यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
इन्स्टिट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़
लैंग्वजिज़ ऐंड कल्चर्ज़ ऑफ़
एशिया ऐंड ऐफ़्रिका
तोक्यो
यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ाॅरेन स्टडीज़
Mellon Project
प्रेमचन्द
गोदान
(Devanagari text reconstituted from Professor K. Machida's roman
transcription)
Chapter Thirty.
(unparagraphed text)
मिल क़रीब-क़रीब पूरी जल चुकी है; लेकिन उसी मिल को फिर से खड़ा
करना होगा।
मिस्टर खन्ना ने अपनी सारी
कोशिशें इसके लिए लगा दी हैं।
मज़दूरों की हड़ताल जारी है;
मगर अब उससे मिल
मालिकों की कोई विशेष हानि नहीं है।
नये आदमी कम वेतन पर मिल गये
हैं औरर जी तोड़ कर काम करते
हैं; क्योंकि
उनमें सभी ऐसे हैं, जिन्होंने बेकारी के
कष्ट भोग लिये हैं औरर अब अपना बस
चलते ऐसा कोई काम करना नहीं चाहते
जिससे उनकी जीविका में बाधा पड़े।
चाहे जितना काम लो, चाहे जितनी कम छुट्टियाँ
दो, उन्हें कोई
शिकायत नहीं।
सिर झुकाये बैलों की तरह
काम में लगे रहते हैं।
घुड़कियाँ,
गालियाँ, यहाँ तक कि
डंडों की मार भी उनमें ग्लानि नहीं
पैदा करती; औरर अब
पुराने मज़दूरों के लिए इसके
सिवा कोई मार्ग नहीं रह गया है कि वह इसी घटी
हुई मजूरी पर काम करने आयें औरर
खन्ना साहब की ख़ुशामद करें।
पण्डित ओंकारनाथ पर तो
उन्हें अब रत्ती-भर भी
विश्वास नहीं है।
उन्हें वे अकेले-दुकेले पायें तो
शायद उनकी बुरी गत बनाये; पर पण्डितजी बहुत बचे हुए रहते
हैं।
चिराग़ जलने के बाद अपने
कार्यालय से बाहर नहीं निकलते औरर
अफ़सरों की ख़ुशामद करने लगे हैं।
मिरज़ा खुर्शेद की धाक अब भी
ज्यों-की-त्यों है; लेकिन मिरज़ाजी इन बेचारों का
कष्ट औरर उसके निवारण का अपने पास कोई
उपाय न देखकर दिल से चाहते हैं कि
सब-के-सब बहाल हो जायँ; मगर इसके साथ ही नये आदमियों
के कष्ट का ख़्याल करके जिज्ञासुओं से
यही कह दिया करते हैं कि जैसी इच्छा हो
वैसा करो।
मिस्टर खन्ना ने पुराने
आदमियों को फिर नौकरी के लिए इच्छुक
देखा, तो औरर भी
अकड़ गये, हलाँकि वह मन
में चाहते थे कि इस वेतन पर
पुराने आदमी नयों से कहीं अच्छे
हैं।
नये आदमी अपना सारा ज़ोर लगाकर भी
पुराने आदमियों के बराबर काम न कर
सकते थे।
पुराने आदमियों में
अधिकांश तो बचपन से ही मिल में काम
करने के अभ्यस्त थे औरर ख़ूब मँजे
हुए।
नये आदमियों में अधिकतर
देहातों के दुखी किसान थे, जिन्हें खुली हवा औरर
मैदान में पुराने ज़माने के लकड़ी
के औरजारों से काम करने की आदत थी।
मिल के अन्दर उनका दम घुटता था औरर
मशीनरी के तेज़ चलनेवाले
पुरज़ों से उन्हें भय लगता था।
आख़िर जब पुराने आदमी ख़ूब परास्त
हो गये तब खन्ना उन्हें बहाल करने पर
राज़ी हुए; मगर नये
आदमी इससे कम वेतन पर काम करने के लिए
तैयार थे औरर अब डायरेक्टरों के
सामने यह सवाल आया कि वह पुरानों को
बहाल करें या नयों को रहने
दें।
डायरेक्टरों में आधे
तो नये आदमियों का वेतन घटाकर
रखने के पक्ष में थे।
आधों की यह धारणा थी कि पुराने
आदमियों को हाल के वेतन पर रख लिया
जाय।
थोड़े-से रुपए ज़्यादा ख़र्च होंगे
ज़रूर, मगर काम उससे ज़्यादा
होगा।
खन्ना मिल के प्राण थे, एक तरह से सर्वेसर्वा।
डायरेक्टर तो उनके हाथ की
कठपुतलियाँ थे।
निश्चय खन्ना ही के हाथों
में था औरर वह अपने मित्रों से
नहीं, शत्रुओं
से भी इस विषय में सलाह ले रहे थे।
सबसे पहले तो उन्होंने
गोविन्दी की सलाह ली।
जब से मालती की ओर से
उन्हें निराशा हो गयी थी औरर गोविन्दी
को मालूम हो गया था कि मेहता जैसा
विद्वान्् औरर अनुभवी औरर ज्ञानी आदमी
मेरा कितना सम्मान करता है औरर मुझसे
किस प्रकार की साधना की आशा रखता है, तब से दम्पति में स्नेह फिर जाग
उठा था।
स्नेह मत कहो; मगर साहचर्य तो था ही।
आपस में वह जलन औरर अशान्ति न थी।
बीच की दीवार टूट गयी थी।
मालती के रंग-ढंग की भी कायापलट होती जाती थी।
मेहता का जीवन अब तक स्वाध्याय औरर
चिन्तन में गुज़रा था, औरर सब कुछ कर चुकने के बाद
औरर आत्मवाद तथा अनात्मवाद की ख़ूब छान-बीन कर लेने पर वह इसी तत्व पर
पहुँच जाते थे कि प्रवृत्ति औरर
निवृत्ति दोनों के बीच में
