यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
इन्स्टिट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ लैंग्वजिज़ ऐंड कल्चर्ज़ ऑफ़ एशिया ऐंड ऐफ़्रिका
तोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ाॅरेन स्टडीज़


Mellon Project


प्रेमचन्द
गोदान
(Devanagari text reconstituted from Professor K. Machida's roman transcription)

Chapter Eleven.
(unparagraphed text)
        ऐसे असाधारण कांड पर गाँव में जो कुछ हलचल मचना चाहिए था, वह मचा औरर महीनों तक मचता रहा। झुनिया के दोनों भाई लाठियाँ लिये गोबर को खोजते फिरते थें। भोला ने क़सम खायी कि अब न झुनिया का मुँह देखेंगे औरर न इस गाँव का। होरी से उन्होंने अपनी सगाई की जो बातचीत की थी, वह अब टूट गयी थी। अब वह अपनी गाय के दाम लेंगे औरर नक़द औरर इसमें विलम्ब हुआ तो होरी पर दावा करके उसका घर-द्वार नीलाम करा लेंगे। गाँववालों ने होरी को जाति-बाहर कर दिया। कोई उसका हुक़्क़ा नहीं पीता, न उसके घर का पानी पीता है। पानी बन्द कर देने की कुछ बातचीत थी; लेकिन धनिया का चंडी-रूप सब देख चुके थे; इसलिये किसी की आगे आने की हिम्मत न पड़ी। धनिया ने सबको सुना-सुनाकर कह दिया -- किसी ने उसे पानी भरने से रोका, तो उसका औरर अपना ख़ून एक कर देगी। इस ललकार ने सभी के पित्ते पानी कर दिये। सबसे दुखी है झुनिया, जिसके कारण यह सब उपद्रव हो रहा है, औरर गोबर की कोई खोज-ख़बर न मिलना इस दु:ख को औरर भी दारुण बना रहा है। सारे दिन मुँह छिपाये घर में पड़ी रहती है। बाहर निकले तो चारों ओर से वाग्बाणों की ऐसी वर्षा हो कि जान बचाना मुश्किल हो जाय। दिन-भर घर के धन्धे करती रहती है औरर जब अवसर पाती है, रो लेती है। हरदम थर-थर काँपती रहती है कि कहीं धनिया कुछ कह न बैठे अकेला भोजन तो नहीं पका सकती; क्योंकि कोई उसके हाथ का खायेगा नहीं, बाक़ी सारा काम उसने अपने ऊपर ले लिया। गाँव में जहाँ चार स्त्री-पुरुष जमा हो जाते हैं, यही कुत्सा होने लगती है। एक दिन धनिया हाट से चली आ रही थी कि रास्ते में पण्डित दातादीन मिल गये। धनिया ने सिर नीचा कर लिया औरर चाहती थी कि कतराकर निकल जाय; पर पण्डितजी छेड़ने का अवसर पाकर कब चूकनेवाले थे। छेड़ ही तो दिया -- गोबर का कुछ सर-सन्देश मिला कि नहीं धनिया? ऐसा कपूत निकला कि घर की सारी मरजाद बिगाड़ दी। धनिया के मन में स्वयम् यही भाव आते रहते थे। उदास मन से बोली -- बुरे दिन आते हैं बाबा, तो आदमी की मति फिर जाती है, औरर क्या कहूँ। दातादीन बोले -- तुम्हें इस दुष्टा को घर में न रखना चाहिए था। दूध में मक्खी पड़ जाती है, तो आदमी उसे निकालकर फेंक देता है, औरर दूध पी जाता है। सोचो, कितनी बदनामी औरर जग-हँसाई हो रही