यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन

रबर बैंड,  a short story by  अन्विता अब्बी
from  मुट्ठी-भर पहचान,  दिल्ली: राधाकृष्ण प्रकाशन
(with author's permission)

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        उसका बिस्तर से उठने का मन नहीं कर रहा था।  करवट लेने पर उसे लगा कि बिस्तर बेहद ठंडा है।  उसने आँखों पर हाथ रखा,  उसे वे भी ठंडी लगीं --- पलकें उसे भीगी लग रही थीं।  तो क्या वह रो रही थी ?  नहीं,  वह क्यों रोएगी ?  [5]  औरर उसने फिर अपनी पलकों को छुआ।  उसने पलकें झपकाईं।  उसे बहुत खिंचाव का अनुभव हो रहा था।  वह चाहकर भी पूरी तरह आँख नहीं खोल पा रही थी मानो किसी ने ज़बरदस्ती उसकी पलकें पकड़ ली हों।  उसे लगा उसे बाथरूम में जाकर  'वॉश'  कर लेना चाहिए।  [10]  पर वह नहीं चाह रही थी कि दिन इतनी जल्दी शुरू हो जाय।  रात कैसे इतनी जल्दी ख़त्म हो गई ?  उसे लग रहा था कि यह पहाड़-सा दिन उससे काटे नहीं कटेगा
        उसकी पीठ के नीचे कुछ चुभ रहा था।  हाथ डालकर देखा उसकी चोटी का  'रबर बैण्ड'  था।  [15]  उसने अपनी चोटी आगे की ओर कर ली औरर तभी उसे ख़याल आया कि वह सारी रात अजीबो-ग़रीब सपने देखती रही है।  --  किसी ने उसके बाल काट दिए हैं -- उसको सपने वाली अपनी शक्ल याद आ रही थी -- उफ़ कितनी घृणित लग रही थी वह !  उसने याद करने की कोशिश की,  वह बाल काटने वाला कौन था ?  उसकी शक्ल बहुत-कुछ भाई से मिलती-जुलती थी।  उस भाई जैसी शक्ल वाले ने उसके बाल काटकर उसे खम्भे से बाँध दिया था।  [20]  औरर उसे सैमसन याद आ रहा था।  उसकी हालत ठीक सैमसन की तरह हो रही थी -- वह चीखती जा रही थी औरर ज़ोर-ज़ोर से खम्भे को हिलाने की कोशिश कर रही थी।  उसने आँखें बन्द कर लीं।  उसके सामने सपने वाला दृश्य ज्यों-का-त्यों आ गया था।  उसे लग रहा था कि उसमें सैमसन वाली शक्ति क्यों नहीं आ गई थी -- काश वह खम्भे को गिरा सकती !  [25]  औरर तभी उसे लगा कि वह बेकार की बातें सोच रही है।  सपना केवल सपना होता है -- किसी सपने का कोई अर्थ नहीं होता औरर यदि होता भी है तो कम-से-कम आज के दिन उसे कुछ नहीं समझना है।
        उसने जीभ अपने गालों पर फिराई।  उसे महसूस हो रहा था कि उसके मुँह से दुर्गन्ध आ रही है।  उसे लगा कि उसे ब्रश कर ही लेना चाहिए।  [30]  वह झटके से उठकर बिस्तर पर बैठ गई औरर अपने पैर नीचे लटका दिए।  ठंडी-ठंडी ज़मीन का स्पर्श पा उसके सारे शरीर में झुनझुनी-सी पैदा हो गई।  पर उसको वह ताज़ा ठंडा-ठंडा स्पर्श भला लग रहा था।  वह कल रात की बात सोच रही थी--- औरर उसे भाई की बात याद हो आई।  माँ की चिन्तित मुख-मुद्रा--- पिता का बूढ़ा खाँसता चेहरा--- उसे लगा कि अब घर की हरेक चीज़ ठण्डी हो गई है औरर जो नहीं भी हुई है वह भी जल्दी ही हो जाएगी।  [35]
        उसने ध्यान से सुनने की कोशिश की।  रसोईघर से बरतनों को रखने की आवाज़ आ रही थी।  माँ ज़रूर ग़ुस्सा होंगी।  माँ सारी रात-भर कैसे सो पाई होंगी उसे समझ नहीं आ रहा था।  वह रात को पानी पीने उठी थी तो साथ वाले कमरे से पिता की खाँसी की आवाज़ आ रही थी औरर बीच-बीच में पता नहीं माँ क्या बोल रही थीं जो वह नहीं सुन पाई थी औरर न सुनने की कोशिश ही की थी।  [40]  उसे बेहद प्यास लग रही थी औरर वह मटके में से दो गिलास पानी निकालकर गटागट पी गई थी।  उसने सोने से पहले मीनू की तरफ़ देखा था जो बेख़बर उसकी साथ वाली चारपाई पर सो रही थी।  औरर उसे फिर भाई का ख़याल हो आया था औरर इससे पहले कि वह भाई के निश्चय की बात याद करती उसने आँखें बन्द कर ली थीं।  वह केवल सो जाना चाहती थी--- वह भूल जाना चाहती थी कि भाई कल रात के प्लेन से कनाडा जा रहे हैं औरर उन्होंने माँ से स्पष्ट कह दिया है कि वे आर्थिक तौर पर अब कुछ भी सहायता नहीं कर पाएँगे।  भाई ने ऐसा निश्चय क्यों कर लिया,  उसे समझ नहीं आ रहा था।  [45]  उसने सोचा था कि वह भाई से इसका कारण पूछेगी,  पर भाभी की मुद्रा देखकर उसकी हिम्मत जवाब दे गई थी औरर वह बिना कुछ कहे सो गई थी।
    अब साथ वाले कमरे से खाँसी की आवाज़ तेज़ हो गई थी।  वह बिस्तर पर से उठी औरर बाथरूम में घुस गई।  आँखों पर उसने ढेर सारी ठंडे पानी की छींटें मारीं।  उसे लग रहा था कि अब आँखों का खिंचाव कुछ कम हो गया है।  [50]  बाहर बरामदे में भाई की ज़ोर-ज़ोर से ब्रश करने की आवाज़ आ रही थी।  ' यह आवाज़ कल नहीं आएगी। '  उसने सोचने की कोशिश की।  बिना भाई,  भाभी औरर बेटू के घर कैसा लगेगा ?  केवल माँ,  वह,  मीनू औरर रिटायर्ड पिता की खाँसी रह जाएगी।  [55]  उसने अब ब्रश करना शुरू कर दिया था।
 