जो सेवा-मार्ग
है, चाहे उसे
कर्मयोग ही कहो,
वही जीवन को सार्थक कर सकता है, वही जीवन को ऊँचा औरर पवित्र
बना सकता है।
किसी सर्वज्ञ ईश्वर में उनका
विश्वास न था।
यद्यपि वह अपनी नास्तिकता को प्रकट न
करते थे, इसलिए कि इस
विषय में निश्चित रूप से कोई मत स्थिर
करना वह अपने लिए असम्भव समझते थे; पर यह धारणा उनके मन में
दृढ़ हो गयी थी कि प्राणियों के
जन्म-मरण, सुख-दुख,
पाप-पुण्य में
कोई ईश्वरीय विधान नहीं है।
उनका ख़्याल था कि मनुष्य ने अपने
अहंकार में अपने को इतना महान् बना
लिया है कि उसके हर एक काम की प्रेरणा ईश्वर की
ओर से होती है।
इसी तरह टिड्डियाँ भी ईश्वर को
उत्तरदायी ठहराती होंगी, जो अपने मार्ग में
समुद्र आ जाने पर अरबों की संख्या
में नष्ट हो जाती हैं।
मगर ईश्वर के यह विधान इतने
अज्ञोय हैं कि मनुष्य की समझ में
नहीं आते, तो
उन्हें मानने से ही मनुष्य को क्या
सन्तोष मिल सकता है।
ईश्वर की कल्पना का एक ही उद्देश्य उनकी समझ
में आता था औरर वह था मानव-जाति की एकता।
एकात्मवाद या सर्वात्मवाद या
अहिंसा-तत्व को वह
आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं, भौतिक दृष्टि से ही देखते
थे; यद्यपि इन
तत्वों का इतिहास के किसी काल में भी
आधिपत्य नहीं रहा, फिर भी
मनुष्य-जाति के
सांस्कृतिक विकास में उनका स्थान बड़े महत्व
का है।
मानव-समाज की
एकता में मेहता का दृढ़ विश्वास था;
मगर इस विश्वास के लिए
उन्हें इस्वर-तत्व के
मानने की ज़रूरत न मालूम होती थी।
उनका मानव-प्रेम
इस आधार पर अवलम्बित न था कि प्राणी-मात्र में एक आत्मा का निवास है।
द्वैत औरर अद्वैत का व्यापारिक
महत्व के सिवा वह औरर कोई उपयोग न
समझते थे, औरर
यह व्यापारिक महत्व उनके लिए मानव-जाति को एक दूसरे के समीप
लाना, आपस के
भेद-भाव को मिटाना
औरर भ्रातृ-भाव
को दृढ़ करना ही था।
यह एकता, यह
अभिन्नता उनकी आत्मा में इस तरह जम गयी थी कि
उनके लिए किसी आध्यात्मिक आधार की सृष्टि उनकी
दृष्टि में व्यर्थ थी।
औरर एक बार इस तत्व को पाकर वह शान्त न
बैठ सकते थे।
स्वार्थ से अलग अधिक-से-अधिक काम करना
उनके लिए आवश्यक हो गया था।
इसके बग़ैर उनका चित्त शान्त न हो
सकता था।
यश, लोभ या
कर्तव्य-पालन के भाव
उनके मन में आते ही न थे।
इनकी तुच्छता ही उन्हें इनसे
बचाने के लिए काफ़ी थी।
सेवा ही अब उनका स्वार्थ होती जाती
थी।
औरर उनकी इस उदार वृत्ति का असर अज्ञात रूप
से मालती पर भी पड़ता जाता था।
अब तक जितने मर्द उसे
मिले, सभी ने उसकी
विलास-वृत्ति को ही
उसकाया।
उसकी त्याग-वृत्ति दिन-दिन क्षीण होती जाती थी; पर मेहता के संसर्ग में
आकर उसकी त्याग-भावना सजग
हो उठी थी।
सभी मनस्वी प्राणियों में यह
भावना छिपी रहती है औरर प्रकाश पाकर चमक उठती है।
आदमी अगर धन या नाम के पीछे पड़ा
है, तो समझ लो
कि अभी तक वह किसी परिष्कृत आत्मा के सम्पर्क
में नहीं आया।
मालती अब अक्सर ग़रीबों के घर बिना
फ़ीस लिये ही मरीज़ों को देखने चली
जाती थी।
मरीज़ों के साथ उसके व्यवहार
में मृदुता आ गयी थी।
हाँ, अभी तक वह
शौक़-सिंगार से
अपना मन न हटा सकती थी।
रंग औरर पाउडर का त्याग उसे अपने
आन्तरिक परिवर्तनों से भी कहीं ज़्यादा कठिन
जान पड़ता था।
इधर कभी-कभी
दोनों देहातों की ओर चले
जाते थे औरर किसानों के साथ
दो-चार घंटे रहकर
उनके झोपड़ों में रात काटकर,
औरर उन्हीं का-सा भोजन करके, अपने को धन्य समझते थे।
एक दिन वे सेमरी पहुँच गये
औरर घूमते-घामते
बेलारी जा निकले।
होरी द्वार पर बैठा चिलम पी रहा था कि
मालती औरर मेहता आकर खड़े हो गये।
मेहता ने होरी को देखते
ही पहचान लिया औरर बोला -- यही तुम्हारा गाँव है?
याद है हम लोग राय साहब के यहाँ
आये थे औरर तुम धनुषयज्ञ की लीला
में माली बने थे।
होरी की स्मृति जाग उठी।
पहचाना औरर पटेश्वरी के घर की
ओर कुरसियाँ लाने चला।
मेहता ने कहा -- कुरसियों का कोई काम नहीं।
हम लोग इसी खाट पर बैठ जाते
हैं।
यहाँ कुरसी पर बैठने
नहीं, तुमसे
कुछ सीखने आये हैं।
दोनों खाट पर बैठे।
होरी हतबुद्धि-सा खड़ा था।
इन लोगों की क्या ख़ातिर करे।
बड़े-बड़े
आदमी हैं।
उनकी ख़ातिर करने लायक़ उसके पास है ही
क्या?