है। वह कुलटा घर में न रहती, तो कुछ न होता। लड़कों से इस तरह की भूल-चूक होती रहती है। जब तक बिरादरी को भात न दोगे, बाम्हनों को भोज न दोगे, कैसे उद्धार होगा? उसे घर में न रखते, तो कुछ न होता। होरी तो पागल है ही, तू कैसे धोखा खा गयी। दातादीन का लड़का मातादीन एक चमारिन से फँसा हुआ था। इसे सारा गाँव जानता था; पर वह तिलक लगाता था, पोथी-पत्रे बाँचता था, कथा-भागवत कहता था, धर्म-संस्कार कराता था। उसकी प्रतिष्ठा में ज़रा भी कमी न थी। वह नित्य स्नान-पूजा कर के अपने पापों का प्रायश्चित कर लेता था। धनिया जानती थी, झुनिया को आश्रय देने ही से यह सारी विपत्ति आयी है। उसे न जाने कैसे दया आ गयी, नहीं उसी रात को झुनिया को निकाल देती, तो क्यों इतना उपहास होता; लेकिन यह भय भी होता था कि तब उसके लिए नदी या कुआँ के सिवा औरर ठिकाना कहाँ था। एक प्राण का मूल्य देकर -- एक नहीं दो प्राणों का -- वह अपने मरजाद की रक्षा कैसे करती? फिर झुनिया के गर्भ में जो बालक है, वह घनिया ही के हृदय का टुकड़ा तो है। हँसी के डर से उसके प्राण कैसे ले लेती! औरर फिर झुनिया की नम्रता औरर दीनता भी उसे निरस्त्र करती रहती थी। यह जली-भुनी बाहर से आती; पर ज्योंही झुनिया लोटे का पानी लाकर रख देती औरर उसके पाँव दबाने लगती, उसका क्रोध पानी हो जाता। बेचारी अपनी लज्जा औरर दु:ख से आप दबी हुई है, उसे औरर क्या दबाये, मरे को क्या मारे। उसने तीव्र स्वर में कहा -- हमको कुल-परतिसठा इतनी प्यारी नहीं है महाराज, कि उसके पीछे एक जीव की हत्या कर डालते। ब्याहता न सही; पर उसकी बाँह तो पकड़ी है मेरे बेटे ने ही। किस मुँह से निकाल देती। वही काम बड़े-बड़े करते हैं, मुदा उनसे कोई नहीं बोलता, उन्हें कलंक ही नहीं लगता। वही काम छोटे आदमी करते हैं, तो उनकी मरजाद बिगड़ जाती है, नाक कट जाती है। बड़े आदमियों को अपनी नाक दूसरों की जान से प्यारी होगी, हमें तो अपनी नाक इतनी प्यारी नहीं। दातादीन हार माननेवाले जीव न थे। वह इस गाँव के नारद थे। यहाँ की वहाँ, वहाँ की यहाँ, यही उनका व्यवसाय था। वह चोरी तो न करते थे, उसमें जान-जोख़िम था; पर चोरी के माल में हिस्सा बँटाने के समय अवश्य पहुँच जाते थे। कहीं पीठ में धूल न लगने देते थे। ज़मींदार को आज तक लगान की एक पाई न दी थी, क़ुर्क़ी आती, तो कुएँ में गिरने चलते, नोखेराम के किये कुछ न बनता; मगर असामियों को सूद पर रुपए उधार देते थे। किसी स्त्री को कोई आभूषण बनवाना है, दातादीन उसकी सेवा के लिए हाज़िर हैं। शादी-ब्याह तय करने में उन्हें बड़ा आनन्द आता है, यश भी मिलता है, दक्षिणा भी मिलती है। बीमारी में दवा-दारू भी करते हैं, झाड़-फूँक भी, जैसी मरीज़ की इच्छा हो। औरर सभा-चतुर इतने हैं कि जवानों में