यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
उसने कहा था
by सी॰ एस॰ गुलेरी
बड़े- बड़े शहरों के
इक्के- गाड़ी
वालों की ज़बान के कोड़ों से
जिनकी पीठ छिल गई है औरर कान पक गए हैं
उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के
बम्बूकार्ट वालों की बोली का मरहम
लगावें।
जबकि बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों
पर घोड़े की पीठ को चाबुक से
धुनते हुए इक्के वाले कभी घोड़े की
नानी से अपना निकट यौन संबन्ध स्थिर करते
हैं, कभी उसके
गुप्त गुह्य अंगों से
डाक्टरों को लजाने वाला परिचय दिखाते
हैं, कभी राह
चलते पैदलों की आंखों के
न होने पर तरस खाते
हैं, कभी
उनके पैरों की अंगुलियों
के पोरों को चींथकर अपने ही
को सताया हुआ बताते हैं औरर
संसार भर की ग्लानि, निराशा औरर क्षोभ के अवतार बने
नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी
वाले, तंग, चक्करदार
गलियों में, हर एक लड्ढी वाले के लिए
ठहरकर, सब्र का
समुद्र उमड़ा कर, "बचो, खालसा जी", "हटो भाई जी", "ठहरना भाई", "आने दो लाला जी", "हटो बाछा", कहते हुए सफ़ेद
फ़ेंटों, खच्चरों औरर
बतकों, गन्ने
औरर खोमचे औरर भारे
वालों, के
जंगल में से राह खेते हैं।
क्या मजाल
है कि जी औरर साहब बिना सुने किसी को
हटना पड़े।
यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती ही
नहीं; चलती है पर
मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई।
यदि कोई बुढ़िया बार- बार चितौनी देने पर भी लीक
से नहीं हटती तो उनकी बचनावली के ये
नमूने हैं-----
हट
जा, जीणे
जोगिए; हट
जा, करमाँ
वालिए, हट
जा, पुत्तां
प्यारिए; बच
जा, लम्बी वालिए।
समष्टि में इसका अर्थ है कि
तू जीने योग्य है, तू भाग्यों वाली
है, पुत्रों
को प्यारी है, लम्बी
उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहियों
के नीचे आना चाहती है?
बच जा।
ऐसे बम्बूकार्ट वालों
के बीच में होकर एक लड़का औरर एक लड़की
चौक की एक दुकान पर आ मिले।
उसके बालों औरर इसके
ठीले सुथने से जान पड़ता था कि
दोनों सिख हैं।
वह अपने मामा के केश
धोने के लिए दही लेने आया था औरर
यह रसोई के लिए बड़ियाँ।
दुकानदार एक परदेसी से गुथ
रहा था, जो सेर भर
गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना
हटता न था।
"तेरा घर कहाँ हैं?"
"मगरे में,----- औरर तेरा?"
"माँझे में,----- यहाँ कहाँ रहती है?"
"अतरसिंह की बैठक
में, वह
मेरे मामा होते हैं।"
"मैं भी मामा के आया
हूँ, उनका घर
गुरु बज़ार में है।"
इतने में दुकानदार निबटा औरर
इनका सौदा देने लगा।
सौदा लेकर दोनों
साथ- साथ चले।
कुछ दूर जाकर लड़के ने
मुसकरा कर पूछा----"तेरी कुड़माई हो गई?"
इस पर लड़की कुछ
आँखें चढ़ाकर 'धत्' कहकर
दौड़ गई औरर लड़का मुँह देखता रह गया।
दूसरे
तीसरे दिन सब्जी वाले के यहाँ, या दूध वाले के यहाँ
अकस्मात् दोनों मिल जाते।
महीना भर यही हाल रहा।
दो- तीन बार लड़के ने फिर पूछा,"तेरे कुड़माई हो
गई?" औरर उत्तर
में वही ' धत् '
मिला।
एक दिन जब फिर लड़के ने वैसी ही
हँसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो
लड़की, लड़के की
संभावना के विरुद्ध, बोली " हाँ, हो
गई। "
"कब?"