आख़िर उसने पूछा -- पानी लाऊँ?
मेहता ने कहा -- हाँ, प्यास
तो लगी है।
' कुछ मीठा भी
लेता आऊँ? '
' लाओ,
अगर घर में हो। '
होरी घर में मीठा औरर पानी
लेने गया।
तब तक गाँव के बालकों ने
आकर इन दोनों आदमियों को घेर
लिया औरर लगे निरखने, मानो चिड़ियाघर के अनोखे
जन्तु आ गये हों।
सिल्लो बच्चे को लिए किसी काम से
चली जा रही थी।
इन दोनों आदमियों को
देखकर कुतूहलवश ठिठक गयी।
मालती ने आकर उसके बच्चे को
गोद में ले लिया औरर प्यार करती हुई
बोली -- कितने
दिनों का है?
सिल्लो को ठीक मालूम न था।
एक दूसरी औररत ने बताया -- कोई साल भर का होगा, क्यों री?
सिल्लो ने समर्थन किया।
मालती ने विनोद किया -- प्यारा बच्चा है।
इसे हमें दे दो।
सिल्लो ने गर्व से फूलकर कहा
-- आप ही का तो है।
' तो
मैं इसे ले जाऊँ? '
' ले जाइए।
आपके साथ रहकर आदमी हो जायगा। '
गाँव की औरर महिलाएँ आ गयीं
औरर मालती को होरी के घर में ले
गयीं।
यहाँ मरदों के सामने मालती
से वार्तालाप करने का अवसर उन्हें न
मिलता।
मालती ने देखा, खाट बिछी है,
औरर उस पर एक दरी पड़ी हुई है, जो पटेश्वरी के घर से
माँगे आयी थी, मालती
जाकर बैठी।
सन्तान-रक्षा औरर
शिशु-पालन की
बातें होने लगीं।
औररतें मन लगाकर सुनती
रहीं।
धनिया ने कहा -- यहाँ यह सब सफ़ाई औरर संयम
कैसे होगा सरकार!
भोजन तक का ठिकाना तो है नहीं।
मालती ने समझाया, सफ़ाई में कुछ ख़र्च नहीं।
केवल थोड़ी-सी मेहनत औरर होशियारी से काम
चल सकता है।
दुलारी सहुआइन ने पूछा
-- यह सारी बातें
तुम्हें कैसे मालूम हुईं
सरकार, आपका तो अभी ब्याह
ही नहीं हुआ?
मालती ने मुस्कराकर पूछा -- तुम्हें कैसे
मालूम हुआ कि मेरा ब्याह नहीं हुआ
है?
सभी स्त्रियाँ मुँह फेरकर
मुस्कराईं।
धनिया बोली -- भला यह भी छिपा रहता है, मिस साहब;
मुँह देखते ही पता चल जाता है।
मालती ने झेंपते हुए कहा
-- इसीलिए ब्याह नहीं किया कि
आप लोगों की सेवा कैसे
करती?
सबने एक स्वर में कहा -- धन्य हो सरकार, धन्य हो।
सिलिया मालती के पाँव दबाने लगी
-- सरकार कितनी दूर से
आयी हैं, थक गयी
होंगी।
मालती ने पाँव खींचकर कहा
-- नहीं-नहीं,
मैं थकी नहीं हूँ।
मैं तो हवागाड़ी पर आयी हूँ।
मैं चाहती हूँ, आप लोग अपने बच्चे
लायें, तो
मैं उन्हें देखकर आप लोगों
को बताऊँ कि आप उन्हें कैसे
तन्दुरुस्त औरर नीरोग रख सकती हैं।
ज़रा देर में बीस-पच्चीस बच्चे आ गये।
मालती उनकी परीक्षा करने लगी।
कई बच्चों की आँखें उठी
थीं, उनकी आँख
में दवा डाली।
अधिकतर बच्चे दुर्बल थे।
इसका कारण था,
माता-पिता को भोजन
अच्छा न मिलना।
मालती को यह जानकर आश्चर्य हुआ
कि बहुत कम घरों में दूध होता
था।
घी के तो सालों दर्शन
नहीं होते।
मालती ने यहाँ भी उन्हें
भोजन करने का महत्व समझाया, जैसा वह सभी गाँवों
में किया करती थी।
उसका जी इसलिए जलता था कि ये लोग अच्छा
भोजन क्यों नहीं करते?
उसे ग्रामीणों पर क्रोध आ
जाता था।
क्या तुम्हारा जन्म इसीलिए हुआ है कि
तुम मर-मरकर कमाओ
औरर जो कुछ पैदा हो, उसे खा न सको?
जहाँ दो-चार बैलों के लिए भोजन
है, एक दो
गाय-भैसों के
लिए चारा नहीं है?
क्यों ये लोग भोजन
को जीवन की मुख्य वस्तु न समझकर उसे
केवल प्राणरक्षा की वस्तु समझते
हैं?
क्यों सरकार से नहीं कहते कि
नाम-मात्र के ब्याज पर रुपए
देकर उन्हें सूदख़ोर महाजनों
के पंजे से बचाये?
