यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
शतरंज के
खिलाड़ी
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50 75
100 125 150 175 200 225 250 275 300 325 350
एक
वाजिदअली शाह का समय था।
लखनऊ विलासिता के रंग
में डूबा हुआ था।
छोटे- बड़े, ग़रीब- अमीर सभी विलासिता
में डूबे हुए थे।
कोई नृत्य औरर गान की मजलिस
सजाता था, तो कोई अफीम की
पीनक ही में मज़े लेता था।
जीवन के प्रत्येक विभाग में
आमोद- प्रमोद का प्राधान्य था।
[5]
शासन- विभाग
में, साहित्य- क्षेत्र में, सामाजिक अवस्था में, कला- कौशल
में, उधोग- धंधों में, आहार- व्यवहार में
सर्वत्र विलासिता व्याप्त हो रही थी।
राजकर्मचारी विषय- वासना में, कविगण
प्रेम औरर विरह के वर्णन में,
कारीगर कलाबत्तष् औरर चिकन
बनाने में, व्यवसायी
सुरमे, इत्र, मिस्सी औरर उबटन का रोज़गार करने
में लिप्त थे।
सभी की आँखों में
विलासिता का मद छाया हुआ था।
संसार में क्या हो रहा
है, इसकी किसी को ख़बर न थी।
बटेर लड़ रहे हैं।
[10]
तीतरों की लड़ाई के लिए पाली
बदी जा रही है।
कहीं चौसर बिछी हुई
है; पौ- बारह का शोर मचा हुआ है।
कहीं शतरंज का घोर
संग्राम छिड़ा हुआ है।
राजा से लेकर रंक तक इसी
धुन मे मस्त थे।
यहाँ तक कि फ़कीरों को
पैसे मिलते तो वे रोटियाँ न
लेकर अफीम खाते या मदक पीते।
[15]
शतरंज, ताश, गंजीफा
खेलने से बुध्दि तीव्र होती
है, विचार- शक्ति का विकास होता है, पेचीदा मसलों को
सुलझाने की आदत पड़ती है।
ये दलीलें ज़ोर:ों
के साथ पेश की जाती थीं (इस
सम्प्रदाय के लोगों से दुनिया अब भी
खाली नहीं है) ।
इसलिए अगर मिरज़ा सज्जादअली औरर मीर
रोशनअली अपना अधिकांश समय बुध्दि तीव्र
करने में व्यतीत करते थे, तो किसी विचारशील पुरुष को क्या
आपत्ति हो सकती थी ?
दोनों के
पास मौरूसी जागीरें थीं; जीविका की कोई चिन्ता न थी; घर में बैठे चखौतियाँ
करते थे।
आख़िर औरर करते ही क्या ?
[20]
प्रात:काल दोनों
मित्र नाश्ता करके बिसात बिछा कर बैठ जाते,
मुहरे सज जाते औरर लड़ाई
के दाव- पेंच
होने लगते।
फिर ख़बर न होती थी कि कब दोपहर
हुई, कब तीसरा पहर,
कब शाम !
घर के भीतर से
बार- बार बुलावा आता कि खाना
तैयार है।
यहाँ से जवाब
मिलता- चलो, आते हैं, दस्तरख्वान बिछाओ।
यहाँ तक कि बावरची विवश होकर
कमरे ही में खाना रख जाता था, औरर दोनों मित्र दोनों
काम साथ- साथ करते थे।
[25]
मिरजा सज्जादअली के घर में
कोई बड़ा- बूढ़ा न था,
इसलिए उन्हीं के दीवानख़ाने
में बज़ियाँ होती थीं।
मगर यह बात न थी कि मिरजा के घर
के औरर लोग उनके इस व्यवहार से खुश
हों।
घरवालों का तो कहना ही
क्या, मुहल्ले वाले,
घर के नौकर- चाकर तक नित्य द्वेषपूर्ण
टिप्पणियाँ किया करते थे- बड़ा मनहूस खेल हैं।
घर को तबाह कर देता है।
खुदा न करे, किसी को इसकी चाट पड़े, आदमी दीन- दुनिया किसी
के काम का नहीं रहता, न घर
का, न घाट का।
[30]
बुरा रोग है।
यहाँ तक कि मिरजा की बेगम साहबा
को इससे इतना द्वेष था कि अवसर
खोज- खोज कर पति को
लताड़ती थीं।
पर उन्हें इसका अवसर मुश्किल
से मिलता था।
वह सोती रहती थीं, तब तक बाज़ी बिछ जाती थी।
औरर रात को जब सो जाती
थीं, तब कहीं मिरजाजी घर
में आते थे।
हाँ, नौकरों पर वह अपना गुस्सा उतारती
रहती थीं- क्या पान माँगे
हैं ?
