यूनिवर्सिटी ऑफ़
विर्जिनिया
तीसरी क़सम, अर्थात् मारे गये
गुलफ़ाम
by
फनीश्वर नाथ "रेणु"
Go to line 25 50 75 100 125 150 175 200 225 250 275 300 325 350 375 400 425 450 475 500 525 550 575 600 625 650 675 700 725 750 775 800 825 850 875 900 925 950 975 1000 1025 1050 1075 1100 1150 1175
हिरामन गाड़ीवान की पीठ में
गुदगुदी लगती है। .ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ
पिछले बीस साल
से गाड़ी हाँकता है हिरामन।
बैलगाड़ी।
सीमा के उस पार, मोरंग राज नेपाल से धान
औरर लकड़ी ढो चुका है।
कण्ट्रोल के ज़माने
में चोरबाज़ारी का माल इस पार से उस पार
पहुँचाया है।
[5]
लेकिन कभी तो ऐसी
गुदगुदी नहीं लगी पीठ में !.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ
कण्ट्रोल का
ज़माना !
हिरामन कभी भूल सकता
है उस ज़माने को !
एक बार चार खेप
सीमेण्ट औरर कपड़े की गाँठों से
भरी गाड़ी, जोगबनी से
बिराटनगर पहुँचाने के बाद हिरामन का
कलेजा पोख्ता हो गया था।
फारबिसगंज का हर चोर-व्यापारी उसको पक्का गाड़ीवान मानता।
[10]
उसके बैलों की बड़ाई बड़ी
गद्दी से बड़े सेठजी खुद करते,
अपनी भाषा में.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ।
गाड़ी पकड़ी गयी
पाँचवीं बार, सीमा के
इस पार तराई में।
महाजन का मुनीम उसी
की गाड़ी पर गाँठों के बीच
चुक्की-मुक्की लगाकर छिपा हुआ
था।
दारोगा साहब की डेढ़ हाथ लम्बी
चोरबत्ती की रोशनी कितनी तेज़ होती
है, हिरामन जानता है।
एक घण्टे के लिए आदमी अन्धा हो
जाता है, एक छटक भी पड़ जाये
आँखों पर !
[15]
रोशनी के साथ कड़कती
हुई आवाज- " ऐ-य !
गाड़ी रोको !
साले, गोली मार देंगे !.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ "
बीसों गाड़ियाँ एक साथ
कचकचाकर रुक गयीं।
हिरामन ने पहले ही कहा
था " यह बीस
विषावेगा !"
[20]
दारोगा साहब उसकी गाड़ी
में दुबके हुए मुनीमजी पर
रोशनी डालकर पिशाची हँसी हँसे-
" हा-हा-हा !
मुँड़ीमजी
ई-ई-ई !
ही-ही-ही !.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ
ऐ-य,
साला गाड़ीवान, मुँह क्या देखता है
रे-ए-ए !
कम्बल हटाओ इस
बोरे के मुँह पर से !"
[25]
हाथ की छोटी लाठी से
मुनीमजी के पेट में खोंचा
मारते हुए कहा था, " इस
बोरे को !
स-स्साला !.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ "
बहुत
पुरानी अखज-अदावत होगी
दारोगा साहब औरर मुनीमजी में।
नहीं तो उतना रुपया कबूलने
पर भी पुलीस-दारोगा का मन न
डोले भला !
चार हज़ार तो गाड़ी पर
बैठा-बैठा ही दे रहा था।
[30]
लाठी से दूसरी बार खोंचा
मारा दारोगा ने।
" पाँच
हज़ार !"
फिर खोंचा-
" उतरो पहले।.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ "
मुनीम को गोड़ी
से नीचे उतारकर दारोगा ने उसकी
आँखों पर रोशनी डाल दी।
फिर दो सिपाहियों के साथ
सड़क से बीस-पच्चीस रस्सी दूर
झाड़ी के पास ले गये।
[35]
गाड़ीवान औरर गाड़ियों पर
पाँच-पाँच बन्दूकवाले
सिपाहियों का पहरा !
हिरामन समझ गया,
इस बार निस्तार नहीं।
जेल ?
हिरामन को जेल का डर
नहीं।
लेकिन उसके बैल ?
[40]
न जाने कितने
दिनों तक बिना चारा-पानी
के सरकारी फाटक में पड़े
रहेंगे- भूखे-प्यासे।
फिर नीलाम हो जायेंगे।
भैया औरर भौजी को वह
मुँह नहीं दिखा सकेगा कभी।
नीलाम की बोली उसके कानों
के पास गूँज गयी- एक-दो-तीन !
दारोगा औरर
मुनीम में बात पट नहीं रही थी शायद।
[45]
हिरामन की गाड़ी के
पास तैनात सिपाही ने अपनी भाषा में
दूसरे सिपाही से धीमी आवाज़ में
पूछा, " का हो ?
मामला गोल होखी
का ?"
फिर खैनी-तम्बाकू देने के बहाने उस
सिपाही के पास चला गया।
एक-दो-तीन !
तीन-चार गाड़ियों की आड़।
[50]
हिरामन ने फैसला कर लिया।
उसने धीरे-से अपने बैलों के
गले की रस्सियाँ खोल लीं।
गाड़ी पर बैठे-बैठे दोनों को
जुड़वाँ बाँध दिया।
बैल समझ गये उन्हें क्या
करना है।
हिरामन उतरा, जुती हुई गाड़ी में बाँस की
टिकटी लगाकर बैलों के कन्धों को
बेलाग किया।
[55]
दोनों के कानों
के पास गुदगुदी लग दी और मन-ही-मन बोला,
' चलो भैयन,
जान बचेगी तो
ऐसी-ऐसी सग्गड़ गाड़ी बहुत
मिलेगी। '
एक-दो-तीन !
नौ-दो-ग्यारह !
गाड़ियों की आड़
में सड़क के किनारे दूर तक घनी झाड़ी
फैली हुई थी।
दम साधकर तीनों प्राणियों
ने झाड़ी को पार किया- बेखटक, बे-आहट !
[60]
फिर एक ले, दो ले- दुलकी चाल !
दोनों बैल
सीना तानकर फिर तराई के घने जंगलों
में घुस गये।
राह सूँधते, नदी-नाला पार करते
हुए भागे पूँछ उठाकर।
पीछे-पीछे
हिरामन।
रात-भर भागते
रहे थे तीनों जन।
[65]
घर पहुँचकर
दो तीन तक बेसुध पड़ा रहा हिरामन।
होश में आते ही उसने
कान पकड़कर कसम खायी थी- अब कभी
ऐसी चीज़ों की लदनी नहीं
लादेंगे।
चोरबाज़ारी का माल ?
तोबा, तोबा !
पता नहीं मुनीमजी का
क्या हुआ !
[70]
भगवान जाने उसकी सग्गड़
गाड़ी का क्या हुआ !
असली इस्पात लोहे की
धुरी थी।
दोनों पहिये तो
नहीे, एक पहिया एकदम नया था।
गाड़ी में रंगीन
डोरियों के फुँदने बड़े जतन
से गूँथे गये थे।
दो कसमें
खायी हैं उसने।
[75]
एक चोरबाज़ारी का माल नहीं
लादेंगे।
दूसरी- बाँस।
अपने हर भाड़ेदार से वह पहले
ही पूछ लेता है- ' चोरी-चमारीवाली चीज़
तो नहीं ?'
औरर, बाँस ?
बाँस लादने के
लिए पचास रुपये भी दे कोई, हिरामन की गाड़ी नहीं मिलेगी।
[80]
दूसरे की गाड़ी देखे।
बाँस लदी हुई
गाड़ी।
गाड़ी से चार हाथ आगे बाँस का
अगुआ निकला रहता है औरर पीछे की ओर
चार हाथ पिछुआ।
काबू के बाहर रहती है गाड़ी
हमेशा।
सो बेकाबूवाली लदनी औरर
खरैहिया।
[85]
शहरवाली बात !
तिस पर बाँस का
अगुआ पकड़कर चलनेवाला भाड़ेदार का महाभकुआ
नौकर, लड़की-स्कूल की ओर देखने लगा।
बस, मोड़ पर
घोड़ागाड़ी से टक्कर हो गयी।
जब तक हिरामन बैलों की रस्सी
खींचे, तब तक
घोड़ागाड़ी की छतरी बाँस के अगुआ में
फँस गयी।
घोड़ागाड़ीवाले ने तड़ातड़
चाबुक मारते हुए गाली दी थी !
बाँस
की लदनी ही नहीं, हिरामन ने
खरैहिया शहर की लदनी भी छोड़ दी।
औरर जब फारबिसगंज से
मोरंग का भाड़ा ढोना शुरू किया तो गाड़ी ही
पार !
कई वर्षों तक
हिरामन ने बैलों को आधीदारी पर
जोता।
आधा भाड़ा गाड़ीवाले का औरर आधा
बैलवाले का।
हिस्स !
[95]
गाड़ीवानी करो
मुफ्त !
आधीदारी की कमाई से
बैलों के ही पेट नहीं भरते।
पिछले साल ही उसने अपनी गाड़ी
बनवायी है।
देवी मैया भला
करें उस सरकस-कम्पनी के बाघ
का।
पिछले साल इसी मेले
में बाघगाड़ी को ढोनेवाले
दोनों घोड़े मर गये।
[100]
चम्पानगर से फारबिसगंज मेला
आने के समय सरकस-कम्पनी के
मैनेजर ने गाड़ीवान-पट्टी में ऐलान करके कहा,
" सौ रुपया भाड़ा
मिलेगा !"
एक-दो गाड़ीवान राजी हुए।
लेकिन, उनके बैल बाघगाड़ी से दस हाथ दूर
ही डर से डिकरने लगे- बाँ-आँ !
रस्सी तुड़ाकर भागे।
हिरामन ने अपने बैलों
की पीठ सहलाते हुए कहा, " देखो भैयन, ऐसा मौका फिर हाथ न आयेगा।
[105]
यही मौका है अपनी गाड़ी बनवाने
का।
नहीं तो फिर आधे-दारी।
अरे, पिंजड़े में बन्द बाघ का क्या
डर ?
मोरंग की तराई
में दहाड़ते हुए बाघों को देख
चुके हो।
फिर पीठ पर मैं तो
हूँ। "
[110]
गाड़ीवानों के दल
में तालियाँ पटपटा उठी थी एक साथ।
सभी की लाज रख ली हिरामन के
बैलों ने।
हुमककर आगे बढ़ गये औरर
बाघगाड़ी में जुट गये-एक-एक करके।
सिफऱ् दहिने बैल ने
जुतने के बाद ढेर-सा
पेशाब किया।
हिरामन ने दो दिन तक नाक से
कपड़े की पट्टी नहीं खोली थी।
[115]
बड़ी गद्दी के बड़े सेठजी की तरह
नकबन्धन लगाये बिना बघाइन गन्ध बरदास्त नहीं कर
सकता कोई।
बाघगाड़ी की गाड़ीवानी की
है हिरामन ने।
कभी ऐसी गुदगुदी नहीं लगी
पीठ में।
आज रह-रहकर उसकी गाड़ी
में चम्पा का फूल महक उठता है।
पीठ में गुदगुदी लगने
पर वह अँगोछे से पीठ झाड़ लेता है।
[120]
हिरामन को लगता
है, दो वर्ष से
चम्पानगर मेले की भगवती मैया उस पर प्रसन्न
हैं।
पिछले साल बाघगाड़ी जुट गयी।
नकद एक सौ रुपये भाड़े के
अलावा बुताद, चाह-बिस्कुट औरर रास्ते-भर बन्दर-भालू औरर
जोकर का तमाशा देखा सो फोकट
में !
औरर, इस बार यह जनानी सवारी।
औररत है या चम्पा का फूल !
[125]
जब से गाड़ी
मह-मह महक रही है।
कच्ची सड़क के एक
छोटे-से खड्ड में
गाड़ी का दाहिना पहिया बेमौके हिचकोला खा
गया।
हिरामन की गाड़ी से एक हल्की ' सिस ' की आवाज़ आयी।
हिरामन ने दाहिने बैल को
दुआली से पीटते हुए कहा, " साला !
क्या समझता है,
बोरे की लदनी है क्या ?"
[130]
" अहा !
मारो मत !"
अनदेखी औररत की आवाज़
ने हिरामन को अचरज में डाल दिया।
बच्चों की बोली जैसी
महीन, फेनूगिलासी
बोली !
मथुरामोहन
नौटंकी कम्पनी में लैला बननेवाली
हीराबाई का नाम किसने नहीं सुना होगा
भला !
