यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
इन्स्टिट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़
लैंग्वजिज़ ऐंड कल्चर्ज़ ऑफ़
एशिया ऐंड ऐफ़्रिका
तोक्यो
यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ाॅरेन स्टडीज़
Mellon Project
प्रेमचन्द
गोदान
(Devanagari text reconstituted from Professor K. Machida's roman
transcription)
Chapter Thirty-five.
(unparagraphed text)
होरी की दशा दिन-दिन गिरती ही जा रही थी।
जीवन के संघर्ष में उसे
सदैव हार हुई; पर
उसने कभी हिम्मत नहीं हारी।
प्रत्येक हार जैसे उसे भाग्य से
लड़ने की शक्ति दे देती थी; मगर अब वह उस अन्तिम दशा को पहुँच
गया था, जब उसमें
आत्म-विश्वास भी न रहा था।
अगर वह अपने धर्म पर अटल रह सकता,
तो भी कुछ आँसू
पुछते; मगर वह बात न
थी।
उसने नीयत भी बिगाड़ी, अधर्म भी कमाया, कोई ऐसी बुराई न थी, जिसमें वह पड़ा न हो;
पर जीवन की कोई अभिलाषा न
पूरी हुई, औरर
भले दिन मृगतृष्णा की भाँति दूर ही
होते चले गये, यहाँ तक कि अब उसे धोखा भी न रह गया
था, झूठी आशा की हरियाली
औरर चमक भी अब नज़र न आती थी।
हारे हुए महीप की भाँति उसने
अपने को इन तीन बीघे के क़िले
में बन्द कर लिया था औरर उसे प्राणों की
तरह बचा रहा था।
फ़ाके सहे,
बदनाम हुआ, मज़ूरी
की; पर क़िले को हाथ
से न जाने दिया; मगर
अब वह क़िला भी हाथ से निकला जाता था।
तीन साल से लगान बाक़ी पड़ा हुआ था
औरर अब पण्डित नोखेराम ने उस पर
बेदख़ली का दावा कर दिया था।
कहीं से रुपए मिलने की आशा न थी।
ज़मीन उसके हाथ से निकल जायगी औरर
उसके जीवन के बाक़ी दिन मजूरी करने
में कटेंगे।
भगवान् की इच्छा!
राय साहब को क्या दोष दे?
असामियों हो से उनका भी
गुज़र है।
इसी गाँव पर आधे से ज़्यादा
घरों पर बेदख़ली आ रही है; आवे।
औररों की जो दशा
होगी, वही उसकी भी
होगा।
भाग्य में सुख बदा होता,
तो लड़का यों हाथ
से निकल जाता?
साँझ हो गयी थी।
वह इसी चिन्ता में डूबा बैठा था
कि पण्डित दातादीन ने आकर कहा -- क्या हुआ होरी, तुम्हारी बेदख़ली के बारे
में?
इन दिनों नोखेराम से
मेरी बोल-चाल बन्द
है।
कुछ पता नहीं।
सुना, तारीख़
को पन्द्रह दिन औरर रह गये हैं।
होरी ने उनके लिए खाट डालकर कहा
-- वह मालिक हैं,
जो चाहें
करें; मेरे पास
रुपए होते, तो यह
दुर्दशा क्यों होती।
खाया नहीं,
उड़ाया नहीं; लेकिन उपज
ही न हो औरर जो हो भी, वह कौड़ियों के मोल
बिके, तो किसान क्या
करे?