[35]
कह दो, आकर ले जायँ।
खाने की फुरसत नहीं
है ?
ले जाकर खाना सिर पर पटक
दो, खायँ चाहे
कुत्ते को खिलायें।
पर रूबरू वह भी कुछ न कह सकती थीं।
उनको अपने पति से उतना
मलाल न था, जितना मीर साहब
से।
[40]
उन्होंने उनका नास मीर
बिगाडू रख छोड़ा था।
शायद मिरजाजी अपनी सफाई देने
के लिए सारा इलज़ाम मीर सहब ही के सर थोप
देते थे।
एक दिन बेगम साहब
के सिर में दर्द होने लगा।
उन्होंने लौंड़ी से
कहा- जाकर मिरजा साहब को
बुला ला।
किसी हकीम के यहाँ से दवा
लायें।
[45]
दौड़, जल्दी कर।
लौंडी गयी तो मिरज़ाजी
ने कहा- चल अभी आते है।
" बेगम साहबा
का मिजाज़ गरम था।
इतनी ताब कहाँ कि उनके सिर
में दर्द हो औरर पति शतरंज
खेलता रहे।
चेहरा सुर्ख हो गया।
[50]
लौंडी से कहा- जाकर कह, अभी चलिए,
नहीं तो वह आप ही हकीम के
यहाँ चली जायेंगी।
मिरजाजी बड़ी दिलचस्प बाज़ी खेल रहे
थे, दो ही किस्तों
में मीर साहब की मात हुई जाती थी।
झुँझलाकर
बोले- क्या ऐसा दम
लबों पर है ?
ज़रा सब्र नहीं
होता ?
मीर-
अरे, तो जा कर सुन ही
आइए न।
औररतें
नाजुक- मिजाज़ होती ही
हैं। "
[55]
मिरजा- जी हाँ, चला
क्यों न जाऊँ !
दो किस्तों
में आपकी मात होती है।
मीर- जनाब, इस भरोसे
न रहिएगा।
वह चाल सोची है कि आपके
मुहरे धरे रहें औरर मात हो जाय।
पर जाइए, सुन
आइए।
[60]
क्यों ख़ामख़्वाह उनका दिल
दुखाइएगा ?
मिरजा- इसी बात पर मात ही करके जाऊँगा।
मीर- मैं खेलूँगा ही नहीं।
आप जा कर सुन आइए।
मिरजा- अरे यार, जाना
पड़ेगा हकीम के यहाँ।
[65]
सिर- दर्द ख़ाक
नहीं है, मुझे
परेशान करने का बहाना है।
मीर- कुछ भी हो, उनकी
ख़ातिर तो करनी ही पड़ेगी।
मिरजा- अच्छा, एक चाल औरर चल
लूँ।
मीर- हरगिज़ नहीं, जब तक आप
सुन न आयेंगे, मैं मुहरे में हाथ ही न
लगाऊँगा।
मिरजा साहब मजबूर होकर अन्दर
गये तो बेगम साहबा ने त्योरियाँ
बदल कर, लेकिन कराहते हुए
कहा- तुम्हें निगोड़ी
शतरंज इतनी प्यारी है ?
[70]
चाहे कोई मर ही
जाय, पर उठने का नाम नहीं
लेते !
नौज, कोई तुम-जैसा आदमी
हो !
मिरजा- क्या कहूँ मीर साहब मानते ही न थे।
बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ा कर
आया हूँ।
बेगम- क्या जैसे वह खुद निखट्टू
हैं, वैसे ही
सबको समझते है ?
[75]
उनके भी तो
बाल-बच्चे है; या सबका सफाया कर डाला ?
मिरजा- बड़ा लती आदमी है।
जब आ जाता है, तब मजबूर होकर मुझे भी
खेलना पड़ता है।
बेगम- दुत्कार क्यों नहीं देते
?