[135]
लेकिन हिरामन की बात
निराली है।
उसने सात साल तक लगातार
मेलों की लदनी लादी है, कभी नौटंकीथियेटर या बायस्कोप
सिनेमा नहीं देखा।
लैला या हीराबाई का नाम भी उसने
नहीं सुना कभी।
देखने की क्या बात !
सो मेला
टूटने के पन्द्रह दिन पहले आधी रात की
बेला में काली ओढ़नी में लिपटी
औररत को देखकर उसके मन में खटका
अवश्य लगा था।
[140]
बक्सा ढोनेवाले नौकर
ने गाड़ी-भाड़ा में
मोल-मोलाई करने की
कोशिश की तो ओढ़नीवाली ने सिर हिलाकर मना
कर दिया।
हिरामन ने गाड़ी जोतते हुए
नौकर से पूछा, " क्यों भैया, कोई चोरी-चमारी का
माल-वाल तो नहीं ?"
हिरामन को फिर अचरज
हुआ।
बक्सा ढोनेवाले आदमी ने
हाथ के इशारे से गाड़ी हाँकने को कहा
औरर अँधेरें में गायब हो
गया।
हिरामन को मेले में
तम्बाकू बेचनेवाली बूढ़ी की काली साड़ी की याद
आयी थी।
[145]
ऐसे में
कोई क्या गाड़ी हाँके !
एक
तो पीठ में गुदगुदी लग रही है।
दूसरे रह-रहकर
चम्पा का फूल खिल जाता है उसकी गाड़ी में।
बैलों को डाँटो
तो ' इस-बिस ' करने
लगती है उसकी सवारी।
उसकी सवारी !
[150]
औररत अकेली,
तम्बाकू बेचनेवाली बूढ़ी
नहीं !
आवाज़ सुनने के
बाद वह बार-बार मुड़कर टप्पर
में एक नज़र डाल देता है; अँगोछे से पीठ झाड़ता है।
भगवान जाने क्या लिखा है इस बार
उसकी किस्मत में !
गाड़ी जब पूरब की ओर
मुड़ी, एक टुकड़ा चाँदनी
उसकी गाड़ी में समा गयी।
सवारी की नाक पर एक जुगनू जगमगा
उठा।
[155]
हिरामन को सबकुछ रहस्यमय-अजगुत-अजगुत-लग रहा है।
सामने चम्पानगर से सिंधिया
गाँव तक फैला हुआ मैदान !
कहीं डाकिन-पिशाचिन तो नहीं ?
हिरामन की
सवारी ने करवट ली।
चाँदनी पूरे मुखड़े पर
पड़ी तो हिरामन चीखते-चीखते रुक गया- अरे बाप !
[160]
ई तो परी है !
परी की
आँखें खुल गयीं।
हिरामन ने सामने सड़क की ओर
मुँह कर लिया औरर बैलों को
टिटकारी दी।
वह जीभ को तालू से सटाकर
टि-टि-टि-टि आवाज़ निकालता है।
हिरामन की जीभ न जाने कब से
सूखकर लकड़ी-जैसी हो गयी
थी !
[165]
" भैया, तुम्हारा
नाम क्या है ?"
हू-ब-हू
फेनूगिलास !
हिरामन के
रोम-रोम बज उठे।
मुँह से बोली नहीं
निकली।
उसके दोनों बैल भी कान
खड़े करके इस बोली को परखते हैं।
[170]
" मेरा नाम !
नाम मेरा है
हिरामन !"
उसकी
सवारी मुस्कुराती है।
मुस्कुराहट में खुशबू
है।
" तब तो मीता कहूँगी, भैया नहीं।
[175]
- मेरा नाम भी
हीरा है। "
" इस्स !"
हिरामन को परतीत
नहीं, " मर्द औरर
औररत के नाम में फ़र्क होता
है। "
" हाँ जी, मेरा
नाम भी हीराबाई है। "
कहाँ
हिरामन औरर कहाँ हीराबाई, बहुत फ़र्क है !
[180]
हिरामन
ने अपने बैलों को झिड़की दी-
" कान चुनियाकर गप
सुनने से ही तीस कोस मंजिल कटेगी
क्या ?
इस बायें नाटे
के पेट में शैतानी भरी है। "
हिरामन ने बायें
बैल को दुआली की हल्की झड़प दी।
" मारो मत; धीरे-धीरे चलने
दो।
जल्दी क्या है !"
[185]
हिरामन
के सामने सवाल उपस्थित हुआ, वह क्या कहकर ' गप ' करे हीराबाई
से ?
' तोहे ' कहे या ' अहाँ '?
उसकी भाषा में
बड़ों को ' अहाँ ' अर्थात् ' आप ' कहकर
सम्बोधित किया जाता है, कचराही बोली में दो-चार सवाल-जवाब चल सकता
है, दिल-खोल गप तो गाँव की बोली
में ही की जा सकती है किसी से।
आसिन-कातिक के भोर में छा
जानेवाले कुहासे से हिरामन को
पुरानी चिढ़ है।
बहुत बार वह सड़क भूलकर भटक चुका
है।
[190]
किन्तु आज के भोर के इस
घने कुहासे में भी वह मगन है।
नदी के किनारे धन-खेतों से फूले हुए
धान के पौधों की पवनिया गन्ध आती है।
पर्वपावन के दिन गाँव
में ऐसी ही सुगन्ध फैली रहती है।
उसकी गाड़ी में फिर चम्पा का फूल
खिला।
उस फूल में एक परी बैठी
है।
[195]
जै भगवती !
हिरामन
ने आँख की कनखियों से देखा,
उसकी सवारी.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ मीता.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ हीराबाई की
आँखें गुजुर-गुजुर उसको हेर रही हैं।
हिरामन के मन में कोई अजानी
रागिनी बज उठी।
सारी देह सिरसिरा रही है।
वह बोला, " बैल को मारते हैं तो
आपको बहुत बुरा लगता है ?"
[200]
हीराबाई ने परख
लिया, हिरामन सचमुच हीरा
है।
चालीस साल का
हट्टा-कट्टा, काला-कलूटा,
देहाती नौजवान अपनी गाड़ी
औरर अपने बैलों के सिवाय
दुनिया की किसी औरर बात में विशेष
दिलचस्पी नहीं लेता।
घर में बड़ा भाई है,
खेती करता है।
बाल-बच्चेवाला
आदमी है।
हिरामन भाई से बढ़कर भाभी की इज़्ज़त करता
है।
[205]
भाभी से डरता भी है।
हिरामन की भी शादी हुई थी, बचपन में ही गौने के
पहले ही दुलहिन मर गयी।
हिरामन को अपनी दुलहिन का चेहरा
याद नहीं।
दूसरी शादी ?
दूसरी शादी न करने
के अनेक कारण हैं।
[210]
भाभी की जिद्द, कुमारी लड़की से ही हिरामन की शादी
करवायेगी।
कुमारी का मतलब हुआ
पाँच-सात सात की लड़की।
कौन मानता है सरधा-कानून ?
कोई लड़कीवाला
दोब्याहू को अपनी लड़की गरज में पड़ने
पर ही दे सकता है।
भाभी उसकी तीन-सत्त
करके बैठी है, सो बैठी है।
[215]
भाभी के आगे भैया की भी
नहीं चलती !
अब हिरामन ने तय कर
लिया है, शादी नहीं
करेगा।
कौन बलाय मोल लेने
जाये !
ब्याह करके फिर गाड़ीवानी
क्या करेगा कोई !
औरर सबकुछ छूट
जाये, गाड़ीवानी
नहीं छोड़ सकता हिरामन।
[220]
हीराबाई ने हिरामन
के जैसा निश्छल आदमी बहुत कम देखा
है।
पूछा, " आपका घर कौन जिल्ला में पड़ता
है ?"
कानपुर नाम
सुनते ही जो उसकी हँसी छूटी,
तो बैल भड़क उठे।
हिरामन हँसते समय सिर नीचा कर
लेता है।
हँसी बन्द होने पर उसने कहा
, " वाह रे
कानपुर !
[225]
तब तो नाकपुर भी
होगा ?"
औरर जब हीराबाई ने
कहा कि नाकपुर भी है, तो वह हँसते-हँसते दुहरा हो गया।
" वाह रे दुनिया !
क्या-क्या
नाम होता है !
कानपुर, नाकपुर !"
[230]
हिरामन ने हीराबाई के
कान के फूल को गौर से
देखा।
नाक की नकछवि के नग देखकर सिहर
उठा-लहू की बूँद !
हिरामन
ने हीराबाई का नाम नहीं सुना कभी।
नौटंकी कम्पनी की औररत को वह
बाईजी नहीं समझता है।
कम्पनी में काम करनेवाली
औररतों को वह देख चुका है।
[235]
सरकस कम्पनी की मालकिन, अपनी दोनों जवान
बेटियों के साथ बाघगाड़ी के पास आती
थी, बाघ को
चारा-पानी देती थी, प्यार भी करती थी खूब।
हिरामन के बैलों को भी
डबलरोटी-बिस्कुट
खिलाया था बड़ी बेटी ने।
हिरामन होशियार
है।
कुहासा छँटते ही अपनी चादर से
टप्पर में परदा कर दिया-
" बस दो घण्टा !
उसके बाद रास्ता चलना
मुश्किल है।
[240]
कातिक की सुबह की धूप आप बर्दास्त
न कर सकियेगा।
कजरी नदी के किनारे तेगछिया
के पास गाड़ी लगा देंगे।
दोपहरिया काटकर.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ। "
सामने से आती हुई
गाड़ी को दूर से ही
देखकर वह सतर्क हो गया।
लीक औरर बैलों पर ध्यान
लगाकर बैठ गया।
[245]
राह काटते हुए गाड़ीवान ने
पूछा, " मेला टूट
रहा है क्या भाई ?"
हिरामन
ने जवाब दिया, वह
मेले की बात नहीं जानता।
उसकी गाड़ी पर ' विदागी ' ( नैहर
या ससुराल जाती हुई लड़की ) है।
न जाने किस गाँव का नाम बता दिया
हिरामन ने !
" छत्तापुर-पचीरा कहाँ है ?"
[250]
" कहीं हो, यह लेकर आप क्या करिएगा ?"
हिरामन अपनी चतुराई पर
हँसा।
परदा डाल देने पर भी पीठ में
गुदगुदी लगती है।
हिरामन परदे के
छेद से देखता है।
हीराबाई एक दियासलाई की डिब्बी के बराबर
आईने में अपने दाँत देख रही
है।
[255]
मदनपुर मेले में एक बार
बैलोे को नन्हीं-चित्ती कौड़ियों की माला खरीद दी थी
हिरामन ने, छोटी-छोटी,
नन्हीं-नन्हीं कौड़ियों की पाँत।
तेगछिया के
तीनों पेड़ दूर से ही दिखलायी
पड़ते हैं।
हिरामन ने परदे को ज़रा
सरकाते हुए कहा, " देखिए, यही है
तेगछिया।
दो पेड़ जटामासी बड़ हैं
औरर एक.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ उस फूल का क्या नाम है,
आपके कुरते पर जैसा
फूल छपा हुआ है, वैसा ही; खूब
महकता है; दो
कोस दूर तक गन्ध जाती है; उस फूल को खमीरा तम्बाकू
में डालकर पीते भी हैं लोग। "
" औरर उस अमराई की आड़ से कई
मकान दिखाई पड़ते हैं, वहाँ कोई गाँव है या
मन्दिर
?"
[260]
हिरामन
ने बीड़ी सुलगाने के पहले
पूछा, " बीड़ी
पीयें ?
आपको गन्ध तो
नहीं लगेगी ?
वही है नामलगर
ड्योढ़ी।
जिस राजा के मेले से हम
लोग आ रहे हैं, उसी का दियाद-गोतिया
है।
जा रे जमाना !"
[265]
हिरामन
ने ' जा रे
जमाना ' कहकर बात को
चाशनी में डाल दिया।
हीराबाई ने टप्पर के परदे को
तिरछे खोंस दिया।
.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ हीराबाई की दन्तपंक्ति।
" कौन ज़माना ?"
ठुड्डी पर हाथ रखकर
साग्रह बोली।
[270]
" नामलगर ड्योढ़ी का ज़माना !
क्या था औरर
क्या-से-क्या
हो गया !"
हिरामन
गप रसाने का भेद जानता है।
हीराबाई बोली, " तुमने देखा था वह ज़माना
?"