' लेकिन
जैजात तो बचानी ही पड़ेगी।
निबाह कैसे होगा।
बाप-दादों
की इतनी ही निसानी बच रही है।
वह निकल गयी,
तो कहाँ रहोगे? '
' भगवान् की
मरज़ी है, मेरा क्या
बस! '
' एक उपाय है
जो तुम करो। '
होरी को जैसे अभय-दान मिल गया।
इनके पाँव पड़कर बोला -- बड़ा धरम होगा महाराज, तुम्हारे सिवा मेरा कौन
है।
मैं तो निरास हो गया था।
' निरास
होने की कोई बात नहीं।
बस, इतना ही समझ
लो कि सुख में आदमी का धरम कुछ औरर
होता है, दुख
में कुछ औरर।
सुख में आदमी दान देता
है, मगर दु:ख
में भीख तक माँगता है।
उस समय आदमी का यही धरम हो जाता है।
सरीर अच्छा रहता है तो हम बिना
असनान-पूजा किये
मुँह में पानी भी नहीं डालते;
लेकिन बीमार हो जाते
हैं, तो बिना
नहाये-धोये,
कपड़े पहने, खाट पर बैठे पथ्य लेते
हैं।
उस समय का यही धरम है।
यहाँ हममें-तुममें कितना भेद है;
लेकिन जगन्नाथपुरी
में कोई भेद नहीं रहता।
ऊँचे-नीचे सभी एक पंगत में बैठकर
खाते हैं।
आपत्काल में श्रीरामचन्द्र ने
सेवरी के जूठे फल खाये थे,
बालि को छिपकर वध किया था।
जब संकट में बड़े-बड़ों की मर्यादा टूट जाती
है, तो
हमारी-तुम्हारी कौन बात
है?
रामसेवक महतो को तो
जानते हो न? '
होरी ने निरुत्साह होकर कहा -- हाँ,
जानता क्यों नहीं।
' मेरा जजमान
है।
बड़ा अच्छा ज़माना है उसका।
खेती अलग,
लेन-देन अलग।
ऐसे रोब-दाब का आदमी ही नहीं देखा।
कई महीने हुए उसकी औररत मर गयी
है।
सन्तान कोई नहीं।
अगर रुपिया का ब्याह उससे करना चाहो,
तो मैं उसे राज़ी कर
लूँ।
मेरी बात वह कभी न टालेगा।
लड़की सयानी हो गयी है औरर ज़माना
बुरा है।
कहीं कोई बात हो जाय, तो मुँह में कालिख
लग जाय।
यह बड़ा अच्छा औरसर है।
लड़की का ब्याह भी हो जायगा, औरर तुम्हारे खेत भी बच
जायँगे।
सारे ख़रच-वरच
से बचे जाते हो। '
रामसेवक होरी से दो ही चार साल
छोटा था।
ऐसे आदमी से रूपा के ब्याह
करने का प्रस्ताव ही अपमानजनक था।
कहाँ फूल-सी
रूपा औरर कहाँ वह बूढ़ा ठूँठ।
जीवन में ।
होरी ने बड़ी-बड़ी चोट सही थी, मगर यह चोट सबसे गहरी थी।
आज उसके ऐसे दिन आ गये
हैं कि उससे लड़की बेचने की बात कही जाती
है औरर उसमें इन्कार करने का साहस नहीं
है।
ग्लानि से उसका सिर झुक गया।
दातादीन ने एक मिनट के बाद पूछा
-- तो क्या कहते
हो?
होरी ने साफ़ जवाब न दिया।
बोला --
सोचकर कहूँगा।
' इसमें
सोचने की क्या बात है? '
' धनिया से
भी तो पूँछ लूँ। '
' तुम राज़ी
हो कि नहीं। '
' ज़रा सोच
लेने दो महाराज।
आज तक कुल में कभी ऐसा
नहीं हुआ।
उसकी मरजाद भी तो रखना है। '
' पाँच-छ: दिन
के अन्दर मुझे जवाब दे देना।
ऐसा न हो, तुम सोचते ही रहो औरर
बेदख़ली आ जाय। '
दातादीन चले गये।
होरी की ओर से उन्हें कोई
अन्देशा न था।
अन्देशा था धनिया की ओर से।
उसकी नाक बड़ी लम्बी है।
चाहे मिट जाय,
मरजाद न छोड़ेगी।
मगर होरी हाँ कर ले तो वह
रो-धोकर मान ही
जायगी।
खेतों के निकलने
में भी तो मरजाद बिगड़ती है।
धनिया ने आकर पूछा -- पण्डित क्यों आये थे?
' कुछ
नहीं, यही बेदख़ली की
बातचीत थी। '
' आँसू
पोंछने आये होंगे, यह तो न होगा कि सौ रुपए
उधार दे दें। '
' माँगने
का मुँह भी तो नहीं। '
' तो यहाँ
आते ही क्यों हैं? '
' रुपिया की सगाई की
बात थी। '
' किससे? '
' रामसेवक
को जानती है?
