यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन

Excerpt from  मतईपुर कलाँ
a story by  रज़िया ज़ैदी

" अम्मा,  हम सिपाही बने चाहत हैं। . . .  मास्टर जी
कहित हैं कि सिपाही बहुत बहादुर होत हैं
,  अपने मुल्क का
खातिर जानओ थक दे देत हैं।  जब लड़ाई जीत के आवत हैं
तो बहुत इनाम मिलत है औरर बहुत नाम होत है।
"

To
glossed version.
    अब्दुल पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गाँव,  मतईपुर कलाँ में रहने वाले एक निर्धन किसान का बेटा था।  उसके पिता कई वर्ष पहले ही मर चुके थे।  अब्दुल से छोटी एक बहन भी थी  --  चन्दा।  माँ ने अपना ख़ेत दूसरों को आधे बट्टे पर देकर बच्चों को पाला-पोसा औरर अब्दुल को गाँव के स्कूल में पढ़ने भेजा।  वह पढ़ाई भी करता औरर खेती भी।
    स्वतंत्रता दिवस पर अब्दुल ने  
जय जवान जय किसान '  का नारा सुना।  उसको यह नारा बहु लगा,  लेकिन ठीक से समझ न पाया।  उसने मास्टर जी से पूछा, " मास्टर जी,  किसान तो हमई लोग हैं,  ई जवान कौन हैं ?
    मास्टर जी ने विस्तार से जवान का मतलब उसे समझाया कि फ़ौजी सिपाही को जवान कहा जाता है।  फिर उन्होंने फ़ौजी जवान के कर्तव्यों के बारे में बताया कि वह ापने देश से इतना प्यार करता है कि समय पड़ने पर अपनी जान तक न्योछावर कर देता है।  देश की सेवा करना औरर उसकी लाज की रक्षा करना ही उसका लक्ष्य होता है।
    अब्दुल के मन में अपने मुल्क के प्रति असीम प्रेम की भावना उमड़ पड़ी।  उसने पूछा
 --  " मास्टर जी,  सिपाही बने के वास्ते का-का करे को होत है ? "
    " खूब पढ़ो,  खूब खाओ औरर खूब कसरत करो।  अपना स्वास्थ्य बनाओ औरर फिर सचमुच तूम्हारे मन में लगन है तो एक दिन तुम अवश्य फ़ौज में भर्ती हो जाओगे। "  मास्टर जी ने बताया।
    अब अब्दुल औरर भी दिल लगा कर पढ़ने लगा।  स्कूल से आकर घर पर कसरत भी करता।  एक दिन माँ ने उससे पूछा
 --  " का रे अब्दुल,  तोरे ऊपर कऊन सी धुन सवार है कि खेलकूद सब छोड़-छाड़ अपने को उलटा-पल्टा किया करत है।  पढ़ै-लिखै की बात तो ठीक है,  मुदा ई सब का करत है पूत ? "
    अब्दुल बोला  - " अम्मा,  हम सिपाही बने चहत हैं।  सिपाही बहुत बड़ी चीज़ होत है।  मास्टर जी कहिन हैं कि सिपाही बहुत बहादुर होत हैं,  अपने मुल्क का खातिर जानओ तक दे देत हैं।  जब लड़ाई जीत के आवतळ हैं तो बहुत इनाम मिलत है औरर बहुत नाम होत है।  औरर,  अगर लड़ाई मा मारे जात हैं तो ओके परिवार को औरर ढेर रुपया-पैसा मिलत है। "
    यह सुनकर माँ काँप उठी ाौर झट से उसने अब्दुल के मुँह पर हाथ रख दिया।  ऐसन बात मुँ से न निकाल,  बिटवा।  मस्टर जी का कहै दें।  ओसे कह दे अपने पूत को सिपाही बना कर लाम पर भेज दें। "  यह कह कर माँ ने अब्दुल को छाती से लगा ल्यिा।
    देहातों में तो शादी कम उमर में ही हए जाती है।  अब्दुल ने जैसे ही आठवीं पास की उसकी शादी समीप हीके एक गाँव जुगनीपुर की एक सीधी
