है।
दस सेर दूध तो मैं ही नित
लेता हूँ।
तुम्हें किसी तरह का कष्ट न
होगा।
जंगी दूधिया शर्बत ले आया।
गोबर ने एक गिलास शर्बत पीकर कहा
-- तुम तो ख़ाली
साँझ सबेरे चाय की दूकान पर बैठ
जाओ काका, तो एक रुपए
कहीं नहीं गया है।
भोला ने एक मिनट के बाद
संकोच भरे भाव से कहा -- क्रोध में बेटा, आदमी अन्धा हो जाता है।
मैं तुम्हारी गोईं खोल लाया
था।
उसे लेते जाना।
यहाँ कौन खेती-बारी होती है।
' मैंने तो एक नयी गोईं ठीक कर
ली है काका! '
' नहीं-नहीं, नयी
गोईं लेकर क्या करोगे?
इसे लेते जाओ। '
' तो
मैं तुम्हारे रुपए भिजवा दूँगा। '
' रुपए कहीं बाहर
थोड़े ही हैं बेटा, घर में ही तो हैं।
बिरादरी का ढकोसला है, नहीं तुममें औरर
हममें कौन भेद है?
सच पूछो तो मुझे ख़ुश
होना चाहिए था कि झुनिया भले घर में
है, आराम से है।
औरर मैं उसके ख़ून का प्यासा
बन गया था। '
सन्ध्या समय गोबर यहाँ से
चला, तो गोईं
उसके साथ थी औरर दही की दो हाँड़ियाँ
लिये जंगी पीछे-पीछे आ रहा था।
Proceed to Chapter Twenty-one.
Return to indexpage of texts.
Return to Mellon Project indexpage.
Recoded: 20 Sept. 1999 to 6 Oct 1999.
Chapter Twenty posted: 13 Oct. 1999.