यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
इन्स्टिट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़
लैंग्वजिज़ ऐंड कल्चर्ज़ ऑफ़
एशिया ऐंड ऐफ़्रिका
तोक्यो
यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ाॅरेन स्टडीज़
Mellon Project
प्रेमचन्द
गोदान
(Devanagari text reconstituted from Professor K. Machida's roman
transcription)
Chapter Thirty-one.
(unparagraphed text)
राय साहब का सितारा बुलन्द था।
उनके तीनों मंसूबे
पूरे हो गये थे।
कन्या की शादी धूम-धाम से हो गयी थी, मुक़दमा जीत गये थे औरर
निर्वाचन में सफल ही न हुए थे,
होम मेम्बर भी हो
गये थे।
चारों ओर से बधाइयाँ मिल
रही थीं।
तारों का ताँता लगा हुआ था।
इस मुक़दमे को जीतकर
उन्होंने ताल्लुक़ेदारों की प्रथम
श्रेणी में स्थान प्राप्त कर लिया था।
सम्मान तो उनका पहले भी किसी से कम
न था; मगर अब तो उसकी जड़
औरर भी गहरी औरर मज़बूत हो गयी थी।
सामयिक पत्रों में उनके चित्र
औरर चरित्र दनादन निकल रहे थे।
क़रज़ की मात्रा बहुत बढ़ गयी थी; मगर अब राय साहब को इसकी परवाह न
थी।
वह इस नयी मिलिकियत का एक छोटा-सा टुकड़ा बेचकर क़रज़ से
मुक्त हो सकते थे।
सुख की जो ऊँची-से-ऊँची
कल्पना उन्होंने की थी, उससे कहीं ऊँचे जा
पहुँचे थे।
अभी तक उनका बँगला केवल लखनऊ
में था।
अब नैनीताल,
मंसूरी औरर शिमला -- तीनों स्थानों में
एक-एक बँगला बनवाना
लाज़िम हो गया।
अब उन्हें यह शोभा नहीं देता
कि इन स्थानों में जायँ, तो होटलों में
या किसी दूसरे राजा के बँगले में
ठहरें।
जब सूर्यप्रतापसिंह के
बँगले इन सभी स्थानों में
थे, तो राय साहब
के लिए यह बड़ी लज्जा की बात थी कि उनके बँगले
न हों।
संयोग से बँगले
बनवाने की ज़हमत न उठानी पड़ी।
बने-बनाये बँगले सस्ते
दामों में मिल गये।
हर एक बँगले के लिए माली, चौकीदार, कारिन्दा, ख़ानसामा
आदि भी रख लिये गये थे।
औरर सबसे बड़े सौभाग्य की बात
यह थी कि अबकी हिज़ मैजेस्टी के जन्म-दिन के अवसर पर उन्हें राजा की
पदवी भी मिल गयी।
अब उनकी महत्वाकांक्षा सम्पूर्ण रूप
से सन्तुष्ट हो गयी।
उस दिन ख़ूब जशन मनाया गया औरर इतनी
शानदार दावत हुई कि पिछले सारे रेकार्ड
टूट गये।
जिस वक़्त हिज़ एक्सेलेंसी गवर्नर
ने उन्हें पदवी प्रदान की, गर्व के साथ राज-भक्ति की ऐसी तरंग उनके मन
में उठी कि उनका एक-एक
रोम उससे प्लावित हो उठा।
यह है जीवन!
नहीं,
विद्रोहियों के फेर में पड़कर
व्यर्थ बदनामी ली, जेल
गये औरर अफ़सरों की नज़रों से
गिर गये।
जिस डी। एस। पी। ने उन्हें पिछली बार
गिरफ़्तार किया था, इस वक़्त वह
उनके सामने हाथ बाँधे खड़ा था औरर शायद
अपने अपराध के लिए क्षमा माँग रहा था।
मगर जीवन की सबसे बड़ी विजय उन्हें
उस वक़्त हुई, जब उनके
पुराने, परास्त
शत्रु सूर्यप्रतापसिंह ने उनके बड़े
लड़के रुद्रपालसिंह से अपनी कन्या के विवाह
का सन्देशा भेजा।
राय साहब को न मुक़दमा जीतने की
इतनी ख़ुशी हुई थी, न
मिनिस्टर होने की।
वह सारी बातें कल्पना में आती
थीं; मगर यह बात तो
आशातीत ही नहीं,
कल्पनातीत थी।
वही सूर्यप्रतापसिंह जो अभी कई
महीने तक उन्हें अपने कुत्ते से
भी नीचा समझता था, वह आज
उनके लड़के से अपनी लड़की का विवाह करना चाहता
था!
कितनी असम्भव बात!
रुद्रपाल इस समय एम। ए। में पढ़ता
था, बड़ा निर्भीक, पक्का आदर्शवादी, अपने ऊपर भरोसा रखने वाला,
अभिमानी, रसिक औरर आलसी युवक था, जिसे अपने पिता की यह धन
औरर मानलिप्सा बुरी लगती थी।
राय साहब इस समय नैनीताल में
थे।
यह सन्देशा पाकर फूल उठे।
यद्यपि वह विवाह के विषय में
लड़के पर किसी तरह का दबाव डालना न चाहते
थे; पर इसका उन्हें
विश्वास था कि वह जो कुछ निश्चय कर
लेंगे,
उसमें रुद्रपाल को कोई आपत्ति न
होगी औरर राजा सूर्यप्रतापसिंह से
नाता हो जाना एक ऐसे सौभाग्य की बात थी कि
रुद्रपाल का सहमत न होना ख़याल में भी न आ
सकता था।
उन्होंने तुरन्त राजा साहब को
बात दे दी औरर उसी वक़्त रुद्रपाल को फ़ोन
किया।
रुद्रपाल ने जवाब दिया -- मुझे स्वीकार नहीं।
राय साहब को अपने जीवन में न
कभी इतनी निराशा हुई थी, न
इतना क्रोध आया था।
पूछा -- कोई
वजह?