-सादी ग़रीब लड़की से हो गई।  अब्दुल की माँ बहू से बहुत ख़ुश थी।  हाँ  दूसरों को ये फ़क्रि थी कि बहू दहेज में क्या-क्या लाई।  आख़िर एक ने पूछ ही लिया,  " का बहिनी,  बहुरिया दहेज में कछु लाई कि ना ? "
    अब्दुल की माँ ने जवाब दिया  --  " काहे ना लाई ?  गुण,   ढंग,  सराफ़त सभई तो लाई है।  ई सब का हमरे घर का है ?  ओही के बापमतारी का तो है। "
    अब्दुल जो अपने दिल में थ्ान चुका था  वही करके रहा।  वह एक दिन सिपाही बन ही गया औरर फ़ौज में भर्ती हो गया।  माँ के रोने-बिल्ऌखने पर भी यह जवान अपने देश पर जान न्य्ोछावर करने को सीना तान तैयार हो गया।  बिदा करते समय माँ ने केवल इतना ही कहा  --  " जा मोरे बचवा,  तोहे अल्लाह को सौंपा।  तू हमरी बात ना सुनेओ तो का अईंहू न सुनिहैं ? "
    ठाकुर रणवीर सिंह गाँव के मुखिया थ।ि  सब उनको चौधरी काका कहते थ।ि  इतने छोटे से गाँव में मुखिया एक बड़ी चीज़ होती है।  मुखिया भी अपने आपको गाँव का राजा समझता है।  लेकिन ठाकुर रणवीर सिंह की बात कुछ औरर थी।  वे बहुत भले मानस थे।  ग़रीब से ग़रीब गाँव वाला बी उनको दोस्त समझता था।  सबके साथ उनका व्यवहार दोस्ताना था।  हर एक की चिन्ता थी उनके मन में,  सबके समय पर काळ्ऌ आते थे।  अब्दुल के परिवार को ठाकुर साहब बहुत मानते थे।  अब्दुल तो बचपन ही से उनका दुलारा था।
    अब्दूल ठाकुर साहब के पास जाकर बोला
 --  " काका,  हमरे घर वाले अकेले हैं औरर हम लाम पर जात हैं। "
    चौधरी ने बहुत प्यार से अब्दुल को डाँटा  - " पगले,  जब तक ई रणवीर जिंदा है तोरे घर वाले अकेले नाहिं हैं।  तू जा,  खुशी से जा।  तू इतने बड़े मुल्क की रक्षा करे जात है औरर चाचा तोहार घर की रक्षा भ्:ी ना कर सकत है ?  जा बिटवाभगवान तोरी रक्षा करें। "
    उसने ठाकुर साहब के पाँव छुए औरर आशीर्वाद लेकर निकल पड़ा देश की रक्षा करने।
    अब्दुल के जाने के बाद कुछ दिन तो उसके घर वाले परेशान औरर उदास रहे
,  फिर सब अपने काम में लग गये।
    अब एक समस्या चन्दा की शादी की थी।   उसकी शादी तय हो चुकी थी।  लड़के वाले शादी की जल्दी भी कर रहे थे।  अब्दुल की माँ ने उसको पत्र लिखवाया
 --  " चन्दा की शादी जल्दी करनी है,  तुम जल्दी आ जाओ। "
    अब्दुल को बहुत कोशिश के बाद छुट्टी मिल गई।  उससे कुछ सामान चन्दा के लिए ख़रीदे औरर ख़ुशी-ख़ुशी रवाना हो गया।
    इतने लम्बे सफ़र में वह पूरे समय चन्दा की शादी के बारे में ही सोचता रहा
,  उसके घर वाले औरर चन्दा की सहेलियाँ कितनी ख़ुश होंगी,  क्या-क्या इन्तज़ाम हो रहा होगा। '