उन्हीं से। '
' मैंने उन्हें कब देखा,
हाँ नाम बहुत दिन से
सुनती हूँ।
वह तो बूढ़ा होगा। '
' बूढ़ा
नहीं है, हाँ
अधेड़ है। '
' तुमने
पण्डित को फटकारा नहीं।
मुझसे कहते तो ऐसा जवाब
देती कि याद करते। '
' फटकारा
नहीं; लेकिन इन्कार कर
दिया।
कहते थे,
ब्याह भी बिना ख़रच-बरच के
हो जायगा; औरर
खेत भी बच जायँगे। '
' साफ़-साफ़ क्यों नहीं
बोलते कि लड़की बेचने को कहते
थे।
कैसे इस बूढ़े का हियाव
पड़ा? '
लेकिन होरी इस प्रश्न पर जितना ही विचार
करता, उतना ही उसका
दुराग्रह कम होता जाता था।
कुल-मर्यादा
की लाज उसे कुछ कम न थी; लेकिन जिसे असाध्य रोग ने
ग्रस लिया हो, वह
खाद्य-अखाद्य की परवाह कब
करता है?
दातादीन के सामने होरी ने
कुछ ऐसा भाव प्रकट किया था, जिसे स्वीकृति नहीं कहा जा सकता,
मगर भीतर से वह पिघल गया था।
उम्र की ऐसी कोई बात नहीं।
मरना-जीना तक़दीर
के हाथ है।
बूढ़े बैठे रहते
हैं, जवान चले
जाते हैं।
रूपा को सुख लिखा है, तो वहाँ भी सुख
उठायेगी; दुख लिखा
है, तो कहीं भी
सुख नहीं पा सकती औरर लड़की बेचने की
तो कोई बात ही नहीं।
होरी उससे जो कुछ
लेगा, उधार लेगा
औरर हाथ में रुपए आते ही चुका देगा।
इसमें शर्म या अपमान की कोई
बात ही नहीं है।
बेशक,
उसमें समाई होती,
तो वह रूपा का ब्याह किसी जवान लड़के से औरर
अच्छे कुल में करता, दहेज भी देता, बरात के खिलाने-पिलाने में भी ख़ूब दिल
खोलकर ख़र्च करता; मगर
जब ईश्वर ने उसे इस लायक़ नहीं बनाया,
तो कुश-कन्या के सिवा औरर वह कर क्या सकता
है?
लोग हँसेंगे; लेकिन जो लोग ख़ाली
हँसते हैं,
औरर कोई मदद नहीं करते, उनकी हँसी की वह क्यों परवा करे।
मुश्किल यही है कि धनिया न राज़ी
होगी।
गधी तो है ही।
वही पुरानी लाज ढोये जायेगी।
यह कुल-प्रतिष्ठा के पालने का समय
नहीं, अपनी जान
बचाने का अवसर है।
ऐसी ही बड़ी लाजवाली है, तो लाये, पाँच सौ निकाले।
कहाँ धरे हैं?
दो दिन गुज़र गये औरर इस
मामले पर उन लोगों में कोई
बातचीत न हुई।
हाँ,
दोनों सांकेतिक भाषा में
बातें करते थे।
धनिया कहती --
वर-कन्या जोड़ के
हों तभी ब्याह का आनन्द है।
होरी जवाब देता -- ब्याह आनन्द का नाम नहीं है पगली,
यह तो तपस्या है।
' चलो तपस्या
है? '
' हाँ,
मैं कहता जो
हूँ।
भगवान् आदमी को जिस दशा में
डाल दें, उसमें
सुखी रहना तपस्या नहीं, तो औरर क्या है? '
दूसरे दिन धनिया ने वैवाहिक
आनन्द का दूसरा पहलू सोच निकाला।
घर में जब तक सास-ससुर,
देवरानियाँ-जेठानियाँ न हों, तो ससुराल का सुख ही
क्या?
