यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
शिक्षा में बच्चों
के अधिकार कहाँ ?
by कुसुम जैन
(by
permission of the author)
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शिक्षाविद,
समाज शास्त्री, विचारक औरर नेता कहते आ रहे
हैं कि शिक्षा एक व्यक्ति, समाज औरर देश के विकास औरर
ख़ुशहाली का आधार है।
लेकिन आज़ादी की आधी सदी के बाद भी कई
पीढ़ियाँ शिक्षा से वंचित रही हैं।
आज तक न तो शिक्षा हर बच्चे का अधिकार
बन पाई है औरर न ही शिक्षा व्यवस्था में
बच्चों के कोई अधिकार हैं।
हर स्तर पर बच्चों औरर शिक्षा के प्रति गहरी
उदासीनता है।
क्या नेता, क्या
प्रशासक, क्या क़ानून,
क्या प्रशासन औरर क्या शिक्षा
संस्थान शिक्षा-नीतियों
को विद्यार्थियों के हित में
बनाने में असमर्थ रहे हैं ?
[5]
बच्चों को न तो
क़ानून का औरर न ही प्रशासन का संरक्षण मिल पाया
है।
बड़ों ने ख़ुद को
बच्चों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों
से मुक्त कर रखा है।
इसलिए कोई वचनबद्धता औरर कर्मबद्धता
नहीं है।
हर वर्ष लाखों बच्चे देश
भर में बोर्ड की परीक्षाओं
में फ़ेल किए जाते हैं, १॰-१२ साल स्कूल
में रहने के बाद।
इस साल दिल्ली में ही एक लाख से ज़्यादा
बच्चे फ़ेल हुए हैं।
[10]
लेकिन संसद के अंदर से
बाहर तक शासन में ऊपर से नीचे तक या
मीडिया में कोई आवाज़ नहीं उठी।
किसी बस दुर्घटना आदि पर तो कभी थोड़ी
बहुत प्रतिक्रिया हो भी जाती है लेकिन इस
दुखद वार्षिक हादसे पर राष्ट्रिय चुप्पी
बनी रहती है।
इसके कारणों की जाँच के लिए कोई
कमेटी नहीं बैठाई जाती।
किसी छात्र या उसके माता पिता को यह
अधिकार नहीं है कि वह स्कूल या प्रशासन से
पूछे कि १॰-१२ वर्षों
तक उन्हें क्यों अंधेरे में
रखा गया।
बचपन के १॰ वर्ष, जो व्यक्तित्व के विकास के लिए जीवन का
बहुत अहम समय हैं, किस निर्दयता से बर्बाद किए जाते
हैं।
[15]
क्या इस नुकसान को भरा जा सकता है ?
हमारे क़ानूनों
में इस बर्बादी को जुर्म ही नहीं
माना गया।
न ही शासन की कोई ज़िम्मेदारी या जवाबदेही
ठहराई गई।
बहुत से बच्चे बोर्ड की परीक्षा प्रणाली
की व्यवस्थागत ग़लतियों के शिकार होकर भी
फ़ेल हो जाते हैं।
छात्रों को अपने जाँचे हुए
पर्चे देखने का अधिकार दिया नहीं जाता।
[20]
वे यह नहीं जान सकते
कि उनके जवाबों की सही जाँच हुई है
या नहीं।
बोर्ड औरर प्रशासन सार्थक
शिक्षा के लिए माता पिता फ़ोरम की इस माँग को
छह साल से ठुकरा रहे हैं क्योंकि
उन्हें डर है कि पर्चे दिखाने से
उनकी कुव्यवस्था का कच्चा चिट्ठा खुल जाएगा।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति १९८६ के परीक्षा
सुधारों में साफ़ कहा गया है कि
जाँच में छात्र, शिक्षक
औरर माता पिता को शामिल करना चाहिए।
संयुक्त राष्ट्र
के नवंबर १९८९ के सम्मेलन में
घोषित बाल- अधिकारों को भारत ने ११
दिसंबर १९९२ में हस्ताक्षर कर मान्यता दी थी।
लेकिन आठ साल बाद बच्चों को
आर्टिकल २८ व २९ के तहत बुनियादी शिक्षा अधिकार
या तो हैं नहीं या काग़ज़ी हैं।
[25]
एक ओर दिल्ली सरकार अपने हर वर्ष को प्रचार
में १२वीं कक्षा तक बच्चों को
निशुल्क शिक्षा देना अपनी उपलब्धि गिनाती है।
दूसरी ओर असलियत है कि दिल्ली सरकार के
स्कूलों में प्राइमरी के शिक्षकों
की पूरी नियुक्ति न होने से स्कूल हर
महीने रुपए २॰, ३॰ या ४॰ रुपए फ़ीस
वसूल करते हैं।
किसी को भी हज़ार बारह सौ रुपए में लगा
दिया जाता है।
उनकी ट्रेनिंग या क़ाबलियत की कोई ज़रूरत
नहीं देखी समझी जाती।
क्या यह बच्चों के साथ खिलवाड़ औरर
जनता के साथ धोखा नहीं है ?