"कल, देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा
हुआ सालू।"
लड़की भाग गई।
लड़के ने घर की सीध ली।
रास्ते में एक लड़के को
मोरी में में ढ़केल
दिया, एक छावड़ीवाले की
दिन भर की कमाई खोई, एक
कुत्ते को पत्थर मारा औरर गोभी
वाले के ठेले में दूध
उंडेल दिया।
सामने नहाकर आती हुई किसी
वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की उपाधि पाई।
तब कहीं घर पहुँचा।
4
" होश
में आओ।
कयामत आयी है औरर लपटन साहब की वर्दी
पहन- कर आयी है।"
" क्या?"
" लपटन साहब या
तो मारे गये हैं या कैद हो
गये हैं।
उनकी वर्दी पहन- कर यह
कोई जर्मन आया है।
सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा।
मैंने देखा है, औरर बातें की हैं।
सौहरा साफ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू।
औरर मुझे पीने को सिगरेट दिया
है।"
" तो
अब?"
" अब मारे
गये।
धोखा है।
सूबेदार कीचड़ में चक्कर काटते
फिरेंगे औरर यहाँ खाई पर धावा होगा
उधर उनपर खुले में धावा होगा।
उठो, एक काम करो।
पलटन में पैरों के निशान
देखते- देखते दौड़ जाओ।
अभी बहुत दूर न गये होंगे।
सूबेदार से कहो कि एकदम लौट
आवें।
खंदक की बात झूठ है।
चले जाओ, खंदक के पीछे से ही निकल जाओ।
पत्ता तक न खुड़के।
देर मत करो।"
" हुकुम
तो यह है कि यहीें------"
" ऐसी- तैसी हुकुम की!
मेरा
हुकुम -- जमादार
लहनासिंह, जो इस
वक्त यहाँ सबसे बड़ा अफ़सर है, उसका हुकुम है।
मैं लपटन साहब की ख़बर लेता
हूँ। "
" पर यहाँ
तो तुम आठ ही हो!"
" आठ
नहीं, दस लाख।
एक- एक अकालिया सिख सवा
लाख के बराबर होता है!
चले जाओ।"
लौटकर खाई
के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक
गया।
उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से
बेल के बराबर तीन गोले निकाले।
तीनों को जगह- जगह खंदक की दीवारों में
घुसेड़ दिया औरर तीनों में एक
तार- सा बाँध दिया।
तार के आगे सूत की एक गुत्थी
थी, जिसे सिगड़ी के
पास रखा।
बाहर की तरफ़ जाकर एक दियासलाई जलाकर गुत्थी पर
रखने ----
बिजली की तरह
दोनों हाथों से उलटी बन्दूक
को उठाकर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तानकर
दे मारा।
धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर
पड़ी।
लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा
औरर साहब " ऑख ! मीन
गाट्ट" कहते
हुए चित हो गये।
लहनासिंह ने तीनों गोले बीनकर
खंदक के बाहर फेंके औरर साहब को
घसीटकर सिगड़ी के पास लिटाया।
जेबों की तलाशी ली।
तीन- चार लिफ़ाफ़े
औरर एक डायरी निकालकर उन्हें अपनी जेब के
हवाले किया।
साहब की
मूच्र्छा हटी।
लहनासिंह हँसकर बोला-----" क्यों लपटन साहब, मिजाज़ कैसा है?
आज मैंने बहुत
बातें सीखीं।
यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं।
यह सीखा कि जगाधरी के ज़िले
में नीलगायें होती हैं औरर
उनके दो फुट चार इन्च के सींग
होते हैं।
यह सीखा कि मुसलमान ख़ानसामा
मूत्र्तियों पर जल चढ़ाते
हैं औरर लपटन साहब खोते पर चढ़ते
हैं।
पर यह तो कहो, ऐसी साफ़ उर्दू कहाँ से सीख
आये ?