   "नीतू !!" माँ रसोईघर से पुकार रही थीं।
 
   "हूँ !!" उसका मुँह पेस्ट के झाग से भरा हुआ था।
 
   "नीतू !!" औरर उसे ग़ुस्सा आ रहा था।  माँ इतनी जल्दी बेताब क्यों हो जाती हैं ?  [60]  उसने जल्दी-जल्दी दाँतों पर ब्रश घिसा औरर कुल्ला कर रसोईघर में पहुँच गई।
 
   "क्या है ?"   उसकी आवाज़ कठोर हो गई थी औरर उसने दूसरे ही क्षण सोचा कि इस तरह से बोलने के कारण उसे अब डाँट पड़ेगी।  पर माँ उसी तरह आलू छीलती रहीं।
 
   "चाय बना दे। "  [65]
 
   उसने स्टोव में पम्प भरना शुरू कर दिया।  उसने माँ के चेहरे की तरफ़ देखा।  माँ किसी गहरे सोच में थीं।  उसे लगा कि कल रात से माँ अब अधिक बुड्ढी लगने लगी हैं।  उसने ध्यान से देखा,  उसे लगा ठोड़ी के पास माँ की झुर्रियाँ बढ़ गई हैं।  [70]  माँ का पल्ला कन्धे पर गिर गया था औरर उनके अध-खिचड़ी बाल इस तरह से बिखर आए थे कि वह अपनी उम्र से क़रीब दस-पन्द्रह वर्ष बड़ी लग रही थीं।  वह पम्प भरती चली जा रही थी औरर माँ के काँपते हुए हाथों से आलू छीलना देखती जा रही थी।
 
