यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
इन्स्टिट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ लैंग्वजिज़ ऐंड कल्चर्ज़ ऑफ़ एशिया ऐंड ऐफ़्रिका
तोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ाॅरेन स्टडीज़


Mellon Project


प्रेमचन्द
गोदान
(Devanagari text reconstituted from Professor K. Machida's roman transcription)

Chapter Twenty-five.
(unparagraphed text)

        भोला इधर दूसरी सगाई लाये थे। औररत के बग़ैर उनका जीवन नीरस था। जब तक झुनिया थी, उन्हें हुक़्क़ा-पानी दे देती थी। समय से खाने को बुला ले जाती थी। अब बेचारे अनाथ-से हो गये थे। बहुओं को घर के काम-धाम से छुट्टी न मिलती थी। उनकी क्या सेवा-सत्कार करती; इसलिए अब सगाई परमावश्यक हो गयी थी। संयोग से एक जवान विधवा मिल गयी, जिसके पति का देहान्त हुए केवल तीन महीने हुए थे। एक लड़का भी था। भोला की लार टपक पड़ी। झटपट शिकार मार लाये। जब तक सगाई न हुई, उसका घर खोद डाला। अभी तक उसके घर में जो कुछ था, बहुओं का था। जो चाहती थीं, करती थीं, जैसे चाहती थीं, रहती थीं। जंगी जब से अपनी स्त्री को लेकर लखनऊ चला गया था, कामता की बहू ही घर की स्वामिनी थी। पाँच-छ: महीनों में ही उसने तीस-चालीस रुपए अपने हाथ में कर लिये थे। सेर-आध सेर दूध-दही चोरी से बेच लेती थी। अब स्वामिनी हुई उसकी सौतेली सास। उसका नियन्त्रण बहू को बुरा लगाता था औरर आये दिन दोनों में तकरार होती रहती थी। यहाँ तक की औररतों के पीछे भोला औरर कामता में भी कहा-सुनी हो गयी। झगड़ा इतना बढ़ा कि अलगौझे की नौबत आ गयी औरर यह रीति सनातन से चली आयी है कि अलगौझे के समय मार-पीट अवश्य हो। यहाँ उस रीति का पालन किया गया। कामता जवान आदमी था। भोला का उस पर जो कुछ दबाव था, वह पिता के नाते था; मगर नयी स्त्री लाकर बेटे से आदर पाने का अब उसे कोई हक़ न रहा था। कम-से-कम कामता इसे स्वीकार न करता था। उसने भोला को पटककर कई लातें जमायीं औरर घर से निकाल दिया। घर की चीज़ें न छूने दीं। गाँववालों में भी किसी ने भोला का पक्ष न लिया। नयी सगाई ने उन्हें नक्कू बना दिया था। रात तो उन्होंने किसी तरह एक पेड़ के नीचे काटी, सुबह होते ही नोखेराम के पास जा पहुँचे औरर अपनी फ़रियाद सुनायी। भोला का गाँव भी उन्हीं के इलाक़े में था औरर इलाक़े-भर के मालिक-मुखिया जो कुछ थे, वही थे। नोखेराम को भोला पर तो क्या दया आती; पर उनके साथ एक चटपटी, रँगीली स्त्री देखी तो चटपट आश्रय देने पर राज़ी हो गये। जहाँ उनकी गायें बँधती थीं, वहीं एक कोठरी रहने को दे दी। अपने जानवरों की देख-भाल, सानी-भूसे के लिए उन्हें एकाएक एक जानकार आदमी की ज़रूरत मालूम होने लगी। भोला को तीन रुपया महीना औरर सेर-भर रोज़ाना पर नौकर रख लिया। नोखेराम