जवान बन जाते हैं, बालकों में बालक औरर बूढ़ों में बूढ़े। चोर के भी मित्र हैं औरर साह के भी। गाँव में किसी को उन पर विश्वास नहीं है; पर उनकी वाणी में कुछ ऐसा आकर्षण है कि लोग बार-बार धोखा खाकर भी उन्हीं की शरण जाते हैं। सिर औरर दाढ़ी हिलाकर बोले -- यह तू ठीक कहती है धनिया! धर्मात्मा लोगों का यही धरम है; लेकिन लोक-रीति का निबाह तो करना ही पड़ता है। इसी तरह एक दिन लाला पटेश्वरी ने होरी को छेड़ा। वह गाँव में पुण्यात्मा मशहूर थे। पूर्णमासी को नित्य सत्यनारायण की कथा सुनते; पर पटवारी होने के नाते खेत बेगार में जुतवाते थे, सिंचाई बेगार में करवाते थे औरर असामियों को एक दूसरे से लड़ाकर रक़में मारते थे। सारा गाँव उनसे काँपता था! ग़रीबों को दस-दस, पाँच-पाँच क़रज़ देकर उन्होंने कई हज़ार की सम्पत्ति बना ली थी। फ़सल की चीज़ें असामियों से लेकर कचहरी औरर पुलिस के अमलों की भेंट करते रहते थे। इससे इलाक़े भर में उनकी अच्छी धाक थी। अगर कोई उनके हत्थे नहीं चढ़ा, तो वह दारोग़ा गंडासिंह थे, जो हाल में इस इलाक़े में आये थे। परमार्थी भी थे। बुख़ार के दिनों में सरकारी कुनैन बाँटकर यश कमाते थे, कोई बीमार आराम हो, तो उसकी कुशल पूछने अवश्य जाते थे। छोटे-मोटे झगड़े आपस में ही तय करा देते थे। शादी-ब्याह में अपनी पालकी, क़ालीन, औरर महफ़लि के सामान मँगनी देकर लोगों का उबार कर देते थे। मौक़ा पाकर न चूकते थे, पर जिसका खाते थे, उसका काम भी करते थे। बोले -- यह तुमने क्या रोग पाल लिया होरी? होरी ने पीछे फिरकर पूछा -- तुमने क्या कहा लाला -- मैंने सुना नहीं। पटेश्वरी पीछे से क़दम बढ़ाते हुए बराबर आकर बोले, यही कह रहा था कि धनिया के साथ क्या तुम्हारी बुद्धि भी घास खा गयी। झुनिया को क्यों नहीं उसके बाप के घर भेज देते, सेंत-मेंत में अपनी हँसीं करा रहे हो। न जाने किसका लड़का लेकर आ गयी औरर तुमने घर में बैठा लिया। अभी तुम्हारी दो-दो लड़कियाँ ब्याहने को बैठी हुई हैं, सोचो कैसे बेड़ा पार होगा। होरी इस तरह की आलोचनाएँ, औरर शुभ कामनाएँ सुनते-सुनते तंग आ गया था खिन्न होकर बोला -- यह सब मैं समझता हूँ लाला! लेकिन तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूँ! मैं झुनिया को निकाल दूँ, तो भोला उसे रख लेंगे? अगर वह राज़ी हों, तो आज मैं उसे उनके घर पहुँचा दूँ, अगर तुम उन्हें राज़ी कर दो, तो जनम-भर तुम्हारा औरसान मानूँ; मगर वहाँ तो उनके दोनों लड़के ख़ून करने को उतारू हो रहे हैं। फिर मैं उसे कैसे निकाल दूँ। एक तो नालायक़ आदमी मिला कि उसकी बाँह पकड़कर दग़ा दे गया। मैं भी निकाल दूँगा, तो इस दशा में वह कहीं मेहनत-मजूरी भी तो न कर सकेगी। कहीं डूब-धस मरी तो किसे अपराध लगेगा। रहा लड़कियों का