यूनीवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन

तेंतर



Go to line  
25  50  75  100  125  150  175  200

    आखिर वही हुआ जिसकी आशंका थी;  जिसकी चिंता में घर के सभी लोग विशेषत: प्रसूता पड़ी हुई थी। तीन पुन्नों के पश्चात् कन्या का जन्म हुआ। माता सौर में सूख गयी,  पिता बाहर आँगन मे सूख गये,  पिता की वृद्धा माता सौर द्वार पर सूख गयीं। अनर्थ,  महाअनर्थभगवान् ही कुशल करें तो हो ?   [5] यह पुत्री नहीं राक्षसी है। इस अभागिनी को इसी घर में आना थाआना ही था तो कुछ दिन पहले क्यों न आयी। भगवान् सातवें शत्रु के घर भी तेंतर का जन्म न दें।

    पिता का नाम था पंडित दामोदरदत्त
,  शिक्षित आदमी थे।  [10] शिक्षा- विभाग ही में नौकर भी थे; मगर इस संस्कार को कैसे मिटा देते,  जो परम्परा से हृदय में जमा हुआ था,  कि तीसरे बेटे की पीठ पर होनेवाली कन्या अभागिनि होती है,  या पिता को लेती या माता को,  या अपने को। उनकी वृद्धा माता लगी नवजात कन्या को पानी पी-पीकर कोसने,  कलमुँही हैकलमुँही -जाने क्या करने आयी है यहाँ। किसी बाँझ के घर जाती तो उसके दिन फिर जाते

    दामोदरदत्त दिल में तो घबराये हुए थे,  पर माता को समझाने लगे-अम्माँ,   तेंतर-वेतर कुछ नहीं,  भगवान् की जो इच्छा होती है,  वही होता है।  [15] ईश्वर चाहेंगे तो सब कुशल ही होगा;  गानेवालियों को बुला लो,  नहीं लोग कहेंगे,  तीन बेटे हुए तो कैसे फूली फिरती थीं,  एक बेटी हो गयी तो घर में कुहराम मच गया।

    माताअरे बेटा,  तुम क्या जानो इन बातों को,  मेरे सिर तो बीत चुकी है,  प्राण नहों में समाया हुआ है। तेंतर ही के जन्म से तुम्हारे दादा का देहांत हुआ। तभी से तेंतर का नाम सुनते ही मेरा कलेजा काँप उठता है।

    दामोदर
इस कष्ट के निवारण का भी कोई उपाय होगा ?   [20]

    माताउपाय बताने को तो बहुत है,  पंडितजी से पूछो तो कोईकोई उपाय बता देंगेपर इससे कुछ होता नहीं। मैंने कौनसे अनुष्ठान नहीं किये,  पर पंडितजी की तो मुट्ठियाँ गरम हुईं,  यहाँ जो सिर पर पड़ना था,  वह पड़ ही गया। अब टके के पंडित रह गये हैं,  जजमान मरे या जिये उनकी बला से,  उनकी दक्षिणा मिलनी चाहिए। धीरे सेलड़की दुबलीपतली भी नहीं है। तीनों लड़कों से हृष्टपुष्ट है।  [25] बड़ीबड़ी आँखें हैं,  पतलेपतले लाललाल ओंठ हैं,  जैसे गुलाब की पत्ती। गोराचिट्टा रंग है,  लम्बीसी नाक। कलमुँही नहलाते समय रोयी भी नहीं,  टुकुरटुकुर ताकती रही,  यह सब लच्छन कुछ अच्छे थोड़े ही हैं।

    दामोदरदत्त के तीनों लड़के साँवले थे,  कुछ विशेष रूपवान भी न थे। लड़की के रूप का बखान सुनकर उनका चित्त कुछ प्रसन्न हुआ।  [30] बोलेअम्माँ जी,  तुम भगवान् का नाम लेकर गानेवालियों को बुला भेजो,  गानाबजाना होने दो। भाग्य में जो कुछ है,  वह तो होगा ही।