' समय आने
पर मालूम हो जायगा। '
' मैं अभी
जानना चाहता हूँ। '
' मैं
नहीं बतलाना चाहता। '
' तुम्हें मेरा हुक्म मानना
पड़ेगा। '
' जिस बात को
मेरी आत्मा स्वीकार नहीं करती, उसे मैं आपके हुक्म से
नहीं मान सकता। '
राय साहब ने बड़ी नम्रता से समझाया
-- बेटा, तुम आदर्शवाद के पीछे अपने
पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे हो।
यह सम्बन्ध समाज में तुम्हारा स्थान
कितना ऊँचा कर देगा,
कुछ तुमने सोचा है?
इसे ईश्वर की प्रेरणा समझो।
उस कुल की कोई दरिद्र कन्या भी
मुझे मिलती, तो
मैं अपने भाग्य को सराहता, यह तो राजा सूर्यप्रताप की
कन्या है, जो हमारे
सिरमौर हैं।
मैं उसे रोज़ देखता
हूँ।
तुमने भी देखा होगा।
रूप,
गुण, शील, स्वभाव में ऐसी युवती
मैंने आज तक नहीं देखी।
मैं तो चार दिन का औरर
मेहमान हूँ।
तुम्हारे सामने सारा जीवन पड़ा
है।
मैं तुम्हारे ऊपर दबाव नहीं
डालना चाहता।
तुम जानते हो, विवाह के विषय में मेरे
विचार कितने उदार हैं, लेकिन मेरा यह भी तो धर्म है
कि अगर तुम्हें ग़लती करते
देखूँ, तो
चेतावनी दे दूँ।
रुद्रपाल ने इसका जवाब दिया -- मैं इस विषय में
बहुत पहले निश्चय कर चुका हूँ।
उसमें अब कोई परिवर्तन नहीं
हो सकता।
राय साहब को लड़के की जड़ता पर फिर
क्रोध आ गया।
गरजकर बोले -- मालूम होता है, तुम्हारा सिर फिर गया है।
आकर मुझसे मिलो।
विलंव न करना।
मैं राजा साहब को ज़बान दे
चुका हूँ।
रुद्रपाल ने जवाब दिया -- खेद है, अभी मुझे अवकाश नहीं है।
दूसरे दिन राय साहब ख़ुद आ गये।
दोनों अपने-अपने शस्त्रों से सजे हुए
तैयार खड़े थे।
एक ओर सम्पूर्ण जीवन का मँजा
हुआ अनुभव था,
समझौतों से भरा हुआ; दूसरी ओर कच्चा आदर्शवाद
था, ज़िद्दी, उद्दंड औरर निर्मम।
राय साहब ने सीधे मर्म पर आघात
किया -- मैं जानना
चाहता हूँ, वह कौन
लड़की है?
रुद्रपाल ने अचल भाव से कहा
-- अगर आप इतने उत्सुक
हैं, तो
सुनिए।
वह मालती देवी की बहन सरोज है।
राय साहब आहत होकर गिर पड़े -- अच्छा वह!
' आपने
तो सरोज को देखा होगा? '
' ख़ूब
देखा है।
तुमने राजकुमारी को देखा
है या नहीं? '
' जी हाँ,
ख़ूब देखा है। '
' फिर भी ।।। '
' मैं रूप
को कोई चीज़ नहीं समझता। '
' तुम्हारी अक्ल
पर मुझे अफ़सोस आता है।
मालती को जानते हो कैसी
औररत है?
उसकी बहन क्या कुछ औरर होगी। '
रुद्रपाल ने तेवरी चढ़ाकर कहा
-- मैं इस विषय
में आपसे औरर कुछ नहीं कहना
चाहता; मगर मेरी शादी
होगी, तो सरोज
से।
' मेरे
जीते जी कभी नहीं हो सकती। '
' तो
आपके बाद होगी। '
' अच्छा, तुम्हारे यह इरादे
हैं! '
औरर राय साहब की आँखें सजल
हो गयीं।
जैसे सारा जीवन उजड़ गया हो।
मिनिस्टरी औरर इलाक़ा औरर पदवी, सब जैसे बासी
फूलों की तरह नीरस, निरानन्द हो गये हों।
जीवन की सारी साधना व्यर्थ हो गयी।
उनकी स्त्री का जब देहान्त हुआ था, तो उनकी उम्र छत्तीस साल
से ज़्यादा न थी।
वह विवाह कर सकते थे, औरर भोगविलास का आनन्द उठा सकते
थे।
सभी उनसे विवाह करने के लिए
आग्रह कर रहे थे;
मगर उन्होंने इन बालकों का मुँह
देखा औरर विधुर जीवन की साधना स्वीकार कर ली।
इन्हीं लड़कों पर अपने जीवन का
सारा भोग-विलास
न्योछावर कर दिया।
आज तक अपने हृदय का सारा स्नेह
इन्हीं लड़कों देते चले आये
हैं, औरर आज यह
लड़का इतनी निष्ठुरता से बातें कर रहा
है, मानो उनसे
कोई नाता नहीं, फिर वह
क्यों जायदाद औरर सम्मान औरर अधिकार के
लिए जान दें।
इन्हीं लड़कों ही के लिए तो वह
सब कुछ कर रहे थे,
जब लड़कों को उनका ज़रा भी लिहाज़ नहीं,
तो वह क्यों यह तपस्या