नाटे, मोटे, खल्वाट, लम्बी नाक औरर छोटी-छोटी आँखोंवाले साँवले आदमी थे। बड़ा-सा पग्गड़ बाँधते, नीचा कुरता पहनते औरर जाड़ों में लिहाफ़ ओढ़कर बाहर आते-जाते थे। उन्हें तेल की मालिश कराने में बड़ा आनन्द आता था, इसलिए उनके कपड़े हमेशा मैले, चीकट रहते थे। उनका परिवार बहुत बड़ा था। सात भाई औरर उनके बाल-बच्चे सभी उन्हीं पर आश्रित थे। उस पर स्वयम् उनका लड़का नवें दरजे में अँग्रेज़ी पढ़ता था औरर उसका बबुआई ठाठ निभाना कोई आसान काम न था। राय साहब से उन्हें केवल बारह रुपए वेतन मिलता था; मगर ख़र्च सौ रुपए से कौड़ी कम न था। इसलिए आसामी किसी तरह उनके चंगुल में फँस जाय तो बिना उसे अच्छी तरह चूसे छोड़ते न थे। पहले छ: रुपए वेतन मिलता था, तब असामियों से इतनी नोच-खसोट न करते थे; जब से बारह रुपए हो गये थे, तब से उनकी तृष्णा औरर भी बढ़ गयी थी; इसलिए राय साहब उनकी तरक़्क़ी न करते थे। गाँव में औरर तो सभी किसी--किसी रूप में उनका दवाब मानते थे; यहाँ तक कि दातादीन औरर झिंगुरीसिंह भी उनकी ख़ुशामद करते थे, केवल पटेश्वरी उनसे ताल ठोकने को हमेशा तैयार रहते थे। नोखेराम को अगर यह जोम था कि हम ब्राह्मण हैं औरर कायस्थों को उँगली पर नचाते हैं, तो पटेश्वरी को भी घमंड था कि हम कायस्थ हैं, क़लम के बादशाह, इस मैदान में कोई हमसे क्या बाज़ी ले जायगा। फिर वह ज़मींदार के नौकर नहीं, सरकार के नौकर हैं, जिसके राज में सूरज कभी नहीं डूबता। नोखेराम अगर एकादशी को व्रत रखते हैं औरर पाँच ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं तो पटेश्वरी हर पूर्णमासी को सत्यनारायण की कथा सुनेंगे औरर दस ब्राह्मणों को भोजन करायेंगे। जब से उनका जेठा लड़का सज़ावल हो गया था, नोखेराम इस ताक में रहते थे कि उनका लड़का किसी तरह दसवाँ पास कर ले, तो उसे भी कहीं नक़ल-नवीसी दिला दें। इसलिए हुक्काम के पास फ़सली सौगातें लेकर बराबर सलामी करते रहते थे। एक औरर बात में पटेश्वरी उनसे बढ़े हुए थे। लोगों का ख़याल था कि वह अपनी विधवा कहारिन को रखे हुए हैं। अब नोखेराम को भी अपनी शान में यह कसर पूरी करने का अवसर मिलता हुआ जान पड़ा। भोला को ढाढ़स देते हुए बोले -- तुम यहाँ आराम से रहो भोला, किसी बात का खटका नहीं। जिस चीज़ की ज़रूरत हो, हमसे आकर कहो। तुम्हारी घरवाली है, उसके लिए भी कोई न कोई काम निकल आयेगा। बखारों में अनाज रखना, निकालना, पछोरना, फटकना क्या थोड़ा काम है? भोला ने अरज की -- सरकार, एक बार कामता को बुलाकर पूछ लो, क्या बाप के साथ बेटे का यही सलूक होना चाहिए। घर हमने बनवाया, गायें-भ्ैंसें हमने लीं। अब उसने सब कुछ हथिया लिया औरर हमें निकाल बाहर किया। यह अन्याय नहीं तो क्या है। हमारे मालिक तो तुम्हीं हो। तुम्हारे दरबार से इसका फ़ैसला होना चाहिए। नोखेराम