मिरजा- बराबर के आदमी हैं; उम्र में, दर्जे में मुझसे दो
अंगुल ऊँचे।
[80]
मुलाहिजा करना ही पड़ता है।
बेगम- तो मैं ही दुत्कार देती
हूँ।
नाराज हो जायेंगे,
हो जायँ।
कौन किसी की रोटियाँ चला
देता है।
रानी रूठेंगी, अपना सुहाग लेंगी।
[85]
हरिया, जा बाहर
से शतरंज उठा ला।
मीर सहाब से कहना, मियाँ अब न खेलेंगे;
आप तशरीफ़ ले जाइए।
मिरजा- हाँ-हाँ कहीं ऐसा
ग़जब भी न करना !
ज़लील करना चाहती हो
क्या ?
ठहर हरिया, कहाँ जाती है।
[90]
बेगम- जाने क्यों नहीं देते
?
मेरा ही खून
पिये, जो उसे
रोके।
अच्छा, उसे
रोको, मुझे
रोको, तो
जानूँ ?
यह
कहकर बेगम साहबा झल्लायी हुई दीवानखाने की तरफ़
चली।
मिरजा बेचारे का रंग उड़ गया।
[95]
बीवी की मिन्नतें करने
लगे- खुदा के लिए,
तुम्हें हज़रत हुसेन की
क़सम है।
मेरी ही मैयत देखे,
जो उधर जाय।
लेकिन बेगम ने एक न मानी।
दीवानखाने के द्वार तक
गयीं, पर एकाएक पर-पुरुष के सामने जाते हुए
पाँव बँध-से गये।
भीतर झाँका, संयोग से कमरा ख़ाली था।
मीर साहब ने दो-एक मुहरे इधर-उधर कर
दिये थे, औरर अपनी सफाई
जताने के लिए बाहर टहल रहे थे।
[100]
फिर क्या था, बेगम ने अन्दर पहुँच कर बाजी उलट
दी, मुहरे कुछ तख्त के
नीचे फेंक दिये, कुछ बाहर औरर किवाड़ अन्दर से बन्द करके
कुण्डी लगा दी।
मीर साहब दरवाज़े पर तो
थे ही, मुहरे बाहर
फेंके जाते देखे, चूड़ियों की झनक भी कान में
पड़ी।
फिर दरवाज़ा बंद हुआ, तो समझ गये, बेगम साहबा बिगड़ गयीं।
चुपके से घर की राह ली।
मिरजा ने
कहा- " तुमने ग़ज़ब
किया। "
[105]
बेगम- अब मीर साहब इधर आये, तो खड़े-खड़े निकलवा
दूँगी।
इतनी लौ खुदा से
लगाते, तो वली हो
जाते !
आप तो शतरंज
खेलें, औरर
मैं यहाँ चूल्हे-चक्की
की फित्र में सिर खपाऊँ !
जाते हो हकीम साहब
के यहाँ कि अब भी ताम्मुल है।
मिरजा घर से
निकले, तो हकीम के घर
जाने के बदले मीर साहब के घर
पहुँचे औरर सारा वृत्तान्त कहा।
[110]
मीर साहब
बोले- " मैंने तो जब मुहरे बाहर
आते देखे, तभी ताड़
गया।
फ़ौरन भागा।
बड़ी गुस्सेवर मालूम होती
हैं।
मगर आपने उन्हें यों
सिर चढ़ा रखा है, यह मुनासिब
नहीं।
उन्हें इससे क्या मतलब कि आप
बाहर क्या करते हैं।
[115]
घर का इन्तजाम करना उनका काम है;
दूसरी बातों से
उन्हें क्या सरोकार ?
मिरजा- ख़ैर, यह तो
बताइए, अब कहाँ जमाव
होगा ?"
मीर- इसका क्या ग़म है।
इतना बड़ा घर पड़ा हुआ है।
बस यहीं जमे।
[120]
मिरजा- लेकिन बेगम साहबा को कैसे
मनाऊँगा ?