ब्याह सो भगवान् मालिक हैं। जब उसका समय आयेगा, कोई न कोई रास्ता निकल ही आयेगा। लड़की तो हमारी बिरादरी में आज तक कभी कुँआरी नहीं रही। बिरादरी के डर से हत्यारे का काम नहीं कर सकता। होरी नम्र स्वभाव का आदमी था। सदा सिर झुकाकर चलता औरर चार बातें ग़म खा लेता था। हीरा को छोड़कर गाँव में कोई उसका अहित न चाहता था, पर समाज इतना बड़ा अनर्थ कैसे सह ले! औरर उसकी मुटमर्दी तो देखो कि समझाने पर भी नहीं समझता। स्त्री-पुरुष दोनों जैसे समाज को चुनौती दे रहे हैं कि देखें कोई उनका क्या कर लेता है। तो समाज भी दिखा देगा कि उसकी मर्यादा तोड़नेवाले सुख की नींद नहीं सो सकते। उसी रात को इस समस्या पर विचार करने के लिए गाँव के विधाताओं की बैठक हुई। दातादीन बोले -- मेरी आदत किसी की निन्दा करने की नहीं है। संसार में क्या क्या-कुकर्म नहीं होता; अपने से क्या मतलब। मगर वह राँड़ धनिया तो मुझसे लड़ने पर उतारू हो गयी। भाइयों का हिस्सा दबाकर हाथ में चार पैसे हो गये, तो अब कुपथ के सिवा औरर क्या सूझेगी। नीच जात, जहाँ पेट-भर रोटी खायी औरर टेढ़े चले, इसी से तो सासतरों में कहा है -- नीच जात लतियाये अच्छा। पटेश्वरी ने नारियल का कश लगाते हुए कहा -- यही तो इनमें बुराई है कि चार पैसे देखे औरर आँखें बदलीं। आज होरी ने ऐसी हेकड़ी जतायी कि मैं अपना-सा मुँह लेकर रह गया। न जाने अपने को क्या समझता है। अब सोचो, इस अनीति का गाँव में क्या फल होगा। झुनिया को देखकर दूसरी विधवाओं का मन बढ़ेगा कि नहीं? आज भोला के घर में यह बात हुई। कल हमारे-तुम्हारे घर में भी होगी। समाज तो भय के बल से चलता है। आज समाज का आँकुस जाता रहे, फिर देखो संसार में क्या-क्या अनर्थ होने लगते हैं। झिंगुरीसिंह दो स्त्रियों के पति थे। पहली स्त्री पाँच लड़के-लड़कियाँ छोड़कर मरी थी। उस समय इनकी अवस्था पैंतालिस के लगभग थी; पर आपने दूसरा ब्याह किया औरर जब उससे कोई सन्तान न हुई, तो तीसरा ब्याह कर डाला अब इनकी पचास की अवस्था थी औरर दो जवान पत्नियाँ घर में बैठी हुई थीं। उन दोनों ही के विषय में तरह-तरह की बातें फैल रही थीं; पर ठाकुर साहब के डर से कोई कुछ कह न सकता था, औरर कहने का अवसर भी तो हो। पति की आड़ में सब कुछ जायज़ है। मुसीबत तो उसको है, जिसे कोई आड़ नहीं। ठाकुर साहब स्त्रियों पर बड़ा कठोर शासन रखते थे औरर उन्हें घमंड था कि उनकी पत्नियों का घूँघट तक किसी ने न देखा होगा। मगर घूँघट की आड़ में क्या होता है, उसकी उन्हें क्या ख़बर? बोले -- ऐसी औररत का तो सिर काट ले। होरी ने इस कुलटा को घर रखकर समाज में विष बोया है। ऐसे आदमी को गाँव में रहने देना सारे गाँव को भ्रष्ट करना है। राय साहब को इसकी सूचना देनी चाहिए। साफ़-साफ़ कह देना चाहिए, अगर