हमारे लपटन
साहब तो बिना " डैम" के
पाँच लफ़्ज़ भी नहीं बोला करते थे।
"
लहना ने
पतलून की जेबों की तलाशी नहीं ली थी।
साहब ने मानो जाड़े से बचाने के
लिए, दोनों
हाथ जेबों में डाले।
लहनासिंह
कहता गया---" चालाक तो
बड़े हो, पर
माँझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ
रहा है।
उसे चकमा देने के लिए चार आँखें
चाहिए।
तीन महीने हुए, एक
तुरकी मौलवी मेरे गाँव में
आया था।
औररतों को बच्चे होने की तावीज
बाँटता था औरर बच्चों को दवाई देता
था।
चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछाकर
हुक्का पीता रहता था औरर कहता था कि जर्मनी
वाले बड़े पंडित हैं।
वंद पढ़- पढ़ कर
उसमें से विमाम चलाने की विद्या जान
गये हैं।
गौ को नहीं मारते।
हिन्दुस्तान में आ जायेंगे तो
गोहत्या बन्द कर देंगे।
मंडी के बनियों को बहकाता था कि
डाकखाने से रुपये निकाल लो, सरकार का राज्य जाने वाला है।
डाक- बाबू
पोल्हूराम भी डर गया था मैंने
मुल्लाजी की डाढ़ी मूँड़ दी थी औरर गाँव
से बाहर निकालकर कहा था कि जो मेरे गाँव
में अब पैर रखा तो ---- "
साहब की जेब
में से पिस्तौल चला औरर लहना की
जाँघ में गोली लगी।
इधर लहना की हेनरी मार्टिन के दो
फ़ायरों ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी।
धड़ाका सुनकर
सब दौड़ आये।
बोधा
चिल्लाया---" क्या
है?"
लहन्ा:सिंह
ने उसे तो यह कहकर सुला दिया कि
" एक हड़का हुआ
कुत्ता आया था, मार
दिया" औरर
औररों से सब हाल कह दिया।
बंदूकें लेकर सब तैयार हो गए।
लहना ने साफ़ा फाड़कर घाव के दोनों तरफ
पट्टियाँ कसकर बाँधीं।
घाव माँस में ही था।
पट्टियों के कसने से लहू निकलना
बंद हो गया।
इतने
में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में
घुस पड़े।
सिखों की बंदूकों की बाढ़ ने
पहले धावे को रोका।
दूसरे को रोका।
पर यहाँ थे आठ ( लहना सिंह तक- तककर मार रहा था-- वह खड़ा था, औरर, औरर
लेटे हुए थे) औरर वे सत्तर।
अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़कर
जर्मन आगे घुसे आते थे।
थोड़े से मिनटों से वे---
अचानक आवाज़
आयी----" वाह गुरुजी की
फतह! वाह गुरुजी का
खालसा!"
औरर धड़ाधड़
बंदूकों के फायर जर्मनों की
पीठ पर पड़ने लगे।
ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के
पाटों के बीच में आ गए।
पीछे से सूबेदार हज़ारासिंह के जवान
आग बरसाते थे औरर सामने लहनासिंह
के साथियों के संगीन चल रहे
थे।
पास आने पर पीछे वालों ने भी
संगीन पिरोना शुरू कर दिया।
एक किलकारी
औरर---" अकाल सिक्खाँ
दी फ़ौज आयी ! वाह
गुरुजी दी फ़तह! वाह
गुरुजी दी खालसा!! सत्त सिरी अकाल पुरुष!!!"