    " मरेगी क्या ?"  माँ लगभग चीख पड़ी थीं।
 
    औरर उसे ध्यान आया कि वह माँ की मुद्रा देखने में इतनी व्यस्त थी कि बेतहाशा पम्प भरे जा रही थी [75]  क्या अच्छा होता यदि यह स्टोव फट पड़ता !  ख़त्म हो जाय यह झंझटयह उदासीआतंक औरर अनिश्चय की स्थिति।  उसे ध्यान आया कि यदि स्टोव फट पड़ता तो वही नहीं माँ भी आग की लपेट में आ जातीं।  " अच्छा ही होता। "  उससे माँ का दु:देखा नहीं जाता [80]  उसने स्टोव पर पानी चढ़ा दिया था।  वह अब प्याले लगा रही थी।
 
   "माँ,  तुम कुछ सोच रही हो। "
 
   "नहीं तो। "
 
   "तुम कहो तो मैं---  "  [85]  औरर वह आगे नहीं बोल सकीयह सोचकर कि माँ को धक्का लगेगा।
 
   "तू क्या ?"
 
   जवाब में वह चुप रही।
 
   "बोलतू क्या ?"  माँ अधीर हो रही थीं।  [90]  उसे लगा कि यदि वह जवाब नहीं देगी तो शायद माँ रो पड़ें।
 
   "मैं सोच रही थी कि बलजीत कौर से कहकर देखूँ,  मुझे अपने स्कूल में जगह दे सकती है। "  वह डरते-डरते बोल ही पड़ी।
 
   "क्या ?"  माँ को जैसे विश्वास नहीं हो रहा था।  [95]
 
   "इसमें हर्ज़ ही क्या है ?"
 
   "मैं तेरी रोटियाँ खाऊँगी ?"
 
   "माँ,  तुम समझने की कोशिश करो। "  उसे लग रहा था कि वह माँ से सात-आठ साल बड़ी हो गई है।  माँ की आँखें गीली हो गई थीं।  [100]  उसे बुरा लग रहा था कि उसने ऐसा क्यों कहा।  कल से उसे माँ पर बहुत दया आ रही थी।
 
   "मैं मर जाऊँ तब जो जी में आए करना। "  उसका मन हुआ कि वह माँ को झकझोरकर रख दे।  पर वह स्टोव की नीली-हरी लौ की ओर एकटक देखती रही।  [105]  उसने फिर माँ की ओर देखा।  उनके चेहरे पर आतंक औरर पीड़ा नाच रही थी।  उसका मन कर रहा था कि दूसरे कमरे में जाकर भाई से खूब ज़ोर-ज़ोर से लड़े----ठीक वैसे ही जैसे सात साल पहले यह अपनी मिठाई के हिस्से के लिए लड़ती थी।
 
   "चाय बन गई ?"  भाई तौलिए से रगड़-रगड़कर मुँह पोंछ रहे थे।  [110]
 
   दोनों में से किसी ने जवाब नहीं दिया।  वह सोच रही थी कि माँ जवाब दे देंगी,  पर माँ केवल आटा गूँधती रहीं।
 
   "कितनी देर है ?"
 
   उसे लगा अब उसे बोलना ही पड़ेगा।  " बस अभी लाई। "  [115]
 
   "ज़रा जल्दी कर। "  औरर भाई बैठक में चले गए थे।
 
   उसने केतली में पत्ती डाली औरर चाय बनाई।
 
   "आलू के पराठे बना रही हो?"  माँ आलू मीस रही थीं।  [120]
 
   "हाँला थोड़ी-सी कुरैरी भी भून दूँ। "  उसे मालूम था कि भाई को नाश्ते में आलू के पराठे बेहद पसन्द हैं।  उसने चाय की ट्रे ले जाकर सेंटर-टेबिल पर रख दी।
 
   "नीतूज़रा बिस्कुट का डिब्बा ले आ मेरी अलमारी से;  चाय मैं बना देती हूँ। "  भाभी सोफ़े पर से उठती हुई बोलीं।  [125]  वह भाभी के कमरे में चली गई।  उसने चारों ओर नज़र घुमाई।  कमरा कितना ख़ाली-ख़ाली लग रहा था।  भाई का सारा सामान पैक हो गया था।  उसने अलमारी खोली।  [130]  पूरी अलमारी में केवल एक बिस्कुट के डिब्बे औरर सिलाई की मशीन के सिवाय कुछ न था।
 
   "यह लो। "  वह डिब्बा थमाते हुए बोली।  भाभी ने चाय बना दी थी।
 
   उसने एक सिप लिया।  [135]
 