    माताजी तो हुलसता नहीं,  करूँ क्या

    दामोदरगाना न होने से कष्ट का निवारण तो होगा नहीं,  कि हो जायगाअगर इतने सस्ते जान छूटे तो न कराओ गाना।  [35]

    माताबुलाये लेती हूँ बेटा,  जो कुछ होना था वह तो हो गया।

    इतने में दाई ने सौर में से पुकारकर कहाबहूजी कहती हैं गानावाना कराने का काम नहीं है।

    माताभला उनसे कहो चुप बैठी रहें,  बाहर निकलकर मनमानी करेंगी,  बारह ही दिन हैं,  बहुत दिन नहीं हैंबहुत इतराती फिरती थींयह न करूँगी,  वह न करूँगी,  देवी क्या है,  देवता क्या है,  मरदों की बातें सुनकर वही रट लगाने लगती थीं,  तो अब चुपके से बैठतीं क्यों नहीं। मेमें तो तेंतर को अशुभ नहीं मानतीं,  औरर सब बातों में मेमों की बराबर करती हैं तो इस बात में भी करें।

    यह कहकर माताजी ने नाइन को भेजा कि जाकर गानेवालियों को बुला ला,  पड़ोस में भी कहती जाना।  [40]

    सबेरा होते ही बड़ा लड़का सोकर उठा औरर आँखें मलता हुआ जा कर दीदी से पूछने लगाबड़ी अम्माँ,  कल अम्माँ को क्या हुआ

    मातालड़की तो हुई है।

    बालक खुशी से उछलकर बोलाहोहो,  पैजनियाँ पहनपहनकर छुनछुन चलेगी,  जरा मुझे दिखा दो दादीजी

    माताअरे क्या सौर में जायगा,  पागल हो गया है क्या

    लड़के की उत्सुकता न मानी।  [45] सौर के द्वार पर जाकर खड़ा हो गया औरर बोलाअम्माँ,  जरा बच्ची को मुझे दिखा दो।

    दाई ने कहा-  बच्ची अभी सोती है।

    बालक-  जरा दिखा दो,  गोद में लेकर।

    दाई ने कन्या उसे दिखा दी तो वहाँ से दौड़ता हुआ अपने छोटे भाइयों के पास पहुँचा औरर उन्हें जगाजगाकर खुशखबरी सुनायी।

    एक बोलानन्हींसी होगी।  [50]

    बड़ाबिलकुल नन्हींसीबस जैसी बड़ी गुड़ियाऐसी गोरी है कि क्या किसी साहब की लड़की होगी। यह लड़की मैं लूँगा।

    सबसे छोटा बोला
अमको भी दिका दो।  [55]

    तीनों मिलकर लड़की को देखने आये औरर वहाँ से बगलें बजाते उछलतेकूदते बाहर आये।

    बड़ादेखा कैसी है

    मँझलाकैसे आँखें बंद किये पड़ी थी।

    छोटाइसे हमें तो देना।

    बड़ाखूब द्वार पर बरात आयेगी,  हाथी,  घोड़े,  बाजे,  आतशबाजी।  [60]

    मँझला औरर छोटा ऐसे मग्न हो रहे थे मानो वह मनोहर दृश्य आँखों के सामने है,  उनके सरल नेत्र मनोल्लास से चमक रहे थे।