ने समझाया -- भोला, तूम उससे लड़कर पेश न पाओगे; उसने जैसा किया है, उसकी सज़ा उसे भगवान् देंगे। बेईमानी करके कोई आज तक फलीभूत हुआ है? संसार में अन्याय न होता, तो इसे नरक क्यों कहा जाता। यहाँ न्याय औरर धर्म को कौन पूछता है? भगवान् सब देखते हैं। संसार का रत्ती-रत्ती हाल जानते हैं। तुम्हारे मन में इस समय क्या बात है, यह उनसे क्या छिपा है? इसी से तो अन्तरजामी कहलाते हैं। उनसे बचकर कोई कहाँ जायगा? तुम चुप होके बैठो। भगवान् की इच्छा हुई, तो यहाँ तुम उससे बुरे न रहोगे। यहाँ से उठकर भोला ने होरी के पास जाकर अपना दुखड़ा रोया। होरी ने अपनी बीती सुनायी -- लड़कों की आजकल कुछ न पूछो भोला भाई। मर-मरकर पालो; जवान हों, तो दुसमन हो जायँ। मेरे ही गोबर को देखो। माँ से लड़कर गया, औरर सालों हो गये, न चिट्ठी, न पत्तर। उसके लेखे तो माँ-बाप मर गये। बिटिया का ब्याह सिर पर है; लेकिन उससे कोई मतलब नहीं। खेत रेहन रखकर दो सौ रुपए लिये हैं। इज़्ज़त-आबरू का निबाह तो करना ही होगा। कामता ने बाप को निकाल बाहर तो किया; लेकिन अब उसे मालूम होने लगा कि बुड्ढा कितना कामकाजी आदमी था। सबेरे उठकर सानी-पानी करना, दूध दुहना, फिर दूध लेकर बाज़ार जाना, वहाँ से आकर फिर सानी-पानी करना, फिर दूध दुहना; एक पखवारे में उसका हुलिया बिगड़ गया। स्त्री-पुरुष में लड़ाई हुई। स्त्री ने कहा -- मैं जान देने के लिए तुम्हारे घर नहीं आयी हूँ। मेरी रोटी तुम्हें भारी हो, तो मैं अपने घर चली जाऊँ। कामता डरा, यह कहीं चली जाय, तो रोटी का ठिकाना भी न रहे, अपने हाथ से ठोकना पड़े। आख़िर एक नौकर रखा; लेकिन उससे काम न चला। नौकर खली-भूसा चुरा-चुराकर बेचने लगा। उसे अलग किया। फिर स्त्री-पुरुष में लड़ाई हुई। स्त्री रूठकर मैके चली गयी। कामता के हाथ-पाँव फूल गये। हारकर भोला के पास आया औरर चिरौरी करने लगा -- दादा, मुझसे जो कुछ भूल-चूक हुई हो क्षमा करो। अब चलकर घर सँभालो, जैसे तुम रखोगे, वैसे ही रहूँगा। भोला को यहाँ मजूरों की तरह रहना अखर रहा था। पहले महीने-दो-महीने उसकी जो ख़ातिर हुई, वह अब न थी। नोखेराम कभी-कभी उससे चिलम भरने या चारपाई बिछाने को भी कहते थे। तब बेचारा भोला ज़हर का घूँट पीकर रह जाता था। अपने घर में लड़ाई-दंगा भी हो, तो किसी की टहल तो न करनी पड़ेगी। उसकी स्त्री नोहरी ने यह प्रस्ताव सुना तो ऐंठकर बोली -- जहाँ से लात खाकर आये, वहाँ फिर जाओगे? तुम्हें लाज भी नहीं आती। भोला ने कहा -- तो यहीं कौन सिंहासन पर बैठा हुआ हूँ। नोहरी ने मटककर कहा -- तुम्हें जाना हो तो जाओ, मैं नहीं जाती। भोला जानता था, नोहरी विरोध करेगी। इसका कारण भी वह कुछ-कुछ समझता था, कुछ देखता भी था, उसके यहाँ से भागने का एक कारण यह भी था। यहाँ उसकी तो कोई बात न पूछता था; पर नोहरी की