औरर लड़ाई खतम हो गई।
तिरसठ जर्मन या तो खेत रहे
थे, या कराह रहे
थे।
सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गए।
सूबेदार के दाहिने कन्धे में
से गोली आर- पार
निकल गयी।
लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी।
उसने घाव को खंदक की गीली मिट्टी से
पूर लिया।
औरर बाकी का साफा कसकर कमरबन्द की तरह लपेट लिया।
किसीको खबर न हुई कि लहना के दूसरा
घाव------ भारी
घाव----- लगा है।
लड़ाई के समय
चाँद निकल आया था।
ऐसा चाँद, जिसके प्रकाश से
संस्कृत- कवियों का दिया हुआ ' क्षयी' नाम सार्थक होता है।
औरर हवा ऐसी चल रही थी जैसी कि बाणभट्ट की
भाषा में,' दंतवीणोपदेशाचार्य' कहलाती।
वज़ीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन- मनभर फ्रांस की भूमि
मेरे बूटों से चिपक रही थी जब
मैं दौडा- दौडा सूबेदार के पीछे गया था।
सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन
औरर कागज़ात पाकर, उसकी
तुरत-बुद्धि को
सराह रहे थे औरर कह रहे थे कि तू न
होता तो आज सब मारे जाते।
इस लड़ाई की आवाज़
तीन मील दाहिनी ओर की खाईवालों ने
सुन ली थी।
उन्होंने पीछे टेलीफ़ोन कर दिया था।
वहाँ से झटपट दो डाक्टर औरर दो बीमार
ढोने की गाड़ियाँ चलीं, जो कोई डेढ़ घण्टे के
अन्दर-अन्दर आ पहुँचीं।
फ़ील्ड-अस्पताल नज़दीक था।
सुबह होते-होते वहाँ पहुँच
जायँगे, इसलिए
मामूली पट्टी बाँधकर एक गाड़ी में घायल
लिटाये गये औरर दूसरी में
लाशें रखी गयीं।
सूबेदार ने लहनासिंह की जाँध
में पट्टी बँधवानी चाही।
बोधसिंह ज्वर से बर्रा रहा था।
पर उसने यह कहकर टाल दिया कि थोड़ा घाव
है, सवेरे
देखा जायगा।
वह गाड़ी में लिटाया गया।
लहना को छोड़कर सूबेदार जाते नहीं
थे।
यह देख लहना ने कहा--- तुम्हें बोधा की कसम है
औरर सूबेदारनी जी की सौगन्द है तो
इस गाड़ी में न चले जाओ।
" औरर
तुम?"
" मेरे
लिए वहाँ पहँुचकर गाड़ी भेज देना।
औरर जर्मन मुरदों के लिए भी तो
गाड़ियाँ आती होंगी।
मेरा हाल बुरा नहीं है।
देखते नहीं, मैं खड़ा हूँ?
वजीरासिंह मेरे पास
है ही।"
" अच्छा, पर-----"
" बोधा गाड़ी
पर लेटे गया!
भला
आप भी चढ़ आओ।
सुनिए तो,
सूबेदारनी होराँ को चिट्ठी लिखो
तो मेरा मत्था टेकना लिख देना।
औरर जब घर जाओ तो कह देना कि
मुझसे जो उन्होंने कहा
था, वह मैंने
कर दिया।"
गाड़ियाँ चल
पड़ी थीं।
सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़कर कहा----तूने मेरे औरर
बोधा के प्राण बचाये हैं।
लिखना कैसा?
साथ ही घर चलेंगे।
अपनई सूबेदारनी से तू ही कह देना।
उसने क्या कहा था?
" अब आप गाड़ी पर
चढ़ जाओ।
मैंने जो कहा वह लिख देना औरर कह भी
देना।"
गाड़ी के
जाते ही लहना लेट गया।
" वजीरा, पानी पिला दे औरर मेरा कमरबन्द
खोल दे।
तर हो रहा है।"
5
मृत्यु
के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो
जाती है।
जन्म-भर की घटनाएँ
एक-एक करके सामने आती
हैं।
सारे दृश्यों के रंग साफ होते
हैं; समय की
धुन्ध बिलकुल उन पर से हट जाती है।
लहनासिंह
बारह वर्ष का है।
अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ
है।
दहीवाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं, उसे एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है।
जब वह पूछता है कि तेरी कुड़माई हो
गई ?
तब "धत्" कहकर वह
भाग जाती है।
एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो उसने
कहा----'हाँ, कल हो गयी, देखते नहीं, यह रेशम के फूलों वाला
सालू ? "
सुनते ही लहनासिंह
को दुख हुआ।
क्रोध हुआ।
क्यों हुआ ?
" वजीरासिंह, पानी पिला दे!"