उसने जिस किसी से पूछा, यही मालूम हुआ कि उसकी कमाई का
बड़ा भाग महाजनों का क़रज़ चुकाने में
ख़र्च हो जाता है।
बटवारे का मरज़ भी बढ़ता जाता था।
आपस में इतना वैमनस्य था कि शायद
ही कोई दो भाई एक साथ रहते हों।
उनकी इस दुर्दशा का कारण बहुत कुछ
उनकी संकीर्णता औरर स्वार्थपरता थी।
मालती इन्ही विषयों पर
महिलाओं से बातें करती रही।
उनकी श्रद्धा देख-देख कर उसके मन में सेवा की
प्रेरणा औरर भी प्रबल हो रही थी।
इस त्यागमय जीवन के सामने वह विलासी
जीवन कितना तुच्छ औरर बनावटी था।
आज उसके वह रेशमी कपड़े, जिन पर ज़री का काम था, औरर वह सुगन्ध से महकता हुआ
शरीर, औरर वह पाउडर से
अलंकृत मुख-मंडल, उसे
लज्जित करने लगा।
उसकी कलाई पर बँधी सोने की घड़ी
जैसे अपने अपलक नेत्रों से
उसे घूर रही थी।
उसके गले में चमकता हुआ
जड़ाऊ नेकलेस मानो उसका गला घोंट रहा
था।
इन त्याग औरर श्रद्धा की
देवियों के सामने वह अपनी दृष्टि
में नीची लग रही थी।
वह इन ग्रामीणों से
बहुत-सी बातें
ज़्यादा जानती थी, समय की गति
ज़्यादा पहचानती थी; लेकिन
जिन परिस्थितियों में ये
ग़रीबिनें जीवन को सार्थक कर रही
हैं, उनमें क्या
वह एक दिन भी रह सकती हैं?
जिनमें अहंकार का नाम नहीं,
दिन भर काम करती हैं,
उपवास करती हैं, रोती हैं, फिर भी इतनी प्रसन्न मुख!
दूसरे उनके लिए इतने अपने
हो गये हैं कि अपना अस्तित्व ही नहीं रहा।
उनका अपनापन अपने लड़कों
में, अपने पति
में, अपने
सम्बन्धियों में है।
इस भावना की रक्षा करते हुए -- इसी भावना का क्षेत्र औरर बढ़ाकर
-- भावी नारीत्व का आदर्श
निर्माण होगा।
जाग्रत देवियों में
इसकी जगह आत्म-सेवन का
जो भाव आ बैठा है -- सब कुछ अपने लिए, अपने भोग विलास के लिए -- उससे तो यह
सुषुप्तावस्था ही अच्छी।
पुरुष निर्दयी है, माना; लेकिन
है तो इन्हीं माताओं का बेटा।
क्यों माता ने पुत्र को
ऐसी शिक्षा नहीं दी कि वह माता की, स्त्री-जाति की
पूजा करता?
इसीलिए कि माता को यह शिक्षा देनी
नहीं आती, इसलिए कि
उसने अपने को इतना मिटाया कि उसका रूप ही बिगड़
गया, उसका व्यक्तित्व ही नष्ट
हो गया।
नहीं,
अपने को मिटाने से काम न चलेगा।
नारी को समाज कल्याण के लिए अपने
अधिकारों की रक्षा करनी पड़ेगी, उसी तरह जैसे इन किसानों की
अपनी रक्षा के लिए इस देवत्व का कुछ त्याग करना
पड़ेगा।
सन्ध्या हो गयी थी।
मालती को औररतें अब तक
घेरे हुए थीं।
उसकी बातों से जैसे
उन्हें तृप्ति न होती थी।
कई औररतों ने उससे रात
को वहीं रहने का आग्रह किया।
मालती को भी उनका सरल स्नेह ऐसा
प्यारा लगा कि उसने उनका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया।
रात को औररतें उसे अपना
गाना सुनायेंगी।
मालती ने भी प्रत्येक घर में
जा-जाकर उसकी दशा से परिचय
प्राप्त करने में अपने समय का
सदुपयोग किया, उसकी
निष्कपट सद्भावना औरर सहानुभूति उन
गँवारिनों के लिए देवी के वरदान
से कम न थी।
उधर मेहता साहब खाट पर आसन जमाये
किसानों की कुश्ती देख रहे थे औरर
पछता रहे थे, मिरज़ाजी
को क्यों न साथ ले लिया, नहीं उनका भी एक जोड़ हो जाता।
उन्हें आश्चर्य हो रहा था,
ऐसे प्रौढ़ औरर निरीह
बालकों के साथ शिक्षित कहलानेवाले
लोग कैसे निर्दयी हो जाते
हैं।
अज्ञान की भाँति ज्ञान भी सरल, निष्कपट औरर सुनहले स्वप्न
देखनेवाला होता है।
मानवता में उसका विश्वास इतना
दृढ़, इतना सजीव होता
है कि वह इसके विरुद्ध व्यवहार को अमानुषीय
समझने लगता है।
यह वह भूल जाता है कि
भेड़ियों ने भेड़ों की निरीहता का
जवाब सदैव पंजे औरर दाँतों
से दिया है।
वह अपना एक आदर्श-संसार बनाकर उसको आदर्श मानवता
से आबाद करता है औरर उसी में मग्न रहता
है।
यथार्थता कितनी अगम्य, कितनी दुर्बोध, कितनी अप्राकृतिक है, उसकी ओर विचार करना उसके लिए मुश्किल
हो जाता है।
मेहता जी इस समय इन गँवारों
के बीच में बैठे हुए इसी प्रश्न को
हल कर रहे थे कि इनकी दशा इतनी दयनीय क्यों
है।
वह इस सत्य से आँखें
मिलाने का साहस न कर सकते थे कि इनका देवत्व
ही इनकी दुर्दशा का कारण है।
काश, ये आदमी
ज़्यादा औरर देवता कम होते, तो यों न ठुकराये जाते।
देश में कुछ भी हो,
क्रान्ति ही क्यों न आ
जाय, इनसे कोई मतलब
नहीं।
कोई दल उनके सामने सबल के रूप
में आये, उसके
सामने सिर झुकाने को तैयार।
उनकी निरीहता जड़ता की हद तक पहुँच गयी
है, जिसे कठोर
आघात ही कर्मण्य बना सकता है।
उनकी आत्मा जैसे चारों ओर
से निराश होकर अब अपने अन्दर ही टाँगें
तोड़कर बैठ गयी है।
उनमें अपने जीवन की चेतना ही