बड़ी ख़ातिर होती थी। प्यादे औरर शहने तक उसका दबाव मानते थे। उसका जवाब सुनकर भोला को क्रोध आया; लेकिन करता क्या? नोहरी को छोड़कर चले जाने का साहस उसमें होता तो नोहरी भी झख मारकर उसके पीछे-पीछे चली जाती। अकेले उसे यहाँ अपने आश्रय में रखने की हिम्मत नोखेराम में न थी। वह टट्टी की आड़ से शिकार खेलनेवाले जीव थे, मगर नोहरी भोला के स्वभाव से परिचित हो चुकी थी। भोला मिन्नत करके बोला -- देख नोहरी, दिक मत कर। अब तो वहाँ बहुएँ भी नहीं हैं। तेरे ही हाथ में सब कुछ रहेगा। यहाँ मजूरी करने से बिरादरी में कितनी बदनामी हो रही है, यह सोच! नोहरी ने ठेंगा दिखाकर कहा -- तुम्हें जाना है जाओ, मैं तुम्हें रोक तो नहीं रही हूँ। तुम्हें बेटे की लातें प्यारी लगती होंगी, मुझे नहीं लगतीं। मैं अपनी मज़दूरी में मगन हूँ। भोला को रहना पड़ा औरर कामता अपनी स्त्री की ख़ुशामद करके उसे मना लाया। इधर नोहरी के विषय में कनबतियाँ होती रहीं -- नोहरी ने आज गुलाबी साड़ी पहनी है। अब क्या पूछना है, चाहे रोज़ एक साड़ी पहने। सैयाँ भये कोतवाल अब डर काहे का। भोला की आँखें फूट गयी हैं क्या? शोभा बड़ा हँसोड़ था। सारे गाँव का विदूषक, बल्कि नारद। हर एक बात की टोह लगाता रहता था। एक दिन नोहरी उसे घर में मिल गयी। कुछ हँसी कर बैठा। नोहरी ने नोखेराम से जड़ दिया। शोभा की चौपाल में तलबी हुई औरर ऐसी डाँट पड़ी कि उम्र-भर न भूलेगा। एक दिन लाला पटेश्वरी प्रसाद की शामत आ गयी। गर्मियों के दिन थे। लाला बग़ीचे में बैठे आम तुड़वा रहे थे। नोहरी बनी-ठनी उधर से निकली। लाला ने पुकारा -- नोहरा रानी, इधर आओ, थोड़े से आम लेती जाओ, बड़े मीठे हैं। नोहरी को भ्रम हुआ, लाला मेरा उपहास कर रहे हैं। उसे अब घमंड होने लगा था। वह चाहती थी, लोग उसे ज़मींदारिन समझें औरर उसका सम्मान करें। घमंडी आदमी प्राय: शक्की हुआ करता है। औरर जब मन में चोर हो तो शक्कीपन औरर भी बढ़ जाता है। वह मेरी ओर देखकर क्यों हँसा? सब लोग मुझे देखकर जलते क्यों हैं? मैं किसी से कुछ माँगने नहीं जाती। कौन बड़ी सतवन्ती है! ज़रा मेरे सामने आये, तो देखूँ। इतने दिनों में नोहरी गाँव के गुप्त रहस्यों से परिचित हो चुकी थी। यही लाला कहारिन को रखे हुए हैं औरर मुझे हँसते हैं। इन्हें कोई कुछ नहीं कहता। बड़े आदमी हैं न। नोहरी ग़रीब है, जात की हेठी है; इसलिए सभी उसका उपहास करते हैं। औरर जैसा बाप है, वैसा ही बेटा। इन्हीं का रमेसरी तो सिलिया के पीछे पागल बना फिरता है। चमारियों पर तो गिद्ध की तरह टूटते हैं, उस पर दावा है कि हम ऊँचे हैं। उसने वहीं खड़े होकर कहा -- तुम दानी कब से हो गये लाला! पाओ तो दूसरों की थाली की रोटी उड़ा जाओ। आज बड़े आमवाले हुए हैं। मुझसे छेड़ की तो अच्छा न होगा, कहे देती हैं। ओ हो! इस अहीरिन का इतना