घर पर बैठा रहता
था, तब तो वह इतना बिगड़ती
थीं; यहाँ बैठक
होगी, तो शायद ज़िन्दा न
छोड़ेगी।
मीर- अजी बकने भी दीजिए, दो-चार रोज़ में
आप ही ठीक हो जायँगी।
हाँ, आप इतना
कीजिए कि आज से जरा तन जाइए।
दो
मीर साहब की बेगम किसी अञ्:ात कारण
से मीर साहब का घर से दूर रहना ही उपयुक्त
समझती थीं।
[125]
इसलिए वह उन्के शतरंज-प्रेम की कभी आलोचना न करती थीं;
बल्कि कभी-कभी मीर
साहब को देर हो जाती, तो याद दिला देती थीं।
इन कारणों से मीर साहब को
भ्रम हो गया था कि मेरी स्त्री अत्यन्त विनयशील
औरर गम्भीर है।
लेकिन जब दीवानख़ाने में
बिसात बिछने लगी, औरर मीर
साहब दिन-भर घर में रहने
लगे, तो बेगम साहबा
को बड़ा कष्ट होने लगा।
उनकी स्वाधीनता में बाधा पड़ गयी।
दिन-भर दरवाज़े पर
झाँकने को तरस जातीं।
[130]
उधर
नौकरों
में भी कानाफूसी होने लगी।
अब तक दिन-भर
पड़े-पड़े मक्खियाँ मारा
करते थे।
घर में कोई आये,
कोई जाये, उनसे कुछ मतलब न था।
अब आठों पहर की धौंस
हो गयी।
पान लाने का हुक्म होता,
कभी मिठाई का।
[135]
औरर हुक्का तो किसी प्रेमी
के हृदय की भाँति नित्य जलता ही रहता था।
वे बेगम साहबा से
जा-जाकर कहते- हुजूर, मियाँ की
शतरंज तो हमारे जी का जंजाल हो गयी।
दिन-भर
दौड़ते-दौड़ते
पैरों में छाले पड़ गये।
यह भी कोई खेल है कि सुबह
को बैठे तो शाम कर दी।
घड़ी-आध घड़ी दिलबहलाव
के लिए खेल-खेलना बहुत
है।
[140]
खैर, हमें तो कोई शिकायत
नहीं; हुजूर के
गुलाम हैं, जो
हुक्म होगा, बजा ही
लायेंगे; मगर यह
खेल मनहूस है।
इसका खेलने वाला कभी पनपता
नहीं; घर पर कोई न कोई
आफ़त जरूर आती है।
यहाँ तक कि एक के पीछे
महल्ले-के-महल्ले तबाह होते देखे गये
हैं।
सारे महल्ले में यही चरचा
होती रहती है।
हुजूर का नमक खाते
हैं,
अपने आका की बुराई
सुन-सुन कर रंज होता है।
[145]
मगर क्या करें ?
इस पर बेगम साहबा कहती
हैं- मैं तो
खुद इसको पसन्द नहीं करती।
पर वह किसी की सुनते ही
नहीं, क्या किया जाय।
मुहल्ले में भी जो
दो-चार पुराने ज़माने
के लोग थे, आपस
में भाँति-भाँति की
अमंगल कल्पनाएँ करने लगे- अब खैरियत नहीं।
जब हमारे रईसों का यह हाल
है, तो मुल्क का खुदा
ही हाफ़ज़ि है।
[150]
यह बादशाहत शतरंज के
हाथों तबाह होगी।
आसार बुरे हैं।
राज्य में हाहाकार
मचा हुआ था।
प्रजा दिन-दहाड़े
लूटी जाती थी।
कोई फरियाद सुनने वाला न था।
[155]
देहातों की सारी दौलत
लखनऊ में खिंची आती थी औरर वह
वेश्याओं में, भाँड़ों में औरर विलासिता
के अन्य अंगों की पूर्ति में उड़
जाती थी।
अंग्रेज़ कम्पनी का ऋण
दिन-दिन बढ़ता जाता था।
कमली दिन-दिन भीगकर
भारी होती जाती थी।
देश मे शुव्यवस्था न
होने के कारण वार्षिक कर भी वसूल न
होता था।
रेजीडेण्ट बार-बार चेतावनी देती था, पर यहाँ तो लोग विलासिता के
नशे में चूर थे, किसी के कानों पर जूँ न
रेंगती थी।
खैर,
मीर साहब के दविानखाने
में शतरंज होते कई महीने गुजर
गये।
[160]
नये-नये
नक्शे हल किये जाते; नये-नये किले
बनाये जाते; नित्य नयी
व्यूह-रचना होती; कभी-कभी
खेलते-खेलते झोड़
हो जाती; तू-तू मैं-मैं
तक की नौबत आ जाती; पर
शीघ्र ही दोनों मित्रों में
मेल हो जाता।
कभी-कभी ऐसा भी
होता कि बाज़ी उठा दी जाती; मिरज़ा
जी
रूठकर अपने घर चले आते।
मीर साहब अपने घर में जा
बैठते।
पर रात भर की निद्रा के साथ सारा
मनोमालिन्य शान्त हो जाता था।
प्रात:काल दोनों मित्र
दीवानखाने
में आ पहुँचते थे।
[165]
एक दिन
दोनों
मित्र बैठे हुए शतरंज की दल-दल मेे गोते खा रहे थे कि
इतने में घोड़ं पर सवार एक बादशाही
फ़ौज का अफ़सर मीर साहब का नाम पूछता हुआ आ
पहुँचा।
मीर साहब के होश उड़ गये।
यह क्या बला सिर पर आयी !