" देखा नहीं,
सुना है।
[275]
राज कैसे गया, बड़ी हैफवाली कहानी है।
सुनते हैं, घर में देवता ने जन्म
ले लिया।
कहिए भला, देवता आखिर देवता है।
है या नहीं ?
इन्द्रासन छोड़कर
मिरतूभुवन में जन्म ले ले
तो उसका तेज कैसे सम्हाल सकता है
कोई !
[280]
सूरजमुखी फूल की
तरह माथे के पास तेज खिला रहता।
लेकिन नज़र का फेर, किसी ने नहीं पहचाना।
एक बार उपलैन में लाट साहब मय
लाटनी के, हवागाड़ी
से आये थे।
लाट ने भी नहीं, पहचाना आखिर लाटनी ने।
सूरजमुखी तेज देखते ही
बोल उठी- ए मैन
राजा साहब, सुनो,
यह आदमी का बच्चा नहीं
है, देवता है। "
[285]
हिरामन
ने लाटनी की बोली की नकल उतारते समय
खूब डैम-फैट-लैट किया।
हीराबाई दिल खोलकर हँसी।
हँसते समय उसकी सारी देह
दुलकती है।
हीराबाई ने अपनी
ओढ़नी ठीक कर ली।
तब हिरामन को लगा कि.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ लगा कि.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ
[290]
" तब ?
उसके बाद क्या हुआ
मीता ?"
" इस्स !
कथ्था सुनने का भड़ा
शौक है आपको ?
लेकिन, काला आदमी, राजा
क्या महाराजा भी हो जाये, रहेगा काला आदमी ही।
[295]
साहेब के जैसा अक्किल कहाँ
से पायेगा !
हँसकर बात उड़ा दी सभी
ने।
तब रानी को बार-बार सपना देने लगा देवता !
सेवा नहीं कर
सकते तो जाने दो, नहीं रहेंगे तुम्हारे
यहाँ।
इसके बाद देवता का खेल शुरू
हुआ।
[300]
सबसे पहले दोनों
दन्तार हाथी मरे, फिर
घोड़ा, फिर पटपटाँग.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ।
"
" पटपटाँग क्या है ?"
हिरामन का
मन पल-पल में बदल
रहा है।
मन में सतरंगा छाता
धीरे-धीरे खिल रहा है,
उसको लगता है।
उसकी गाड़ी पर देवकुल की औररत
सवार है।
[305]
देवता आखिर देवता है !
" पटपटाँग !
धन-दौलत, माल-मवेशी सब साफ़ !
देवता इन्द्रासन
चला गया। "
हीराबाई
ने ओझल होते हुए मन्दिर
के कँगूरे की ओर देखकर लम्बी साँस
ली।
[310]
" लेकिन देवता ने जाते-जाते कहा, इस राज
में कभी एक छोड़कर दो बेटा नहीं
होगा।
धन हम अपने साथ ले जा रहे
हैं, गुन छोड़
जाते हैं।
देवता के साथ सभी
देव-देवी चले
गये,
सिर्फ सरोसती मैया रह गयी।
उसका मन्दिर है। "
देसी
घोड़े पर पाट के बोझ लादे
हुए बनियों को आते देखकर हिरामन
ने टप्पर के परदे को गिरा दिया।
[315]
बैलों को ललकारकर
बिदेशिया नाच का बन्दना गीत गाने लगा --
" जै मैया
सरोसती, अरजी करत बानी
;
हमरा पर
होखू सहाई हे
मैया, हमरा पर होखू
सहाई !"
घोड़लद्दी
बनियों से हिरामन ने
हुलसकर पूछा, " क्या
भाव पटुआ खरीदते हैं महाजन ?"
लँगड़े
घोड़ेवाले बनिये ने
बटगमनी जवाब दिया- " नीचे सताइस-अठाइस,
ऊपर तीस।
[320]
जैसा माल, वैसा भाव। "
जवान
बनिये ने पूछा, " मेला का क्या हाल-चाल
है, भाई ?
कौन नौटंकी
कम्पनी का खेल हो रहा है, रौता कम्पनी या मथुरामोहन ?"
" मेले का हाल
मेलावाला जाने !"
हिरामन ने फिर
छत्तापुर-पचीरा का नाम लिया।
[325]
सूरज दो
बाँस ऊपर आ गया था।
हिरामन अपने बैलों से
बात करने लगा- " एक कोस ज़मीन !
ज़रा दम बाँधकर चलो।
प्यास की बेला हो गयी न !
याद है, उस बार तेगछिया के पास सरकस
कम्पनी के जोकड़ औरर बन्दर नचानेवाले
साहब में झगड़ा हो गया था।
[330]
जोकड़वा ठीक बन्दर की तरह दाँत किटकिटाकर
किकियाने लगा था.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ न जाने किस-किस देश-मुलुक
के आदमी आते हैं ?"
हिरामन
ने फिर परदे के छेद से
देखा, हीराबाई एक कागज़ के
टुकड़े पर आँख गड़ाकर बैठी है।
हिरामन का मन आज हल्के सुर
में बँधा है।
उसको तरह-तरह
के गीतों की याद आती है।
बीस-पच्चीस साल
पहले, बिदेशिया,
बलवाही, छोकरा-नाचवाले
एक-से-एक
गज़ल-खेमटा गाते
थे !
[335]
अब तो, भोंपा में
भोंपू-भोंपू
करके कौन गीत गाते हैं
लोग !
जा रे जमाना !
छोकरा-नाच के गीत की याद आयी हिरामन को
--
" सजनवा बैरी हो गय
हमारो !
सजनवा !
[340]
अरे, चिठिया हो तो
सब कोई बाँचे; चिठिया
हो तो.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ
हाय !
करमवा, होय करमवा.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ
कोई न बाँचे
हमारो, सजनवा.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ
हो करमवा.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ !"
गाड़ी की
बल्ली पर ऊँगलियों से ताल देकर
गीत को काट दिया हिरामन ने।
[345]
छोकरा-नाच के
मनुवाँ नटुवा का मुँह
हीराबाई-जैसा ही था।
कहाँ चला गया वह ज़माना ?
हर महीने गाँव
में नाचवाले आते थे।
हिरामन ने छोकरा-नाच के चलते अपनी भाभी की न जाने
कितनी बोली-ठोली सुनी
थी।
भाई ने घर से निकल जाने को
कहा था।
[350]
आज हिरामन पर माँ
सरस्वती सहाय हैं, लगता है।
हीराबाई बोली, " वाह, कितना बढ़िया
गाते हो तुम !"
हिरामन का
मुँह लाल हो गया।
वह सिर नीचा करके हँसने लगा।
आज तेगछिया पर
रहनेवाले महावीर स्वामी भी सहाय हैं
हिरामन पर।
[355]
तेगछिया के नीचे एक भी गाड़ी
नहीं।
हमेशा गाड़ी औरर गाड़ीवानों
की भीड़ लगी रहती है यहाँ।
सिफऱ् एक साइकिलवाला बैठकर सुस्ता
रहा है।
महावीर स्वामी को सुमरकर हिरामन
ने गाड़ी रोकी।
हीराबाई परदा हटाने लगी।
[360]
हिरामन ने पहली बार आँखों
से बात की हीराबाई से- साइकिलवाला इधर ही टकटकी लगाकर देख रहा है।
बैलों
के खोलने के पहले बाँस की टिकटी
लगाकर गाड़ी को टिका दिया।
फिर साइकिलवाले की ओर बार-बार घूरते हुए
पूछा, " कहाँ जाना
है ?
मेला ?
कहाँ से आना हो
रहा है ?
[365]
बिसनपुर से ?
बस, इतनी ही दूर में थसथसाकर थक
गये ?
जा रे जवानी !"
साइकिलवाला
दुबला-पतला
नौजवान मिनमिनाकर कुछ बोला औरर बीड़ी
सुलगाकर उठ खड़ा हुआ।
हिरामन
दुनिया-भर की निगाह से बचाकर
रखना
चाहता है हीराबाई को।
[370]
उसने चारों ओर नज़र
दौड़ाकर देख लिया- कहीं कोई गाड़ी या घोड़ा नहीं।
कजरी नदी की
दुबली-पतली धारा तेगछिया
के
पास आकर पूरब की ओर मुड़ गयी है।
हीराबाई पानी में बैठी हुई
भैंसों औरर उनकी पीठ पर
बैठे हुए बगुलों को देखती
रही।
हिरामन बोला,
" जाइए, घाट पर मुँह-हाथ
धो आइए !"
हीराबाई
गाड़ी से नीचे उतरी।
[375]
हिरामन का कलेजा धड़क उठा।
नहीं, नहीं !
पाँव सीधे
हैं, टेढ़े नहीं।
लेकिन, तलुवा इतना लाल क्यों है ?
हीराबाई घाट की ओर चली
गयी, गाँव की
बहू-बेटी की तरह सिर नीचा
करके धीरे-धीरे।
[380]
कौन कहेगा कि कम्पनी की औररत
है।
औररत नहीं, लड़की।
शायद कुमारी ही है।
हिरामन टिकटी पर टिकी गाड़ी
पर बैठ गया।
उसने टप्पर में झाँककर
देखा।
[385]
एक बार इधर-उधर
देखकर हीराबाई के तकिये पर हाथ रख दिया।
फिर तकिये पर केहुनी डालकर
झुक गया, झुकता गया।
खुशबू उसकी देह में समा
गयी।
तकिये के गिलाफ पर कढ़े
फूलों को उँगलियों से
छूकर उसने सूँघा, हाय रे हाय !
इतनी सुगन्ध !
[390]
हिरामन को लगा,
एक साथ पाँच चिलम गाँजा
फूँककर वह उठा है।
हीराबाई के छोटे आईने
में उसने अपना मुँह देखा।
आँखें उसकी इतनी लाल
क्यों हैं ?
हीराबाई
लौटकर आयी तो उसने हँसकर कहा,
" अब आप गाड़ी का पहरा दीजिए,
मैं आता हूँ
तुरत। "
हिरामन
ने अपनी सफरी झोली से सहेजी
हुई गंजी निकाली।
[395]
गमछा झाड़कर कन्धे पर लिया औरर हाथ
में बालटी लटकाकर चला।
उसके बैलों ने
बारी-बारी से ' हुँक-हुँक ' करके कुछ कहा।
हिरामन ने जाते-जाते उलटकर कहा, " हाँ, हाँ,
प्यास सभी को लगी है।
लौटकर आता हूँ तो घास
दूँगा, बदमाशी मत
करो !"
बैलों ने कान
हिलाए।
[400]
नहा-धोकर कब लौटा हिरामन, हीराबाई को नहीं मालूम।
कजरी की धारा को देखते-देखते उसकी आँखों
में रात की उचटी हुई नींद लौट आयी थी।
हिरामन पास के गाँव से जलपान
के लिए दही-चूड़ा-चीनी ले आया
है।
" उठिए, नींद
तोड़िए !
दो मुट्ठी
जलपान कर लीजिए !"
[405]
हीराबाई
आँख खोलकर अचरज में पड़ गयी।
एक हाथ में मुट्टी के
नये बरतन में दही, केले के पत्ते।
दूसरे हाथ में
बालटी-भर पानी।
आँखों में
आत्मीयतापूर्ण अनुरोध !
" इतनी चीज़ें कहाँ
से ले आये ?"
[410]
" इस
गाँव का दही नामी है।
चाह तो फारबिसगंज जाकर ही
पाइएगा। "
हिरामन की
देह की गुदगुदी मिट गयी।
हीराबाई ने कहा, " तुम भी पत्तल बिछाओ।
क्यों ?
[415]
तुम नहीं
खाओगे तो समेटकर रख लो अपनी
झोली में।
मैं भी नहीं खाऊँगी। "
" इस्स !"
हिरामन लजाकर
बोला, " अच्छी बात
है !
आप खा लीजिए
पहले। "
[420]
" पहले-पीछे क्या ?
तुम भी
बैठो। "
हिरामन का
जी जुड़ा गया।
हीराबाई ने अपने हाथ से उसका
पत्तल बिछा दिया, पानी
छींट दिया, चूड़ा निकालकर
दिया।
इस्स !
[425]
धन्न है, धन्न है !
हिरामन ने
देखा, भगवती मैया
भोग
लगा रही है।
लाल होंठों पर गोरस का
परस !
पहाड़ी तोते को
दूध-भात खाते
देखा है ?