करें।
उन्हें कौन संसार में
बहुत दिन रहना है।
उन्हें भी आराम से पड़े रहना आता
है।
उनके औरर हज़ारों भाई
मूँछों पर ताव देकर जीवन का भोग
करते हैं औरर मस्त घूमते हैं।
फिर वह भी क्यों न भोग-विलास में पड़े रहें।
उन्हें इस वक़्त याद न रहा कि वह जो
तपस्या कर रहे हैं,
वह लड़कों के लिए नहीं, बल्कि अपने लिए;
केवल यश के लिए नहीं, बल्कि इसीलिए कि वह कर्मशील हैं औरर
उन्हें जीवित रहने के लिए इसकी ज़रूरत है।
वह विलासी औरर अकर्मण्य बनकर अपनी आत्मा
को सन्तुष्ट नहीं रख सकते।
उन्हें मालूम नहीं, कि कुछ लोगों की
प्रकृति ही ऐसी होती है कि विलास का अपाहिजपन
स्वीकार ही नहीं कर सकते।
वे अपने जिगर का ख़ून पीने ही
के लिए बने हैं, औरर मरते दम तक पिये
जायँगे।
मगर इस चोट की प्रतिक्रिया भी तुरन्त
हुई।
हम जिनके लिए त्याग करते हैं
उनसे किसी बदले की आशा न रखकर भी उनके मन पर
शासन करना चाहते हैं, चाहे वह शासन उन्हीं के हित के लिए
हो, यद्यपि उस हित
को हम इतना अपना लेते हैं कि वह उनका न
होकर हमारा हो जाता है।
त्याग की मात्रा जितनी ही ज़्यादा होती
है, यह शासन-भावना भी उतनी ही प्रबल होती है
औरर जब सहसा हमें विद्रोह का सामना करना
पड़ता है, तो हम
क्षुब्ध हो उठते हैं, औरर वह त्याग जैसे प्रतिहिंसा का रूप
ले लेता है।
राय साहब को यह ज़िद पड़ गयी कि रुद्रपाल का
विवाह सरोज के साथ न होने पाये,
चाहे इसके लिए उन्हें
पुलिस की मदद क्यों न लेनी पड़े,
नीति की हत्या क्यों न करनी
पड़े।
उन्होंने जैसे तलवार
खींचकर कहा -- हाँ,
मेरे बाद ही होगी
औरर अभी उसे बहुत दिन हैं।
रुद्रपाल ने जैसे गोली चला
दी -- ईश्वर करे, आप अमर हों!
सरोज से मेरा विवाह हो
चुका।
' झूठ!
'
' बिलकुल
नहीं, प्रमाण-पत्र मौजूद है। '
राय साहब आहत होकर गिर पड़े।
इतनी सतृष्ण हिंसा की आँखों
से उन्होंने कभी किसी शत्रु को न
देखा था।
शत्रु अधिक-से-अधिक उनके
स्वार्थ पर आघात कर सकता था, या देह पर या सम्मान पर; पर यह आघात तो उस मर्मस्थल पर
था, जहाँ जीवन की
सम्पूर्ण प्रेरणा संचित थी।
एक आँधी थी जिसने उनका जीवन जड़ से
उखाड़ दिया।
अब वह सर्वथा अपंग हैं।
पुलिस की सारी शक्ति हाथ में
रहते हुए अपंग हैं।
बल-प्रयोग उनका
अन्तिम शस्त्र था।
वह शस्त्र उनके हाथ से निकल चुका था।
रुद्रपाल बालिग़ है, सरोज भी बालिग़ है।
औरर रुद्रपाल अपनी रियासत का मालिक
है।
उनका उस पर कोई दबाव नहीं।
आह!
अगर जानते यह लौंडा यों
विद्रोह करेगा,
तो इस रियासत के लिए लड़ते ही
क्यों?
इस मुक़दमेबाज़ी के पीछे
दो-ढाई लाख बिगड़ गये।
जीवन ही नष्ट हो गया।
अब तो उनकी लाज इसी तरह बचेगी कि इस
लौंडे की ख़ुशामद करते रहें,
उन्होंने ज़रा बाधा दी
औरर इज़्ज़त धूल में मिली।
वह जीवन का बलिदान करके भी अब स्वामी
नहीं हैं।
ओह!
सारा जीवन नष्ट हो गया।
सारा जीवन!
रुद्रपाल चला गया था।
राय साहब ने कार मँगवाई औरर
मेहता से मिलने चले।
मेहता अगर चाहें तो मालती
को समझा सकते हैं।
सरोज भी उनकी अवहेलना न
करेगी; अगर दस-बीस हज़ार रुपए बल खाने से भी यह
विवाह रुक जाय, तो वह
देने को तैयार थे।
उन्हें उस स्वार्थ के नशे
में यह बिल्कुल ख़्याल न रहा कि वह मेहता के
पास ऐसा प्रस्ताव लेकर जा रहे हैं,
जिस पर मेहता की हमदर्दी कभी
उनके साथ न होगी।
मेहता ने सारा वृत्तान्त
सुनकर उन्हें बनाना शुरू किया।
गम्भीर मुँह बनाकर बोले
-- यह तो आपकी प्रतिष्ठा का
सवाल है।
राय साहब भाँप न सके।
उछलकर बोले -- जी हाँ,
केवल प्रतिष्ठा का।
राजा सूर्यप्रतापसिंह को तो
आप जानते हैं?