गाँव में यह अनीति चली तो किसी की आबरू सलामत न रहेगी। पण्डित नोखेराम कारकुन बड़े कुलीन ब्राह्मण थे। इनके दादा किसी राजा के दीवान थे! पर अपना सब कुछ भगवान् के चरणों में भेंट करके साधु हो गये थे। इनके बाप ने भी राम-नाम की खेती में उम्र काट दी। नोखेराम ने भी वही भक्ति तरके में पायी थी। प्रात:काल पूजा पर बैठ जाते थे औरर दस बजे तक बैठे राम-नाम लिखा करते थे; मगर भगवान् के सामने से उठते ही उनकी मानवता इस अवरोध से विकृत होकर उनके मन, वचन औरर कर्म सभी को विषाक्त कर देती थी। इस प्रस्ताव में उनके अधिकार का अपमान होता था। फूले हुए गालों में धँसी हुई आँखें निकालकर बोले -- इसमें राय साहब से क्या पूछना है। मैं जो चाहूँ, कर सकता हूँ। लगा दो सौ रुपये डाँड़। आप गाँव छोड़कर भागेगा। इधर बेदख़ली भी दायर किये देता हूँ। पटेश्वरी ने कहा -- मगर लगान तो बेबाक़ कर चुका है? झिंगुरीसिंह ने समर्थन किया -- हाँ, लगान के लिए ही तो हमसे तीस रुपए लिये हैं। नोखेराम ने घमंड के साथ कहा -- लेकिन अभी रसीद तो नहीं दी। सबूत क्या है कि लगान बेबाक़ कर दिया। सर्वसम्मति से यही तय हुआ कि होरी पर सौ रुपए तवान लगा दिया जाय। केवल एक दिन गाँव के आदमियों को बटोरकर उनकी मंज़ूरी ले लेने का अभिनय आवश्यक था। सम्भव था, इसमें दस-पाँच दिन की देर हो जाती। पर आज ही रात को झुनिया के लड़का पैदा हो गया। औरर दूसरे ही दिन गाँववालों की पंचायत बैठ गयी। होरी औरर धनिया, दोनों अपनी क़िस्मत का फ़ैसला सुनने के लिए बुलाए गये। चौपाल में इतनी भीड़ थी कि कहीं तिल रखने की जगह न थी। पंचायत ने फ़ैसला किया कि होरी पर सौ रुपए नक़द औरर तीस मन अनाज डाँड़ लगाया जाय। धनिया भरी सभा में रकुँआरधे हुए कंठ से बोली -- पंचो, ग़रीब को सताकर सुख न पाओगे, इतना समझ लेना। हम तो मिट जायँगे, कौन जाने, इस गाँव में रहें या न रहें, लेकिन मेरा सराप तुमको भी ज़रूर से ज़रूर लगेगा। मुझसे इतना कड़ा जरीबाना इसलिये लिया जा रहा है कि मैंने अपनी बहू को क्यों अपने घर में रखा। क्यों उसे घर से निकालकर सड़क की भिखारिन नहीं बना दिया। यही न्याय है, ऐं? पटेश्वरी बोले -- वह तेरी बहू नहीं है, हरजाई है। होरी ने धनिया को डाँटा -- तू क्यों बोलती है धनिया! पंच में परमेसर रहते हैं। उनका जो न्याय है, वह सिर आँखों पर; अगर भगवान् की यही इच्छा है कि हम गाँव छोड़कर भाग जायँ, तो हमारा क्या बस। पंचो, हमारे पास जो कुछ है, वह अभी खलिहान में है। एक दाना भी घर में नहीं आया, जितना चाहो, ले लो। सब लेना चाहो, सब ले लो। हमारा भगवान् मालिक है, जितनी कमी पड़े, उसमें हमारे दोनों बैल ले लेना। धनिया दाँत कटकटाकर बोली -- मैं एक दाना न अनाज दूँगी, न एक कौड़ी डाँड़। जिसमें बूता हो, चलकर