जैसे लुप्त हो गयी है।
सन्ध्या हो गयी थी।
जो लोग अब तक खेतों
में काम कर रहे थे, वे भी दौड़े चले आ रहे
थे।
उसी समय मेहता ने मालती को
गाँव की कई औररतों के साथ इस तरह तल्लीन
होकर एक बच्चे को गोद में लिए
देखा, मानो वह भी
उन्हीं में से एक है।
मेहता का हृदय आनन्द से गद्गद
हो उठा।
मालती ने एक प्रकार से अपने को
मेहता पर अर्पण कर दिया था।
इस विषय में मेहता को अब
कोई सन्देह न था; मगर
अभी तक उनके हृदय में मालती के प्रति वह
उत्कट भावना जाग्रत न हुई थी, जिसके बिना विवाह का प्रस्ताव करना उनके लिए
हास्य-जनक था।
मालती बिना बुलाये मेहमान की
भाँति उनके द्वार पर आकर खड़ी हो गयी थी,
औरर मेहता ने उसका
स्वागत किया था।
इसमें प्रेम का भाव न था, केवल पुरुषत्व का भाव था।
अगर मालती उन्हें इस योग्य समझती
है कि उन पर अपनी कृपा-दृष्टि फेरे, तो मेहता उसकी इस कृपा को
अस्वीकार न कर सकते थे।
इसके साथ ही वह मालती को गोविन्दी
के रास्ते से हटा देना चाहते थे
औरर वह जानते थे,
मालती जब तक आगे अपना पाँव न जमा
लेगी, वह पिछला पाँव
न उठायेगी।
वह जानते थे, मालती के साथ छल करके वह अपनी नीचता का
परिचय दे रहे हैं।
इसके लिए उनकी आत्मा बराबर उन्हें
धिक्कारती रही थी; मगर
ज्यों-ज्यों वह
मालती को निकट से देखते थे, उनके मन में आकर्षण
बढ़ता जाता था।
रूप का आकर्षण तो उन पर कोई असर न कर
सकता था।
यह गुण का आकर्षण था।
यह वह जानते थे, जिसे सच्चा प्रेम कह सकते
हैं, केवल एक बन्धन
में बँध जाने के बाद ही पैदा हो
सकता है।
इसके पहले जो प्रेम होता
है, वह तो रूप की
आसक्ति-मात्र है, जिसका कोई टिकाव नहीं; मगर इसके पहले यह निश्चय
तो कर लेना ही था कि जो पत्थर साहचर्य के
ख़राद पर चढ़ेगा,
उसमें ख़रादे जाने की क्षमता है भी या
नहीं।
सभी पत्थर तो ख़राद पर चढ़कर सुन्दर
मूर्तियाँ नहीं बन जाते।
इतने दिनों में मालती
ने उनके हृदय के भिन्न-भिन्न भागों में अपनी
रश्मियाँ डाली थीं; पर
अभी तक वे केंद्रित होकर उस ज्वाला के
रूप में न फूट पड़ी थीं, जिससे उनका सारा अन्तस्तल प्रज्वलित हो
जाता।
आज मालती ने ग्रामीणों
में मिलकर औरर सारे भेद-भावों को मिटाकर इन
रश्मियों को मानो केंद्रित कर
दिया।
औरर आज पहली बार मेहता को मालती
से एकात्मता का अनुभव हुआ।
ज्यों ही मालती गाँव का चक्कर लगाकर
लौटी, उन्होंने
उसे साथ लेकर नदी की ओर प्रस्थान किया।
रात यहीं काटने का निश्चय हो गया।
मालती का कलेजा आज न जाने
क्यों धक-धक करने
लगा।
मेहता के मुख पर आज उसे एक
विचित्र ज्योति औरर इच्छा झलकती हुई नज़र आयी।
नदी के किनारे चाँदी का फ़र्श बिछा
हुआ था औरर नदी रत्न-जटित आभूषण पहने मीठे
स्वरों में गाती चाँद की औरर
तारों की औरर सिर झुकाये नींद
में माते वृक्षों को अपना
नृत्य दिखा रही थी।
मेहता प्रकृति की उस मादक शोभा से
जैसे मस्त हो गये।
जैसे उनका बालपन अपनी सारी
क्रीड़ाओं के साथ लौट आया हो।
बालू पर कई कुलाटें मारीं।
फिर दौड़े हुए नदी में जाकर
घुटने तक पानी में खड़े हो गये।
मालती ने कहा -- पानी में न खड़े हो।
कहीं ठंड न लग जाय।
मेहता ने पानी उछालकर कहा -- मेरा तो जी चाहता है,
नदी के उस पार तैरकर चला
जाऊँ।
' नहीं-नहीं, पानी
से निकल आओ।
मैं न जाने दूँगी। '
' तुम
मेरे साथ न चलोगी, उस सूनी बस्ती में जहाँ
स्वप्नों का राज्य है। '
' मुझे
तो तैरना नहीं आता। '
' अच्छा, आओ,
एक नाव बनायें,
औरर उस पर बैठकर चलें। '
वह बाहर निकल आये।
आस-पास बड़ी
दूर तक झाऊ का जंगल खड़ा था।
मेहता ने जेब से चाकू
निकाला, औरर
बहुत-सी टहनियाँ काटकर
जमा कीं।
करार पर सरपत के जूट खड़े थे।
ऊपर चढ़कर सरपत का एक गट्ठा काट लाये
औरर वहीं बालू के फ़र्श पर बैठकर
सरपत की रस्सी बटने लगे।
ऐसे प्रसन्न थे, मानो स्वर्गारोहण की तैयारी कर
रहे हैं।
कई बार उँगलियाँ चिर गयीं,
ख़ून निकला।
मालती बिगड़ रही थीं, बार-बार गाँव
लौट चलने के लिए आग्रह कर रही थी; पर उन्हें कोई परवाह न थी।
वही बालकों का-सा उल्लास था, वही
अल्हड़पन, वही हठ।
दर्शन औरर विज्ञान सभी इस प्रवाह
में बह गये थे।
रस्सी तैयार हो गयी।
झाऊ का बड़ा-सा तख़्त
बन गया, टहनियाँ
दोनों सिरों पर रस्सी से जोड़ दी
गयी थीं।
उसके छिद्रों में झाऊ की
टहनियाँ भर दी गयीं,
जिससे पानी ऊपर न आये।
नौका तैयार हो गयी।
रात औरर भी स्वप्निल हो गयी थी।
मेहता ने नौका को पानी
में डालकर मालती का हाथ पकड़कर कहा -- आओ,
बैठो।
मालती ने सशंक होकर कहा -- दो आदमियों का बोझ
सँभाल लेगी?