यह तलबी किसलिए हुई
है !
अब ख़ैरियत नहीं नज़र
आती।
[170]
घर के दरवाज़े बन्द कर लिये।
नौकरों से
बोले- कह दो,
घर में नहीं हैं।
सवार- घर में नहीं, तो कहाँ हैं ?
नौकर- यह मैं नहीं जानता।
क्या काम है ?
[175]
सवार- काम तुझे क्या बताऊँगा ?
हुजूर में
तलबी है।
शायद फ़ौज के लिए सिपाही
माँगे गये हैं।
जागीरदार हैं कि दिल्लगी !
मोरचो पर जाना
पड़ेगा, तो
आटे-दाल का भाव मालूम हो
जायेगा।
[180]
नौकर- अच्छा
तो जाइए, कह दिया जायेगा।
सवार- कहने की बात नहीं है।
मैं कल खुद आऊँगा,
साथ ले जाने का हुक्म हुआ
है।
सवार चला गया।
मीर साहब की आत्मा काँप उठी।
[185]
मिरजा जी से
बोले- " कहिए
जनाब,
अब क्या होगा ?"
मिरजा- बड़ी मुसीबत है।
कहीं मेरी तलबी भी न हो।
मीर- कम्बख्त कल फिर आने को कह गया है।
मिरजा- आफत है, औरर क्या।
[190]
कहीं मोरचे पर जाना पड़ा,
तो बेमौत मरे।
मीर- बस, यही एक तदबीर है कि
घर पर मिलो ही नहीं।
कल से गोमती पर कहीं
वीराने में नक्शा जमे।
वहाँ किसे ख़बर होगी।
हज़रत आकर आप लौट
जायेंगे।
[195]
मिरजा- वल्लाह, आपको खूब
सूझी !
इसके सिवाय औरर
कोई तदबीर ही नहीं।
इधर मीर साहब की
बेगम उस सवार से कह रही थीं, तुमने खूब धता बताया।
उसने जबाब
दिया- ऐसे गावदियों
को तो चुटकियों पर नचाता हूँ।
इनकी सारी अक्ल औरर हिम्मत तो
शतरंज ने चर ली।
[200]
अब भूलकर भी घर पर न
रहेंगे।
तीन
दूसरे दिन से
दोनों मित्र मुँह अँधेरे घर
से निकल खड़े होते।
बगल में एक छोटी-सी दरी दबाये, डिब्बे
में गिलौरियाँ भरे; गोमती पार की एक पुरानी वीरान मसज़िद
में चले जाते, जिसे शायद नवाब आसफ़उद्दौला ने
बनवाया था।
रास्ते में तम्बाकू,
चिलम औरर मदरिया ले
लेते, औरर मसज़िद
में पहुँच, दरी
बिछा, हुक्का भर कर शतरंज
खेलने बैठ जाते थे।
फिर उन्हें दीन-दुनिया की फ़क्रि न रहती थी।
[205]
किश्त, शह आदि
दो-एक शब्दों के सिवा
उनके मुँह से औरर कोई वाक्य नहीं
निकलता था।
कोई योगी भी समाधि मे इतना
एकाग्र न होता होगा।
दोपहर को जब भूख मालूम
होती तो दोनों मित्र किसी नानबाई की
दुकान पर जाकर खाना खाते, औरर एक चिलम हुक्का पीकर फिर
संग्राम-क्षेत्र में डट
जाते।
कभी-कभी तो
उन्हें भोजन का भी ख़याल न रहता था।
इधर देश की
राजनीतिक दशा भयंकर होती जा रही थी।
[210]
कम्पनी की फ़ौजें लखनऊ की तरफ़
बढ़ी चली आती थीं।
शहर में हलचल मची हुई थी।
लोग बाल-बच्चों को लेकर देहातों
में भाग रहे थे।
पर हमारे दोनों
खिलाड़ियों को इनकी ज़रा भी फिक्र न थी।
वे घर से आते तो
गलियों में होकर।
[215]
डर था कि कहीं किसी बादशाही मुलाज़िम
की निगाह न पड़ जाय, जो
