यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
शहनशाह मुहम्मद
सिराजुद्दीन अबूज़फ़र बहादुरशाह ' ज़फ़र '
ग़ज़ल in -आर
न किसी का
आँख का नूर हूँ, न
किसी के दिल का क़रार हूँ
जो
किसी के काम न आ सके मैं वह एक
मुश्त-ए-ग़ुबार हूँ । । १ । ।
मेरा
रंग-रूप बिगड़ गया, मेरा यार मुझसे बिछूड़ गया
जो
चमन ख़िज़ाँ से उजड़ गया मैं उसकी
फ़सल-ए-बहार
हूँ । । २ । ।
पा-ए-फ़ातिहा
कोई आए क्यों, कोई
चार फूल चढ़ाए क्यों
कोई
आगे शमा जलाए क्यों, मैं वह बेकसी का मज़ार हूँ
। । ३ । ।
मैं नहीं हूँ नग़्मा-ए-जान-फ़ज़िा, मुझे
सुनके कोई गिरेगा क्या
मैं बड़े बिरोग की हूँ सदा,
मैं बड़े दुखी की
पुकार हूँ । । ४ ।
।
न
' ज़फ़र ' किसी का हबीब हूँ, न ' ज़फ़र ' किसी का रक़ीब हूँ
जो
बिगड़ गया वह नसीब हूँ, जो उजड़ गया वह दयार हूँ । ।
५ । ।
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Keyed in and posted 7 Nov 2001.