मुझसे ले। अच्छी दिल्लगी है। सोचा होगा डाँड़ के बहाने इसकी सब जैजात ले लो औरर नज़राना लेकर दूसरों को दे दो। बाग़-बग़ीचा बेचकर मज़े से तर माल उड़ाओ। धनिया के जीते-जी यह नहीं होने का, औरर तुम्हारी लालसा तुम्हारे मन में ही रहेगी। हमें नहीं रहना है बिरादरी में। बिरादरी में रहकर हमारी मुकुत न हो जायगी। अब भी अपने पसीने की कमाई खाते हैं, तब भी अपने पसीने की कमाई खायँगे। होरी ने उसके सामने हाथ जोड़कर कहा -- धनिया, तेरे पैरों पड़ता हूँ, चुप रह। हम सब बिरादरी के चाकर हैं, उसके बाहर नहीं जा सकते। वह जो डाँड़ लगाती है, उसे सिर झुकाकर मंज़ूर कर। नक्कू बनकर जीने से तो गले में फाँसी लगा लेना अच्छा है। आज मर जायँ, तो बिरादरी ही तो इस मिट्टी को पार लगायेगी? बिरादरी ही तारेगी तो तरेंगे पंचो, मुझे अपने जवान बेटे का मुँह देखना नसीब न हो, अगर मेरे पास खलिहान के अनाज के सिवा औरर कोई चीज़ हो। मैं बिरादरी से दग़ा न करूँगा। पंचों को मेरे बाल-बच्चों पर दया आये, तो उनकी कुछ परवरिस करें, नहीं मुझे तो उनकी आज्ञा पालनी है। धनिया झल्लाकर वहाँ से चली गयी औरर होरी पहर रात तक खलिहान से अनाज ढो-ढोकर झिंगुरीसिंह की चौपाल में ढेर करता रहा। बीस मन जौ था, पाँच मन गेहूँ औरर इतना ही मटर, थोड़ा-सा चना औरर तेलहन भी था। अकेला आदमी औरर दो गृहस्थियों का बोझ। यह जो कुछ हुआ, धनिया के पुरुषार्थ से हुआ। झुनिया भीतर का सारा काम कर लेती थी औरर धनिया अपनी लड़कियों के साथ खेती में जुट गयी थी। दोनों ने सोचा था, गेहूँ औरर तेलहन से लगान की एक क़िस्त अदा हो जायगी औरर हो सके तो थोड़ा-थोड़ा सूद भी दे देंगे। जौ खाने के काम में आयेगा। लंगे-तंगे पाँच-छ: महीने कट जायँगे तब तक जुआर, मक्का, साँवाँ, धान के दिन आ जायेंगे। वह सारी आशा मिट्टी में मिल गयी। अनाज तो हाथ से गये ही, सौ रुपए की गठरी औरर सिर पर लद गयी। अब भोजन का कहीं ठिकाना नहीं। औरर गोबर का क्या हाल हुआ, भगवान् जाने। न हाल न हवाल। अगर दिल इतना कच्चा था, तो ऐसा काम ही क्यों किया; मगर होनहार को कौन टाल सकता है। बिरादरी का वह आतंक था कि अपने सिर पर लादकर अनाज ढो रहा था, मानो अपने हाथों अपनी क़ब्र खोद रहा हो। ज़मींदार, साहूकार, सरकार किसका इतना रोब था? कल बाल-बच्चे क्या खायँगे, इसकी चिन्ता प्राणों को सोखे लेती थी; पर बिरादरी का भय पिशाच की भाँति सिर पर सवार आँकुस दिये जा रहा था। बिरादरी से पृथक जीवन की वह कोई कल्पना ही न कर सकता था। शादी-ब्याह, मूँड़न-छेदन, जन्म-मरण सब कुछ बिरादरी के हाथ में है। बिरादरी उसके जीवन में वृक्ष की भाँति जड़ जमाये हुए थी औरर उसकी नसें उसके रोम-रोम में बिन्धी हुई थीं। बिरादरी से निकलकर उसका जीवन विशृंखल हो जायगा -- तार-तार