दिन ढल गया।
[430]
टप्पर में
सोयी हीराबाई औरर ज़मीन पर दरी बिछाकर
सोये हिरामन की नींद एक ही साथ खुली।
मेले की ओर जानेवाली
गाड़ियाँ तेगछिया के पास रुकी हैं।
बच्चे कचर-पचर कर
रहे हैं।
हिरामन हड़बड़ाकर उठा।
टप्पर के अन्दर झाँककर इशारे से
कहा- दिन ढल गया !
[435]
गाड़ी में
बैलों को जोतते समय उसने
गाड़ीवानों के सवालों का कोई जवाब
नहीं दिया।
गाड़ी हाँकते हुए बोला,
" सिरपुर बाज़ा के
इसपिताल की डागडरनी हैं।
रोगी देखने जा रही हैं।
पास ही कुड़मागाम। "
हीराबाई
छत्तापुर-पचीरा का नाम
भूल गयी।
[440]
गाड़ी जब कुछ दूर आगे बढ़ आयी
तो उसने हँसकर पूछा,
" पत्तापुर-छपीरा ?"
हँसते-हँसते पेट
में बल पड़ गये हिरामन के-
" पत्तापुर-छपीरा !
हा हा !
वे लोग
छत्तापुर-पचीरा के ही गाड़ीवान
थे, उनसे कैसे
कहता !
ही-ही !"
[445]
हीराबाई
मुस्कुराती हुई गाँव की ओर
देखने लगी।
सड़क तेगछिया
गाँव के बीच से निकलती है।
गाँव के बच्चों ने
परदेवाली गाड़ी देखी औरर तालियाँ
बजा-बजाकर रटी हुई
पंक्तियाँ दुहराने लगे -
" लाली-लाली डोलिया
में
लाली
रे
दुलहिनिया
पान
खाये.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ !"
हिरामन
दँसा।
[450]
दुलहिनिया.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ लाली-लाली डोलिया !
दुलहिनिया पान खाती
है, दुलहा की पगड़ी
में मुँह पोंछती है।
ओ दुलहिनिया, तेगछिया गाँव के बच्चों
को याद रखना।
लौटती बेर गुड़ का लड्डू
लेती आइयो।
लाख बरिस तेरा दुलहा जीये
!
[455]
कितने दिनों का
हौसला पूरा हुआ है हिरामन का !
ऐसे कितने
सपने देखे हैं उसने !
वह अपनी दुलहिन को
लेकर लौट रहा है।
हर गाँव के बच्चे तालियाँ
बजाकर गा रहे हैं।
हर आँगन से झाँककर देख रही
हैं औररतें।
[460]
मर्द लोग पूछते
हैं, ' कहाँ की गाड़ी
है, कहाँ जायेगी
?'
उसकी दुलहिन डोली का
परदा थोड़ा सरकाकर देखती है।
औरर भी कितने सपने.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ
गाँव से बाहर निकलकर
उसने कनखियों से टप्पर के अन्दर
देखा, हीराबाई कुछ सोच
रही है।
हिरामन भी किसी सोच में पड़
गया।
[465]
थोड़ी देर के बाद वह
गुनगुनाने लगा -
" सजन रे झूठ मति
बोलो, खुदा के
पास जाना है।
नहीं
हाथी, नहीं
घोड़ा, नहीं गाड़ी -
वहाँ
पैदल ही जाना है।
सजन रे.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ। "
[470]
हीराबाई
ने पूछा, " क्यों मीता ?
तुम्हारी अपनी बोली
में कोई गीत नहीं क्या ?"
हिरामन
अब बेखटक हीराबाई की आँखों
में आँखें डालकर बात करता है।
कम्पनी की औररत भी ऐसी होती
हैं ?
सरकस कम्पनी की मालकिन
मेम थी।
[475]
लेकिन हीराबाई !
गाँव की बोली
में गीत सुनना चाहती है।
वह खुलकर मुस्कुराया-
" गाँव की बोली आप
समझिएगा ?"
" हूँ ऊँ-ऊँ !"
हीराबाई ने गर्दन
हिलायी।
[480]
कान के झमके हिल गये।
हिरामन कुछ देर तक
बैलों को हाँकता रहा
चुपचाप।
फिर बोला, " गीत ज़रूर ही सुनिएगा ?
नहीं मानिएगा ?
इस्स !
[485]
इतना शौक गाँव का
गीत सुनने का है आपको !
तब लीक छोड़नी होगी।
चालू रास्ते में कैसे
गीत गा सकता है कोई !"
हिरामन ने बायें
बैल
की रस्सी खींचकर दाहिने को लीक से बाहर
किया औरर बोला, " हरिपुर होकर नहीं जायेंगे
तब। "
चालू
लीक को काटते देखकर हिरामन की गाड़ी
के पीछेवाले गाड़ीवान ने चिललाकर
पूछा, " काहे हो
गाड़ीवान, लीक छोड़कर बेलीक
कहाँ ऊधर ?"
[490]
हिरामन
ने हवा में दुआली घुमाते
हुए जवाब दिया- " कहाँ
है बेलीक ?
वह सड़क नननपुर तो
नहीं जायेगी। "
फिर अपने-आप बड़बड़ाया, " इस मुलुक के लोगों की
यही आदत बुरी है।
राह चलते एक सौ जिरह
करेंगे।
अरे भाई, तुमको जाना है, जाओ।
[495]
.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ देहाती भुच्च सब !"
नननपुर की सड़क पर गाड़ी
लाकर हिरामन ने
बैलों की रस्सी ढीली कर दी।
बैलों ने दुलकी चाल
छोड़कर कदमचाल पकड़ी।
हीराबाई ने
देखा, सचमुच नननपुर
की सड़क बड़ी सूनी है।
हिरामन उसकी आँखों की बोली
समझता है- " घबड़ाने की बात नहीं।
[500]
यह सड़क भी फारबिसगंज जायेगी,
राह-घाट
के लोग बहुत अच्छे हैं.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ एक घड़ी रात
तक हम लोग पहुँच
जायेंगे। "
हीराबाई
को फारबिसगंज पहुँचने की जल्दी
न्हीं।
हिरामन पर उसको इतना भरोसा हो
गया है कि डर-भय की
कोई बात ही नहीं उठती है मन में।
हिरामन ने पहले जी-भर मुस्कुरा लिया।
कौन गीत गाये वह !
[505]
हीराबाई को गीत
औरर कथा दोनों का शौक है.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ
इस्स ! महुआ घटवारिन ? वह बोला,
" अच्छा, जब आपको इतना शौक है तो
सुनिए महुआ घटवारिन का गीत।
इसमें गीत भी है,
कथ्था भी है। "
कितने दिनों
के बाद भगवती ने यह
हौसला भी पूरा कर दिया।
जै भगवती !
आज हिरामन अपने मन
को खलास कर लेगा।
[510]
वह हीराबाई की थमी हुई मुस्कुराहट
को देखता रहा।
" सुनिए !
आज भी परमार नदी
में महुआ घटवारिन के कई पुराने घाट
हैं।
इसी मुलुक की थी महुआ !
थी तो घटवारिन,
लेकिन सौ सतवन्ती
में एक थी।
[515]
उसका बाप दारू-ताड़ी पीकर
दिन-रात बेहोश पड़ा
रहता।
उसकी सौतेली माँ साक्षात
राकसनी !
बहुत बड़ी नज़र-चालक।
रात में गाँजा-दारू-अफीम चुराकर
बेचनेवाले से लेकर तरह-तरह के लोगों से उसकी
जान-पहचान थी।
सबसे घुट्टी-भर हेल-मेल।
[520]
महुआ कुमारी थी।
लेकिन काम कराते-कराते उसकी हङ्ङी निकाल दी थी राकसनी ने।
जवान हो गयी, शादी-ब्याह की बात भी
नहीं चलायी।
एक रात की बात सुनिए !"
हिरामन
ने धीरे-धीरे
गुनगुनाकर गला साफ किया -
[525]
" हे अ-अ-अ सावना-भादवा के-र-उमड़ल नदिया-गे
मै-यो-ओ-ओ,
मैयो
गे रैनि भयावनि-हे-ए-ए;
तड़का-तड़के धड़के करेज-आ-आ मोरा,
कि
हमहँु जे बार-नान्ही
रे-ए-ए.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ। "
ओ
माँ, सावन-भादों की उमड़ी हुई नदी, भयावनी रात, बिजली कड़कती है, मैं बारी-क्वारी
नन्ही-बच्ची, मेरा कलेजा धड़कता है।
अकेली कैसे जाऊँ घाट पर
?
सो भी एक परदेशी
राही-बटोही के पैर
में तेल लगाने के लिए !
सत-माँ ने अपनी बज्जर-किवाड़ी
बन्द कर ली।
[530]
आसमान में मेघ हड़बड़ा उठे
औरर हरहराकर बरसा होने लगी।
महुआ रोने लगी, अपनी माँ को याद करके।
आज उसकी माँ रहती तो ऐसे
दुरदिन में कलेजे से सटाकर
रखती अपनी महुआ बेटी को।
गे मइया, इसी
दिन के लिए, यही
दिखाने के लिए तुमने कोख में
रखा था ?
महुआ अपनी माँ पर
गुस्सायी- क्यों वह अकेली मर गयी;
जी-भर कोसती
हुई बोली।
[535]
हिरामन ने लक्ष्य
किया, हीराबाई तकिये पर
केहुनी गड़ाकर, गीत
में मगन एकटक उसकी ओर देख रही
है।
.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ खोयी हुई सूरत कैसी
भोली लगती है !
हिरामन
ने गले में कँपकँपी
पैदा की -
" हूँ-ऊँ-ऊँ-रे डाइनियाँ मैयो
मोरी-ई-ई,
नोनवा चटाई
काहे नाहिं मारलि सौरी-घर-अ-अ।
एहि दिनवाँ
खातिर छिनरो
धिया
तेंहु
पोसलि कि नेनू-दूध उटगन.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ। "
[540]
हिरामन
ने दम लेते हुए पूछा,
" भाखा भी समझती हैं
कुछ या खाली गीत ही सुनती
हैं ?"
हीरा
बोली, " समझती
हूँ।
उटगन माने उबटन- जो देह में लगते
हैं। "
हिरामन
ने विस्मित होकर कहा,
" इस्स !"
.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ सो
रोने-धोने से क्या
होय !
[545]
सौदागर ने पूरा
दाम चुका दिया था महुआ का।
बाल पकड़कर घसीटता हुआ नाव पर चढ़ा
औरर माँझी को हुकुम दिया,
नाव खोलो, पाल बाँधो !
पालवाली नाव परवाली
चिड़िया की तरह उड़ चली।
रात-भर महुआ
रोती-छटपटाती रही।
सौदागर के नौकरों
ने बहुत डराया-धमकाया- ' चुप
रहो, नहीं
तो उठाकर पानी में फेंक
देंगे। '
[550]
बस, महुआ को बात सूझ गयी।
भोर का तारा मेघ की आड़ से ज़रा
बाहर आया, फिर छिप गया।
इधर महुआ भी छपाक् से कूद
पड़ी पानी में।
.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ सौदागर का एक नौकर महुआ
को देखते ही मोहित हो गया था।
महुआ की पीठ पर वह भी कूदा।
[555]
उलटी धारा में तैरना खेल
नहीं, सो भी भरी
भादों की नदी में !
महुआ असल घटवारिन
की बेटी थी।
मछली भी भला थकती है पानी
में !
सफरी मछली-जैसी फरफराती, पानी चीरती भागी चली जा रही है।
औरर उसके पीछे सौदागर का
नौकर पुकार-पुकारकर
कहता है- ' महुआ ज़रा
थमो, तुमको
पकड़ने नहीं आ रहा, तुम्हारी साथी हूँ।
[560]
ज़िन्दगी-भर साथ
रहेंगे हम लोग। '
लेकिन.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ।
हिरामन का बहुत प्रिय
गीत है यह।
महुआ घटवारिन गाते समय उसके
सामने सावन-भादों की नदी उमड़ने लगती
है; अमावस्या की रात औरर
घने बादलोे में रह-रहकर बिजली चमक उठती है।
उसी चमक में लहरों से
लड़ती हुई बारी-कुमारी
महुआ की झलक उसे मिल जाती है।
[565]
सफरी मछली की चाल औरर तेज़ हो
जाती हैं।
उसको लगता है, वह खुद सौदागर का नौकर है।
महुआ कोई बात नहीं सुनती।
परतीत करती नहीं।
उलटकर देखती भी नहीं।
[570]
औरर वह थक गया है, तैरते-तैरते।
इस बार लगता है
महुआ ने अपने को पकड़ा दिया।
खुद ही पकड़ में आ गयी है।
उसने महुआ को छू लिया
है, पा लिया है,
उसकी थकन दूर हो गयी है।
पन्द्रह-बीस
साल तक उमड़ी हुई नदी की उलटी धारा
में
तैरते हुए उसके मन को किनारा मिल गया।
[575]
आनन्द के आँसू कोई रोक
नहीं मानते।
उसने हीराबाई से
अपनी गीली आँखें चुराने की
कोशिश की।
किन्तु हीरा तो उसके मन
में बैठी न जाने कब से सबकुछ
देख रही थी।
हिरामन ने अपनी काँपती हुई
बोली को काबू में लाकर
बैलों को झिड़की दी- " इस गीत में न जाने क्या है
कि सुनते ही दोनों थसथसा जाते
हैं।
लगता है सौ मन बोझ लाद दिया
किसी ने। "
[580]
हीराबाई
लम्बी साँस लेती है।
हिरामन के अंग-अंग में उमंग समा जाती है।
" तुम तो उस्ताद हो मीता !"