    मँझला बोलाफुलवारियाँ भी होंगी।

    छोटाअम बी पूल लेंगे



    छट्ठी भी हुई,  बरही भी हुई,  गानाबजाना,  खानाखिलाना,  देनादिलाना सबकुछ हुआपर रस्म पूरी करने के लिए,  दिल से नहीं,  खुशी से नहीं। लड़की दिनदिन दुर्बल औरर अस्वस्थ होती जाती थी।  [65] माँ उसे दोनों वक्त अफीम खिला देती औरर बालिका दिन औरर रात नशे में बेहोश पड़ी रहती। जरा भी नशा उतरता तो भूख से विकल होकर रोने लगतीमाँ कुछ ऊपरी दूध पिलाकर अफीम खिला देती। आश्चर्य की बात तो यह थी कि अबकी उसकी छाती में दूध ही नहीं उतरा। यों भी उसे दूध देर से उतरता थापर लड़कों की बेर उसे नाना प्रकार की दूधवद्र्धक औरषधियाँ खिलायी जातीं,  बारबार शिशु को छाती से लगाया जाता,  यहाँ तक कि दूध उतर ही आता थापर अबकी यह आयोजनाएँ न की गयीं।  [70] फूलसी बच्ची कुम्हलाती जाती थी। माँ तो कभी उसकी ओर ताकती भी न थी। हाँ,  नाइन कभी चुटकियाँ बजाकर चुमकारती तो शिशु के मुख पर ऐसी दयनीय ऐसी करुण वेदना अंकित दिखायी देती कि वह आँखें पोंछती हुई चली जाती थी। बहू से कुछ कहनेसुनने का साहस न पड़ता। बड़ा लड़का सिद्धू बारबार कहताअम्माँ,  बच्ची को दो बाहर से खेला लाऊँ।  [75] पर माँ उसे झिड़क देती थी।

    तीन
चार महीने हो गये। दामोदरदत्त रात को पानी पीने उठे तो देखा कि बालिका जाग रही है। सामने ताख पर मीठे तेल का दीपक जल रहा था,  लड़की टकटकी बाँधे उसी दीपक की ओर देखती थी,  औरर अपना अँगूठा चूसने में मग्न थी। चुभचुभ की आवाज आ रही थी।  [80] उसका मुख मुरझाया हुआ था,  पर वह न रोती थी न हाथपैर फेंकती थी,  बस अँगूठा पीने में ऐसी मग्न थी मानो उसमें सुधारस भरा हुआ है। वह माता के स्तनों की ओर मुँह भी नही फेरती थी,  मानो उसका उन पर कोई अधिकार नहीं,  उसके लिए वहाँ कोई आशा नहीं। बाबू साहब को उस पर दया आयी। इस बेचारी का मेरे घर जन्म लेने में क्या दोष हैमुझ पर या इसकी माता पर जो कुछ भी पड़े,  उसमें इसका क्या अपराध ?   [85] हम कितनी निर्दयता कर रहे हैं कि कुछ कल्पित अनिष्ट के कारण उसका इतना तिरस्कार कर रहे हैं। माना की कुछ अमंगल हो भी जाय तो क्या उसके भय से इसके प्राण ले लिए जायेंगेअगर अपराधी है तो मेरा प्रारब्ध है। इस नन्हेसे बच्चे के प्रति हमारी कठोरता क्या ईश्वर को अच्छी लगती होगीउन्होंने उसे गोद में उठा लिया औरर उसका मुख चूमने लगे।  [90] लड़की को कदाचित् पहली बार सच्चे स्नेह का ञ्:ान हुआ। वह हाथपैर उछालकर 'गूगूँ' करने लगी औरर दीपक की ओर हाथ फैलाने लगी। उसे जीवनज्योतिसी मिल गयी।

    प्रातकाल दामोदरदत्त ने लड़की को गोद में उठा लिया औरर बाहर लाये। स्त्री ने बारबार कहाउसे पड़ी रहने दो,   ऐसी कौनसी बड़ी सुन्दर है,  अभागिन रातदिन तो प्राण खाती रहती है,  मर भी नहीं जाती कि जान छूट जायकिंतु दामोदरदत्त ने न माना।  [95] उसे बाहर लाये औरर अपने बच्चों के साथ बैठकर खेलाने लगे। उनके मकान के सामने थोड़ीसी जमीन पड़ी हुई थी। पड़ोस के किसी आदमी की एक बकरी उसमें आकर चरा करती थी। इस समय भी वह चर रही थी। बाबू साहब ने बड़े लड़के से कहासिद्धू,  जरा उस बकरी को पकड़ो,  तो इसे दूध पिलायें,  शायद भूखी है बेचारी।  [100] देखो,  तुम्हारी नन्हीसी बहन है नइसे रोज हवा में खेलाया करो।

