यूनीवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन

नशा



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इश्वरी एक बड़े जमींदार का लड़का था औरर मैं एक गरीब क्लर्क का,  जिसके पास मेहनत-मजूरी के सिवा औरर कोई जायदाद न थी। हम दोनों में परस्पर बहसें होती रहती थीं। मैं जमींदारों की बुराई करता,  उन्हें हिंसक पशु औरर खून चूसनेवाली जोंक औरर वृक्षों की चोटी पर फूलनेवाला बंझा कहता। वह जमींदारों का पक्ष लेता;  पर स्वभावत: उसका पहलू कुछ कमजोर होता था,  क्योंकि उसके पास जमींदारों के अनुकूल कोई दलील न थी। यह कहना कि सभी मनुष्य बराबर नहीं होते,  छोटे-बड़े हमेशा होते रहते हैं औरर होते रहेंगे,  लचर दलील थी।  [5] किसी मानुषीय या नैतिक नियम से इस व्यवस्था का औरचित्य सिद्ध करना कठिन था। मैं इस वाद-विवाद की गर्मा-गर्मी में अक्सर तेज हो जाता औरर लगनेवाली बातें कह जाता;  लेकिन ईश्वरी हारकर भी मुस्कराता रहता था। मैंने उसे कभी गर्म होते नहीं देखा। शायद इसका कारण यह था कि वह अपने पक्ष की कमजोरी समझता था। नौकरों से वह सीधे मुँह बात न करता था।  [10] अमीरों में जो एक बेदर्दी औरर उद्दण्डता होती है,  इसका उसे भी प्रचुर भाग मिला था। नौकर ने बिस्तर लगाने में ज़रा भी देर की,  दूध जरूरत से ज्यादा गर्म या ठण्डा हुआ,  साइकिल अच्छी तरह साफ नहीं हुई,  तो वह आपे से बाहर हो जाता। सुस्ती या बदतमीजी उसे ज़रा भी बर्दाश्त न थी,  पर दोस्तों से औरर विशेषकर मुझसे उसका व्यवहार सौहाद्र्र औरर नम्रता से भरा होथा था। शायद उसकी जगह मैं होता,  तो मुझमें भी वही कठोरताएँ पैदा हो जाती;  जो उसमें थी;  क्योंकि मेरा लोक-प्रेम सिद्धान्तों पर नहीं निजी दशाओं पर टिका हुआ था;  लेकिन वह मेरी जगह होकर भी शायद अमीर ही रहता,  क्योंकि वह प्रकृति से ही विलासी औरर ऐश्वर्य-प्रिय था।
    अबकी दशहरे की छुट्टियों में मैंने निश्चय किया कि घर न जाऊँगा।  [15] मेरे पास किराये के लिए रुपये न थे औरर न मैं घरवालों को तकलीफ़ देना चाहता था। मैं जानता हूँ,  वे मुझे जो कुछ देते हैं वह उनकी हैसियत से बहुत ज्यादा है। इसके साथ ही परीक्षा का भी खयाल था। अभी बहुत-कुछ पढ़ना बाकी था औरर घर जाकर कौन पढ़ता है। बोर्डिंग हाउस में भूत की तरह अकेले पड़े रहने को भी जी न चाहता था।  [20] लेकिन जब ईश्वरी ने मुझे अपने घर चलने का नेवता दिया,  तो मैं बिना आग्रह के राजी हो गया। ईश्वरी के साथ परीक्षा की तैयारी खूब हो जायेगी। वह अमीर होकर भी मेहनती औरर जहीन है।
    उसने इसके साथ ही कहा
--  लेकिन भाई एक बात का खयाल रखना। वहाँ अगर जमींदारों की निन्दा की तो मुआमिला बिगड़ जायेगा औरर मेरे घरवालों को बुरा लगेगा।  [25] वह लोग तो असामियों पर इसी दावे से शासन करते हैं कि ईश्वर ने असामियों को उनकी सेवा के लिए ही पैदा किया है। असामी भी यही समझता है। अगर उसे सुझा दिया जाय कि जमींदार औरर असामी में कोई मौलिक भेद नहीं है,  तो जमींदारों का कहीं पता न लगे।
    मैंने कहा--  तो क्या तुम समझते हो कि मैं वहाँ जाकर कुछ औरर हो जाऊँगा ?