" इस्स !"
आसिन-कातिक का सूरज दो
बाँस दिन रहते ही कुम्हला जाता है।
[585]
सूरज डूबने से पहले ही
नननपुर पहुँचना है,
हिरामन अपने बैलों
को समझा रहा है- " कदम खोलकर औरर कलेजा बाँधकर
चलो .ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ ए .ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ छि: छि: !
बढ़के भैयन
!
ले-ले-ले-ए हे-य !"
नननपुर तक वह अपने
बैलों को
ललकारता रहा।
हर ललकार के पहले वह अपने
बैलों को बीती हुई बातों
की याद दिलाता- याद नहीं,
चौधरी की बेटी बरात
में कितनी गाड़िया थीं; सबको कैसे मात किया था
!
[590]
हाँ, वही कदम निकालो।
ले-ले-ले !
नननपुर से
फारबिसगंज तीन कोस !
दो घण्टे
औरर !
नननपुर के हाट पर
आजकल चाय भी बिकने लगी
है।
[595]
हिरामन अपने लोटे में
चाय भरकर ले आया।
कम्पनी की औररत को जानता है
वह, सारा दिन, घड़ी-घड़ी-भर में, चाय
पीती रहती है।
चाय है या जान !
हीरा
हँसते-हँसते
लोट-पोट हो रही
है- " अरे,
तुमसे किसने कह दिया कि
क्वारे आदमी को चाय नहीं पीनी चाहिए
?"
हिरामन
लजा गया।
[600]
क्या बोले वह ?
लाज की बात।
लेकिन वह भोग चुका है एक
बार।
सरकस कम्पनी की मेम के हाथ की चाय
पीकर उसने देख लिया है।
बड़ी गरम तासीर !
[605]
" पीजिए गुरुजी !"
हीरा हँसी।
" इस्स !"
नननपुर हाट पर ही
दीया-बाती जल
चुकी थी।
हिरामन ने अपना सफरी लालटेन जलाकर
पिछवा में लटका दिया।
[610]
आजकल शहर से पाँच कोस दूर
के गाँववाले भी अपने को शहरू
समझने लगे हैं।
बिना रोशनी की गाड़ी को पकड़कर चालान
कर देते हैं।
बारह बखेड़ा।
" आप मुझे गुरुजी मत कहिए। "
" तुम मेरे उस्ताद
हो।
[615]
हमारे शास्तर में लिखा हुआ
हैं, एक अच्छर
सिखानेवाला भी गुरु औरर एक राग सिखानेवाला
भी उस्ताद। "
" इस्स !
शास्तर-पुरान भी जानती हैं !
मैनें क्या
सिखाया ?
मैं क्या ?"
[620]
हीरा
हँसकर गुनगुनाने लगी-
" हे-अ-अ-अ-सावना-भादवा
के-र.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ। "
हिरामन
अचरज के मारे गूँगा हो गया।
इस्स !
इतना तेज़
जेहन !
हू-ब-हू महुआ
घटवारिन !
[625]
गाड़ी
सीताधार की एक सूखी धारा की उतरायी पर गड़गड़ाकर
नीचे की ओर उतरी।
हीराबाई ने हिरामन का कन्धा धर लिया एक हाथ
से।
बहुत देर तक हिरामन के कन्धे
पर उसकी उँगलियाँ पड़ी रहीं।
हिरामन ने नज़र फिराकर कन्धे पर
केन्द्रित करने की कोशिश की,
कई बार।
गाड़ी चढ़ाई पर पहुँची तो हीरा की
ढीली उँगलियाँ फिर तन गयीं।
[630]
सामने
फारबिसगंज शहर की रोशनी झिलमिला रही है।
शहर से कुछ दूर हटकर मेले
की रोशनी .ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ टप्पर में लटके
लालटेन की रोशनी में छाया नाचती
हैं आस-पास।
डबडबायी आँखों से,
हर रोशनी सूरजमुखी
फूल की तरह दिखायी पड़ती है।
फारबिसगंज तो
हिरामन का घर-दुआर
है !
न
जाने कितनी बार वह फारबिसगंज आया है।
[635]
मेले की लदनी लादी है।
किसी औररत के साथ ?
हाँ, एक बार।
उसकी भाभी जिस साल आयी थी गौने
में।
इसी तरह तिरपाल से गाड़ी को
चारों ओर से घेरकर बासा बनाया गया
था।
[640]
हिरामन अपनी गाड़ी को
तिरपाल से घेर रहा है, गाड़ीवान-पट्टी में।
सुबह होते ही रौता
नौटंकी कम्पनी के मैनेजर से बात
करके भरती हो जायेगी हीराबाई।
परसों मेला खुल रहा
हैं।
इस बार मेले में
पालचट्टी खूब जमी है।
बस, एक रात।
[645]
आज रात-भर हिरामन की
गाड़ी में रहेगी वह।
हिरामन की गाड़ी में नहीं,
घर में।
" कहाँ की गाड़ी है ?
कौन हिरामन !
किस मेले
से ?
[650]
किस चीज की लदनी है
?"
गाँव-समाज के गाड़ीवान,
एक-दूसरे
को खोजकर, आसपास
गाड़ी लगाकर बासा डालते हैं।
अपने गाँव के
लालमोहर, धुन्नीराम
औरर
पलटदास वगैरह गाड़ीवानों के दल को
देखकर हिरामन अचकचा गया।
उधर पलटदास टप्पर में झाँंककर
भड़का।
मानो बाघ पर नज़र पड़ गयी।
[655]
हिरामन ने इशारे से सभी को
चुप किया।
फिर गाड़ी की ओर कनखी मारकर
फ:ुसफुसाया- " चुप !
कम्पनी की औररत
है, नौटंकी
कम्पनी की। "
" कम्पनी की-ई-ई-ई ?"
??
.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ ?? XX !"
[660]
एक
नहीं, अब चार हिरामन
!
चारों ने अचरज
से एक-दूसरे को
देखा।
कम्पनी नाम में कितना असर
है !
हिरामन ने लक्ष्य
किया, तीनों एक साथ
सटक-दम हो गये।
लालमोहर ने जरा दूर हटकर
बतियाने की इच्छा प्रकट की, इशारे से ही।
[665]
हिरामन ने टप्पर की ओर मुँह
करके कहा, " होटिल तो नहीं खुला होगा
कोई, हलवाई के
यहाँ से पक्की ले आवें !"
" हिरामन ज़रा इधर सुनो।
मैं कुछ नहीं खाऊँगी अभी।
लो, तुम
खा आओ। "
" क्या
है, पैसा ?
[670]
इस्स !"
पैसा देकर हिरामन
ने कभी फारबिसगंज में
कच्ची-पक्की नहीं खायी।
उसके गाँव के इतने गाड़ीवान
हैं, किस दिन
के लिए ?
वह छू नहीं सकता
पैसा।
उसने हीराबाई से कहा,
" बेकार, मेला-बाज़ार में
हुज्जत मत कीजिए।
[675]
पैसा रखिए। "
मौका पाकर लालमोहर
भी टप्पर के करीब आ गया।
उसने सलाम करते हुए कहा,
" चार आदमी के भात
में दो आदमी खुशी से खा सकते
हैं।
बासा पर भात चढ़ा हुआ है।
हें-हें-हें
!
[680]
हम लोग एकहि गाँव
के हैं।
गौंवाँ-गरमिन के रहते होटिल औरर हलवाई
के यहाँ खायेगा हिरामन ?"
हिरामन
ने लालमोहर का हाथ टीप दिया-
" बेसी भचर-भचर मत बको। "
गाड़ी
से चार रस्सी दूर जाते-जाते धुन्नीराम ने अपने
कुलबुलाते हुए दिल की बात खोल
दी- " इस्स !
तुम भी खूब हो
हिरामन !
[685]
उस साल कम्पनी का बाघ,
इस बार कम्पनी की
जनानी
!"
हिरामन
ने दबी आवाज़ में कहा,
" भाई रे, यह हम लोगों के मुलुक
की जनाना नहीं कि लटपट बोली सुनकर भी चुप
रह जाये।
एक तो पच्छिम की औररत,
तिस पर कम्पनी की !"
धुन्नीराम ने अपनी
शंका प्रकट की-
" लेकिन कम्पनी में
तो सुनते हैं पतुरिया रहती
है। "
" धत्त !"
[690]
सभी ने एक साथ उसको
दुरदुरा दिया, " कैसा आदमी है !
पतुरिया रहेगी कम्पनी
में भला !
देखो इसकी
बुद्धि !
सुना है,
देखा तो नहीं है
कभी !"
धुन्नीराम ने अपनी
ग़लती मान ली।
[695]
पलटदास को बात सूझी-
" हिरामन भाई, जनाना जात अकेली रहेगी गाड़ी पर
?
कुछ भी हो,
जनाना आखिर जनाना ही है।
कोई ज़रूरत ही पड़ जाये !"
यह बात
सभी को अच्छी लगी।
हिरामन ने कहा, " बात ठीक है।
[700]
पलट, तुम
लौट जाओ, गाड़ी
के पास ही रहना।
औरर देखो, गपशप ज़रा होशियारी से करना।
हाँ !"
हिरामन की
देह से अतर-गुलाब की खुशबू निकलती है।
हिरामन करमसाँड़ है।
[705]
उस बार महीनों तक उसकी देह
से बघाइन गन्ध नहीं गयी।
लालमोहर ने हिरामन की गमछी
सूँघ ली- " ए-ह !"
हिरामन
चलते-चलते रुक
गया- " क्या करें
लालमोहर भाई, ज़रा कहो
तो !
बड़ी ज़िद्द करती
है, कहती है, नौटंकी देखना ही होगा। "
" फोकट में ही ?"
[710]
" औरर गाँव नहीं
पहुँचेगी यह बात ?"
हिरामन
बोला, " नहीं
जी !
एक रात नौटंकी
देखकर ज़िन्दगी-भर
बोली-ठोली कौन
सुने ?
देशी मुर्गी
विलायती चाल !"
धुन्नीराम ने
पूछा, " फोकट में देखने पर भी
तुम्हारी भौजाई बात सुनायेगी ?"
[715]
लालमोहर के बासा
के बगल में,
लकड़ी की दुकान लादकर आये हुए
गाड़ीवानों का बासा है।
बासा के मीर-गाड़ीवान मियाँजानू बूढ़े ने
सफ़री
गुड़गुड़ी पीते हुए पूछा,
" क्यों भाई, मीनाबाज़ार की लदनी लादकर कौन आया
है ?"
मीनाबाज़ार !
मीनाबाज़ार तो
पतुरिया-पट्टी को कहते
हैं।
क्या बोलता है यह बूढ़ा
मियाँ ?
[720]
लालमोहर ने हिरामन
के कान में फुसफुसाकर कहा,
" तुम्हारी देह मह-मह महकती है।
सच। "
लहसनवाँ लालमोहर का
नौकर गाड़ीवान है।
उम्र में सबसे छोटा
है।
पहली बार आया है तो क्या
?
[725]
बाबू-बबुआइनों के यहाँ बचपन
से नौकरी कर चुका है।
वह रह-रहकर वातावरण
में कुछ सूँघता है,
नाक सिकोड़कर।
हिरामन ने देखा, लहसनवाँ का चेहरा तमतमा गया
है।
कौन आ रहा है धड़धड़ाता हुआ
?
- " कौन,
पलटदास ?
[730]
क्या है ?"