    सिद्धू को दिल्लगी हाथ आयी। उसका छोटा भाई भी दौड़ा। दोनों ने घेरकर बकरी को पकड़ा औरर उसका कान पकड़े हुए सामने लाये।  [105] पिता ने शिशु का मुँह बकरी के थन में लगा दिया। लड़की चुबलाने लगी औरर एक क्षण में दूध की धार उसके मुँह में जाने लगी,  मानो टिमटिमाते दीपक में तेल पड़ जाय। लड़की का मुँह खिल उठा। आज शायद पहली बार उसकी क्षुधा तूप्त हुई थी। वह पिता की गोद में हुमकहुमककर खेलने लगी।  [110] लड़कों ने भी उसे खूब नचायाकुदाया।

    उस दिन से सिद्धू को मनोरंजन का एक नया विषय मिल गया। बालकों को बच्चों से बहुत प्रेम होता है। अगर किसी घोंसले में चिड़िया का बच्चा देख पायें तो बारबार वहाँ जायेंगे। देखेंगे कि माता बच्चे को कैसे दाना चुगाती है।  [115] बच्चा कैसे चोंच खोलता है,  कैसे दाना लेते समय परों को फड़फड़ाकर चेंचें करता है। आपस में बड़े गम्भीर भाव से उसकी चरचा करेंगे,  अपने अन्य साथियों को ले जाकर उसे दिखायेंगे। सिद्धू ताक में लगा रहता,  ज्यों ही माता भोजन बनाने या स्नान करने जाती तुरंत बच्ची को लेकर आता औरर बकरी को पकड़कर उसके थन में शिशु का मुँह लगा देता,  कभी दिन में दोदो तीनतीन बार पिलाता। बकरी को भूसीचोकर खिलाकर ऐसा परचा लिया कि वह स्वयं चोकर के लोभ से चली आती औरर दूध देकर चली जाती। इस भाँति कोई एक महीना गुजर गया,  लड़की हृष्टपुष्ट हो गयी,  मुख पुरुष के समान विकसित हो गया।  [120] आँखें जग उठीं,  शिशुकाल की सरल आभा मन को हरने लगी।

    माता उसे देखदेखकर चकित होती थी। किसी से कुछ कह तो न सकतीपर दिल में उसे आशंका होती कि अब वह मरने को नहीं,  हमीं लोगों के सिर जायेगी। कदाचित् ईश्वर इसकी रक्षा कर रहे हैं,  जभी तो दिनदिन निखरती आती है,  नहीं अब तक ईश्वर के घर पहुँच गयी होती।



    मगर दादी माता से कहीं ज्यादा चिंतित थी।  [125] उसे भ्रम होने लगा कि वह बच्ची को खूब दूध पिला रही है,  साँप को पाल रही है। शिशु की ओर आँख उठा कर भी न देखती। यहाँ तक कि एक दिन कह बैठीलड़की का बड़ा छोह करती होहाँ भाई,  माँ हो कि नहीं,  तुम न छो करोगी तो करेगा कौन

    अम्माँजी,  ईश्वर जानते हैं जो मैं इसे दूध पिलाती होऊँ? '   [130]

    अरे तो मैं मना थोड़े ही करती हूँ,  मुझे क्या गरज पड़ी है कि मुफ़्त में अपने ऊपर पाप लूँ,  कुछ मेरे सिर तो जायगी नहीं।

    अब आपको विश्वास ही न आये तो कोई क्या करे ? '

    मुझे पागल समझती हो,  वह हवा पीपीकर ऐसी हो रही है ?' 