' मैंने उनकी लड़की को भी देखा
है।
सरोज उसके पाँव की धूल भी
नहीं है। '
' मगर इस
लौंडे की अक्ल पर पत्थर पड़ गया है। '
' तो
मारिये गोली,
आपको क्या करना है।
वही पछतायेगा। '
' आह!
यही तो नहीं देखा जाता
मेहताजी?
मिलती हुई प्रतिष्ठा नहीं छोड़ी जाती।
मैं इस प्रतिष्ठा पर अपनी आधी रियासत
क़ुर्बान करने को तैयार हूँ।
आप मालती देवी को समझा
दें, तो काम बन
जाय।
इधर से इनकार हो जाय, तो रुद्रपाल सिर पीटकर रह जायगा औरर
यह नशा दस-पाँच दिन
में आप उतर जायगा।
यह प्रेम-ंोम कुछ नहीं, केवल सनक है। '
' लेकिन
मालती बिना कुछ रिश्वत लिए मानेगी
नहीं। '
' आप जो
कुछ कहिए, मैं
उसे दूँगा।
वह चाहे तो में उसे
यहाँ के डफ़रिन हास्पिटल का इनचार्ज बना
दूँ। '
' मान
लीजिए, वह आपको चाहे
तो आप राज़ी होंगे।
जब से आपको मिनिस्टरी मिली
है, आपको विषय
में उसकी राय ज़रूर बदल गयी होगी। '
राय साहब ने मेहता के चेहरे
की तरफ़ देखा।
उस पर मुस्कराहट की रेखा नज़र आयी।
समझ गये।
व्यथित स्वर में बोले
-- आपको भी मुझसे
मज़ाक़ करने का यही अवसर मिला।
मैं आपके पास इसलिए आया था कि
मुझे यक़ीन था कि आप मेरी हालत पर विचार
करेंगे,
मुझे उचित राय देंगे।
औरर आप मुझे बनाने
लगे।
जिसके दाँत नहीं
दुखे, वह
दाँतों का दर्द क्या जाने।
मेहता ने गम्भीर स्वर से कहा
-- क्षमा कीजिएगा,
आप ऐसा प्रश्न ही लेकर
आये हैं कि उस पर गम्भीर विचार करना
मैं हास्यास्पद समझता हूँ।
आप अपनी शादी के ज़िम्मेदार हो
सकते हैं।
लड़के की शादी का दायित्व आप क्यों
अपने ऊपर लेते हैं, ख़ास कर जब आपका लड़का बालिग़ है औरर अपना
नफ़ा-नुक़सान समझता है।
कम-से-कम
मैं तो शादी-जैसे महत्व के मुआमले
में प्रतिष्ठा का कोई स्थान नहीं समझता।
प्रतिष्ठा धन से होती तो राजा
साहब उस नंगे बाबा के सामने
घंटों ग़ुलामों की तरह हाथ
बाँधे न खड़े रहते।
मालूम नहीं कहाँ तक सही है;
पर राजा साहब अपने इलाक़े
के दारोग़ा तक को सलाम करते
हैं; इसे आप
प्रतिष्ठा कहते हैं?
लखनऊ में आप किसी दूकानदार,
किसी अहलकार, किसी राहगीर से पूछिए, उनका नाम सुनकर गालियाँ ही देगा।
इसी को आप प्रतिष्ठा कहते
हैं?
जाकर आराम से बैठिए।
सरोज से अच्छी वधू आपको बड़ी
मुश्किल से मिलेगी।
राय साहब ने आपत्ति के भाव से
कहा -- बहन तो मालती ही की
है।
मेहता ने गर्म होकर कहा
-- मालती की बहन होना क्या
अपमान की बात है?
मालती को आपने जाना नहीं,
औरर न जानने की परवाह की।
मैंने भी यही समझा था; लेकिन अब मालूम हुआ कि वह
आग में पड़कर चमकनेवाली सच्ची धातु है।
वह उन वीरों में है जो
अवसर पड़ने पर अपने जौहर दिखाते
हैं, तलवार
घुमाते नहीं चलते।
आपको मालूम है खन्ना की आजकल
क्या दशा है?
राय साहब ने सहानुभूति के भाव
से सिर हिलाकर कहा --
सुन चुका हूँ,
औरर बार-बार इच्छा हुई कि
उनसे मिलूँ;
लेकिन फ़ुरसत न मिली।
उस मिल में आग लगना उनके
सर्वनाश का कारण हो गया।
' जी हाँ।
अब वह एक तरह से दोस्तों की दया
पर अपना निर्वाह कर रहे हैं।
उस पर गोविन्दी महीनों से
बीमार है।
उसने खन्ना पर अपने को बलिदान कर
दिया, उस पशु पर
जिसने हमेशा उसे जलाया; अब वह मर रही है।
औरर मालती रात की रात उसके सिरहाने
बैठी रह जाती है, वही
मालती जो किसी राजा रईस से पाँच सौ फ़ीस
पाकर भी रात-भर न
बैठेगी।
खन्ना के छोटे बच्चों
को पालने का भार भी मालती पर है।
यह मातृत्व उसमें कहाँ सोया
हुआ था, मालूम
नहीं।
मुझे तो मालती का यह स्वरूप
देखकर अपने भीतर श्रद्धा का अनुभव
होने लगा, हालाँकि
आप जानते हैं,
मैं घोर जड़वादी हूँ।
औरर भीतर के परिष्कार के साथ उसकी छवि
में भी देवत्व की झलक आने लगी है।
मानवता इतनी बहुरंगी औरर इतनी
समर्थ है, इसका
मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है।
आप उनसे मिलना चाहें तो
चलिए, इसी बहाने
मैं भी चला चलूँगा। '
राय साहब ने स्निग्ध भाव से कहा
-- जब आप ही मेरे
दर्द को नहीं समझ सके, तो मालती देवी क्या
समझेंगी, मुफ़्त
में शर्मिन्दगी होगी; मगर आपको पास जाने के लिए किसी
बहाने की ज़रूरत क्यों!