   "चाय बहुत स्ट्रांग है। "  भाभी के माथे पर दो-तीन रेखाएँ खिंच गई थीं।  सुबह-सुबह अपनी बुराई सुनना उसे भला नहीं लगा औरर बिना कुछ कहे वह अन्दर चली गई।  रसाईघर से घी की महक आ रही थी।  माँ ने चार-पाँच पराठे सेंक लिए थे।  [140]
 
   "मुझे बुलाया क्यों नहीं ?"  उसे समझ नहीं आ रहा था कि इतने सारे पराठे सेंकने के बावजूद भी न माँ ने उसे आवाज़ ही दी थी औरर न ख़ुद ही लेकर आई।  उसकी नज़र फिर माँ के चेहरे पर टिक गई।
 
   
"पिताजी को चाय पहुँचा दी है ?"  माँ अनसुना करती हुई बोलीं।  [145]
 
   "ओह,  मैं भूल ही गई। "  औरर वह बिना पराठे लिये ही बैठक की ओर भाग गई।
 
   कमरे में उसकी उपस्थिति का भान होने के बावज़ूद भी पिता ने सिर ऊपर नहीं उठाया था।
 
   
"चाय पी लो। "  उसने प्याला तिपाई पर रखते हुए कहा।  [150]
 
   "ऊँ ?"  पिता कुछ इस तरह से चौंके मानो लम्बी नींद से जागे हों।
 
   "अभी पी लो,  नहीं तो ठंडी हो जाएगी। "  औरर उसने ग़ौर किया कि पिता ने अख़बार को तह करके इस तरह से रख दिया था मानो सारीं ख़बरें पढ़ चुके हों।  उसे विश्वास हो गया था कि जब वह कमरे में घुसी थीं तो उनकी झुकी हुई आँखें अख़बार नहीं पढ़ रही थीं बल्कि कुछ सोच रही थीं।  [155]  उसका मन कह रहा था कि जो बात उसने माँ से कही है वही बात पिता से भी कहकर देखेपर उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी।
 
   " प्लेन कितने बजे है ?"  वे प्याला प्लेट पर रखते हुए बोले।
 
  " शाम के सात बजे। "  उसे समझ नहीं आ रहा था कि ये पहाड़-से दस घंटे कैसे कटेंगे।  [160]
 
   " तू भी हवाई अड्डे जा रही है ?"  पिता कुछ इस ढंग से पूछ रहे थे मानो कह रहे हों तू भी कनाडा जा रही है।
 
   " पता नहीं,  भाई से पूछूँगी। "  उसने देखा कि चाय का बाक़ी आधा प्याला पिता ने एक घूँट में ख़ाली कर दिया है। 
 
  " औरर लाऊँ ?"  [165]  उसे लगा उसने यह सवाल बेकार किया है क्योंकि वे हमेशा दो कप चाय पीते हैं।
 
  " नहीं,  इच्छा नहीं है। "
 
  " क्यों ?"
 
   औरर जवाब में पिता की खासी का सिलसिला फिर शुरू हो गया।  उसने प्याला उठाया औरर चौके के नल के नीचे रख दिया।  [170]
 
  " बुआजी,  ममी कह रही हैं इसमें बटन टाँक दो। "  बेटू अपनी बुश्शर्ट लेकर खड़ा हुआ था।  उसने बेटू के हाथ से बुश्शर्ट ले ली।  बटन टाँकते हुए उसने ग़ौर किया बेटू ध्यान से उसकी सुई का चलाना देख रहा था।  न जाने क्यों सहसा उसने बेटू को पास खींचकर प्यार कर लिया।  [175]
 
 " बेटू,  तू कब आएगा ?"
 