    भगवान् जाने अम्माँ,  मुझे तो आप अचरज होता है।'

    बहू ने बहुत निर्दोषिता जतायीकिंतु वृद्धा सास को विश्वास न आया।  [135] उसने समझा,  यह मेरी शंका को र्निमूल समझती है,  मानो मुझे इस बच्ची से कोई बैर है। उसके मन में यह भाव अंकुरित होने लगा कि इसे कुछ हो जाय तब यह समझे कि मैं झूठ नहीं कहती थी। वह जिन प्राणियों को अपने प्राणों से भी प्रिय समझती थी,  उन्हीं लोगों की अमंगल कामना करने लगी,  केवल इसलिए कि मेरी शंकाएँ सत्य हो जायँ। वह यह तो नहीं चाहती थी कि कोई मर जायपर इतना अवश्य चाहती थी कि किसी बहाने से मैं चेता दूँ कि देखा,  तुमने मेरा कहा न माना,  यह उसी का फल है। उधर सास की ओर से ज्योंज्यों यह द्वेषभाव प्रकट होता था,  बहू का कन्या के प्रति स्नेह बढ़ता था।  [140] ईश्वर से मनाती रहती थी कि किसी भाँति एक साल कुशल से कट जाता तो इनसे पूछती। कुछ लड़की का भोलाभाला चेहरा,  कुछ अपने पती का प्रेमवात्सल्य देखकर भी उसे प्रोत्साहन मिलता था। विचित्र दशा हो रही थी,  न दिल खोलकर प्यार ही कर सकती थी,  सम्पूर्ण रीति से निर्दय होते ही बनता था। न हँसते बनता था न रोते।

    इस भाँति दो महीने गुजर गये औरर कोई अनिष्ट न हुआ।
 [145] तब तो वृद्धा सास के पेट में चूहे दौड़ने लगे। बहू को दोचार दिन ज्वर भी नहीं आ जाता कि मेरी शंका की मर्यादा रह जाय,   पुत्र भी किसी दिन पैरगाड़ी पर से नहीं गिर पड़ता,  न बहू के मैके ही से किसी के स्वर्गवास की सुनावनी आती है। एक दिन दामोदरदत्त ने खुले तौर पर कह भी दिया कि अम्माँ,  यह सब ढकोसला है,  तेंतर लड़कियाँ क्या दुनिया में होतीं नहीं,  तो सबकेसब माँबाप मर ही जाते हैंअंत में उसने अपनी शंकाओं को यथार्थ सिद्ध करने की एक तरकीब सोच निकाली। एक दिन दामोदरदत्त स्कूल से आये तो देखा कि अम्माँजी खाट पर अचेत पड़ी हुई हैं,  स्त्री अँगीठी में आग रखे उनकी छाती सेंक रही है औरर कोठरी के द्वार औरर खिड़कियाँ बंद हैं।  [150] घबराकर कहाअम्माँजी,  क्या दशा है

    स्त्रीदोपहर ही से कलेजे में एक शूल उठ रहा है,  बेचारी बहुत तड़प रही हैं।

    दामोदरमैं जाकर डॉटर साहब को बुला लाऊँ नदेर करने से शायद रोग बढ़ जाय। अम्माँजी,  अम्माँजी,  कैसी तबियत है ?   [155]

    माता ने आँखें खोलीं औरर कराहते हुए बोलीबेटा,  तुम आ गयेअब न बचूँगी,  हाय भगवान्,  अब न बचूँगी। जैसे कोई कलेजे में बरछी चुभा रहा हो। ऐसी पीड़ा कभी न हुई थी। इतनी उम्र बीत गयी,  ऐसी पीड़ा नहीं हुई।  [160]

    स्त्रीयह कलमुँही छोकरी न जाने किस मनहूस घड़ी में पैदा हुई।

    सासबेटा,  सब भगवान् करते हैं,  यह बेचारी क्या जानेदेखो मैं मर जाऊँ तो उसे कष्ट मत देना। अच्छा हुआ,  मेरे सिर आयी। किसी के सिर तो जाती ही,  मेरे ही सिर सही।  [165] हाय भगवान्,   अब न बचूँगी।

    दामोदरजाकर डॉक्टर बुला लाऊँअभी लौटा आता हूँ।

    माताजी को केवल अपनी बात की मर्यादा निभानी थी,  रुपये न खर्च कराने थे,  बोलीनहीं बेटा,  डॉक्टर के पास जाकर क्या करोगेअरे,  वह कोई ईश्वर है।  [170] डॉक्टर अमूत पिला देगा।  दसबीस वह भी ले जायेगाडॉक्टरवैध से कुछ न होगा। बेटा,  तुम कपड़े उतारो,  मेरे पास बैठकर भागवत पढ़ो। अब न बचूँगी,  हाय राम !   [175]