मैं तो समझता था, आपने उनके ऊपर अपना जादू
डाल दिया है।
मेहता ने हसरत भरी मुस्कराहट के
साथ जवाब दिया -- वह बात अब
स्वप्न हो गयी।
अब तो कभी उनके दर्शन भी नहीं
होते।
उन्हें अब फ़ुरसत भी नहीं रहती।
दो-चार बार
गया।
मगर मुझे मालूम हुआ,
मुझसे मिलकर वह कुछ
ख़ुश नहीं हुईं, तब
से जाते झेंपता हूँ।
हाँ, ख़ूब
याद आया, आज महिला-व्यायामशाला का जलसा है, आप चलेंगे?
राय साहब ने बेदिली के साथ कहा
-- जी नहीं, मुझे फ़ुरसत नहीं है।
मुझे तो यह चिन्ता सवार है कि
राजा साहब को क्या जवाब दूँगा।
मैं उन्हें वचन दे चुका
हूँ।
यह कहते हुए वह उठ खड़े हुए औरर
मन्दगति से द्वार की ओर चले।
जिस गुत्थी को सुलझाने
आये थे, वह औरर
भी जटिल हो गयी।
अन्धकार औरर भी असूझ हो गया।
मेहता ने कार तक आकर उन्हें बिदा
किया।
राय साहब सीधे अपने बँगले पर
आये औरर दैनिक पत्र उठाया था कि मिस्टर तंखा का
कार्ड मिला।
तंखा से उन्हें घृणा
थी, औरर उनका मुँह
भी न देखना चाहते थे; लेकिन इस वक़्त मन की दुर्बल दशा
में उन्हें किसी हमदर्द की तलाश थी,
जो औरर कुछ न कर
सके, पर उनके
मनोभावों से सहानुभूति तो
करे।
तुरन्त बुला लिया।
तंखा पाँव दबाते हुए, रोनी सूरत लिये कमरे
में दाख़िल हुए औरर ज़मीन पर झुककर सलाम
करते हुए बोले -- मैं तो हुज़ूर के
दर्शन करने नैनीताल जा रहा था।
सौभाग्य से यहीं दर्शन हो
गये!
हुज़ूर का मिज़ाज तो अच्छा है।
इसके बाद उन्होंने बड़ी लच्छेदार
भाषा में, औरर
अपने पिछले व्यवहार को बिल्कुल
भूलकर, राय साहब का
यशोगान आरम्भ किया --
ऐसी होम-मेम्बरी
कोई क्या करेगा, जिधर
देखिये हुज़ूर ही के चर्चे
हैं।
यह पद हुज़ूर ही को शोभा
देता है।
राय साहब मन में सोच रहे
थे, यह आदमी भी कितना बड़ा
धूर्त है, अपनी
ग़रज़ पड़ने पर गधे को दादा कहनेवाला,
पहले सिरे का बेवफ़ा
औरर निर्लज्ज; मगर
उन्हें उन पर क्रोध न आया, दया आयी।
पूछा -- आजकल
आप क्या कर रहे हैं?
कुछ नहीं हुज़ूर, बेकार बैठा हूँ।
इसी उम्मीद से आपकी ख़िदमत में हाज़िर
होने जा रहा था कि अपने पुराने
खादिमों पर निगाह रहे।
आजकल बड़ी मुसीबत में पड़ा हुआ
हूँ हुज़ूर।
राजा सूर्यप्रतापसिंह को तो
हुज़ूर जानते हैं, अपने सामने किसी को नहीं
समझते।
एक दिन आपकी निन्दा करने लगे।
मुझसे न सुना गया।
मैंने कहा, बस कीजिए महाराज,
राय साहब मेरे स्वामी हैं औरर मैं
उनकी निन्दा नहीं सुन सकता।
बस इसी बात पर बिगड़ गये।
मैंने भी सलाम किया औरर घर
चला आया।
मैंने साफ़ कह दिया, आप कितना ही ठाट-बाट दिखायें; पर राय साहब की जो इज़्ज़त है; वह आपको नसीब नहीं हो
सकती।
इज़्ज़त ठाट से नहीं होती, लियाक़त से होती है।
आप में जो लियाक़त है वह
तो दुनिया जानती है।
राय साहब ने अभिनय किया -- आपने तो सीधे घर
में आग लगा दी।
तंखा ने अकड़कर कहा -- मैं तो हुज़ूर साफ़ कहता
हूँ, किसी को अच्छा
लगे या बुरा।
जब हुज़ूर के क़दमों को
पकड़े हुए हूँ,
तो किसी से क्यों डरूँ।
हुज़ूर के तो नाम से
जलते हैं।
जब देखिए हुज़ूर की बदगोई।
जब से आप मिनिस्टर हुए हैं,
उनकी छाती पर साँप लोट रहा
है।
मेरी सारी-की-सारी मज़दूरी
साफ़ डकार गये।
देना तो जानते नहीं
हुज़ूर।
असामियों पर इतना अत्याचार करते
हैं कि कुछ न पूछिए।
किसी की आबरू सलामत नहीं।
दिन दहाड़े औररतों को ।।।
कार की आवाज़ आयी औरर राजा
सूर्यप्रतापसिंह उतरे।
राय साहब ने कमरे से निकलकर उनका
स्वागत किया औरर इस सम्मान के बोझ से नत
होकर बोले --
मैं तो आपकी सेवा में
आनेवाला ही था।
यह पहला अवसर था कि राजा
सूर्यप्रतापसिंह ने इस घर को अपने
चरणों से पवित्र किया।
यह सौभाग्य!