[30]
संयुक्त राष्ट्र के घोषित
बाल अधिकारों के अनुसार
स्कूलों में अनुशासन बच्चे की
मानवीय गरिमा के मूल में हो।
इस अधिकार की पूरी तरह अवहेलना हो रही
है।
आज तक शारीरिक दंड विहीन शिक्षा का
क़ानूनी हक़ भी बच्चों को नहीं मिला
है।
मानसिक यातना का तो कहीं ज़िक्र भी नहीं आता।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति १९८६ ने भी बाल
केंद्रित शिक्षा के उद्देश्य को
निर्धारित करते हुए ' शारीरिक दंड को शिक्षा व्यवस्था से
पूरी तरह से निकालने की ' घोषणा की थी।
इसको रोकने के लिए न तो क़ानून
बदले गए हैं न ही टीचर ट्रेनिंग
प्रोग्राम।
[35]
नतीजतन आज बहुत
से शिक्षक बच्चों को शारीरिक दंड
देना अपना अधिकार औरर जायज़ तरीक़ा समझते
हैं। थप्पड़, घूँसे, लातें, डंडे खाना तो
बच्चों के लिए बहुत स्कूलों
में आम बात है।
टीचर का बैठे-बैठे
डस्टर फेंकना भी कोई अनहोनी बात नहीं।
किसी की आँख फूट जाए तो क्या ?
अक्सर किसी के कान का पर्दा फट
जाता है तो किसी का सिर फूटता है,
किसी के हाथ पैर की हड्डी
टूट जाती है।
[40]
कोई बेहोश तो कोई मर भी जाता
है।
असहाय बच्चों पर हिंसा की बर्बरता का
अंत नहीं।
बच्चों को नंगा करके
घुमाने औरर मारने की घटनाएँ देश
के छोटे शहरों व गाँवों
में ही नहीं देश की राजधानी में भी
होती हैं।
सज़ा पर चर्चा चलते
समय एक स्कूल में कुछ शिक्षकों
ने शारीरिक दंड का समर्थन यह कहकर किया कि
पुलिस भी तो मुजरिमों को पीटती
है।
मुजरिमों के भी मानव अधिकार
हैं लेकिन बच्चों के नहीं।
असहाय बच्चों को चुपचाप शिक्षा
के नाम पर शारीरिक व मानसिक यातना सहनी पड़ती है।
[45]
उनके मन में भरा जाता है कि शिक्षा
के लिए यह सब सहना नितांत ज़रूरी है।
सज़ा पर चर्चा चलते
समय एक स्कूल में कुछ शिक्षकों ने
शारीरिक दंड का समर्थन यह कहकर किया कि पुलिस भी
तो मुजरिमों को पीटती है।
मुजरिमों के भी मानव अधिकार
हैं लेकिन बच्चों के नहीं।
असहाय बच्चों को चुपचाप शिक्षा के
नाम पर शारीरिक व मानसिक यातना सहनी पड़ती है।
उनके मन में भरा जाता है कि शिक्षा के
लिए यह सब सहना नितांत ज़रूरी है।
[50]
इस अंधेरे
में एक किरण मिली जब दिल्ली हाई कोर्ट ने
सार्थक शिक्षा के लिये माता पिता फ़ोरम की
याचिका पर दिस॰ २ २॰॰॰ को ऐतिहासिक फ़ैसले
में स्कूलों में शारीरिक दंड
को ग़ैरक़ानूनी ही नहीं बल्कि
असंवैधानिक भी घोषित कर दिया।
इस फ़ैसले का असर तो देश भर में
होना चाहिये।
लेकिन अभी तो देखना है कि दिल्ली सरकार
इसे कितनी ईमानदारी औरर तत्परता से लागू
करती है।
पिछले ३ सालों से तो कोर्ट
में सज़ा का पक्ष लेती आ रही है औरर
बैन का विरोध।
कोठारी आयोग ने
२१॰ शिक्षण दिन निर्धारित किए थे औरर पाठ्यक्रम
२१॰ दिन के आधार पर ही बनता आ रहा है।
[55]
लेकिन १९९३ की राष्ट्रीय रिपोर्ट ने
असलियत बतायी कि सिफऱ् १२॰-१५॰ शिक्षक
दिन ही स्कूलों में मिल पाते
हैं।
या तो शिक्षक पूरा पढ़ा नहीं पाते या फिर
जल्दी-जल्दी पढ़ा देते हैं।
इस सच्चाई की जानकारी होते हुए भी सरकार
ख़ुद बच्चों की शिक्षा की ज़रूरतों की
उपेक्षा करते हुए शिक्षकों को
दूसरे सरकारी कामों पर मनमने ढंग
से लगाने का क्रम जारी रखती है क्योंकि
शासन की नज़र में शिक्षक सरकारी नौकर पहले
हैं औरर टीचर बाद में।
बच्चों का अपने शिक्षक पर
कोई अधिकार नहीं।
देश में चुनावों की क़ीमत
सरकारी स्कूल चुका रहे हैं
क्योंकि सरकारी में लगा दिए जाते
हैं।
[60]
छुट्टियाँ भी
अनाप-शनाप घोषित कर दी जाती
हैं।
आख़िर में पाठ्यक्रम ख़त्म करने का ज़िम्मा
बच्चों औरर उनके माता पिता पर डाल दिया
जाता है।
आज पहली कक्षा से ही गाइडें इस्तेमाल की
जा रही हैं औरर ट्यूशनें
लेनी पड़ रही हैं।
गाइडों औरर ट्यूशनों का
धंधा दिन-दूना रात-चौगुना बढ़ रहा है।
' रिमिडियल
टीचिंग ' के नियम
के प्रावधान का तो किसी को पता ही नहीं।
[65]
जब पढ़ाई ही नहीं हो पाती तो रिमिडियल की
सुविधा कहाँ ?