पचीस वर्ष बीत गये।
अब लहनासिंह नं॰ ७७ राइफ़ल्स जमादार हो गया
है।
उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा।
न मालूम वह कभी मिली थी या नहीं।
सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकदमे
की पैरबी करने वह घर गया।
वहाँ रेजीमेण्ट के अफ़सर की चिट्ठी मिली कि
फौज लाम पर जाती है।
फौरन चले आओ।
साथ ही सूबेदार हज़ारासिंह की चिट्ठी मिली कि
मैं औरर बोधसिंह भी लाम पर जाते
हैं, लौटते
हुए हमारे घर होते आना।
साथ चलेंगे।
सूबेदार
का घर रास्ते में पड़ता था औरर सूबेदार
उसे बहुत चाहता था।
लहनासिंह सूबेदार के यहाँ
पहुँचा।
जब चलने लगे तब सूबेदार
बेड़े में से निकलकर आया।
बोला------"लहना, सूबेदारनी तुमको जानती
हैं।
बुलाती हैं।
जा, मिल आ।"
लहनासिंह भीतर पहुँचा।
सूबेदारनी मुझे जानती हैं?
कब से?
रेजीमेण्ट के
क्वार्टरों में तो कभी
सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं।
दरवाजे पर जाकर "मत्था
टेकना" कहा।
असीस सुनी।
लहनासिंह चुप।
" मुझे
पहचाना?"
" नहीं।"
" तेरी
कुड़माई हो गयी?
-------धत्-----कल हो गयी-----देखते नहीं, रेशमी बूटों वाला
सालू----अमृतसर
में-----"
भावों
की टकराहट से मूच्र्छा खुली।
करवट बदली।
पसली का घाव बह निकला।
" वज़ीरा, पानी
पिला"---- उसने कहा
था।
स्वप्न चल रहा
है।
सूबेदारनी कह रही है --- मैंने तेरे को आते ही
पहचान लिया।
एक काम कहती हूँ।
मेरे तो भाग फूट गये।
सरकार ने बहादुरी का ख़िताब दिया है,
लायलपुर में ज़मीन
दी है, आज नमकहलाली
का मौक़ा आया है।
पर सरकार ने हम तीमियों की
एक घँघरिया पलटन क्यों न बना दी जो
मैं भी सूबेदारजी के साथ चली
जाती ?
एक बेटा है।
फ़ौज में भरती हुए उसे एक ही वर्ष
हुआ।
उसके पीछे चार औरर हुए, पर एक भी नहीं जिया।"
सूबेदारनी रोने
लगी----"अब दोनों
जाते हैं।
मेरे भाग!
तुम्हें याद
है, एक दिन
टाँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दूकान
के पास बिगड़ गया था।
तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये
थे।
आप घोड़ों की लातों
मे चले गये थे।
औरर मुझे उठाकर दूकान के तख्ते पर खड़ा
कर दिया था।
ऐसे ही इन दोनों को बचाना।
यह मेरी भिक्षा है।
तुम्हारे आगे मैं आँचल पसारती
हूँ।
रोती-रोती
सूबेदारनी ओबरी में चली गयी।
लहना भी आँसू पोंछता हुआ बाहर
आया।
" वज़ीरासिंह, पानी पिला"-----उसने कहा था।
लहना का सिर
अपनी गोद में रखे वज़ीरासिंह बैठा
है।
जब माँगता है, तब
पानी पिला देता है।
आध घंटे तक लहना चुप रहा, फिर बोला ---
" कौन?
कीरतसिंह ? "
वजीरा ने
कुछ समझकर कहा------ हाँ।
" भइया, मुझे औरर ऊँचा कर ले।
अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।"
वजीरा ने
वैसा ही किया।
" हाँ, अब ठीक
है।
पानी पिला दे।
बस।
अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा।
चाचा- भतीजा
दोनों यहीं बैठकर आम खाना।
जितना बड़ा तेरा भतीजा है उतना ही यह आम है
जिस महीने उसका जन्म हुआ था उसी महीने
में मैंने इसे लगाया था।"
वज़ीरासिंह
के आँसू टप्टप् टपक रहे थे।
कुछ दिन
पीछे लोगों ने अखबारों
में पढ़ा---
फ्रांस
औरर बेलजियम---- ६८वीं सूची-----मैदान में घावों से
मरा--- नं॰ ७७ सिख राइफ़ल्स
जमादार लहनासिंह।
To index of texts.
To index of मल्हार.
Part 1 keyed in by विवेक अगरवाल
Mar 2001. Posted 9 May 2001. Parts 4 & 5 keyed in by विवेक अगरवाल June 2001. Posted 16 & 17 June.
Proofread by लखन गुसाईं
26 April 2002.