    देहातों की शादी रंग-बिरंगी कपड़ों,  ढोलक के गीत औरर धमा-चौकड़ी से ही मालूम होती है।  तरह-तरह के लहँगे सिलते हैं,  हरे,  लाल गोटे लगे हुए,   चमकीले दुपट्टे भी।  खाना भी मौसम के हिसाब से पकता है  --  महुए की रोटी,  दही की लस्सी,  चने की दालचावल,  तरह-तरह की सब्ज़ियाँ,  बेसन की रोटी,  वगैरह।  दुनिया भर की रस्में शादी में होती हैं।  एक रस्मके तौर पर लड़की को उबटन लगाया जाता है।  उबटन आटे में थोड़ा तेल औरर ज़रा-सी हल्दी डाल कर तैयार ीकया जाता है।  अन्य लड़कियाँ भी आपस में हँसी-मज़ाक़ करती हैं  एक दूसरे पर उबटन फेंकती हैं।  उसके बाद रतजगा '  होता है।  गुलगुले पकते हैं,  सब चमकीले कपड़े पहनते हैं औरर रात भर जागते हैं।
    अब्दुल ने याद किया
,  ड्यूटी पर जाने से दो दिन पहले,  जिस दिन चन्दा के सुसराल से रिश्ता पक्का होने का स्ंदेश आया था,  चन्दा की सहेलियाँ श्ऌभ्ऌ जमा थीं,  गा-बजा रही थीं,  ख़ूब हँसी-मज़ाक़ कर रही थीं।
    एक सहेली बोली
 --  " अब तो चन्दा अपने घर की महरानी हो जइहै। "
    दूसरी बोली  --  " हमरे लोगन से काहे मतलब रखिहै। "
    तीसरी ने उदास होकर कहा  --  " हमरी बहिनी के जाए से सारा गाँव सन्नाटा हो जइहै। "
     चौथी बोली  --  " ई बात तो ठीक है,  मुदा हमरी गुड़िया जौने गाँव जात है,  हुआँ कैसा उजियारा हो जइहै।  ऐसा लगिहै मानो चाँद निकल आवा है। "
     एक ने सवाल किया  --  " चन्दा के दुलहवा कैसन है ?
     दुसरी ने जवाब दिया  --  " बहुत अच्छा,  मानो जैसे साहब लोग होत हईॡै। "
     तीसरी बोली  --  " का,  हमरे अब्दुल भइया से अच्छा है ?
    " अब ई हम कैसे कहें,  हमरे भइया तो सिपाही हैं।  बहुत बड़ा आदमी हैं अब्दुल भइया तो। "  दूसरी ने कहा।
     इन लड़कियों में ईंक लड़की कुछ दिन शहर रह कर आई थी।  मुँह बना कर वह बोली  रूरू  .क़उईंत्ऌ तुम लोग क्यारूक्या बात कर रही होरु  हमारी समझ में नहीं आता है कुछ। .क़उईंत्ऌ
    एक ने चिढ़ाया
 --  " अरे बहिनी,  तोरी समझ में कैसे अइहै,  चार दिन सहर मा रह कर आई हो न,  बहुत गिट-पिट करे आ गवा है। "
    सभी लड़कियाँ हँस पड़ीं।
    अब्दुल फिर सोचने लगा
,  ' चन्दा को दहेज क्या जाएगा ?  बाँस का एक पलंग औरर बिस्तर,  एक टोकरी,  एक सूप,  पीतल के दो-चार ब्तर््न,  कुछ कपड़े,  एक बोरा गेहूँ औरर चावल्।  यह सब तो दस्तूर के हिसाब से देना ही है।  इसके अलावा हम अपनी चन्दा को हाथ की घड़ी औरर रेडियो भी देंगे।  खाने में भी महुए की रोटी,  चने की दाल,  चावल् के अलावा हम अपनी बहन की शादी में पकवान भी बारातियों: को खिलाएँगे। '  सोचते-सोचते उसके कान में बाबुल की आवाज़ आने लगी औरर ऐसा लगा कि वह चन्दा को विदा कर रहा है  --  ' काहे को ब्याहे बिदेस,  अरे लखिया,  बाबुल मोरे . . .  भइया को देयो हो ऊँची अटरिया,  बाबुल मोरे भेजे बिदेस,  . . .  अरे ओ लखिया,  बाबुल मोरे   . . .  
    उसकी आँखों से आँसू निकल पड़े औरर उसे लगा कि उसकी बहन उसे छोड़ कर
बिदेस '  चली गई है।  उसने आँसू पोंछे औरर उत्सुकता से बाहर देखा।  अब गाड़ी गाँव पहुँचने ही वाली थी।
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Posted on 22 May 2001.