पलटदास
आकर खड़ा हो गया चुपचाप।
उसका मुँह भी तमतमाया हुआ था।
हिरामन ने पूछा,
" क्या हुआ ?
बोलते
क्यों नहीं ?"
[735]
क्या
जवाब दे पलटदास।
हिरामन ने उसको चेतावनी दे
दी थी, गपशप
होशियारी से करना।
वह चुपचाप गाड़ी की आसनी पर जाकर
बैठ गया, हिरामन की जगह
पर।
हीराबाई ने पूछा,
" तुम भी हिरामन के साथ
हो ?"
पलटदास ने गरदन हिलाकर
हामी भरी।
[740]
हीराबाई फिर लेट गयी।
चेहरा-मोहरा
औरर बोली-बानी
देख-सुनकर, पलटदास का कलेजा काँपने
लगा; न जाने क्यों।
हाँ !
रामलीला में सिया
सुकुमारी इसी तरह थकी लेटी हुई थी।
जै !
[745]
सियावर रामचन्द्र की
जै !
पलटदास के मन
में जै-जैकार
होने लगा।
वह दास-बैस्नव
है, कीर्तनिया है।
थकी हुई सीता महारानी के चरण
टीपने की इच्छा प्रकट की उसने, हाथ की उँगलियों के इशारे
से; मानो
हारमोनियम की पटरियों पर नचा रहा हो।
हीराबाई तमककर बैठ गयी-
" अरे, पागल है क्या ?
[750]
जाओ, भागो !"
पलटदास
को लगा गुस्सायी हुई कम्पनी की औररत
की आँखों से चिनगारी निकल रही है-
छटक्-छटक् !
वह भागा।
पलटदास क्या जवाब
दे !
वह मेला से भी
भागने का उपाय सोच रहा है।
[755]
बोला, " कुछ नहीं।
हमको व्यापारी मिल गया।
अभी ही टीशन जाकर माल लादना है।
भात में तो अभी देर है।
मैं लौट आता हूँ तब
तक। "
[760]
खाते
समय धुन्नीराम औरर लहसनवाँ ने
पलटदास की टोकरी-भर निन्दा की।
छोटा आदमी है।
कमीना है।
पैसे-पैसे का हिसाब जोड़ता है।
खाने-पीने
के बाद लालमोहर के दल ने अपना बासा
तोड़ दिया।
[765]
धुन्नी औरर लहसनवाँ गाड़ी
जोतकर हिरामन के बासा पर चले,
गाड़ी की लीक धरकर।
ehram:n: n:ð c:l:t:ð-चलते रुककर, लालमोहर से कहा, " ज़रा मेरे इस कन्धे को
सूँघो तो।
सूँघकर देखो न ?"
लालमोहर ने कन्धा
सूँघकर आँखें मूँद लीं।
मुँह से अस्फुट शब्द
निकला- " ए-ह !"
[770]
हिरामन
ने कहा, " ज़रा-सा हाथ रखने पर इतनी खुशबू
!
समझे !"
लालमोहर ने हिरामन का
हाथ पकड़ लिया- " कन्धे पर
हाथ रखा था ?
सच ?
सुनो हिरामन,
नौटंकी देखने का
ऐसा मौका फिर कभी हाथ नहीं लगेगा।
[775]
हाँ !"
" तुम भी देखोगे ?"
लालमोहर की बत्तीसी
चौराहे की रोशनी में झिलमिला उठी।
बासा पर पहुँचकर
हिरामन ने देखा, टप्पर
के पास खड़ा बतिया रहा है कोई, हीराबाई से।
धुन्नी औरर लहसनवाँ ने एक ही
साथ कहा, " कहाँ रह गये
पीछे ?
[780]
बहुत देर से
खोज रही है कम्पनी !"
हिरामन
ने टप्पर के पास जाकर देखा- अरे, यह तो वही
बक्सा ढोनेवाला नौकर हैं,
जो चम्पानगर मेले
में हीराबाई को गाड़ी पर बिठाकर अँधेरे
में गायब हो गया था।
" आ गये हिरामन !
अच्छी बात, इधर आओ।
यह लो अपना भाड़ा औरर यह लो
अपनी दच्छिना !
[785]
पच्चीस-पच्चीस, पचास। "
हिरामन
को लगा, किसी ने आसमान
से धकेलकर धरती पर गिरा दिया।
किसी ने क्यों, इस बक्सा ढोनेवाले आदमी ने।
कहाँ से आ गया ?
उसकी जीभ पर आयी हुई
बात जीभ पर ही रह गयी.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ इस्स !
[790]
दच्छिना !
वह चुपचाप खड़ा रहा।
हीराबाई बोली,
" लो पकड़ो !
औरर सुनो,
कल सुबह रौता कम्पनी
में आकर मुझसे भेंट करना।
पास बनवा दूँगी।
[795]
बोलते क्यों नहीं
?"
लालमोहर ने कहा,
" इलाम-बकसीस
दे रही है मालकिन, ले
लो हिरामन !"
हिरामन ने कटकर
लालमोहर की ओर देखा।
बोलने का ज़रा भई ढंग नहीं
इस लालमोहरा को।
धुन्नीराम की
स्वगतोक्ति सभी ने सुनी, हीराबाई ने भी- गाड़ी-बैल छोड़कर
नौटंकी कैसे देख सकता है कोई
गाड़ीवान, मेले
में।
[800]
हिरामन ने रुपया
लेते हुए कहा, " क्या
बोलेंगे !"
उसने हँसने की
चेष्टा की।
कम्पनी की औररत कम्पनी में जा रही
है।
हिरामन का क्या !
बक्सा ढोनेवाला
रास्ता दिखाता हुआ आगे बढ़ा- " इधर से। "
[805]
हीराबाई जाते-जाते रुक गयी।
हिरामन के बैलों को
सम्बोधित करके बोली, " अच्छा, मैं चली
भैयन !"
बैलों
ने, भैया शब्द पर कान
हिलाये।
"??...?? X X !"
" भा-इ-यो, आज रात !
[810]
दि रौता संगीत
नौटंकी कम्पनी के स्टेज पर !
गुलबदन देखिए,
गुलबदन !
आपको यह जानकर
खुशी होगी कि मथुरामोहन कम्पनी की
मशहूर एक्टे्रस मिस हीरादेवी,
जिसकी एक-एक अदा पर
हज़ार जान फिदा हैं, इस बार
हमारी कम्पनी में आ गयी हैं।
याद रखिए।
आज की रात।
[815]
मिस हीरादेवी गुलबदन !"
नौटंकीवालों
के इस एलान से मेले की हर पट्टी
में सरगर्मी फैल रही है।
हीराबाई ?
मिस हीरादेवी ?
लैला, गुलबदन ?
[820]
फिलिम एक्टे्रस
को मात करती है।
" .ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ तेरी बाँकी अदा पर मैं खुद
हूँ फिदा,
तेरी चाहत
को दिलबर बयाँ क्या करूँ !
यही खाहिश है कि
इ-इ-इ तू
मुझको देखा
करे
औरर दिलोजान
मैं तुमको देखा करूँ। "
किर्र-र्र-र्र-र्र .ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ कड़ड़ड़ड़ड़र्र-र्र-घन-घन-धड़ाम !
हर आदमी
का दिल नगाड़ा हो गया है !
[825]
लालमोहर
दौड़ता-हाँफता बासा पर
आया- " ऐ, ऐ हिरामन, यहाँ
क्या
बैठे हो, चलकर
देखो जै-जैकार हो
रहा है !
मय बाजा-गाजा, छापी-फाहरम के साथ हीराबाई की जै-जै कर रहा है। "
हिरामन
हड़बड़ाकर उठा।
लहसनवाँ ने कहा,
" धुन्नी काका, तुम बासा पर रहो, मैं भी देख आऊँ। "
धुन्नी की बात कौन
सुनता है !
[830]
तीनों जन
नौटंकी कम्पनी की एलानिया पार्टी के
पीछे-पीछे चलने लगे।
हर नुक्कड़ पर रुककर, बाजा बन्द करके एलान किया जाता है।
एलान के हर शब्द पर हिरामन पुलक उठता
है।
हीराबाई का नाम, नाम के साथ अदा-फिदा
वगैरह सुनकर उसने लालमोहर की पीठ थपथपा
दी- " धन्न है,
धन्न है !
है या नहीं ?"
[835]
लालमोहर ने कहा,
" अब बोलो !
अब भी नौटंकी
नहीं देखोगे ?"
सुबह से ही
धुन्नीराम औरर लालमोहर समझा रहे
थे, समझाकर हार चुके
थे- " कम्पनी में
जाकर भेंट कर आओ।
जाते-जाते
पुरसिस कर गयी हैं। "
लेकिन हिरामन की बस एक
बात- " धत्त्,
कौन भेंट करने
जाये !
[840]
कम्पनी की औररत,
कम्पनी में गयी।
अब उससे क्या लेना-देना !
चीन्हेगी भी
नहीं !"
वह
मन-ही-मन रूठा
हुआ था।
एलान सुनने के बाद उसने
लालमोहर से कहा, " जरूर
देखना चाहिए, क्यों
लालमोहर ?"
[845]
दोनों आपस
में सलाह करके रौता कम्पनी की ओर
चले।
खेमे के पास पहुँचकर
हिरामन ने लालमोहर को इशारा किया,
पूछताछ करने का भार लालमोहर
के सिर।
लालमोहर कचराही बोलना जानता
है।
लालमोहर ने एक काले
कोटवाले से कहा, " बाबू साहेब, ज़रा सुनिए तो !"
काले
कोटवाले ने नाक-भौं चढ़ाकर कहा- " क्या
है ?
[850]
इधर क्यों ?"
लालमोहर की कचराही
बोली गड़बड़ा गयी-तेवर
देखकर बोला, " गुलगुल.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ नहीं-नहीं.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ बुल-बुल.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ नहीं.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ। "
हिरामन
ने झट-से सम्हाल दिया-
" हीरादेवी किधर रहती
हैं, बता सकते
हैं ?"
उस आदमी
की आँखें हठात् लाल हो गयीं।
सामने खड़े नेपाली सिपाही
को पुकारकर कहा, " इन
लोगों को क्यों आने दिया
इधर ?"
[855]
" हिरामन !"
वही फेनूगिलासी
आवाज़ किधर से आयी ?
खेमे के परदे
को हटाकर हीराबाई ने बुलाया- " यहाँ आ जाओ, अन्दर !
देखो,
बहादुर !
इसको पहचान लो।
[860]
यह मेरा हिरामन है।
समझे !"
नेपाली दरबान हिरामान की
ओर देखकर ज़रा मुस्कुराया औरर चला गया।
काले कोटवाले से जाकर
कहा, " हीराबाई का आदमी है।
नहीं रोकने बोला !"
[865]
लालमोहर पान ले आया
नेपाली दरबान के लिए- " खाया जाय !"
" इस्स !
एक नहीं, पाँच पास।
चारों अठनिया !
बोली कि जब तक
मेले में हो, रोज़ रात में आकर देखना।
[870]
सबका खयाल रखती हैं।
बोली कि तुम्हारे औरर साथी
है, सभी के लिए पास ले
जाओ।
कम्पनी की औररतों की बात निराली
होती हैं !
है या नहीं ?"
लालमोहर ने लाल
कागज़ के टुकड़ों को छूकर
देखा- " पा-स !
[875]
वाह रे हिरामन भाई
!
लेकिन पाँच पास
लेकर क्या होगा ?
पलटदास तो फिर पलटकर
आया ही नहीं है अभी तक। "
हिरामन
ने कहा, " जाने दो अभागे को।
तकदीर में लिखा नहीं।
[880]
हाँ, पहले
गुरुकसम खानी होगी सभी को, कि गाँव-घर में
यह बात एक पंछी भी न जान पाये। "
लालमोहर ने
उत्तेजित होकर कहा, " कौन साला बोलेगा, गाँव में जाकर ?
पलटा ने अगर बदमाशी की
तो दूसरी बार से फिर साथ नहीं
लाऊँगा। "
हिरामन
ने अपनी थैली आज हीराबाई के जिम्मे रख दी
है।
मेले का क्या ठिकाना !
[885]
किस्म-किस्म के पाँकिटकाट लोग हर साल आते
हैं।
अपने साथी-संगियों का भी क्या भरोसा
!
हीराबाई मान गयी।
हिरामन के कपड़े की काली थैली
को उसने अपने चमड़े के बक्स में
बन्द कर दिया।
बक्से के ऊपर भी कपड़े का खोल
औरर अन्दर भी झलमल रेशमी अस्तर !