    हाँ,  मैं तो यही समझता हूँ। '  [30]
    तो तुम गलत समझते हो। '
    इश्वरी ने इसका कोई जवाब न दिया। कदाचित् उसने इस मुआमले को मेरे विवेक पर छोड़ दिया औरर बहुत अच्छा किया। अगर वह अपनी बात पर अड़ता,  तो मैं भी जिद पकड़ लेता।



सेकेण्ड क्लास तो क्या,  मैंने कभी इण्टर क्लास में भी सफर न किया था।  [35] अबकी सेकेण्ड क्लास में सफर करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गाड़ी तो नौ बजे रात को आती थी,  पर यात्रा के हर्ष में हम शाम को ही स्टेशन जा पहुँचे। कुछ देर इधर-उधर सैर करने के बाद रिफ़्रेशमेण्ट-रूम में जाकर हम लोगों ने भोजन किया। मेरी वेश-भूषा औरर रंग-ढंग से पारखी खानसामों को यह पहचानने में देर न लगी कि मालिक कौन है औरर पिछलग्गू कौन;  लेकिन न जाने मुझे उनकी गुस्ताखी बुरी लग रही थी। पैसे ईश्वरी के जेब से गये।  [40] शायद मेरे पिता को जो वेतन मिलता है,  उससे ज्यादा इन खानसामों को इनाम-एकराम में मिल जाता हो। एक अठन्नी तो चलते समय ईश्वरी ही ने दी। फिर भी मैं उन सबों से उसी तत्परता औरर विनय की प्रतीक्षा करता था,  जिससे वे ईश्वरी की सेवा कर रहे थेईश्वरी के हुक्म पर सब-के-सब क्यों दौड़ते हैं,  लेकिन मैं कोई चीज माँगता हूँ तो उतना उत्साह नहीं दिखातेमुझे भोजन में कुछ स्वाद न मिला।  [45] वह भेद मेरे ध्यान को सम्पूर्ण रूप से अपनी औरर खींचे हुए था।
    गाड़ी आयी
,  हम दोनों सवार हुए। खानसामों ने ईश्वरी को सलाम किया। मेरी औरर देखा भी नहीं।
    ईश्वरी ने कहा
--  कितने तमीजदार हैं ये सब।  [50] एक हमारे नौकर हैं कि कोई काम करने का ढंग नहीं।
    मैंने खट्टे मन से कहा
--  इसी तरह अगर तुम अपने नौकरों को भी आठ आने रोज इनाम दिया करो तो शायद इससे ज्यादा तमीजदार हो जायें।
    तो क्या तुम समझते हो,  यह सब केवल इनाम की लालच से इतना अदब करते हैं ?'
    जो नहीं,  कदापि नहीं। तमीज औरर अदब तो इनके रक्त में मिल गया है !'  [55]
    गाड़ी चली। डाक थी। प्रयाग से चली तो प्रतापगढ़ जाकर रुकी। एक आदमी ने हमारा कमरा खोला। मैं तुरन्त चिल्ला उठा--  दूसरा दरजा हैं--  सेकेण्ड क्लास है।  [60]
    उस मुसाफिर ने डब्बे के अन्दर आकर मेरी औरर एक विचित्र उपेक्षा की दृष्टि से देखकर कहा--  जी हाँ,  सेवक भी इतना समझता है,  औरर बीचवाले बर्थ पर बैठ गया। मुझे कितनी लज्जा आयी,  कह नहीं सकता।
    भोर होते-होते हम लोग मुरादाबाद पहुँचे। स्टेशन पर कई आदमी हमारा स्वागत करने के लिए खड़े थे। दो भद्र पुरुष थे।  [65] पाँच बेगार। बेगारों ने हमारा लगेज उठाया। दोनों भद्र पुरुष पीछे-पीछे चले। एक मुसलमान था,  रियासत अली;  दूसरा ब्राह्मण था,  रामहरख। दोनों ने मेरी ओर अपरिचित नेत्रों से देखा,  मानों कह रहे हैं,  तुम कौवे होकर हंस के साथ कैसे ?  [70]
    रियासत अली ने ईश्वरी से पूछा--  यह बाबू साहब क्या आपके साथ पढ़ते हैं ?