मेहता ने दार्शनिक मुस्कान के
साथ कहा -- जिस तरी पर
बैठे हम लोग जीवन-यात्रा कर रहे हैं, वह तो इससे कहीं निस्सार है
मालती?
क्या डर रही हो?
' डर किस बात का
जब तुम साथ हो। '
' सच कहती
हो? '
' अब तक
मैंने बग़ैर किसी की सहायता के
बाधाओं को जीता है।
अब तो तुम्हारे संग
हूँ। '
दोनों उस झाऊ के तख़्ते पर
बैठे औरर मेहता ने झाऊ के एक
डंडे से ही उसे खेना शुरू किया।
तख़्ता डगमगाता हुआ पानी में चला।
मालती ने मन को इस तख़्ते से
हटाने के लिए पूछा --
तुम तो हमेशा शहरों में
रहे, गाँव के जीवन
का तुम्हें कैसे अभ्यास हो
गया?
मैं तो ऐसा तख़्ता कभी न बना
सकती।
मेहता ने उसे अनुरक्त
नेत्रों से देखकर कहा -- शायद यह मेरे पिछले जन्म का
संस्कार है।
प्रकृति से स्पर्श होते ही
जैसे मुझमें नया जीवन-सा आ जाता है; नस-नस में
स्फूर्ति छा जाती है।
एक-एक पक्षी,
एक-एक
पशु, जैसे
मुझे आनन्द का निमन्त्रण देता हुआ जान पड़ता
है, मानो
भूले हुए सुखों की याद दिला रहा
हो।
यह आनन्द मुझे औरर कहीं नहीं
मिलता मालती, संगीत
के रुलानेवाले स्वरों में भी
नहीं, दर्शन की ऊँची
उड़ानों में भी नहीं।
जैसे अपने आपको पा जाता
हूँ, जैसे पक्षी
अपने घोंसले में आ जाय।
तख़्ता डगमगाता,
कभी तिर्छा, कभी सीधा,
कभी चक्कर खाता हुआ चला जा रहा
था।
सहसा मालती ने कातर कंठ से पूछा
-- औरर मैं
तुम्हारे जीवन में कभी नहीं
आती?
मेहता ने उसका हाथ पकड़कर कहा -- आती हो, बार-बार आती
हो, सुगन्ध के एक
झोंके की तरह,
कल्पना की एक छाया की तरह औरर फिर अदृश्य हो जाती
हो।
दौड़ता हूँ कि तुम्हें
करपाश में बाँध लूँ; पर हाथ खुले रह जाते हैं
औरर तुम ग़ायब हो जाती हो।
मालती ने उन्माद की दशा में कहा
-- लेकिन तुमने
इसका कारण भी सोचा?
समझना चाहा?
' हाँ
मालती, बहुत
सोचा, बार-बार सोचा। '
' तो क्या
मालूम हुआ? '
' यही कि
मैं जिस आधार पर जीवन का भवन खड़ा करना चाहता
हूँ, वह अस्थिर है।
यह कोई विशाल भवन नहीं है,
केवल एक छोटी-सी शान्त कुटिया है; लेकिन उसके लिए भी तो
कोई स्थिर आधार चाहिए। '
मालती ने अपना हाथ छुड़ाकर जैसे
मान करते हुए कहा -- यह
झूठा आक्षेप है।
तुमने सदैव मुझे परीक्षा की
आँखों से देखा, कभी प्रेम की आँखों से
नहीं।
क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि
नारी परीक्षा नहीं चाहती,
प्रेम चाहती है।
परीक्षा गुणों को
अवगुण, सुन्दर को
असुन्दर बनानेवाली चीज़ है; प्रेम अवगुणों को गुण
बनाता है, असुन्दर
को सुन्दर!
मैंने तुमसे प्रेम
किया, मैं कल्पना ही
नहीं कर सकती कि तुममें कोई बुराई भी
है; मगर तुमने
मेरी परीक्षा की औरर तुम मुझे अस्थिर,
चंचल औरर जाने
क्या-क्या समझकर मुझसे
हमेशा दूर भागते रहे।
नहीं,
मैं जो कुछ कहना चाहती हूँ,
वह मुझे कह लेने
दो।
मैं क्यों अस्थिर औरर
चंचल हूँ; इसलिए
कि मुझे वह प्रेम नहीं मिला, जो मुझे स्थिर औरर
अचंचल बनाता; अगर
तुमने मेरे सामने उसी तरह
आत्म-समर्पण किया
होता, जैसे
मैंने तुम्हारे सामने किया
है, तो तुम आज
मुझ पर यह आक्षेप न रखते।
मेहता ने मालती के मान का आनन्द
उठाते हुए कहा --
तुमने मेरी परीक्षा कभी नहीं की?