[890]
मन का मान-अभिमान दूर हो गया।
लालमोहर औरर
धुन्नीराम ने मिलकर हिरामन की बुद्धि की
तारीफ की; उसके भाग्य को
सराहा बार-बार।
उसके भाई औरर भाभी की निन्दा की,
दबी ज़बान से।
हिरामन के जैसा हीरा भाई मिला
है, इसलिए !
कोई दूसरा भाई
होता तो।
[895]
लहसनवाँ का
मुँह लटका हुआ है।
एलान सुनते-सुनते न जाने कहाँ चला गया कि
घड़ी-भर साँझ होने के
बाद लौटा है।
लालमोहर ने एक मालिकाना झिड़की दी
है, गाली के साथ-
" सोहाद कहीं का !"
धुन्नीराम ने
चूल्हे पर खिचड़ी चढ़ाते हुए कहा,
" पहले यह फैसला कर लो
कि गाड़ी के पास कौन रहेगा !"
" रहेगा कौन, यह
लहसनवाँ कहाँ जायेगा ?"
[900]
लहसनवाँ रो
पड़ा- " हे-ए-ए मालिक, हाथ जोड़ते हैं।
इक्को झलक !
बस, एक झलक !"
हिरामन
ने उदारतापूर्वक कहा, " अच्छा-अच्छा, एक झलक क्यों, एक
घण्टा देखना।
मैं आ जाऊँगा। "
[905]
नौटंकी शुरू
होने के
दो घण्टे पहले ही नगाड़ा बजना शुरू हो
जाता है।
औरर नगाड़ा शुरू होते ही
लोग पतंगो की तरह टूटने लगते
हैं।
टिकटघर के पास भीड़ देखकर हिरामन
को बड़ी हँसी आयी- " लालमोहर, उधर
देख, कैसी धक्कमधुक्की कर
रहे हैं लोग !"
" हिरामन भाय !"
" कौन, पलटदास
!
[910]
कहाँ की लदनी लाद
आये ?"
लालमोहर ने
पराये गाँव के आदमी की तरह पूछा।
पलटदास ने हाथ
मलते हुए माफ़ी माँगी- " कसूरवार हैं, जो सज़ा दो तुम लोग,
सब मंजूर है।
लेकिन सच्ची बात कहें कि सिया
सुकुमारी.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ। "
हिरामन
के मन का पुरइन नगाड़े के ताल पर विकसित
हो चुका है।
[915]
बोला, " देखो पलटा, यह
मत समझना कि गाँव-घर की जनाना
है।
देखो, तुम्हारे लिए भी पास दिया है;
पास ले लो अपना,
तमाशा देखो। "
लालमोहर ने कहा,
" लेकिन एक शर्त पर पास
मिलेगा।
बीच-बीच में
लहसनवाँ को भी.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ। "
पलटदास
को कुछ बताने की जरूरत नहीं।
[920]
वह लहसनवाँ से बातचीत कर आया
है अभी।
लालमोहर ने
दूसरी शर्त सामने रखी- " गाँव में अगर यह बात मालूम
हुई किसी तरह।
" राम-राम !"
दाँत से जीभ को
काटते हुए कहा पलटदास ने।
पलटदास ने
बताया- " अठनिया फाटक इधर
है। "
[925]
फाटक पर खड़े दरबान ने
हाथ से पास लेकर उनके चेहरे को
बारी-बारी से देखा।
बोला, " यह तो पास है।
कहाँ से मिला ?"
अब
लालमोहर की कचराही बोली सुने कोई।
उसके तेवर देखकर दरबान घबरा
गया- " मिलेगा कहाँ
से ?
[930]
अपनी कम्पनी से पूछ
लीजिए जाकर।
चार ही नहीं, देखिए एक औरर है। "
जेब से पाँचवा
पास निकालकर दिखाया लालमोहर ने।
एक रुपयावाले फाटक पर
नेपाली दरबान खड़ा था।
हिरामन ने पुकारकर कहा,
" ए सिपाही दाजू, सुबह को ही पहचनवा दिया औरर अभी
भूल गये ?"
[935]
नेपाली
दरबान बोला,
" हीराबाई का आदमी है सब।
जाने दो।
पास है तो फिर काहे को
रोकता है ?"
अठनिया
दर्जा !
तीनों ने
' कपड़घर '
को अन्दर से पहली बार देखा।
[940]
सामने कुरसी-बेंचवाले दर्जे हैं।
परदे पर राम-बन-गमन की तसवीर है।
पलटदास पहचान गया।
उसने हाथ जोड़कर नमस्कार किया,
परदे पर अंकित रामसिया
सुकुमारी औरर लखनलला को।
" जै
हो, जै हो
!"
[945]
पलटदास की आँखें
भर आयीं।
हिरामन ने कहा,
" लालमोहर, छापी सभी खड़े हैं या चल रहे
हैं ?"
लालमोहर अपने बगल
में बैठे दर्शकों से
जान-पहचान कर चुका हैं।
उसने कहा, " खेला अभी परदा के भीतर है।
अभी जमिनका दे रहा है, लोग जमाने के लिए। "
[950]
पलटदास
ढोलक बजाना जानता है, इसलिए नगाड़े के ताल पर गरदन हिलाता
है औरर दियासलाई पर ताल काटता है।
बीड़ी आदान-प्रदान करके
हिरामन ने भी एकाध जान-पहचान कर
ली।
लालमोहर के परिचित आदमी ने
चादर से देह को ढकते हुए कहा,
" नाच शुरू होने
में अभी देर हैं, तब तक एक नींद ले लें।
सब दर्जा से अच्छा अठनिया दर्जा।
सबसे पीछे सबसे ऊँची जगह
पर है।
[955]
ज़मीन पर गरम पुआल !
हे-हें कुरसी-बेंच पर बैठकर इस सरदी के
मौसम में तमाशा देखनेवाले अभी
घुच-घुचकर उठेंगे
चाह पीने। "
उस आदमी
ने अपने संगी से कहा, " खेला शुरू होने पर जगा देना।
नहीं-नहीं, खेला
शुरू होने पर नहीं, हिरिया जब स्टेज पर उतरे, हमको जगा देना। "
हिरामन
के कलेजे में ज़रा आँच लगी।
[960]
बड़ा लटपटिया आदमी मालूम पड़ता है।
उसने लालमोहर को आँख
के इशारे से कहा, " इस आदमी से बतियाने की ज़रूरत
नहीं। "
घन-घन-घन-धड़ाम !
परदा उठ गया।
हे-ए,
हे-ए,
हीराबाई शुरू में ही उतर गयी
स्टेज पर !
[965]
कपड़घर खचमखच भर गया
है।
हिरामन का मुँह अचरच से खुल
गया।
लालमोहर को न जाने
क्यों ऐसी हँसी आ रही हैं।
हीराबाई के गीत के हर पद पर वह
हँसता है, बेवजह।
गुलबदन दरबार लगाकर
बैठी है।
[970]
एलान कर रही है :
जो आदमी तख्तहज़ारा बनाकर ला देगा, मुँहमाँगी चीज़ इनाम में दी
जायेगी।
अजी, है
कोई ऐसा फनकार, तो
हो जाये तैयार, बनाकर
लाये तख्तहज़ारा-आ !
किड़किड़-किर्रि- !
अलबत्त नाचती है।
क्या गला है !
[975]
मालूम है,
यह आदमी कहता है कि हीराबाई
पान-बीड़ी, सिगरेट-जर्दा कुछ
नहीं खाती !
ठीक कहता है।
बड़ी नेमवाली रण्डी है।
कौन कहता है कि रण्डी है
!
दाँत में मिस्सी
कहाँ है।
[980]
पौडर से दाँत धो लेती
होगी।
हरगिज नहीं।
कौन आदमी है, बात की बेबात करता है !
कम्पनी की औररत को
पतुरिया कहता है !
तुमको बात
क्यों लगी ?
[985]
कौन हैं रण्डी का
भड़वा ?
मारो साले
को !
मारो !
तेरी.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ ।
हो-हल्ले के बीच, हिरामन की आवाज़ कपड़घर को फार रही है-
" आओ, एक-एक की गरदन उतार
लेंगे। "
[990]
लालमोहर दुआली
से पटापट पीटता जा रहा है सामने के
लोगों को।
पलटदास एक आदमी की छाती पर सवार
है- " साला, सिया सुकुमारी को गाली देता
है, सो भी मुसलमान
होकर ?"
धुन्नीराम शुरू से
ही चुप था।
मारपीट शुरू होते ही कपड़घर
से निकलकर बाहर भागा।
काले
कोटवाले नौटंकी के मैनेजर
नेपाली सिपाही के साथ दौड़े आये।
[995]
दारोगा साहब ने हण्टर से
पीट-पीट शुरू की।
हण्टर खाकर लालमोहर तिलमिला उठा;
कचराही बोली में भाषा
देने लगा- " दारोगा साहब, मारते हैं, मारिईं।
कोई हर्ज नहीं।
लेकिन यह पास देख लीजिए,
एक पास पाँकिट में भी है।
देख सकते हैं हुजूर।
[1000]
टिकस नहीं पास !
तब हम लोगों
के सामने कम्पनी की औररत को कोई बुरी
बात कहे तो कैसे छोड़
देंगे ?"
कम्पनी
के मैनेजर की समझ में आ गयी सारी बात।
उसने दारोगा को समझाया-
" हुजूर, मैं समझ गया।
यह सारी बदमाशी मथुरामोहन
कम्पनीवालों की है।
[1005]
तमाशे में झगड़ा खड़ा करके
कम्पनी को बदनाम.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ नहीे हुजूर,
इन लोगों को छोड़
दीजिए, हीराबाई के आदमी
हैं।
बेचारी की जान खतरे में
है।
हुजूर से कहा था न !"
हीराबाई
का नाम सुनते ही दारोगा ने तीनों
को छोड़ दिया।
लेकिन तीनों की दुआली छीन
ली गयी।
[1010]
मैनेजर ने तीनों
को एक रुपयेवाले दरजे में कुरसी
पर बिठाया- " आप लोग
यहीं बैठिए।
पान भिजवा देता हूँ।
"
कपड़घर शान्त हुआ औरर
हीराबाई स्टेज पर लौट आयी।
नगाड़ा फिर घनघना उठा।
थोड़ी देर बाद
तीनों को एक साथ ही धुन्नीराम का खयाल
हुआ- अरे, धुन्नीराम कहाँ गया ?"
[1015]
" मालिक, ओ
मालिक !"
लहसनवाँ कपड़घर के
बाहर चिल्लाकर पुकार रहा है, " ओ लालमोहर मा-लि-क !"
लालमोहर ने तारस्वर
में जवाब दिया- " इधर
से, इधर से !
एकटकिया फाटक से।
"
सभी दर्शकों
ने लालमोहर की ओ मुड़कर देखा।
[1020]
लहसनवाँ को नेपाली सिपाही
लालमोहर के पास ले आया।
लालमोहर ने जेब से पास
निकालकर दिखा दिया।
लहसनवाँ ने आते ही
पूछा, " मालिक,
कौन आदमी क्या बोल रहा था
?
बोलिए तो ज़रा।
चेहरा दिखला दीजिए, उसकी एक झलक !"
[1025]
लोगों ने
लहसनवाँ की चौड़ी औरर सपाट छाती देखी।
जाड़े के मौसम में भी
खाली देह !
चेले-चाटी के साथ हैं ये लोग
!
लालमोहर ने
लहसनवाँ को शान्त किया।
तीनो-चारों से मत पूछे
कोई, नौटंकी
में क्या देखा।
[1030]
किस्सा कैसे याद रहे !
हिरामन को लगता
था, हीराबाई शुरू से ही उसी
की औरर टकटकी लगाकर देख रही है, गा रही है, नाच रही
है।
लालमोहर को लगता था,
हीराबाई उसी की ओर देखती है।
वह समझ गयी है, हिरामन से भी ज़्यादा पावरवाला आदमी है
लालमोहर !
पलटदास किस्सा समझता
है।
[1035]
किस्सा औरर क्या होगा, रमैन की ही बात है।
वही राम, वही
सीता, वही लखनलला औरर वही
रावन !
सिया सुकुमारी
को रामजी से छीनने के लिए रावन
तरह-तरह का रूप धरकर आता है।
राम औरर सीता भी रूप बदल लेते
हैं।
यहाँ भी तख़्तहज़ारा बनानेवाला माली
का बेटा राम है।
[1040]
गुलबदन सिया सुकुमारी है।
माली के लड़के का दोस्त लखनलला
है औरर सुलतान है रावन।
धुन्नीराम को बुखार है
तेज़ !
