यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन

ज़बान तो एक ही है

An interview with शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

 
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    सवाल: अगर हम ज़बान से ही शुरू करें तो आप की एक किताब आई है जो हिन्दी औरर उर्दू की तरक़्क़ी का हिसाबकिताब पेश करती है औरर इस में आप ने यह भी लिखा है कि जहाँ तक उर्दू के ताल्लुक़ से आप हिन्दी की बात करते हैं तो आप इसको,  यानी हिन्दी "  को जदीद हिन्दी "  से अलाहिदा करके देखते हैं औरर आप ने यह भी कहा है कि किसी उर्दू वाले ने यह नहीं कहा कि हिन्दी तो उर्दू का एक उसलूब है,  तो हम आप से यह जानना चाहेंगे कि एक ही ख़ित्ते में दो ज़बानों का इर्तिक़ा क्यों कर हुआ?
    शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी: ऐसा है कि दो ज़बानें तो हैं नहीं,  ज़बान तो एक ही है। अब इसको जैसा कि मैंने किताब में दिखाया है,  कुछ सियासी मसलहत की बिना पर,  कुछ अंग्रेज़ों के नासमझी की बिना पर,  कुछ इस बिना पर कि इस मुल्क में जो क़ौमियत का जज़बा अंग्रेज़ों के आने से पैदा हुआ,  पहले नहीं था,  उसकी बिना पर ज़बान को दो हिस्सों में बाँट दिया गया। इसलिए कि हमारे यहाँ,  हमारे कल्चर में,  हिन्दूमुस्लिम कम्चर में,  हिन्दू कल्चर में,  मुस्लिम कल्चर में,  कोई चीज़ नेशन (nation) नाम की नहीं है।  [5] स्पेस (space) है,  कि हम इस मुल्क में रहते हैं। nation तो जदीद तसव्वुर है जो कि अंग्रेज़ों के आने से हमारे यहाँ फैला। जब यह फैला तो उससे भी यह एक सवाल उठा कि साहब,  अगर क़ौमें हैं तो क़ौमों की ज़बान भी होगी। तो इन तमाम चीज़ों से मिल करके पिछले दो सौ बरस में एक बहुत बड़ा नक़ली सा जाल पैदा कर दिया गया जिस में यह कहा गया कि दो ज़बानें हैं। औरर इन में एक ज़बान ऐसी है जो कि हिन्दुओं से ख़ास है,  जिसको हम हिन्दी कहें,  औरर दूसरी ज़बान ऐसी है,  जो कि मुसलमानों से खास है,  जिसको हम उर्दू कहें।  [10] इस में पहला झूठ यह है,  जैसा कि मैंने किताब में भी लिखा है,  कि उर्दू "  तो ज़बान का नाम था ही नहीं कभी। उर्दू के मानी तो थे,  दिल्ली का शहर यानी बादशाह का कैम्प,  जहाँ बादशाह रहता है। जब अकबर ने १५८५ में फ़तेहपूर सीकरी छोड़ी,  तो कई साल तक वह एक तरह का रोलिंग हेडक्वार्टज़ (rolling headquarters) लेकर चलता रहा। इसमें सारा सामान था,  जैसा कि तारीख़ निगारों ने लिखा है। लाख़ों गज़ तो इस में क़ालीन औरर सोफ़े औरर कुर्सियाँ औरर ख़ेमे चमड़े के,  लकड़ी के,  कैन्वस के थे वग़ैरहवग़ैरह।  [15] इसी में पूरा ख़ज़ाना था,  उसी में तोपख़ाना,  उसी में पूरा दफ़्तर,  उसको उर्दूए शाही " (Royal Camp, Royal Encampment) कहते थे। अब जब १८६४ में पचाससाठ साल बाद शाहजहाँ ने दिल्ली बनाई,  अपनी दिल्ली,  शाहजहाँ आबाद,  तो वह रिवायत उर्दूए शाही कहने की चली आ रही थी,  तो शाहजहाँ आबाद को उर्दूए शाही ", " उर्दूए मुअल्लाए शाही वग़ैरह कहा गया,  मतलब शाहजहाँ आबाद। औरर जैसा कि बहुत से लोगों को धोखा है कि उर्दू बमानी फ़ौज होता है,  तो यह ग़लत है। उर्दू के मानी फ़ौज नहीं। न तुर्की में है,  न अरबी में है,  न फ़ारसी में है,  न खुद उर्दू ज़बान में।  [20] उर्दू के मानी हैं : encampment, army encampment, army market वग़ैरह। तो इस एतेबार से दिल्ली के हवाले से भी लफ़्ज़ उर्दू का इस्तेमाल हुआ। चुनाँचे मीर अम्मन तक की बाग़ो बहार में लफ़्ज़ उर्दू को इसी मानी में रखा गया है,  यानी उर्दू = देहली। तो अब चूँकि ज़ाहिर है कि वहाँ की ज़बान,  जो वहाँ के पढ़े लिखे लोगों की ज़बान थी,  अशराफ़यिा की ज़बान,  वह फ़ारसी थी। तो फ़ारसी को ज़बाने उर्दूए शाहजहानाब्ाद कहा जाने लगा।  [25]
    हम तुम आज जिस ज़बान को बोल रहै हैं,  जिसे हम आसानी के लिए हिन्दी कहते हैं,  उर्दू कहते हैं,  उसका अस्ल नाम उर्दू था ही नहीं। हुआ यह कि शाह आलम जब यहाँ से उठ कर,  इलाहआबाद से उठ कर खुसरू बाग़ औरर क़िला से उठ कर दिल्ली गए हैं,  १७७२ में,  तो चूँकि वह संस्कृत ख़ूब जानते थे,  उर्दू ख़ूब जानते थे,  तो उर्दू या हिन्दी कहिये उसको,  उस ज़माने में ज़बान का नाम हिन्दी था,  इस हिन्दी के वह शायर थे। एक दास्तान भी बाद में उन्होंने लिखी थी। पूरब में बहुत रहे थे वह,  इस लिए हिन्दी बोलते बहुत थे। यह ज़बान वह आपस में बोला करते थे।  [30] तो इस तरह अपने दरबार में तो नहीं,  लेकिन घर में औरर आपस में उर्दू या हिन्दी जो कहिये,  उसे वह बोलने लगे। तो धीरेधीरे यह हुआ कि एक आवेज़िश (conflict) पैदा हो गई कि अब उर्दूए मुअल्ला की ज़बान है क्या,  फ़ारसी है कि हिन्दी है ? तो ख़ान आर्ज़ू ने लिखा है कि हिन्दी नहीं फ़ारसी है। मीर ने उसी ज़माने में मक़बूल तसव्वुर,  जो हमारा आप का view था,  पेश किया कि नहीं साहब ज़बाने उर्दूए मुअल्लाए शाहजहाँआबाद तो वह है जिसे हम रेख़्ता या हिन्दी कहते हैं।
    तो इस तरह धीरेधीरे चला यह सिलसिला,  कि बादशाह की वजह से औरर लोग भी आपस में ज़बान बोलने लगे।  [35] जैसे हम लोग भी पहले बहुत आपस में अंग्रेज़ी बोलते थे। लेकिन अब आहिस्ता आहिस्ता अंग्रेज़ी छोड़ रहे हैं,  क्योंकि अंगे्रज़ चले जा चुके हैं यहाँ से। तो ऐसा ही वहाँ पर भी हुआ,  कि फ़ारसी के बजाय हिन्दी को उर्दूए मुअल्ला की ज़बान कहा जाने लगा। इस तरह से कई साल के बाद पहला,  जिसे कहना चाहिए authentic बयान जो मिलता है वह गिलक्रिस्ट का अपना बयान है १७८६ का। गिलक्रिस्ट कहता है कि मैंरेख़्ताज़बान से कुछ मिसालें आप के सामने पेश करूँगा गिस को किउर्दूभी कहा जाता है औरर जिसके मानी होते हैं Language of the Exalted Court or Camp [40]