   " चार साल बाद। "  उसने अपनी पाँचों उँगलियाँ हवा में नचा दीं।  औरर उसे ख़याल आया कि भाई ने कहा था, " बेटू बड़ा हो रहा है -- मुझे उसका भी तो हिसाब देखना है।  मैं पैसे भेजने के बारे में कुछ नहीं कह सकता। "  [180]
 
    " पर . . . "  औरर पिता न जाने क्या सोचकर चुप हो गए थे।
 
उसने एक बार फिर बेटू की तरफ़ देखा।  उसे लगा कि सारे झगड़े की जड़ वही है।  पर फिर भी वह उसे दोषी नहीं करा पा रही थी।
 
   उसने बाहर बरामद में देखा।
 [185]  मनीप्लांट की बेल के ऊपरी भाग पर धूप पड़ रही थी।  तो क्या अभी दस ही बजे हैं ?  मनीप्लांट की वह बेल उसकी घड़ी का काम देती थी।  बरामदे में बैठकर पढ़ने से उसे अन्दाज़ा हो गया था कि जब धूप ऊपर वाले हिस्से पर पड़ती है तब दस बजता है औरर जब बीच में पड़ती है तब एक औरर जब नीचे होती है तब तीन या चार का समय होता है।  उसे लग रहा था कि धूप बहुत धीरे-धीरे खिसक रही है।  [190]  उसका मन कर रहा था कि किसी तरह से सूरज के गोले को पश्चिम की ओर घुमा दे ताकि यह दिन जल्दी ख़त्म हो।  वह माँ को नार्मल देखना चाहती थी औरर ख़ुद नार्मल हो जाना चाहती थी।  भाई के जाने के बाद क्या होगा '  वाली स्थिति जितनी जल्दी आ जाए उतना ही अच्छा है।  कम-से-कम इस अनिश्चय की स्थिति से तो छुटकारा मिलेगा।
 
   वह बरामद में चली आई।  [195]  उसकी नज़र एक बार फिर मनीप्लांट के पत्तों पर गई।  पत्तों पर धूल जम रही थी।  उसने हाथ से एक बड़े पत्ते पर लकीर बनाई।  छि: कितने गन्दे हो रहे हैं !  औरर वह पानी लेने चली गई।  [200]  उसने ढेर सारा पानी गमले में डाल दिया।  वह अब ऊपर के पत्तों को धो रही थी।  वह पत्तों पर इस तेज़ी से पानी डाल रही थी माने पत्तों को धो नहीं रही हो बल्कि उस धूप को नीचे खिसकाने की कोशिश कर रही हो जो ऊपर वाले पत्तों पर नाच रही थी।
 
 
" स्नेह है ?"
 
   उसने पीछे मुड़कर देखा।  [205]  भाभी की कोई सहेली पूछ रही थी।  उसने अपने हाथ का लोटा नीचे रख दिया।  पानी डालते-डालते उसकी सलवार के पायँचे बेहद गीले हो गए थे।  उसे बड़ी शर्म आ रही थी -- ' क्या सोच रहा होगा वह आदमी जो उसके संग खड़ा है ?'
 
   " हाँ,  अन्दर आइए। "  [210]  उसने पर्दा एक तरफ़ हटाते हुए कहा,  औरर ख़ुद सरककर एक कोने में खड़ी हो गई।
 
  " बैठिए। "  उसने पंखा चला दिया था।
 
  " मैं अभी बुलाकर लाती हूँ। "  औरर वह फ़र्श पर अपने गीले पैरों के निशान छोड़ती अन्दर चली गई।  [215]
 
  " भाभीतुमसे मिलने कोई आया है। "  भाभी नहाने की तैयारी कर रही थीं।
 
  " कौन है ?"
 
   " मालूम नहींशायद कोई सहेली है। "
 
   " औरर भी कोई है साथ में ?"  [220]
 
   " हाँ,  शायद उसका हस्बैंड है। "  वह मन-ही-मन सोच रही थी कि वह लम्बा-तगड़ा व्यकित उसका भाई तो हो नहीं सकता -- ज़रूर उसका पति ही होगा।
 
   भाभी ने शीशे में एक बार चेहरा देखा औरर बालों पर हाथ फेरती हुई अन्दर चली गई।  उसे याद आया कि लोटा औरर बाल्टी तो वह बाहर बरामदे में ही छोड़ आई है।  उसे अपने गीले कपड़ों की हालत में फिर से बैठक में जाना अच्छा नहीं लग रहा था,  पर यह सोचकर कि बाहर चीज़ें नहीं छोड़नी चाहिए,  वह बैठक की ओर मुड़ी।  [225]
 