सच कहती हो?
' कभी
नहीं। '
' तो
तुमने ग़लती की। '
' मैं इसकी
परवाह नहीं करती। '
' भावुकता
में न आओ मालती!
प्रेम देने के पहले हम सब
परीक्षा करते हैं औरर तुमने की,
चाहे अप्रत्यक्ष रूप से ही की
हो।
मैं आज तुमसे स्पष्ट कहता
हूँ कि पहले मैंने तुम्हें
उसी तरह देखा,
जैसे रोज़ ही हज़ारों
देवियों को देखा करता हूँ,
केवल विनोद के भाव
से; अगर मैं गलती
नहीं करता, तो
तुमने भी मुझे मनोरंजन के
लिए एक नया खिलौना समझा। '
मालती ने टोका -- ग़लत कहते हो।
मैंने कभी तुम्हें इस
नज़र से नहीं देखा।
मैंने पहले ही दिन
तुम्हें अपना देव बनाकर अपने हृदय ।।।
मेहता बात काटकर बोले -- फिर वही भावुकता।
मुझे ऐसे महत्व के विषय
में भावुकता पसन्द नहीं; अगर तुमने पहले ही दिन से
मुझे इस कृपा के योग्य समझा, तो इसका यही कारण हो सकता
है, कि मैं रूप
भरने में तुमसे ज़्यादा कुशल
हूँ, वरना जहाँ तक
मैंने नारियों का स्वभाव देखा
है, वह प्रेम के
विषय में काफ़ी छान-बीन
करती हैं।
पहले भी तो स्वयंवर से
पुरुषों की परीक्षा होती थी?
वह मनोवृत्ति अब भी मौजूद
है, चाहे उसका रूप
कुछ बदल गया हो।
मैंने तब से बराबर यही
कोशिश की है कि अपने को सम्पूर्ण रूप
से तुम्हारे सामने रख दूँ औरर
उसके साथ ही तुम्हारी आत्मा तक भी पहुँच
जाऊँ।
औरर मैं ज्यों-ज्यों तुम्हारे अन्तस्तल की
गहराई में उतरा हूँ, मुझे रत्न ही मिले ही हैं।
मैं विनोद के लिए आया औरर
आज उपासक बना हुआ हूँ।
तुमने मेरे भीतर क्या पाया यह
मुझे मालूम नहीं।
नदी का दूसरा किनारा आ गया।
दोनों उतरकर उसी बालू के
फ़र्श पर जा बैठे औरर मेहता फिर उसी प्रवाह
में बोले --
औरर आज मैं यहाँ वही पूछने के
लिए तुम्हें लाया हूँ?
मालती ने काँपते हुए स्वर
में कहा -- क्या अभी
तुम्हें मुझसे यह पूछने की ज़रूरत
बाक़ी है?
' हाँ,
इसलिए कि मैं आज
तुम्हें अपना वह रूप दिखाऊँगा, जो शायद अभी तक तुमने
नहीं देखा औरर जिसे मैंने भी
छिपाया है।
अच्छा, मान
लो, मैं
तुमसे विवाह करके कल तुमसे बेवफ़ाई
करूँ तो तुम मुझे क्या सज़ा
दोगी? '
मालती ने उसकी ओर चकित होकर
देखा।
इसका आशय उसकी समझ में न आया।
' ऐसा प्रश्न
क्यों करते हो? '
' मेरे लिए
यह बड़े महत्व की बात है। '
' मैं इसकी
सम्भावना नहीं समझती। '
' संसार
में कुछ भी असम्भव नहीं है।
बड़े-से-बड़ा महात्मा
भी एक क्षण में पतित हो सकता है। '
' मैं उसका
कारण खोजूँगी औरर उसे दूर
करूँगी। '
' मान
लो, मेरी आदत न
छूटे। '
' फिर मैं
नहीं कह सकती, क्या
करूँगी।
शायद विष खाकर सो रहूँ। '
' लेकिन यदि
तुम मुझसे यही प्रश्न करो, तो मैं उसका दूसरा जवाब
दूँगा। '
मालती ने सशंक होकर पूछा
-- बतलाओ!
मेहता ने दृढ़ता के साथ कहा
-- मैं पहले
तुम्हारा प्राणान्त कर दूँगा, फिर अपना।
मालती ने ज़ोर से क़हक़हा मारा औरर
सिर से पाँव तक सिहर उठी।
उसकी हँसी केवल उसके सिहरन को
छिपाने का आवरण थी।
मेहता ने पूछा -- तुम हँसी क्यों?