THIS PART YET TO BE EDITED... PLEASE DO NOT TAKE...THIS IS START OF LINE: 41
    मुशफ़ी ने इसी ज़माने में ( १९८५- ८८) एक आध शेर कहा है,   जिस में कहीं पर उर्दू के मानी हैं दिल्ली का शहर " औरर कही पर उर्दू के मानी हैं वह ज़बान,   जो दिल्ली शहर में बोली जाती है। तो इस तरह से इतनी देर में कहीं जाकरके यह नाम उर्दू का चला। अंग्रेज़ों ने जब उसको पकड़ा तो पहले तो उन्होने यह कहा कि हिन्दी.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ? अच्छा,   तो ये हिन्दू की ज़बान हाक्र२४॰ऌनी चाहिए,   कि इसका नाम तो हिन्दुओं वाला है,   यानी हिन्दी/ हिन्दवी तो उन्होंने एक पूरी कहानी गढी।  [45] हालहेड (Nathaniel Brassey Halhed) नाम के एक साहब थे,   बगाली की जिन्होंने ग्रामर लिखी,   उन्होंने एक पूरी कहानी गढ़ी कि एक लैंगवेज थी,   जो मुसलमानों के आने से पहले यहाँ बोली जाती थी,   जिसका नाम हिन्दी या हिन्दवी था औरर जब मुसलमान आये तो उन्होंने उसके ऊपर अपना ज़ोर जमाया,   उसके अन्दर प्ारसी,   अरबी ठूँसी औरर इस तरह से एक औरर ज़बान बनी,   जिस में से एक तो वह है जो मुसलमान बोलते हैं औरर वह लोग बोलते हैं जो मुसलमानों के वहाँ काम काज करते हैं। झूठी बात है बिल्कुल। ज़ाहिर है कि सरासर ग़लत है। हालहेड की देखा- देखी गिलक्रिस्ट ने यह कहा कि साहब दरअस्ल वह तो थी हिन्दी जो कि हिन्दुओं की ज़बान,   संस्क्षत से भी पहले से मौजूद थी ,   औरर मुसलमानों के आने से पहले मौजूद थी। औरर चूँकि वह हिन्दुओं की ज़बान है,   लिहाज़ा उसको हिन्दी कहा जाएगा औरर उसके लिए कोई रस्मुल ख़त तो नहीं है,   लेकिन इसको हम अभी रस्मुल ख़त दिए देते हैं कि देवनागरी रस्मुल ख़त में लिखो।  [50] यह अपना मज़हबी रस्मुल ख़त है। औरर वह ज़बान जिस में अरबी फ़ारसी ज़्यादा है उसको हम कह.ाम्प्ऌज्र२४॰ऌंगे हिन्दोस्तानी। क्योंकि वह हिन्दोस्तान बमानी अपर इण्डिया (Upper India) जिसे कहेंगे नरबदा के ऊपर,   वहाँ की ज़बान है। यह लफज़ चला नहीं मगर। अगरचे पहले ज़माने में हिन्दी या रेख़्ता को कहीं- कहीं हिन्दोस्तानी भी कहा गया है,   लेकिन यह लफज़ चला नहीं।  [55] औरर हिन्दोस्तानियों ने आहिस्ता- आहिस्ता खुद इसको छोड़ दिया फिर इस बीच ये चल गया सिलसिला कि गिलक्रिस्ट ने दयर््ाफ्त किया कि साहब,   अब ( यानी १७५६ में),   इसको तो कभी- कभी उर्दू भी कहा जाता है। इस तरह से १८॰॰ के आस- पास जाकर कहीं उर्दू बतौर इस्मे लिसान एक ट्रम (Term) बना।
    तुम को सुन कर हैरत होगी कि १८३४ में जो डिक्शनरी लिखी है शेक्सपियर (John Shakespear) ने,  "  ए डिक्शनरी आँफ़ हिन्दोस्तानी ",  इस में उदू२५२ऌ लफज़ का मानी लैंगवेज ने (Language name) दिया ही नहीं है। यानी as late as १८३॰'s भी शेक्सपियर को इस मुआमले में तअम्मुल है कि उर्दू किसी ज़बान का नाम भी है। तो यह सब इस तरह से हुआ है।  [60]