    ईश्वरी ने जवाब दिया--  हाँ,  साथ पढ़ते भी हैं,  औरर साथ रहते भी हैं। यों कहिए कि आप ही की बदौलत मैं इलाहाबाद पड़ा हुआ हूँ,  नहीं कब का लखनऊ चला आया होता। अबकी मैं इन्हें घसीट लाया। इनके घर से कई तार आ चुके थे;  मगर मैंने इन्कारी जवाब दिलवा दिये।  [75] आखिरी तार तो अर्जंेण्ट था,  जिसकी फीस चार आने प्रति शब्द है;  पर यहाँ से भी उसका जवाब इन्कारी ही गया।
    दोनों सज्जनों ने मेरी ओर चकित नेत्रों से देखा। आतंकित हो जाने की चेष्टा करते हुए जान पड़े।
    रियासत अली ने अद्र्ध शंका के स्वर में कहा
--  लेकिन आप बड़े सादे लिबास में रहते हैं !
    ईश्वरी ने शंका निवारण की--  महात्मा गाँधी के भक्त हैं साहब !   [80] खद्दर के सिवा कुछ पहनते ही नहीं। पुराने सारे कपड़े जला डालेयों कहो कि राजा हैं। ढाई लाख सालाना की रियासत हैं;  पर आपकी सूरत देखो तो मालूम होता है,  अभी अनाथालय से पकड़कर आये हैं।
    रामहरख बोले--  अमीरों का ऐसा स्वभाव बहुत कम देखने में आता है।  [85] कोई भाँप ही नहीं सकता।
    रियासत अली ने समर्थन किया
--  आपने महाराज चाँगली को देखा होता,  तो दाँतों उँगली दबाते। एक गाढ़े की मिर्जई औरर चमरौधे जूते पहने बाजारों में घूमा करते थे। सुनते हैं,  एक बार बेगार में पकड़ गये थे औरर उन्हीं ने दस लाख से कालेज खोल दिया।
    मैं मन में कटा जा रहा था;  पर न जाने क्या बात थी कि यह सफेद झूठ उस वक्त मुझे हास्यास्पद न जान पड़ा।  [90] उसके प्रत्येक वाक्य के साथ मानों मैं उस कल्पित वैभव के समीपतर आता जाता था।
    मैं शहसवार नहीं हूँ। हाँ
,  लड़कपन में कई बार लद्दू घोड़ों पर सवार हुआ हूँ। यहाँ देखा तो दो कलाँ-रास घोड़े हमारे लिए तैयार खड़े थे। मेरी तो जान ही निकल गयी।  [95] सवार तो हुआ;  पर बोटियाँ काँप रही थी। मैने चेहरे पर शिकन न पड़ने दिया। घोड़े को ईश्वरी के पीछे डाल दिया। खैरियत यह हुई कि ईश्वरी ने घोड़े को तेज न किया,  वरन शायद मैं हाथ-पाँव तुड़वाकर लौटता। सम्भव है,  ईश्वरी ने समझ लिया हो कि यह कितने पानी में है।  [100]



ईश्वरी का घर क्या था,  किला था। इमामबाड़े का-सा फाटक,  द्वार पर पहरेदार टहलता हुआ,  नौकरों का कोई हिसाब नहीं,  एक हाथी बँधा हुआ। ईश्वरी ने अपने पिता,  चाचा,  ताऊ आदि सबसे मेरा परिचय कराया,  औरर उसी अतिशयोक्ति के साथ। ऐसी हवा बाँधी कि कुछ न पूछिए। नौकर-चाकर ही नहीं,  घर के लोग भी मेरा सम्मान करने लगे  [105] देहात के जमींदार,  लाखों का मुनाफा,  मगर पुलिस कान्सटेबिल को भी अफसर समझनेवाले। कई महाशय तो मुझे हुजूर-हुजूर कहने लगे।
    जब ज़रा एकान्त हुआ,  तो मैंने ईश्वरी से कहा--  तुम बड़े शैतान हो यार,  मेरी मिट्टी क्यों पलीद कर रहे हो ?