   "तू सच बहुत लकी है। "  वह स्त्री शायद भाभी से कह रही थी।  उसने देखा उसके पति को शायद यह वाक्य पसन्द नहीं आया था,  क्योंकि उसकी मुद्रा कुछ कठोर हो गई थी औरर बजाय अपनी पत्नी की बात में हाँ-में-हाँ मिलाने के सामने रैक पर रखी किताबों के नाम पढ़ने की कोशिश कर रहा था।
 
   ' बेचारा '  उसके होंठ बुदबुदाए औरर दूसरे ही क्षण उसको हँसी आ गई।  उसने ग़ौर किया वह उसी की ओर देख रहा था औरर शायद उसने उसकी हँसी भी देख ली थी।  [230]  वह एकदम झेंप गई औरर जल्दी से बाल्टी लेकर अन्दर चली गई।
 
   माँ फिर से चाय बना रही थीं।  उसे ख़याल आया कि आज तो सारे दिन मेहमान आते रहेंगे।  औरर फिर से उसके कानों में गूँज गया
,  " तू बहुत लकी है। "  [235]
 
    " हुँह,  लकी है। "  वह धीरे से बुदबुदायी।
 
   " क्या "?  माँ को लगा कि उसने कुछ कहा।
 
   " कुछ नहीं। "  [240]  उसका मन कर रहा था कि कोई माँ से आकर कहे कि सच तू बड़ी लकी है।
 
   " मीनू के इम्तहान की फ़ीस कब जाएगी ?"  माँ के दिमाग़ में अभी भी भाई का वाक्य घूम रहा था।
 
   " अगले महीने के अन्तिम सप्ताह में। "  उसे लगा माँ ने एक लम्बी साँस लीक्योंकि अभी डेढ़ महीना था।  [245]  वह साफ़ देख पा रही थी कि माँ के चेहरे का तनाव कुछ कम हो गया था।
 
   
" माँ,  तुम फ़क्रि क्यों कर रही हो ?"  उसे इस तरह से बोलना बड़ा अजीब लग रहा था।  शायद माँ को भी,  क्योंकि उनकी नज़रें केतली से उठकर उसके चेहरे पर टिक गई थीं।
 
   " नहीं,  मैं क्यों फ़क्रि करूँगी ?"  [250]  माँ व्यर्थ ही सफ़ाई दे रही थीं।  औरर उसका एक बार फिर मन किया कि भाई को झकझोर कर रख दे।
 
   बाहर टैक्सी आ गई थी।  सारा सामान रखा जा चुका था।  पिता की खाँसी बढ़ गई थी शायद उत्तेजना के कारण
 !  [255]  भाभी औरर बेटू पहले से ही टैक्सी में बैठ चुके थे।  भाई ने अपने हाथ का ब्रीफ़केस रखकर माँ के पैर छुए।  भाई का इस तरह से नीचे झुककर माँ के पैर छूना उसे बड़ा अटपटा औरर अजीब लग रहा था,  क्योंकि उसने आज तक भाई को माँ के पैर छूते नहीं देखा था।  उसको लगता था जैसे यह काम केवल घर की बहुओं का ही हो।
 
   " किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो तो लिखना। "  [260]  भाई ने ब्रीफ़केस हाथ में ले लिया था।  उसका मन कर रहा था कि ज़ोर से बोले,  " किसी भी चींज़ की ज़रूरत नहीं होगी। "  पर इससे पहले कि वह अपने होंठ खोलती,  भाई उसके गाल थपथपा रहे थे -- "नीतूचिट्ठी लिखेगी न !"  उसने भाई की तरफ़ देखा तो उसे लगा कि भाई ने वह बात मुँह से नहीं दिल से कही है।  उसका धैर्य जवाब दे रहा था।  [265]  उसे लगा यह घड़ी इतनी जल्दी कैसे आ गई।  वह यह भूल चुकी थी कि सुबह से वह चाह रही थी कि वक्त जल्दी-जल्दी कटे।
 