मिस्टर तंखा भीगी बिल्ली बने
बैठे हुए थे।
राजा साहब यहाँ!
क्या इधर इन दोनों
महोदयों में दोस्ती हो गयी
है?
उन्होंने राय साहब की ईष्र्याग्नि
को उत्तेजित करके अपना हाथ सेंकना
चाहा था; मगर नहीं,
राजा साहब यहाँ मिलने
के लिए आ भले ही गये हों, मगर दिलों में जो
जलन है वह तो कुम्हार के आँवे की तरह
इस ऊपर की लेप-थोप
से बुझनेवाली नहीं।
राजा साहब ने सिगार जलाते हुए
तंखा की ओर कठोर आँखों से
देखकर कहा -- तुमने
तो सूरत ही नहीं दिखाई मिस्टर तंखा।
मुझसे उस दावत के सारे रुपए वसूल कर लिये औरर
होटलवालों को एक पाई न दी, वह मेरा सिर
खा रहे हैं।
मैं इसे विश्वास घात समझता
हूँ।
मैं चाहूँ तो अभी
तुम्हें पुलीस में दे सकता
हूँ।
यह कहते हुए उन्होंने राय
साहब को सम्बोधित करके कहा -- ऐसा बेईमान आदमी मैंने
नहीं देखा राय साहब।
मैं सत्य कहता हूँ, मैं कभी आपके
मुक़ाबले में न खड़ा होता।
मगर इसी शैतान ने मुझे बहकाया
औरर मेरे एक लाख रुपए बरबाद कर दिये।
बँगला ख़रीद लिया साहब, कार रख ली।
एक वेश्या से आशनाई भी कर रखी है।
पूरे रईस बन गये औरर अब
दग़ाबाज़ी शुरू की है।
रईसों की शान निभाने के लिए
रियासत चाहिए।
आपकी रियासत अपने दोस्तों की
आँखों में धूल झोंकना
है।
राय साहब ने तंखा की ओर तिरस्कार की
आँखों से देखा।
औरर बोले -- आप चुप क्यों हैं मिस्टर
तंखा, कुछ जवाब दीजिए।
राजा साहब ने तो आपका सारा
मेहनताना दबा लिया।
है इसका कोई जवाब आपके
पास?
अब कृपा करके यहाँ से चले
जाइए औरर ख़बरदार फिर अपनी सूरत न दिखाइएगा।
दो भले आदमियों में
लड़ाई लगाकर अपना उल्लू सीधा करना बेपूँजी का
रोज़गार है; मगर इसका
घाटा औरर नफ़ा दोनों ही जान-जोख़िम है समझ लीजिए।
तंखा ने ऐसा सिर गड़ाया कि फिर न
उठाया।
धीरे से चले गये।
जैसे कोई चोर कुत्ता
मालिक के अन्दर आ जाने पर दबकर निकल जाय।
जब वह चले गये, तो राजा साहब ने पूछा -- मेरी बुराई करता
होगा?
' जी हाँ;
मगर मैंने भी ख़ूब
बनाया। '
' शैतान
है। '
' पूरा। '
' बाप-बेटे में लड़ाई करवा
दे, मियाँ-बीबी में लड़ाई करवा दे।
इस फ़न में उस्ताद है।
ख़ैर, आज बचा
को अच्छा सबक़ मिल गया। '
इसके बाद रुद्रपाल के विवाह की बातचीत शुरू हुई।
राय साहब के प्राण सूखे जा रहे
थे।
मानो उन पर कोई निशाना बाँधा जा
रहा हो।
कहाँ छिप जायँ।
कैसे कहें कि रुद्रपाल पर उनका
कोई अधिकार नहीं रहा;
मगर राजा साहब को परिस्थिति का ज्ञान हो चुका था।
राय साहब को अपनी तरफ़ से कुछ न कहना
पड़ा।
जान बच गयी।
उन्होंने पूछा -- आपको इसकी क्योंकर ख़बर
हुई?
' अभी-अभी रुद्रपाल ने लड़की के नाम एक
पत्र भेजा है जो उसने मुझे दे
दिया। '
' आजकल के
लड़कों में औरर तो कोई ख़ूबी
नज़र नहीं आती, बस
स्वच्छन्दता की सनक सवार है। '
' सनक तो
है ही; मगर इसकी दवा
मेरे पास है।
मैं उस छोकरी को ऐसा ग़ायब
कर दूँ कि कहीं पता न लगेगा।
दस-पाँच दिन
में यह सनक ठंडी हो जायगी।
समझाने से कोई नतीजा
नहीं। '
राय साहब काँप उठे।
उनके मन में भी इस तरह की बात आयी
थी; लेकिन
उन्होंने उसे आकार न लेने दिया था।
संस्कार दोनों व्यक्तियों
के एक-से थे।
गुफावासी मनुष्य दोनों ही
व्यक्तियों में जीवित था।
राय साहब ने उसे ऊपर वस्त्रों
से ढँक दिया था।
राजा साहब में वह नग्न था।
अपना बड़प्पन सिद्ध करने के उस अवसर
को राय साहब छोड़ न सके।
जैसे लज्जित होकर बोले
-- लेकिन यह बीसवीं
सदी है, बारहवीं
नहीं।
रुद्रपाल के ऊपर इसकी क्या प्रतिक्रिया
होगी, मैं
नहीं कह सकता; लेकिन
मानवता की दृष्टि से ।।।
राजा साहब ने बात काटकर कहा -- आप मानवता लिये फिरते
हैं औरर यह नहीं देखते कि संसार
में आज मनुष्य की पशुता ही उसकी मानवता पर
विजय पा रही है।
नहीं,
राष्ट्रों में लड़ाइयाँ क्यों
होतीं?