लहसनवाँ को
सबसे अच्छा जोकर का पार्ट लगा है.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ चिरैया
तोंहके लेके ना, जइवै नरहट के बजरिया !
वह उस जोकर से
दोस्ती लगाना चाहता है।
[1045]
नहीं लगावेगा दोस्ती,
जोकर साहब ?
हिरामन
को एक गीत की आधी कड़ी हाथ लगी है-
' मारे गये
गुलफाम !'
कौन था
यह गुलफाम !
हीराबाई रोती हुई गा
रही थी- " अजी हाँ,
मारे गये गुलफाम
!"
टिड़िड़िड़ि.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ बेचारे
गुलफाम !
[1050]
तीनों को
दुआली वापस देते हुए पुलिस के
सिपाही ने कहा, " लाठी-दुआली लेकर नाच
देखने आते हो ?"
दूसरे दिन
मेले-भर में यह बात
फैल गयी- मथुरामोहन
कम्पनी से भागकर आयी है हीराबाई, इसलिए इस बार मथुरामोहन ल्म्पनी नहीं
आयी है।
उसके गुण्डे आये हैं।
हीराबाई भी कम नहीं।
बड़ी खेलाड़ औररत है।
[1055]
तेरह-तेरह
देहाती लठैत पाल रही है।
.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ' वाह मेरी
जान' भी कहे तो
कोई !
मजाल है !
दस दिन-दिन रात !
दिन-भर
भाड़ा ढोता हिरामन।
[1060]
शाम होते ही नौटंकी का
नगाड़ा बजने लगता।
नगाड़े की आवाज़ सुनते ही
हीराबाई की पुकार कानों के पास
मँडराने लगती- भैया.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ मीता.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ हिरामन.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ उस्ताद.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ
गुरुजी !
हमेशा
कोई-न-कोई
बाजा उसके मन के कानों में बजता
रहता, दिन-भर।
कभी हारमोनियम, कभी नगाड़ा, कभी
ढोलक औरर कभी हीराबाई की पैजनी।
उन्हीं साजों की गत पर हिरामन
उठता-बैठता, चलता-फिरता।
[1065]
नौटंकी कम्पनी के
मैनेजर से लेकर परदा
खींचनेवाले तक उसको पहचानते
हैं।
हीराबाई का आदमी है।
पलटदास हर रात
नौटंकी शुरू होने के समय
श्रद्धापूर्वक स्टेज को नमस्कार करता,
हाथ जोड़कर।
लालमोहर, एक
दिन अपनी कचराही बोली सुनाने गया था हीराबाई
को।
हीराबाई ने पहचाना ही नहीं।
[1070]
तब से उसका दिल छोटा हो गया
है।
उसका नौकर लहसनवाँ उसके हाथ
से निकल गया है, नौटंकी कम्पनी में भर्ती
हो गया है।
जोकर से उसकी दोस्ती हो
गयी है।
दिन-भर पानी भरता
है, कपड़े धोता है।
कहता है गाँव में क्या है
जो जायेंगे !
[1075]
लालमोहर उदास रहता
है।
धुन्नीराम घर चला गया है,
बीमार होकर।
हिरामन आज सुबह
से तीन बार लदनी लादकर स्टेशन आ चुका है।
आज न जाने क्यों उसको
अपनी भौजाई की याद आ रही है।
धुन्नीराम ने कुछ कह तो
नहीं दिया, बुखार की
झोंक में !
[1080]
यहीं कितना
अटर-पटर बक रहा था- गुलबदन, तख्तहज़ारा !
लहसनवाँ मौज
में है।
दिन-भर हीराबाई को
देखता होगा।
कल कह रहा था, हिरामन मालिक, तुम्हारे अकबाल से खूब मौज
में हूँ।
हीराबाई की साड़ी धोने के बाद
कठौते का पानी अतरगुलाब हो जाता है।
[1085]
उसमें अपनी गमछी डुबाकर
छोड़ देता हूँ।
लो, सूँघोगे ?
हर रात, किसी-न-किसी के मुँह से सुनता है
वह- हीराबाई रण्डी है।
कितने लोगों से
लड़े वह !
बिना देखे ही
लोग कैसे कोई बात बोलते
हैं !
[1090]
राजा को भी लोग
पीठ-पीछे गाली देते
हैं !
आज वह हीराबाई से मिलकर
कहेगा, नौटंकी कम्पनी
में रहने से बहुत बदनाम करते
हैं लोग।
सरकस कम्पनी में क्यों
नहीं काम करती ?
सबके सामने नाचती
है, हिरामन का कलेजा
दप-दप जलता रहता है उस समय।
सरकस कम्पनी में बाघ को.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ
उसके पास जाने की हिम्मत कौन करेगा !
[1095]
सुरक्षित रहेगी
हीराबाई !
किधर की गाड़ी आ रही
है ?
" हिरामन, ए हिरामन
भाय !"
लालमोहर की बोली
सुनकर हिरामन ने गरदन मोड़कर देखा।
क्या लादकर लाया है लालमोहर ?
[1100]
" तुमको ढूँढ़ रही है
हीराबाई, इशटीशन पर।
जा रही है। "
एक ही साँस में
सुना गया।
लालमोहर की गाड़ी पर ही आयी है
मेले से।
" जा रही है ?
[1105]
कहाँ ?
हीराबाई रेलगाड़ी से
जा रही है। ?"
हिरामन
ने गाड़ी खोल दी।
मालगुदाम के चौकीदार से
कहा, " भैया,
ज़रा गाड़ी-बैल
देखते रहिए।
आ रहे हैं। "
[1110]
" उस्ताद !"
जनाना मुसाफिरखाने
के फाटक के पास हीराबाई ओढ़नी से
मुँह-हाथ ढककर खड़ी थी।
थैली बढ़ाती हुई बोली,
" लो !
हे भगवान !
भेंट हो
गयी, चलो, मैं तो उम्मीद खो चुकी थी।
[1115]
तुमसे अब भेंट नहीं
हो सकेगी।
मैं जा रही हूँ
गुरुजी !"
बक्सा
ढोनेवाला आदमी आज कोट-पतलून पहनकर बाबूसाहब बन गया है।
मालिकों की तरह
कुलियों को हुक्म दे रहा है-
" जनाना दर्जा में
चढ़ाना।
अच्छा ?"
[1120]
हिरामन
हाथ में थैली लेकर चुपचाप खड़ा रहा।
कुरते के अन्दर से थैली
निकालकर दी है हीराबाई ने।
चिड़िया की देह की तरह गर्म है
थैली।
" गाड़ी आ रही है। "
बक्सा ढोनेवाले
ने मुँह बनाते हुए हीराबाई की ओर
देखा
[1125]
उसके चेहरे का भाव स्पष्ट
है- इतना ज्यादा क्या है.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ
?
हीराबाई
चंचल हो गयी।
बोली, " हिरामन, इधर
आओ, अन्दर।
मैं फिर लौटकर जा रही हूँ
मथुरामोहन कम्पनी में।
अपने देश की कम्पनी है.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ
बनैली मेला आओगे न ?"
[1130]
हीराबाई
ने हिरामन के कन्धे पर हाथ रखा.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ इस बार दहिने
कन्धे पर।
फिर अपनी थैली से रुपया
निकालते हुए बोली, " एक गरम चादर खरीद लेना। "
हिरामन
की बोली
फूटी, इतनी देर के बाद- " इस्स !
हरदम रुपैया-पैसा।
रखिए रुपैया !
[1135]
क्या करेंगे
चादर ?"
हीराबाई
का हाथ रुक गया।
उसने हिरामन के चहरे को
ग़ौर से देखा।
फिर बोली, " तुम्हारा जी
बहुत छोटा हो गया है।
क्यों मीता ?
[1140]
महुआ घटवारिन को
सौदागर ने खरीद
जो लिया है गुरुजी !"
गला भर
आया हीराबाई का।
बक्सा ढोनेवाले ने बाहर
से आवाज़ दी-
" गाड़ी आ गयी। "
हिरामन कमरे से बाहर
निकल आया।
बक्सा ढोनेवाले ने
नौटंकी के
जोकर-जैसा मुँह बनाकर
कहा,
" लाटफारम से बाहर भागो।
[1145]
बिना टिकट के पकड़ेगा तो तीन
महीने की हवा.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ।
"
हिरामन
चुपचाप फाटक से
बाहर जाकर खड़ा हो गया।
टीशन की बात, रेलवे का राज
!
नहीं तो इस बक्सा
ढोनेवाले का
मुँह सीधा कर देता हिरामन।
हीराबाई ठीक
सामनेवाली कोठरी
में चढ़ी।
[1150]
इस्स !
इतना टान !
गाड़ी में बैठकर
भी हिरामन की ओर
देख रही है, टुकुर-टुकुर।
लालमोहर को देखकर जी जल उठता
है, हमेशा पीछे-पीछे; हरदम हिस्सादारी सूझती है।
गाड़ी ने सीटी दी।
[1155]
हिरामन को लगा, उसके अन्दर से
कोई आवाज़ निकलकर सीटी के साथ ऊपर की ओर चली
गयी- कू-उ-उ-इ-स्स.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ !
.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌछि-ई-इ-छक्क !
गाड़ी हिली।
हिरामन ने अपने दाहिने पैर
के
अँगूठे को बायें पैर की एड़ी
से कुचल लिया।
कलेजे की धड़कन ठीक हो गयी।
[1160]
हीराबाई हाथ की बैंगनी साफी से
चेहरा
पोंछती है।
साफी हिलाकर इशारा करती है.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ अब जाओ।
आखिरी डब्बा गुज़रा; प्लेटफार्म
खाली.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ सब खाली.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ खोखले.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ मालगाड़ी के
डब्बे !
दुनिया ही खाली हो
गयी मानो
!
हिरामन अपनी गाड़ी के
पास लौट आया।
[1165]
हिरामन ने
लालमोहर से
पूछा, " तुम कब
लौट रहे हो
गाँव ?"
लालमोहर बोला,
" अभी गाँव जाकर क्या
करेंगे ?
यही तो भाड़ा कमाने
का मौका
है !
हीराबाई चली गयी,
मेला अब टूटेगा। "
-
" अच्छी बात।
[1170]
कोई समाद देना है घर ?"
लालमोहर ने हिरामन
को समझाने की कोशिश की।
लेकिन हिरामन ने अपनी गाड़ी
गाँव की ओर
जानेवाली सड़क की ओर मोड़ दी।
अब मेले में क्या धरा
है। !
खोखला मेला
!
[1175]
रेलवे लाइन की बगल
से बैलगाड़ी की कच्ची सड़क गयी है दूर तक।
हिरामन कभी रेल पर नहीं चढ़ा है।
उसके मन में फिर पुरानी
लालसा झाँकी,
रेलगाड़ी पर सवार होकर,
गीत
गाते हुए जगरनाथ-धाम
जाने की लालसा।
उलटकर अपने खाली टप्पर की ओर
देखने की हिम्मत
नहीं होती है।
पीठ में आज भी गुदगुदी
लगती है।
[1180]
आज भी रह-रहकर चम्पा का
फूल खिल उठता
है, उसकी गाड़ी में।
एक गीत की टूटी कड़ी पर नगाड़े का ताल
कट जाता है,
बार-बार !
उसने उलटकर देखा,
बोरे भी नहीं,
बाँस
भी नहीं, बाघ भी नहीं.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ
परी.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ देवी.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ
मीता.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ हीरादेवी.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ महुआ घटवारिन-को-ई नहीं।
मरे हुए
मुहूर्तों की गूँगी
आवाज़ें मुखर होना चाहती हैं।
हिरामन के होंठ हिल रहे
हैं।
[1185]
शायद वह तीसरी क़सम खा रही
हैं - कम्पनी की औररत की लदनी।
हिरामन ने हठात्
अपने दोनों बैलों को
झिड़की दी, दुआली से
मारते हुए बोला, " रेलवे लाइन की ओर उलट-उलटकर क्या देखते हो ?"
दोनों
बैलों ने क़दम खोलकर चाल पकड़ी।
हिरामन गुनगुनाने लगा -
" अजी हाँ, मारे गये गुलफाम.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ !"
To index of Post-Independence texts.
To index of मल्हार.
Encoded by विवेक अगरवाल January 2004.
Pages 1-5 posted 22 Jan 2004, 6-12 2 Feb 2004, 13-17 Feb 2004, 18-end 24
Mar 2004.