ऐसी हालत में परीक्षा की
धुरी पर घूमती शिक्षा में बच्चे नक़ल
नहीं करेंगे तो क्या
करेंगे ?
शिक्षक भी तो अपना बेहतर नतीजा
दिखाने के लिए बच्चों को प्राइमरी से
ही नक़ल करवाते हैं।
बोर्ड के छात्र-विरोधी नियमों के अनुसार
नक़ल करने पर छात्र को तो हमेशा के लिए
जुर्मी घोषित किया जाता है लेकिन नक़ल
करवाने वाले शिक्षकों को नहीं,
प्रशासन को ग़ैर ज़िम्मेदारी
के लिए नहीं।
नक़ल करना क़ानूनी अपराध तो बड़ी आसानी से
क़रार कर दिया जाता है लेकिन इस शिक्षा की समस्या के
रूप में जानने समझने की कोई कोशिश
नहीं की जाती।
[70]
बच्चों को तो
खेलने-कूदने
हँसने-गाने के भी
अधिकार नहीं हैं।
जिज्ञासा से भरे बच्चों को सवाल
पूछने का भी हक़ नहीं है।
ऐसे सभी स्वाभाविक गुणों को
पनपने से पहले ही ख़त्म कर दिया जाता है।
क्योंकि डरे सहमे वतावरण
में इनकी कोई जगह नहीं है। क्या यही
मानव संसाधन विकास है ?
जो बच्चे स्कूलों
में दाख़िला लेते हैं उनमें
से ७५ फ़ीसदी बच्चे स्कूलों से भगा दिए
जाते हैं, आठवीं-नौवीं
कक्षा तक।
[75]
औरर जो बचते हैं उनमें
से सिफऱ् छह बच्चे बारहवीं पास कर पाते
हैं।
बच्चों की सफलता का श्रेय स्कूल,
शिक्षक व प्रशासन ख़ुद लेते
हैं औरर असफलता बच्चों औरर उनके
माता पिता पर थोप दी जाती है।
शिक्षा औरर बच्चे,
दोनों को ही
राष्ट्रीय व राज्य चुनाव प्रक्रिया में
प्राथमिकता नहीं दी जाती है औरर न ही देश की
विकास नीतियों में।
उधर शिक्षा की भ्रष्ट व्यवस्थाओं से जिन
को फ़ायदा हो रहा है, उनकी भरपूर कोशिश रहती है कि यह न
बदले।
आज़ादी के ५२ वें वर्ष में भी
बच्चों को मातृभाषा में पढ़ने
का अधिकार नहीं मिल पाया है।
[80]
जहाँ है भी, वहाँ
सुविधाएँ नहीं हैं।
बच्चों को सभी
विषयों में सभी किताबें हिन्दी
में नहीं मिलतीं।
जबकि अँगरेज़ी माध्यम से
पढ़नेवालों को ज़्यादा पढ़ने की
सुविधा दी जाती है।
भेदभाव की नीति का आलम यहाँ तक है कि
बोर्ड की परीक्षा में भी हिन्दी में
लिखे जवाबों की जाँच अँगरेज़ी
के जवाबों से की जाती है।
हिन्दी माध्यम से पढ़नेवाले बच्चे
बोर्ड की परीक्षा में सबसे ज़्यादा फ़ेल
किये जाते हैं।
[85]
भाषा का यह भेदभाव ( वह
भी राष्ट्र-भाषा
का ) जनता की ' अपनी ' सरकार आज़ाद
देश में कर रही है।
कोई विदेशी हुकूमत नहीं।
बुनियादी अधिकारों से वंचित
ये बच्चे जब देश के नागरिक
बनेंगे तब वो कैसे समान अधिकार
नीतियों औरर क़ानून की क़द्र
समझेंगे ?
यह जंगल राज क्या चलता
रहेगा ?
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Posted 15 May 2001. Augmented 18 May 2001. Quintilineated 15 Feb 2002.