    दामोदरतेंतर बुरी चीज है,  मैं समझता था कि ढकोसला ही ढकोसला है।

    स्त्रीइसी से मैं उसे कभी मुँह नहीं लगाती थी।

    माताबेटा,  बच्चों को आराम से रखना,  भगवान् तुम लोगों को सुखी रखे। अच्छा हुआ मेरे ही सिर गयी,  तुम लोगों के सामने मेरा परलोक हो जायगा। कहीं किसी दूसरे के सिर जाती तो क्या होता राम !   [180] भगवान् ने मेरी विनती सुन ली। हायहाय !! 

    दामोदरदत्त को निश्चय हो गया कि अब अम्माँ न बचेंगी। बड़ा दु:ख हुआ।  [185] उनके मन की बात होती तो वह माँ के बदले तेंतर को न स्वीकार करते। जिस जननी ने जन्म दिया,  नाना प्रकार के कष्ट झेलकर उनका पालनपोषण किया,  अकाल वैधव्य को प्राप्त होकर भी उनकी शिक्षा का प्रबंध किया,  उसके सामने एक दुधमुँही बच्ची का क्या मूल्य था,  जिसके हाथ का एक गिलास पानी भी वह न जानते थे। शोकातुर हो कपड़े उतारे औरर माँ के सिरहाने बैठ कर भागवत की कथा सुनाने लगे।

    रात को बहू भोजन बनाने चली तो सास से बोली
अम्माँजी,  तुम्हारे लिए थोड़ासा साबूदाना छोड़ दूँ

    माता ने व्यंग्य करके कहाबेटी,  अत्र बिना न मारो,  भला साबूदाना मुझसे खाया जायगाजाओ,  थोड़ी पूरियाँ छान लो।  [190] पड़ेपड़े जो कुछ इच्छा होगी,  खा लूँगी,  कचौरियाँ भी बना लेना। मरती हूँ तो भोजन को तरसतरस क्यों मरूँ। थोड़ी मलाई भी मँगवा लेना,  चौक की हो। फिर थोड़े खाने आऊँगी बेटी। थोड़े से केले मँगवा लेना,  कलेजे के दर्द में केले खाने से आराम होता है।  [195]

    भोजन के समय पीड़ा शांत हो गयीलेकिन आध घंटे के बाद फिर जोर से होने लगी। आधी रात के समय कहीं जाकर उनकी आँख लगी। एक सप्ताह तक उनकी यही दशा रही,  दिनभर पड़ी कराहा करतीं,  बस भोजन के समय जरा वेदना कम हो जाती। दामोदरत्त सिरहाने बैठे पंखा झलते औरर मातृवियोग के आगत शोक से रोते। घर की महरी ने महल्लेभर में यह खबर फैला दी,  पड़ोसिनें देखने आयीं तो सारा इलजाम बालिका के सिर गया।  [200]

    एक ने कहायह तो कहो बड़ी कुशल हुई कि बुढ़िया के सिर गयीनहीं तो तेंतर माँबाप दो में से एक को लेकर तभी शांत होती है। दैव न करे कि किसी के घर तेंतर का जन्म हो।

    दूसरी बोली
मेरे तो तेंतर का नाम सुनते ही रोयें खड़े हो जाते हैं। भगवान् बाँझ रखे पर तेंतर न दे।

    एक सप्ताह के बाद वृद्धा का कष्ट निवारण हुआ
,  मरनें में कोई कसर न थी,  वह तो कहो पुरुखाओं का पुण्यप्रताप था।  [205] ब्राह्मणों को गोदान दिया गया। दुर्गापाठ हुआ,  तब कहीं जाके संकट कटा।
  (to be continued...)
To
index of pre-Independence prose texts.
To index of  मल्हार.
Through211 coded by  विवेक अगरवाल  in June-July 2004 and posted 19 Aug 2004.