हो जायगा। जब खलिहान में केवल डेढ़-दो मन जौ रह गया, तो धनिया ने दौड़कर उसका हाथ पकड़ लिया औरर बोली -- अच्छा, अब रहने दो। ढो तो चुके बिरादरी की लाज। बच्चों के लिए भी कुछ छोड़ोगे कि सब बिरादरी के भाड़ में झोंक दोगे। मैं तुमसे हार जाती हूँ। मेरे भाग्य में तुम्हीं जैसे बुद्धू का संग लिखा था! होरी ने अपना हाथ छुड़ाकर टोकरी में शेष अनाज भरते हुए कहा -- यह न होगा धनिया, पंचों की आँख बचाकर एक दाना भी रख लेना मेरे लिए हराम है। मैं ले जाकर सब-का-सब वहाँ ढेर कर देता हूँ। फिर पंचों के मन में दया उपजेगी, तो कुछ मेरे बाल-बच्चों के लिए देंगे। नहीं भगवान् मालिक हैं। धनिया तिलमिलाकर बोली -- यह पंच नहीं हैं, राक्षस हैं, पक्के राछस! यह सब हमारी जगह-ज़मीन छीनकर माल मारना चाहते हैं। डाँड़ तो बहाना है। समझाती जाती हूँ; पर तुम्हारी आँखें नहीं खुलतीं। तुम इन पिशाचों से दया की आसा रखते हो। सोचते हो, दस-पाँच मन निकालकर तुम्हें दे देंगे। मुँह धो रखो। जब होरी ने न माना औरर टोकरी सिर पर रखने लगा तो धनिया ने दोनों हाथों से पूरी शक्ति के साथ टोकरी पकड़ ली औरर बोली -- इसे तो मैं न ले जाने दूँगी, चाहे तुम मेरी जान ही ले लो। मर-मरकर हमने कमाया, पहर रात-रात को सींचा, अगोरा, इसलिये कि पंच लोग मूछों पर ताव देकर भोग लगायें औरर हमारे बच्चे दाने-दाने को तरसें। तुमने अकेले ही सब कुछ नहीं कर लिया है। मैं भी अपनी बच्चियों के साथ सती हुई हूँ। सीधे से टोकरी रख दो, नहीं आज सदा के लिए नाता टूट जायगा। कहे देती हूँ। होरी सोच में पड़ गया। धनिया के कथन में सत्य था। उसे अपने बाल-बच्चों की कमाई छीनकर तावान देने का क्या अधिकार है? वह घर का स्वामी इसलिए है कि सबका पालन करे, इसलिए नहीं कि उनकी कमाई छीनकर बिरादरी की नज़र में सुर्ख़रू बने। टोकरी उसके हाथ से छूट गयी। धीरे से बोला -- तू ठीक कहती है धनिया! दूसरों के हिस्से पर मेरा कोई ज़ोर नहीं है। जो कुछ बचा है, वह ले जा, मैं जाकर पंचों से कहे देता हूँ। धनिया अनाज की टोकरी घर में रखकर अपनी दोनों लड़कियों के साथ पोते के जन्मोत्सव में गला फाड़-फाड़कर सोहर गा रही थी, जिसमें सारा गाँव सुन ले। आज यह पहला मौक़ा था कि ऐसे शुभ अवसर पर बिरादरी की कोई औररत न थी। सौर से झुनिया ने कहला भेजा था, सोहर गाने का काम नहीं है; लेकिन धनिया कब मानने लगी। अगर विरादरी को उसकी परवा नहीं है, तो वह भी बिरादरी की परवा नहीं करती। उसी वक़्त होरी अपने घर को अस्सी रुपए पर झिंगुरीसिंह के हाथ गिरों रख रहा था। डाँड़ के रुपए का इसके सिवा वह औरर कोई प्रबन्ध न कर सकता था। बीस रुपए तो तेलहन, गेहूँ औरर मटर से मिल गये। शेष के लिए घर लिखना पड़ गया। नोखेराम तो चाहते थे कि बैल बिकवा लिए