बेकार में पकड़ जायें।
हज़ारों रुपये सालाना की जागीर
मुफ़्त ही हज़म करना चाहते थे।
एक दिन
दोनों मित्र मसजिद के खण्डहर में
बैठे हुए शतरंज खेल रहे थे।
मिरजा की बाज़ी कुछ कमज़ोर थी।
मीर साहब उन्हें किश्त-पर-किश्त दे रहे थे।
[220]
इतने में कम्पनी के
सैनिक आते हुए दिखाई दिये।
वह गोरों की फ़ौज
थी, जो लखनऊ पर अधिकार
जमाने के लिए आ रही थी।
मीर साहब
बोले- अंग्रेज
फ़ौज आ रही है; खुदा
खैर करे।
मिरजा- आने दीजिए, किश्त बचाइए।
यह किश्त।
[225]
मीर- जरा देखना चाहिए, यहीं आड़ में खड़े हो
जायें !
मिरजा- देख लीजिएगा, जल्दी क्या
है, फिर किश्त !
मीर- तोपख़ाना भी है।
कोई पाँच हज़ार आदमी
होंगे।
कैसे-कैसे जवान हैं।
[230]
लाल बन्दरों के-से मुँह।
सूरत देखकर खौफ़ मालूम
होता है।
मिरजा- जनाब, हीले न कीजिए।
ये चकमे किसी औरर को
दीजिएगा।
यह किश्त !
मीर- आप
भी अजीब आदमी हैं।
यहाँ तो शहर पर आफ़त आयी हुई
है औरर आपको किश्त की सूझी है !
कुछ इसकी ख़बर है कि
शहर धिर गया, तो घर
कैसे चलेंगे ?
मिरजा- जब घर चलने का वक़्त आयेगा,
तो देखा
जायेगा- यह किश्त !
बस, अब की शह में मात है।
[240]
फ़ौज निकल गयी।
दस बजे का समय था।
फिर बाजी बिछ गयी।
मिरजा
बोले- आज खाने की
कैसे ठहरेगी ?
मीर- अजी, आज तो रोज़ा
है।
[245]
क्या आपको ज़्यादा भूख मालूम
होती है ?
मिरजा- जी नहीं, शहर
में न जाने क्या हो रहा है !
मीर- शहर
में कुछ न हो रहा होगा।
लोग खाना खा-खा
कर आराम से सो रहे होंगे।
हुजूर नवाब साहब भी ऐशगाह
में होंगे।
[250]
दोनों
सज्जन फिर जो खेलने बैठे,
तो तीन बज गये।
अब मिरजाजी की बाज़ी कमज़ोर थी।
चार का गजर बज ही रहा था कि फ़ौज की
वापसी की आहट मिली।
नवाब वाजिदअली पकड़ लिये गये
थे, औरर
सेना ने उन्हें किसी अञ्:ात स्थान को
लिये जा रही थी।
शहर में न कोई हलचल थी,
न-मार-काट।
[255]
एक बूँद भी खून नहीं गिरा
था।
आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा की
पराजय इतनी शान्ति से, इस
तरह खून बहे बिना न हुई होगी।
यह वह अहिंसा न थी, जिस पर देवगण प्रसन्न होते हैं।
यह वह कायरपन था, जिस पर बड़े-बड़े कायर भी
आँसू बहाते हैं।
अवध के विशाल देश का नवाब बन्दी
चला जाता था, औरर लखनऊ
ऐश की नींद में मस्त था।
[260]
यह राजनीतिक अध:पतन की चरम सीमा थी।
मिरजा ने
कहा- हुजूर नवाब साहब को
ज़ालिमों ने क़ैद कर लिया है।
मीर- होगा, यह लीजिए शह।
मिरजा- जनाब, ज़रा ठहरिए।
इस वक़्त इधर तबीयत नहीं लगती।
[265]
बेचारे नवाब साहब इस वक़्त
खून के आँसू रो रहे
होंगे।
मीर- रोया ही चाहें।
यह ऐश वहाँ कहाँ नसीब
होगा।
यह किश्त !