   ड्राइवर ने ऐक्सिलरेटर दबा दिया था औरर एक झटके से टैक्सी ने स्पीड पकड़ ली थी।  भाई सड़क के नुक्कड़ तक हाथ हिलाते रहे थे।  टैक्सी के ओझल हो जाने के बाद न जाने क्यों उसे लगा कि वह बहुत हल्की हो आई है।  [270]  उसने पीछे मुड़कर देखा माँ रो रही थीं औरर उनके आँसू थम नहीं रहे थे।  वह माँ को सहारा देकर अन्दर ले गई।  उसे समझ नहीं आ रहा था कि माँ किसलिए रो रही हैं -- इसलिए कि भाई चले गए हैं या फिर इसलिए कि -- औरर एक बार फिर उसके कान में भाई का वाक्य गूँज गया।
 
   एक रात में माँ कितनी बदल गई हैं !  रात खाना भी नहीं खाया।  उसे तो बड़ी तेज़ भूख लग रही थी,  पर घर में जब किसी ने नहीं खाया तो उसने भी नहीं खाया।  [275]  वह पलँग पर अधलेटी ऊपर पंखे को एकटक देख रही थी।  घूं -- घूं -- घूं -- पंखा पूरी रफ़्तार से चल रहा था,  पर फिर भी उसका पसीना नहीं सूख रहा था।   घूं -- घूं -- घूं -- भाई अब भी प्लेन में ही हांेगे। '   उसने ग़ौर किया था कि माँ आज जल्दी ही उठ गई थीं औरर धीरे-धीरे सारे काम निपटा रही थीं -- एक मशीन की तरह जिसके सारे पुर्ज़े घिस चुके हों।  पिताजी कल रात बहुत देर तक खाँसते रहे थे औरर भाई के ख़ाली कमरे में सोते हुए उसे खाँसी में  ' अकेलापनकी आवाज़ सुनाई पड़ रही थी।  उसे कमरा बहुत ज़्यादा बड़ा औरर ख़ाली नज़र आ रहा थापर उसे अभी तक माँ औरर पिताजी की तरह  ' अकेलापन '  नहीं लग रहा था।  [280]  पहले सोचती थी तो उसे लगता था कि भाई के चले जाने पर वह अकेली पड़ जाएगीउसे भाई की अनुपस्थिति खलेगी।  पर अब ऐसा कुछ नहीं हो रहा था।  उसका इस तरह इतनी दूर चले जाना औरर महज़ आठ घंटों के लिए आफ़सि जाने में,  उसे न जाने क्यों,  कोई भेद नज़र नहीं आ रहा था।  उसे ख़ुशी हो रही थी कि मीनू भी रोज़ की तरह स्कूल चली गई थी।
 
   माँ अलमारी से कुछ निकालने आई थीं।
 [285]  उसने देखा माँ के चेहरे के भाव वे नहीं थे जो कल तक थे।  वे कुछ सन्तुष्ट नज़र आ रही थीं।  उसका मन हुआ कि पूछे -- ' किससे सन्तुष्ट होइस स्थिति से या मुझसे ?'  उसकी नज़र फिर माँ के चेहरे से हटकर ऊपर चलते पंखे के बीच बने स्टील के तवे पर पड़ती अपनी परछाईं पर चली गई।  वह उसमें कितनी छोटी लग रही थी !  [290]  उसने दायाँ हाथ ज़ोर से हिलाया,  ऊपर की परछाईं ने भी ठीक ऐसा ही किया।  माँ शायद उसकी यह हरकत ग़ौर कर रही थीं,  बोलीं -- " क्या सुबह से अलसा रही है ?  ग्यारह बज रहा है।  अभी तक नहाई - धोई भी नहीं। "
 
   "जल्दी क्या है,  अभी . . . "  [295]
 
   "न सही जल्दी,  पर तू कह रही थी कि बलजीत कौर से बात करेगी,  तो फिर वहाँ कब जा रही है ?"
 
   उसे लगा पूरी रफ़्तार से चलता पंखा उसके ऊपर गिर पड़ा है।  घूं -- घूं -- घूं -- उसके कानों में घुसी जा रही थी।  वह कभी नहीं सोच पाई थी कि माँ ख़ुद उससे ऐसी बात कर सकती हैं।  इतना बड़ा निणर््ाय माँ ने कब औरर कैसे ले लिया।  [300]
To
index of post-Independence literature.
To index of  मल्हार.
Keyed in by  विवेक अगरवाल January and February 2002. Posted 31 Jan through 12 Feb 2002. Proofed and corrected 11 - 15 Feb 2002. Quintilineation 13 Feb 2002.