' इसलिए कि
तुम ऐसे हिंसावादी नहीं जान
पड़ते। '
' नहीं
मालती, इसी विषय में
मैं पूरा पशु हूँ औरर उस पर
लज्जित होने का कोई कारण नहीं देखता।
आध्यात्मिक प्रेम औरर त्यागमय प्रेम
औरर नि:स्वार्थ प्रेम जिसमें आदमी
अपने को मिटाकर केवल प्रेमिका के लिए जीता
है, उसके आनन्द से
आनन्दित होता है औरर उसके चरणों पर
अपनी आत्मा समर्पण कर देता है, मेरे लिए निरर्थक शब्द हैं।
मैंने पुस्तकों
में ऐसी प्रेम-कथाएँ पढ़ी हैं जहाँ प्रेमी ने
प्रेमिका के नये प्रेमियों के लिए
अपनी जान दे दी है;
मगर उस भावना को मैं श्रद्धा कह सकता
हूँ, सेवा कह सकता
हूँ, प्रेम कभी
नहीं।
प्रेम सीधी-सादी
गऊ नहीं, ख़ूँख़्वार
शेर है, जो
अपने शिकार पर किसी की आँख भी नहीं पड़ने
देता। '
मालती ने उनकी आँखों
में आँखें डालकर कहा -- अगर प्रेम ख़ूँख़्वार शेर है
तो मैं उससे दूर ही रहूँगी।
मैंने तो उसे गाय ही समझ
रखा था।
मैं प्रेम को सन्देह से ऊपर
समझती हूँ।
वह देह की वस्तु नहीं, आत्मा की वस्तु है।
सन्देह का वहाँ ज़रा भी स्थान नहीं
औरर हिंसा तो सन्देह का ही परिणाम है।
वह सम्पूर्ण आत्म-समपर्ण है।
उसके मन्दिर में तुम परीक्षक बनकर
नहीं, उपासक बनकर ही वरदान
पा सकते हो।
वह उठकर खड़ी हो गयी औरर तेज़ी से
नदी की तरफ़ चली, मानो
उसने अपना खोया हुआ मार्ग पा लिया हो।
ऐसी स्फूर्ति का उसे कभी
अनुभव न हुआ।
उसने स्वतन्त्र जीवन में भी अपने
में एक दुर्बलता पायी थी, जो उसे सदैव आन्दोलित करती रहती
थी, सदैव अस्थिर रखती थी।
उसका मन जैसे कोई आश्रय
खोजा करता था, जिसके
बल पर टिक सके, संसार
का सामना कर सके।
अपने में उसे यह शक्ति न मिलती
थी।
बुद्धि औरर चरित्र की शक्ति देखकर वह
उसकी ओर लालायित होकर जाती थी।
पानी की भाँति हर एक
पात्र का रूप धारण कर लेती थी।
उसका अपना कोई रूप न था।
उसकी मनोवृत्ति अभी तक किसी
परीक्षार्थी छात्र की-सी थी।
छात्र को पुस्तकों से प्रेम
हो सकता है औरर आज हो जाता है;
लेकिन वह पुस्तक के
उन्हीं भागों पर ज़्यादा ध्यान देता है,
जो परीक्षा में आ
सकते हैं।
उसकी पहली ग़रज परीक्षा में सफल होना
है।
ज्ञानार्जन इसके बाद।
अगर उसे मालूम हो जाय कि परीक्षक बड़ा
दयालु है या अन्धा है औरर छात्रों
को यों ही पास कर दिया करता है, तो शायद वह पुस्तकों की
ओर आँख उठाकर भी न देखे।
मालती जो कुछ करती थी, मेहता को प्रसन्न करने के
लिए।
उसका मतलब था,
मेहता का प्रेम औरर विश्वास प्राप्त करना,
उसके मनोराज्य की रानी बन
जाना; लेकिन उसी छात्र की
तरह अपनी योग्यता का विश्वास जमाकर।
लियाक़त आ जाने से परीक्षक आप-ही-आप
उससे सन्तुष्ट हो जायगा, इतना धैर्य उसे न था।
मगर आज मेहता ने जैसे उसे
ठुकराकर उसकी आत्म-शक्ति
को जगा दिया।
मेहता को जब से उसने पहली बार
देखा था, तभी से उसका
मन उनकी ओर झुका था।
उसे वह अपने परिचितों
में सबसे समर्थ जान पड़े।
उसके परिष्कृत जीवन में
बुद्धि की प्रखरता औरर विचारों की दृढ़ता
ही सबसे ऊँची वस्तु थी।
धन औरर ऐश्वर्य को तो
वह केवल खिलौना समझती थी, जिसे खेलकर लड़के तोड़-फोड़ डालते हैं।
रूप में भी अब उसके लिए विशेष
आकर्षण न था, यद्यपि
कुरूपता के लिए घृणा थी।
उसको तो अब बुद्धि-शक्ति ही अपने ओर झुका सकती
थी, जिसके आश्रय
में उसमें आत्म-विश्वास जगे, अपने विकास की प्रेरणा मिले, अपने में शक्ति का संचार
हो, अपने जीवन की
सार्थकता का ज्ञान हो।
मेहता के बुद्धिबल औरर
तेजस्विता ने उसके ऊपर अपनी मुहर लगा दी
औरर तब से वह अपना संस्कार करती चली जाती थी।
जिस प्रेरक शक्ति की उसे ज़रूरत थी,
वह मिल गयी थी औरर अज्ञात रूप
से उसे गति औरर शक्ति दे रही थी।
जीवन का नया आदर्श जो उसके
सामने आ गया था, वह
अपने को उसके समीप पहुँचाने की
चेष्टा करती हुई औरर सफलता का अनुभव करती
हुई उस दिन की कल्पना कर रही थी, जब वह औरर मेहता एकात्म हो
जायँगे औरर यह कल्पना उसे औरर भी दृढ़
औरर निष्ठ बना रही थी।
मगर आज जब मेहता ने उसकी
आशाओं को द्वार तक लाकर प्रेम का वह
आदर्श उसके सामने रखा, जिसमें प्रेम को आत्मा औरर
समर्पण के क्षेत्र से गिराकर भौतिक धरातल
तक पहुँचा दिया गया था, जहाँ सन्देह औरर ईष्र्या औरर
भोग का राज है, तब
उसकी परिष्कृत बुद्धि आहत हो उठी।
औरर मेहता से जो उसे
श्रद्धा थी, उसे एक
धक्का-सा लगा, मानो कोई शिष्य अपने
गुरु को कोई नीच कर्म करते देख
ले।
उसने देखा, मेहता की बुद्धि-प्रखरता प्रेमत्व को पशुता की ओर
खींचे लिये जाती है औरर उसके
देवत्व की ओर से आँखें बन्द किये
लेती है, औरर यह
देखकर उसका दिल बैठ गया।
मेहता ने कुछ लज्जित होकर कहा
-- आओ, कुछ देर औरर बैठें।
मालती बोली -- नहीं, अब
लौटना चाहिए।
देर हो रही है।
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Recoded: 20 Sept. 1999 to 6 Oct 1999.
Chapter Thirty posted: 13 Oct. 1999.