मिरजा- किसी के दिन बराबर नहीं जाते।
[270]
कितनी दर्दनाक हालत है।
मीर- हाँ; सो तो
है ही- यह लो, फिर किश्त !
बस, अब की किश्त में मात है, बच नहीं सकते।
मिरजा- खुदा की कसम, आप
बड़े बेदर्द हैं।
इतना बड़ा हादसा देखकर भी आपको
दु:ख नहीं होता।
[275]
हाय, ग़रीब
वाजिदअली शाह !
मीर- पहले अपने बादशाह को तो बचाइए फिर
नवाब साहब का मातम कीजिएगा।
यह किश्त औरर यह मात !
लाना हाथ !
[280]
बादशाह
को लिये हुए सेना सामने से निकल
गयी।
उनके जाते ही मिरजा ने फिर
बाज़ी बिछा दी।
हार की चोट बुरी होती है।
मीर ने कहा- आइए, नवाब साहब के
मातम में एक मरसिया कह डालें।
लेकिन मिरजा की राजभक्ति अपनी हार
के साथ लुप्त हो चुकी थी।
[285]
वह हार का बदला चुकाने के लिए
अधीर हो रहे थे।
चार
शाम हो गयी।
खण्डहर में चमगादड़ों
ने चीख़ना शुरू किया।
अबाबीलें आ-आ
कर अपने-अपने
घोसलों में चिमटीं।
पर दोनों खिलाड़ी डटे
हुए थे, मानो दो
खून के प्यासे सूरमा आपस में लड़
रहे हों।
[290]
मिरजाजी तीन बाज़ियाँ लगातार हार
चुके थे; इस चौथी
बाज़ी का रंग भी अच्छा न था।
वह बार-बार जीतने
का दृढ़ निश्चय करके शँभलकर खेलते थे
लेकिन एक-न-एक
चाल ऐसी बेढब आ पड़ती थी, जिससे बाज़ी ख़राब हो जाती थी।
उधर मीर साहब मारे उमंग के
गजलें गाते थे, चुटकियाँ लेते थे,
माने कोई गुप्त धन पा
गये हों।
मिरजा जी सुन-सुन कर झुँझलाते औरर हार की
झेंप मिटाने के लिए उनकी दाद देते
थे।
पर ज्यों-ज्यों बाजी कमज़ोर पड़ती थी,
धैर्य हाथ से निकल जाता था।
[295]
यहाँ तक की वह बात-बात पर झुँझलाने
लगे- जनाब, आप चाल बदला न कीजिए।
यह क्या कि एक चाल चले, औरर फिर उसे बदल दिया।
जो कुछ चलना हो एक बार चल
दीजिए; यह आप मुहरे पर हाथ
क्यों रखते हैं ?
मुहरों को
छोड़ दीजिए।
जब तक आपके चाल न
सूझे, मुहरा छुइए ही
नहीं
[300]
आप एक-एक चाल आध
घण्टे में चलते हैं।
इसकी सनद नहीं।
जिसे एक चाल चलने में
पाँच मिनट से ज़्यादा लगे, उसकी मात समझी जाये।
फिर आपने चाल बदली !
चुपके से
मुहरा वहीं रख दीजिए।
[305]
मीर साहब का फरजी पिटता
था।
बोले-मैंने चाल चली ही कब थी ?
मिरजा- आप चल चुके हैं।
मुहरा वहीं रख दीजिए- उसी घर में !