पंचायतों से मामले न तय
हो जाते?
जब तक मनुष्य रहेगा, उसकी पशुता भी रहेगी।
छोटी-मोटी
बहस छिड़ गयी औरर विवाह के रूप में आकर अन्त
में वितंडा बन गयी औरर राजा साहब नाराज़
होकर चले गये।
दूसरे दिन राय साहब ने भी
नैनीताल को प्रस्थान किया।
औरर उसके एक दिन बाद रुद्रपाल ने
सरोज के साथ इंगलैंड की राह ली।
अब उनमें पिता-पुत्र का नाता न था।
प्रतिद्वन्द्वी हो गये थे।
मिस्टर तंखा अब रुद्रपाल के सलाहकार
औरर पैरोकार थे।
उन्होंने रुद्रपाल की तरफ़ से
राय साहब पर हिसाब-फ़हमी का दावा
किया।
राय साहब पर दस लाख की डिग्री हो गयी।
उन्हें डिग्री का इतना दु:ख न
हुआ जितना अपने अपमान का।
अपमान से भी बढ़कर दु:ख था जीवन की
संचित अभिलाषाओं के धूल में
मिल जाने का औरर सबसे बड़ा दु:ख था इस बात
का कि अपने बेटे ने ही दग़ा दी।
आज्ञाकारी पुत्र के पिता बनने का
गौरव बड़ी निर्दयता के साथ उनके हाथ से
छीन लिया गया था।
मगर अभी शायद उनके दु:ख का प्याला भरा न
था।
जो कुछ कसर थी, वह लड़की औरर दामाद के सम्बन्ध-विच्छेद ने पूरी कर दी।
साधारण हिन्दू बालिकाओं की तरह
मीनाक्षी भी बेज़बान थी।
बाप ने जिसके साथ ब्याह कर दिया,
उसके साथ चली गयी; लेकिन स्त्री-पुरुष में प्रेम न था।
दिग्विजयसिंह ऐयाश भी
थे, शराबी भी।
मीनाक्षी भीतर ही भीतर कुढ़ती रहती थी।
पुस्तकों औरर पत्रिकाओं
से मन बहलाया करती थी।
दिग्विजय की अवस्था तो तीस से अधिक
न थी।
पढ़ा-लिखा भी
था; मगर बड़ा मग़रूर, अपनी कुल-प्रतिष्ठा की डींग मारनेवाला, स्वभाव का निर्दयी औरर कृपण।
गाँव की नीच जाति की बहू-बेटियों पर डोरे डाला
करता था।
सोहबत भी नीचों की थी, जिनकी ख़ुशामदों ने
उसे औरर भी ख़ुशामदपसन्द बना दिया था।
मीनाक्षी ऐसे व्यक्ति का सम्मान दिल से
न कर सकती थी।
फिर पत्रों में स्त्रियों
के अधिकारों की चर्चा पढ़-पढ़कर उसकी आँखें खुलने लगी
थीं।
वह ज़नाना क्लब में आने-जाने लगी।
वहाँ कितनी ही शिक्षित ऊँचे कुल की
महिलाएँ आती थीं।
उनमें वोट औरर अधिकार औरर
स्वाधीनता औरर नारी-जागृति की ख़ूब चर्चा होती
थी, जैसे
पुरुषों के विरुद्ध कोई षडयन्त्र रचा जा
रहा हो।
अधिकतर वही देवियाँ थीं जिनकी
अपने पुरुषों से न पटती थी, जो नयी शिक्षा पाने के कारण
पुरानी मर्यादाओं को तोड़ डालना
चाहती थीं।
कई युवतियाँ भी थीं, जो डिग्रियाँ ले चुकी
थीं औरर विवाहित जीवन को आत्मसम्मान के लिए
घातक समझकर नौकरियों की तलाश में
थीं।
उन्हीं में एक मिस सुलतान
थीं, जो विलायत
से बार-ऐट-ला होकर आयी थीं औरर यहाँ
परदानशीन महिलाओं को क़ानूनी सलाह
देने का व्यवसाय करती थीं।
उन्हीं की सलाह से मीनाक्षी ने पति पर
गुज़ारे का दावा किया।
वह अब उसके घर में न रहना चाहती थी।
गुज़ारे की मीनाक्षी को ज़रूरत न थी।
मैके में वह बड़े आराम
से रह सकती थी; मगर वह
दिग्विजयसिंह के मुख में कालिख
लगाकर यहाँ से जाना चाहती थी।
दिग्विजयसिंह ने उस पर उलटा
बदचलनी का आक्षेप लगाया।
राय साहब ने इस कलह को शान्त करने की
भरसक बहुत चेष्टा की; पर मीनाक्षी अब पति की सूरत भी नहीं
देखना चाहती थी।
यद्यपि दिग्विजयसिंह का दावा ख़ारिज
हो गया औरर मीनाक्षी ने उस पर गुज़ारे की
डिग्री पायी; मगर यह
अपमान उसके जिगर में चुभता रहा।
वह अलग एक कोठी में रहती थी,
औरर समष्टिवादी आन्दोलन
में प्रमुख भाग लेती थी, पर वह जलन शान्त न होती थी।
एक दिन वह क्रोध में आकर हंटर
लिये दिग्विजयसिंह के बँगले पर
पहुँची।
शोहदे जमा थे औरर वेश्या का
नाच हो रहा था।
उसने रणचंडी की भाँति
पिशाचों की इस चंडाल चौकड़ी में
पहुँचकर तहलका मचा दिया।
हंटर खा-खाकर
लोग इधर-उधर भागने
लगे।
उसके तेज के सामने वह नीच
शोहदे क्या टिकते;
जब दिग्विजयसिंह अकेले रह गये,
तो उसने उन पर सड़ासड़
हंटर जमाने शुरू किये औरर इतना मारा कि
कुँवर साहब बेदम हो गये।
वेश्या अभी तक कोने में दबकी
खड़ी थी।
अब उसका नम्बर आया।
मीनाक्षी हंटर तानकर जमाना ही चाहती थी कि
वेश्या उसके पैरों पर गिर पड़ी औरर
रोकर बोली --
दुलहिनजी, आज आप
मेरी जान बख़्श दें।
मैं फिर कभी यहाँ न आऊँगी।
मैं निरपराध हूँ।
मीनाक्षी ने उसकी ओर घृणा से
देखकर कहा -- हाँ,
तू निरपराध है।
जानती है न,
मैं कौन हूँ!