    ईश्वरी ने सुद्ढ़ मुस्कान के साथ कहा--  इन गधों के सामने यही चाल जरूरी थी;  वरना सीधे मुँह बोलते भी नहीं।
    ज़रा देर बाद एक नाई हमारे पाँव दबाने आया।  [110] कुँवर लोग स्टेशन से आये हैं,  थक गये होंगे। ईश्वरी ने मेरी ओर इशारा करके कहा--  पहले कुँवर साहब के पाँव दबा।
    मैं चारपाई पर लेटा हुआ था। मेरे जीवन में ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि किसी ने मेरे पँाव दबाये हों। मैं इसे अमीरों के चोंचले,  रईसों का गधापन औरर बड़े आदमियों की मुटमरदी औरर जाने क्या-क्या कहकर ईश्वरी का परिहास किया करता औरर आज मैं पौतड़ों का रईस बनने का स्वाँग भर रहा था !  [115]
    इतने में दस बज गये। पुरानी सभ्यता के लोग थे। नयी रोशनी अभी केवल पहाड़ की चोटी तक पहुँच पायी थी। अन्दर से भोजन का बुलावा आया। हम स्नान करने चले।  [120] मैं हमेशा अपनी धोती खुद छाँट लिया करता हूँ;  मगर यहाँ मैंने ईश्वरी की ही भाँति अपनी धोती भी छोड़ दी। अपने हाथों अपनी धोती छाँटते शर्म आ रही थी। अन्दर भोजन करने चले। होटल में जूते पहने मेज पर डटते थे। यहाँ पाँव धोना आवश्यक था।  [125] कहार पानी लिये खड़ा था। ईश्वरी ने पाँव बढ़ा दिये। कहार ने उसके पाँव धोये। मैंने भी पाँव बढ़ा दिये। कहार ने मेरे पाँव भी धोये।  [130] मेरा वह विचार न जाने कहाँ चला गया था।



सोचा था
,  वहाँ देहात में एकाग्र होकर खूब पढ़ेंगे;  पर यहाँ सारा दिन सैर-सपाटे में कट जाता था। कहीं नदी में बजरे पर सैर कर रहे हैं;  कहीं मछलियों या चिड़ियों का शिकार खेल रहे हैं,  कहीं पहलवानों की कुश्ती देख रहे हैं,  कहीं शतरंज पर जमे हैं। ईश्वरी खूब अण्डे मँगवाता औरर कमरे में स्टोव ' पर आमलेट बनते। नौकरों का एक जत्था हमेशा घेरे रहता।  [135] अपने हाथ-पाँव को हिलाने की कोई जरूरत नहीे। केवल एक जबान हिला देना काफी है। नहाने बैठे तो आदमी नहलाने को हाजिर,  लेटे तो आदमी पंखा झलने को खड़े। मैं महात्मा गाँधी का कुँअर चेला मशहूर था। भीतर से बाहर तक मेरी धाक थी।  [140] नाश्ते में ज़रा भी देर न होने पाये,  कहीं कुँअर साहब नाराज न हो जायें,  बिछावन ठीक समय पर लग जाये,  कुँअर साहब के सोने का समय आ गया। मैं इश्वरी से भी ज्यादा नाजुक दिमाग बन गया था,  या बनने पर मजबूर किया गया था। ईश्वरी अपने हाथ से बिस्तर बिछा ले;  लेकिन कुँअर मेहमान अपने हाथों से कैसे अपना बिछावन बिछा सकते हैंउनकी महानता में बट्टा लग जायेगा।
    एक दिन सचमुच यही बात हो गयी।  [145] ईश्वरी घर में था। शायद अपनी माता से कुछ बातचीत करने में देर हो गयी। यहाँ दस बज गये। मेरी आँखें नींद से झपक रही थीं;  मगर बिस्तर कैसे लगाऊँकुँवर जो ठहरा। कोई साढ़े ग्यारह बजे महरा आया।  [150] बड़ा मुँहलगा नौकर था। घर के धन्धों में मेरा बिस्तर लगाने की उसे सुधि ही न रही। अब जो याद आयी,  तो भागा हुआ आया। मैंने ऐसी डाँट बतायी कि उसने भी याद किया होगा।