मीर- उस
घर में क्यों रखूँ ?
[310]
मैंने हाथ से
मुहरा छोड़ा ही कब था ?
मिरजा- मुहरा आप क़यामत
तक न छोड़े तो क्या चाल ही न होगी ?
फरजी पिटते देखा
तो धाँधली करने लगे।
मीर- धाँधली आप करते हैं।
हार-जीत तकदीर से
होती है, धाँधली
करने से कोई नहीं जीतता।
[315]
मिरजा- तो इस बाजी में
तो आपकी मात हो गयी।
मीर- मुझे क्यों मात होने
लगी ?
मिरजा- तो आप मुहरा उसी घर में रख
दीजिए, जहाँ पहले रक्खा था।
मीर- वहाँ क्यों रखूँ ?
नहीं रखता।
[320]
मिरजा- क्यों न रखिएगा ?
आपको रखना होगा।
तकरार बढ़ने लगी।
दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े थे।
यह दबता था न वह।
[325]
अप्रासंगिक बातें होने
लगीं।
मिरजा बोले- किसी ने ख़ानदान में शतरंज
खेली होती, तब तो
उसके कायदे जानते।
वे तो हमेशा घास छीला
करते थे, आप शतरंज क्या
खेलिएगा।
रियासत औरर ही चीज़ है।
जागीर मिल जाने से कोई रईस
नहीं हो जाता।
[330]
मीर- क्या ?
घास आपके अब्बाजान
छीलते होंगे।
यहाँ तो पीढ़ियों से
शतरंज खेलते चले आ रहे हैं।
मिरजा- अजी, जाइए भी,
गाजीउद्दीन हैदर के यहाँ
बावरची का काम करते-करते उम्र
गुज़र गयी।
आज रईस बनने चले हैं।
[335]
रईस बनना कुछ दिल्लगी नहीं है।
मीर- क्यों अपने बुजुर्गो
के मुँह में कालिख लगाते
हो- वे ही बावरची का काम
करते होंगे।
यहाँ तो हमेशा बादशाह के
दस्तरख़्वान पर खाना खाते चले आये हैं।
मिरजा- अरे चल चरकटे, बहुत बढ़-चढ़ कर
बातें न कर।
मीर- जबान सँभालिए, वरना
बुरा होगा।
[340]
मैं ऐसी सुनने का आदी
नहीं हूँ।
यहाँ तो किसी ने
आँखें दिखायी कि उसकी आँखें
निकालीं।
है हौसला ?
मिरजा- आप मेरा हौसला देखना चाहते
हैं, तो फिर आइए।
आज दो-दो हाथ
हो जाये, इधर या उधर।
[345]
मीर- तो यहाँ तुमसे दबनेवाला
कौन ?
दोनों
दोस्तों ने कमर से तलवारें
निकाल लीं।
नवाबी ज़माना था; सभी तलवार, पेशकब्ज, कटार वगैरह
बाँधते थे।
दोनों विलासी थे,
पर कायर न थे, उनमें र:ाजनीतिक भावों का अध:पतन
हो गया था- बादशाह के
लिए, बादशाहत के लिए
क्यों मरें; पर
व्यक्तिगत वीरता का अभाव न था।
दोनों ज़ख़्म खाकर
गिरे, औरर
दोनों न वहीं तड़प-तड़प
कर जानें दे दीं।
[350]
अपने बादशाह के लिए जिनकी
आँखों से एक बूँद आँसू न
निकला, उन्हीं दोनों
प्राणियों ने शतरंज के वजीर की रक्षा
में प्राण दे दिये।
अँधेरा हो
चला था।
बाज़ी बिछी हुई थी।
दोनों बादशाह
अपने-अपने
सिंहासनों पर बैठे हुए मानो इन
वीरों की मृत्यु पर रो रहे
थे !
चारों
तरफ़ सन्नाटा छाया हुआ था।
[355]
खँड़हर की टूटी हुई
मेहराबें, गिरी हुई
दीवारें औरर धूलि-धूसरित मीनारें इन लाशों
को देखती औरर सिर धुनती थीं।
Index to मल्हार.
Index to works of Pre-Independence prose.
Coded in December 2003 by विवेक अगरवाल.
Posted on 10 Jan 2004.