जायँ; लेकिन पटेश्वरी औरर दातादीन ने इसका विरोध किया। बैल बिक गये, तो होरी खेती कैसे करेगा? बिरादरी उसकी जायदाद से रुपए वसूल करे; पर ऐसा तो न करे कि वह गाँव छोड़कर भाग जाय। इस तरह बैल बच गये। होरी रेहननामा लिखकर कोई ग्यारह बजे रात घर आया तो, धनिया ने पूछा -- इतनी रात तक वहाँ क्या करते रहे? होरी ने जुलाहे का ग़ुस्सा दाढ़ी पर उतारते हुए कहा -- करता क्या रहा, इस लौंडे की करनी भरता रहा। अभागा आप तो चिनगारी छोड़कर भागा, आग मुझे बुझानी पड़ रही है। अस्सी रुपए में घर रेहन लिखना पड़ा। करता क्या! अब हुक़्क़ा खुल गया। बिरादरी ने अपराध क्षमा कर दिया धनिया ने ओठ चबाकर कहा -- न हुक़्क़ा खुलता, तो हमारा क्या बिगड़ा जाता था। चार-पाँच महीने नहीं किसी का हुक़्क़ा पिया, तो क्या छोटे हो गये? मैं कहती हूँ, तुम इतने भोंदू क्यों हो? मेरे सामने तो बड़े बुद्धिमान बनते हो, बाहर तुम्हारा मुँह क्यों बन्द हो जाता है? ले-दे के बाप-दादों की निसानी एक घर बच रहा था, आज तुमने उसका भी वारा-न्यारा कर दिया। इसी तरह कल यह तीन-चार बीघे ज़मीन है, इसे भी लिख देना औरर तब गली-गली भीख माँगना। मैं पूछती हूँ, तुम्हारे मुँह में जीभ न थी कि उन पंचों से पूछते, तुम कहाँ के बड़े धर्मात्मा हो, जो दूसरों पर डाँड़ लगाते फिरते हो, तुम्हारा तो मुँह देखना भी पाप है। होरी ने डाँटा -- चुप रह, बहुत चढ़-चढ़ न बोल। बिरादरी के चक्कर में अभी पड़ी नहीं है, नहीं मुँह से बात न निकलती। धनिया उत्तेजित हो गयी -- कौन-सा पाप किया है, जिसके लिए बिरादरी से डरें, किसी की चोरी की है, किसी का माल काटा है? मेहरिया रख लेना पाप नहीं है, हाँ, रख के छोड़ देना पाप है। आदमी का बहुत सीधा होना भी बुरा है। उसके सीधेपन का फल यही होता है कि कुत्ते भी मुँह चाटने लगते हैं। आज उधर तुम्हारी वाह-वाह हो रही होगी कि बिरादरी की कैसी मरजाद रख ली। मेरे भाग फूट गये थे कि तुम जैसे मर्द से पाला पड़ा। कभी सुख की रोटी न मिली। ' मैं तेरे बाप के पाँव पड़ने गया था? वही तुझे मेरे गले बाँध गया। ' ' पत्थर पड़ गया था उनकी अक्कल पर औरर उन्हें क्या कहूँ ? न जाने क्या देखकर लट्टू हो गये। ऐसे कोई बड़े सुन्दर भी तो न थे तुम। ' विवाद विनोद के क्षेत्र में आ गया। अस्सी रुपए गये तो गये, लाख रुपए का बालक तो मिल गया! उसे तो कोई न छीन लेगा। गोबर घर लौट आये, धनिया अलग झोपड़ी में भी सुखी रहेगी। होरी ने पूछा -- बच्चा किसको पड़ा है? धनिया ने प्रसन्न मुख होकर जवाब दिया -- बिलकुल गोबर को पड़ा है। सच! ' रिष्ट-पुष्ट तो है? ' ' हाँ, अच्छा है। '
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Recoded: 20 Sept. 1999 to 6 Oct 1999.
Chapter Eleven posted: 13 Oct. 1999.