मिज़ाज! नोखेराम को क्या फाँस लिया, समझती है सारी दुनिया पर उसका राज है। बोले -- तू तो ऐसी तिनक रही है नोहरी, जैसे अब किसी को गाँव में रहने न देगी। ज़रा ज़बान सँभालकर बातें किया कर, इतनी जल्द अपने को न भूल जा। ' तो क्या तुम्हारे द्वार कभी भीख माँगने आयी थी? ' ' नोखेराम ने छाँह न दी होती, तो भीख भी माँगती। ' नोहरी को लाल मिर्च-सा लगा। जो कुछ मुँह में आया बका -- दाढ़ीजार, लम्पट, मुँहझौंसा औरर जाने क्या-क्या कहा औरर उसी क्रोध में भरी हुई कोठरी में गयी औरर अपने बरतन-भाँड़े निकाल-निकालकर बाहर रखने लगी। नोखेराम ने सुना तो घबराये हुए आये औरर पूछा -- वह क्या कर रही है नोहरी, कपड़े-लत्ते क्यों निकाल रही है? किसी ने कुछ कहा है क्या? नोहरी मर्दों के नचाने की कला जानती थी। अपने जीवन में उसने यही विद्या सीखी थी। नोखेराम पढ़े-लिखे आदमी थे। क़ानून भी जानते थे। धर्म की पुस्तकें भी बहुत पढ़ी थीं। बड़े-बड़े वकीलों, बैरिस्टरों की जूतियाँ सीधी की थीं; पर इस मूर्ख नोहरी के हाथ का खिलौना बने हुए थे। भौंहें सिकोड़कर बोली -- समय का फेर है, यहाँ आ गयी; लेकिन अपनी आबरू न गवाऊँगी। ब्राह्मण सतेज हो उठा। मूँछें खड़ी करके बोला -- तेरी ओर जो ताके उसकी आँखें निकाल लूँ। नोहरी ने लोहे को लाल करके घन जमाया -- लाला पटेसरी जब देखो मुझसे बेबात की बात किया करते हैं। मैं हरजाई थोड़े ही हूँ कि कोई मुझे पैसे दिखाये। गाँव-भर में सभी औररतें तो हैं, कोई उनसे नहीं बोलता। जिसे देखो, मुझी को छेड़ता है। नोखेराम के सिर पर भूत सवार हो गया। अपना मोटा डंडा उठाया औरर आँधी की तरह हरहराते हुए बाग़ में पहुँचकर लगे ललकारने -- आ जा बड़ा मर्द है तो। मूँछें उखाड़ लूँगा, खोदकर गाड़ दूँगा। निकल आ सामने। अगर फिर कभी नोहरी को छेड़ा तो ख़ून पी जाऊँगा। सारी पटवारगिरी निकाल दूँगा। जैसा ख़ुद है, वैसा ही दूसरों को समझता है। तू है किस घमंड में? लाला पटेश्वरी सिर झुकाये, दम साधे जड़वत्् खड़े थे। ज़रा भी ज़बान खोली औरर शामत आयी। उनका इतना अपमान जीवन में कभी न हुआ था। एक बार लोगों ने उन्हें ताल के किनारे रात को घेरकर ख़ूब पीटा था; लेकिन गाँव में उसकी किसी को ख़बर न हुई थी। किसी के पास कोई प्रमाण न था; लेकिन आज तो सारे गाँव के सामने उनकी इज़्ज़त उतर गयी। कल जो औररत गाँव में आश्रय माँगती आयी थी, आज सारे गाँव पर उसका आतंक था। अब किसकी हिम्मत है जो उसे छेड़ सके। जब पटेश्वरी कुछ नहीं कर सके, तो दूसरों की बिसात ही क्या! अब नोहरी गाँव की रानी थी। उसे आते देखकर किसान लोग उसके रास्ते से हट जाते थे। यह खुला हुआ रहस्य था कि उसकी थोड़ी-सी पूजा करके नोखेराम से बहुत काम निकल सकता है। किसी को बटवारा कराना हो, लगान के लिए मुहलत माँगनी हो, मकान बनाने के लिए ज़मीन की