    ईश्वरी मेरी डाँट सुनकर बाहर निकल आया औरर बोला
--  तुमने बहुत अच्छा किया।  [155] यह सब हरामखोर इसी व्यवहार के योग्य हैं।
    इसी तरह ईश्वरी एक दिन एक जगह दावत में गया हुआ था। शाम हो गयी
;  पर लैम्प न जला। लैम्प मेज पर रखा हुआ था। दियासलाई भी वहीं थी;  लेकिन ईश्वरी खुद कभी लैम्प नहीं जलाता।  [160] फिर कुँअर साहब कैसे जलायेंमैं झुँझला रहा था। समाचार-पत्र आया रखा हुआ था। जी उधर लगा हुआ था;  पर लैम्प नदारत। दैवयोग से उसी वक्त मुंशी रियासत अली आ निकले।  [165] मैं उन्हीं पर उबल पड़ा,  ऐसी फटकार बतायी कि बेचारा उल्लू हो गया--  तुम लोगों को इतनी फिक्र भी नहीं कि लैम्प जलवा दोमालूम नहीं,  ऐसे कामचोर आदमियों का यहाँ कैसे गुजर होता है। मेरे यहाँ घण्टे-भर निर्वाह न हो। रियासत अली ने काँपते हुए हाथों से लैम्प जला दिया।
    वहाँ एक ठाकुर अक्सर आया करता था।
 [170] कुछ मनचला आदमी था,  महात्मा गाँधी का परम भक्त। मुझे महात्माजी का चेला समझकर मेरा बड़ा लिहाज करता था;  पर मुझसे कुछ पूछते संकोच करता था। एक दिन मुझे अकेला देखकर आया औरर हाथ बाँधकर बोला--  सरकार तो गाँधी बाबा के चेले हैं नलोग कहते हैं कि यहाँ सुराज हो जायेगा तो जमींदार न रहेंगे।
    मैंने शान जमायी--  जमींदारों के रहने की जरूरत ही क्या है ?  [175]  यह लोग गरीबों का खून चूसने के सिवा औरर क्या करते हैं ?
    ठाकुर ने फिर पूछा--  तो क्यों सरकार,  सब जमींदारों की जमीन छीन ली जायेगी ?
    मैंने कहा--  बहुत-से लोग खुशी से दे देंगे। जो लोग खुशी से न देंगे उनकी जमीन छीननी ही पड़ेगी। हम लोग तो तैयार बैठे हुए हैं।  [180] ज्योंही स्वराज्य हुआ,  अपने सारे इलाके असामियों के नाम हिब्बा कर देंगे।
    मैं कुरसी पर पाँव लटकाये बैठा था। ठाकुर मेरे पाँव दबाने लगा। फिर बोला--  आजकल जमींदार लोग बड़ा जुलुम करते हैं सरकारहमें भी हुजूर अपने इलाके में थोड़ी-सी जमीन दे दें;  तो चलकर वहीं आपकी सेवा में रहें।  [185]
    मैंने कहा--  अभी तो मेरा कोई अख्तियार नहीं है भाई;  लेकिन ज्योंही अख्तियार मिला,  मैं सबसे पहले तुम्हें बुलाऊँगा। तुम्हें मोटर- ड्राइवरी सिखाकर अपना ड्राइवर बना लूँगा।
    सुना,  उस दिन ठाकुर ने खूब भंग पी औरर अपनी स्त्री को खूब पीटा औरर गाँव के महाजन से लड़ने पर तैयार हो गया।