चली जा।
अब कभी यहाँ न आना।
हम स्त्रियाँ भोग-विलास की चीज़ें हैं ही, तेरा कोई दोष नहीं!
वेश्या ने उसके चरणों पर
सिर रखकर आवेश में कहा -- परमात्मा आपको सुखी रखे।
जैसा आपका नाम सुनती थी, वैसा ही पाया।
' सुखी
रहने से तुम्हारा क्या आशय है? '
' आप जो
समझें महारानीजी! '
' नहीं,
तुम बताओ। '
वेश्या के प्राण नखों में
समा गये।
कहाँ से कहाँ आशीर्वाद
देने चली।
जान बच गयी थी,
चुपके से अपनी राह लेनी चाहिए थी, दुआ देने की सनक सवार
हुई।
अब कैसे जान बचे।
डरती-डरती
बोली -- हुज़ूर का
एक़बाल बढ़े, नाम बढ़े।
मीनाक्षी मुस्करायी -- हाँ, ठीक है।
वह आकर अपनी कार में बैठी, हाकिम-ज़िला
के बँगले पर पहुँचकर इस कांड की
सूचना दी औरर अपनी कोठी में चली आयी।
तब से स्त्री-पुरुष दोनों एक दूसरे
के ख़ून के प्यासे थे।
दिग्विजयसिंह रिवालवर लिये उसकी
ताक में फिरा करते औरर वह भी अपनी रक्षा के
लिए दो पहलवान ठाकुरों को अपने
साथ लिये रहती थी।
औरर राय साहब ने सुख का जो
स्वर्ग बनाया था, उसे
अपनी ज़िन्दगी से ही ध्वंस होते देख
रहे थे।
औरर अब संसार से निराश होकर
उनकी आत्मा अन्तर्मुखी होती जाती थी।
अब तक अभिलाषाओं से जीवन के
लिए प्रेरणा मिलती रहती थी।
उधर का रास्ता बन्द हो जाने पर उनका मन
आप ही आप भक्ति की ओर झुका, जो अभिलाषाओं से कहीं बढ़कर
सत्य था।
जिस नयी जायदाद के आसरे क़रज़ लिये
थे, वह जायदाद क़रज़ की
पुरौती किये बिना ही हाथ से निकल गयी थी
औरर वह बोझ सिर पर लदा हुआ था।
मिनिस्टरी से ज़रूर अच्छी रक़म मिलती थी;
मगर वह सारी की सारी उस मर्यादा
का पालन करने में ही उड़ जाती थी औरर राय
साहब को अपना राजसी ठाट निभाने के लिए वही
असामियों पर इज़ाफ़ा औरर बेदख़ली औरर
नज़राना करना औरर लेना पड़ता था, जिससे उन्हें घृणा थी।
वह प्रजा को कष्ट न देना चाहते
थे।
उनकी दशा पर उन्हें दया आती थी; लेकिन अपनी ज़रूरतों से
हैरान थे।
मुश्किल यह थी कि उपासना औरर भक्ति
में भी उन्हें शान्ति न मिलती थी।
वह मोह को छोड़ना चाहते
थे; पर मोह
उन्हें न छोड़ता था औरर इस खींच-तान में उन्हें
अपमान, ग्लानि औरर अशान्ति
से छुटकारा न मिलता था।
औरर जब आत्मा में शान्ति
नहीं, तो देह
कैसे स्वस्थ रहती?
निरोग रहने का सब उपाय करने पर भी
एक न एक बाधा गले पड़ी रहती थी।
रसोई में सभी तरह के पकवान
बनते थे; पर उनके
लिए वही मूँग की दाल औरर फुलके थे।
अपने औरर भाइयों को
देखते थे जो उनसे भी ज़्यादा मक़रूज,
अपमानित औरर शोकग्रस्त
थे, जिनके
भोग-विलास
में, ठाट-बाट में किसी तरह की कमी न
थी; मगर इस तरह की बेहयाई
उनके बस में न थी।
उनके मन के ऊँचे
संस्कारों का ध्वंस न हुआ था।
पर-पीड़ा, मक्कारी,
निर्लज्जता औरर अत्याचार को वह ताल्लुक़ेदारी
की शोभा औरर रोब-दाब का नाम देकर अपनी आत्मा को
सन्तुष्ट न कर सकते थे, औरर यही उनकी सबसे बड़ी हार थी।
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Recoded: 20 Sept. 1999 to 6 Oct 1999.
Chapter Thirty-one posted: 13 Oct. 1999.