ज़रूरत हो, नोहरी की पूजा किये बग़ैर उसका काम सिद्ध नहीं हो सकता। कभी-कभी यह अच्छे-अच्छे आसामियों को डाँट देती थी। आसामी ही नहीं, अब कारकुन साहब पर भी रोब जमाने लगी थी। भोला उसके आश्रित बनकर न रहना चाहते थे। औररत की कमाई खाने से ज़्यादा अधम उनकी दृष्टि में दूसरा काम न था। उन्हें कुल तीन रुपये माहवार मिलते थे, यह भी उनके हाथ न लगते। नोहरी ऊपर ही ऊपर उड़ा लेती। उन्हें तमाखू पीने को धेला मयस्सर नहीं, औरर नोहरी दो आने रोज़ के पान खा जाती थी। जिसे देखो, वही उन पर रोब जमाता था। प्यादे उससे चिलम भरवाते, लकड़ी कटवाते; बेचारा दिन-भर का हारा-थका आता औरर द्वार पर पेड़ के नीचे झिलँगे खाट पर पड़ा रहता। कोई एक लुटिया पानी देनेवाला भी नहीं। दोपहर की बासी रोटियाँ रात को खानी पड़तीं औरर वह भी नमक या पानी औरर नमक के साथ। आख़िर हारकर उसने घर जाकर कामता के साथ रहने का निश्चय किया। कुछ न होगा एक टुकड़ा रोटी तो मिल ही जायगी, अपना घर तो है। नोहरी बोली -- मैं वहाँ किसी की ग़ुलामी करने न जाऊँगी। भोला ने जी कड़ा करके कहा -- तुम्हें जाने को तो मैं नहीं कहता। मैं तो अपने को कहता हूँ। ' तुम मुझे छोड़कर चले जाओगे? कहते लाज नहीं आती? ' ' लाज तो घोल कर पी गया। ' ' लेकिन मैंने तो अपनी लाज नहीं पी। तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते। ' ' तू अपने मन की है, तो मैं तेरी ग़ुलामी क्यों करूँ? ' ' पंचायत करके मुँह में कालिख लगा दूँगी, इतना समझ लेना। ' ' क्या अभी कुछ कम कालिख लगी है? क्या अब भी मुझे धोखे में रखना चाहती है? ' ' तुम तो ऐसा ताव दिखा रहे हो, जैसे मुझे रोज़ गहने ही तो गढ़वाते हो। तो यहाँ नोहरी किसी का ताव सहनेवाली नहीं है। ' भोला झल्लाकर उठे औरर सिरहाने से लकड़ी उठाकर चले कि नोहरी ने लपककर उनका पहुँचा पकड़ लिया। उसके बलिष्ठ पंजों से निकलना भोला के लिए मुश्किल था। चुपके से कैदी की तरह बैठ गये। एक ज़माना था, जब वह औररतों को अँगुलियों पर नचाया करते थे, आज वह एक औररत के करपाश में बँधे हुए हैं औरर किसी तरह निकल नहीं सकते। हाथ छुड़ाने की कोशिश करके वह परदा नहीं खोलना चाहते। अपनी सीमा का अनुमान उन्हें हो गया है। मगर वह क्यों उससे निडर होकर नहीं कह देते कि तू मेरे काम की नहीं है, मैं तुझे त्यागता हूँ। पंचायत की धमकी देती है। पंचायत क्या कोई हौवा है; अगर तुझे पंचायत का डर नहीं, तो मैं क्यों पंचायत से डरूँ? लेकिन यह भाव शब्दों में आने का साहस न कर सकता था। नोहरी ने जैसे उन पर कोई वशीकरण डाल दिया हो।
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Chapter Twenty-six.
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Recoded: 20 Sept. 1999 to 6 Oct 1999.
Chapter Twenty-five posted: 13 Oct. 1999.