छुट्टी इस तरह तमाम हुई औरर हम फिर प्रयाग चले। गाँव के बहुत से लोग हम लोगों को पहुँचाने आये।  [190] ठाकुर तो हमारे साथ स्टेशन तक आया। मैंने भी अपना पार्ट खूब सफाई से खेला औरर अपनी कुबेरोचित विनय औरर देवत्व की मुहर हरेक हृदय पर लगा दी। जी तो चाहता था,  हरेक को अच्छा इनाम दूँ,  लेकिन वह सामथ्र्य कहाँ थी ?   वापसी टिकट था ही,  केवल गाड़ी में बैठना था;  पर गाड़ी आयी तो ठसाठस भरी हुई। दुर्गा पूजा की छुट्टियाँ भोगकर सभी लोग लौट रहे थे।  [195] सेकेण्ड क्लास में तिल रखने को जगह नहीं। इण्टर क्लास की हालत उससे भी बदतर। यह आखिरी गाड़ी थी। किसी तरह रुक न सकते थे। बड़ी मुश्किल से तीसरे दर्जे में जगह मिली।  [200] हमारे ऐश्वर्य ने वहाँ अपना रंग जमा लिया;  मगर मुझे उसमें बैठना बुरा लग रहा था। आये थे आराम से लेटे-लेटे,  जा रहे थे सिकुड़े हुए। पहलू बदलने की भी जगह न थी।
    कई आदमी पढ़े
-लिखे भी थे। आपस में अँग्रेजी राज्य की तारीफ करते जा रहे थे।  [205] एक महाशय बोले--  ऐसा न्याय तो किसी राज्य में नहीं देखा। छोटे-बड़े सब बराबर। राजा भी किसी पर अन्याय करे,  तो अदालत उसकी भी गर्दन दबा देती है।
    दूसरे सज्जन ने समर्थन किया--  अरे साहब,  आप खुद बादशाह पर दावा कर सकते हैंअदालत में बादशाह पर डिग्री हो जाती है।  [210]
    एक आदमी,  जिसकी पीठ पर बड़ा-सा गट्ठर बँधा था,  कलकत्ते जा रहा था। कहीं गठरी रखने की जगह न मिलती थी। पीठ पर बाँधे हुए था। इससे बेचैन होकर बार-बार द्वार पर खड़ा हो जाता। मैं द्वार के पास ही बैठा हुआ था। उसका बार-बार आकर मेरे मुँह को अपनी गठरी से रगड़ना मुझे बहुत बुरा लग रहा था। एक तो हवा यों ही कम थी,  दूसरे उस गँवार का आकर मेरे मुँह पर खड़ा हो जाना मानो मेरा गला दबाना था।  [215] मैं कुछ देर तक जब्त किये बैठा रहा। एकाएक मुझे क्रोध आ गया। मैंने उसे पकड़कर ढकेल दिया औरर दो तमाचे जोर-जोर से लगाये।
    उसने आँखें निकालकर कहा--  क्यों मारते हो बाबूजी,  हमने भी किराया दिया है।
    मैंने उठकर दो-तीन तमाचे औरर जड़ दिये।  [220]
    गाड़ी में तूफान आ गया। चारों ओर से मुझ पर बौछार पड़ने लगी।
    
अगर इतने नाजुक मिजाज हो,  तो अव्वल दर्जे में क्यों नहीं बैठे?'
    कोई बड़ा आदमी होगा तो अपने घर का होगा। मुझे इस तरह मारते,  तो दिखा देता। '  [225]
    क्या कसूर किया था बेचारे नेगाड़ी में साँस लेने की जगह नहीं,  खिड़की पर ज़रा साँस लेने खड़ा हो गया तो उस पर इतना क्रोधअमीर होकर क्या आदमी अपनी इन्सानियत बिलकुल खो देता है ?'
    यह भी अंग्रेजी राज है,  जिसका आप बखान कर रहे थे !'
    एक ग्रामीण बोला--  दफ़तरन माँ घुसन तो पावत नहीं,  उस पर इत्ता मिजाज !  [230]
    ईश्वरी ने अंग्रेजी में कहा-- What an idiot you are Bir !
    औरर मेरा नशा कुछ-कुछ उतरता हुआ मालूम होता था।
To
index of  मल्हार.
Index to works of Pre-Independence prose.
Coded in April 2004 by विवेक अगरवाल. Posted 8 Apr 2004.