    मुझे याद है,   कुछ दिन पहले की बात है जब हम लोग एक कान्फ़्रेंस में बैठे थे,   स्टुवर्ट मैक ज्रेगर (Stuart Mac Gregor) जो जानते ही हो ,   हिन्दी के बड़े आलिम हैं कैम्ब्रिज में,   अभी रिटायर हो गए हैं,   तो उनसे वहीं कान्फ़्रेंस में में बात हुई तो उन्होंने कहा कि अस्ल में एक ज़रूरत महसूस हुई कि एक ज़बान ऐसी भी हो कि जो कि हिन्दुओं से स्पेशलाइज़्ड (specialized) क़रार दी जाय। मैंने पूछा कि यह ज़रूरत किसको महसूस हुई ? वो चुपके से बोले,   अंग्रेज़ों को। चुपके से कहा। खुद अंग्रेज़ हैं लेकिन कहा उन्होंने।  [65] तो अस्ल में लैंगवेज नेशनलिज़्म (nationalism) सब से ज़्यादा गंदा नेशनलिज़्म है। औरर सब से आख़िर में ये पैदा हुवा। पहले नहीं था। औरर इस लैंगुवेज नेशनलिज़्म को एक्सप्लाँइट (exploit) करने के लिए अंग्रेज़ों ने यह सूरत बनाई कि उन्होंने साफ़ कहा कि एक वफ्त वह आएगा,   जब मुसलमान सारा का सारा प्ारसी,   अरबी वाली उर्दू बोलेगा औरर लिखेगा,   औरर हिन्दू जो हैं,   वह संस्क्रत आमेज़ ज़बान में लिखेगा औरर अलग- अलग दो ज़बानें बन जाएँगी। तारा चन्द ने कहा है कि दस- पंद्रह बरस के अन्दर- अन्दर दो मुखड़े तैयार कर दिए गए कि एक का मुँह दाएँ है औरर एक का बाएँ।  [70] एक मूरत दूसरी से बात नहीं करती है। आज भी यह सूरत है।
    स्वाल: झगड़ा तो सिफऱ् हुरूफ़े तहज्जी को लेकर नहीं है
,   रस्मुलख़त को लेकर भी है। अब देखिये,   जायसी अवधी में पदमावत लिखते हैं लेकिन उनका जो रस्मुलख़त है वह फ़ारसी कहलाया।  [75] औरर वही अवधी ज़बान तुलसी लिखते हैं तो वह नागरी रस्मुलख़त में है। लेकिन जहाँ वह बोली जाने लगती है तो रस्मुलख़त से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है।
    जवाब: बेशक
,   प्र्क़ नहीं पड़ता है।
    सवाल:  [80] लेकिन उर्दू औरर हिन्दी के इस झगड़े में जो आगे चल कर औरर बढ़ा तो उसमें रस्मुलख़त भी एक फ़ैक्टर बन गया।
    जवाब: हाँ
,  बिल्कुल बना।
    सवाल: दूसरी चीज़ यह कि अगर यह मान लें कि अरबी औरर फ़ारसी का जो असर आया,  जो influence आया,  वह उधर से आया।  [85] उधर से जो लोग आए तो जिस भी वजह से लाए हों,  लेकिन लाए। तो वह सूरत पंजाबी में,  बंगला में,  मरीठी में .ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ.ाम्प्ऌ वहाँ क्यों नज़र नहीं आती ? यहाँ क्यों हिन्दी औरर उर्दू दो ख़ेमे अलग अलग हैं औरर वह भी जैसा कि आप ने तारा च्न्द जी के हवाले से कहा कि दो मुँह एक बाएँ औरर दूसरा दाएँ। यह सूरत यहाँ क्यों पैदा हुई ?
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  Keyed by विवेक अगरवाल in October, 2003. Posted to मल्हार 10 Oct and 27 Oct 2003.