कुछ दिन तो लड़की बहुरिया बनने
का सुख पाये।
होरी ने कहा -- वह वैवाहिक-जीवन का सुख नहीं, दंड है।
धनिया तिनक उठी --
तुम्हारी बातें भी निराली होती हैं।
अकेली बहू घर में कैसे
रहेगी, न कोई आगे
न कोई पीछे।
होरी बोला -- तू तो इस घर में आयी तो एक
नहीं, दो-दो देवर थे, सास थी,
ससुर था।
तूने कौन-सा सुख उठा लिया, बता।
' क्या सभी
घरों में ऐसे ही प्राणी होते
हैं? '
' औरर नहीं
तो क्या आकाश की देवियाँ आ जाती हैं।
अकेली तो बहू।
उस पर हुकूमत करनेवाला सारा घर।
बेचारी किस-किस
को ख़ुश करे।
जिसका हुक्म न माने, वही बैरी।
सबसे भला अकेला। '
फिर भी बात यहीं तक रह गयी; मगर धनिया का पल्ला हलका होता जाता
था।
चौथे दिन रामसेवक महतो
ख़ुद आ पहुँचे।
कलाँ-रास
घोड़े पर सवार, साथ एक
नाई औरर एक ख़िदमतगार,
जैसे कोई बड़ा ज़मींदार हो।
उम्र चालीस से ऊपर थी, बाल खिचड़ी हो गये थे;
पर चेहरे पर तेज
था, देह गठी हुई।
होरी उनके सामने बिलकुल
बूढ़ा लगता था।
किसी मुक़दमे की पैरवी करने जा
रहे थे।
यहाँ ज़रा दोपहरी काट लेना चाहते
हैं।
धूप कितनी तेज़ है, औरर कितने ज़ोरों की
लू चल रही है!
होरी सहुआइन की दूकान से
गेहूँ का आटा औरर घी लाया।
पूरियाँ बनीं।
तीनों मेहमानों ने
खाया।
दातादीन भी आशीर्वाद देने आ
पहुँचे।
बातें होने लगीं।
दातादीन ने पूछा -- कैसा मुक़दमा है महतो?
रामसेवक ने शान जमाते हुए कहा
-- मुक़दमा तो एक न एक
लगा ही रहता है महाराज!
संसार में गऊ बनने से काम
नहीं चलता।
जितना दबो उतना ही लोग दबाते
हैं।
थाना-पुलिस,
कचहरी-अदालत सब हैं
हमारी रक्षा के लिए;
लेकिन रक्षा कोई नहीं करता।
चारों तरफ़ लूट है।
जो ग़रीब है, बेकस है,
उसकी गरदन काटने के लिए सभी तैयार रहते
हैं।
भगवान् न करे कोई बेईमानी
करे।
यह बड़ा पाप है; लेकिन अपने हक़ औरर न्याय के लिए न
लड़ना उससे भी बड़ा पाप है।
तुम्हीं सोचो, आदमी कहाँ तक दबे?
यहाँ तो जो किसान है,
वह सबका नरम चारा है।
पटवारी को नज़राना औरर दस्तूरी न
दे, तो गाँव
में रहना मुश्किल।
ज़मींदार के चपरासी औरर
कारिन्दों का पेट न भरे तो निर्वाह न
हो।
थानेदार औरर कानिसिटिबिल तो
जैसे उसके दामाद हैं, जब उनका दौरा गाँव में हो
जाय, किसानों का धरम
है कि वह उनका आदर-सत्कार
करें, नज़र-नयाज दें, नहीं एक रिपोट में गाँव का
गाँव बँध जाय।
कभी क़ानूनगो आते हैं,
कभी तहसीलदार, कभी डिप्टी, कभी
एजंट, कभी कलक्टर, कभी कमिसनर, किसान को उनके सामने हाथ
बाँधे हाजिर रहना चाहिए।
उनके लिए रसद-चारे,
अंडे-मुरग़ी,
दूध-घी का इन्तज़ाम करना चाहिए।
तुम्हारे सिर भी तो वही बीत रही
है महाराज!
एक-न-एक हाकिम रोज़ नये-नये बढ़ते जाते हैं।
डाक्टर कुओं में दवाई
डालने के लिए आने लगा है।
एक दूसरा डाक्टर कभी-कभी आकर ढोरों को देखता
है, लड़कों का
इम्तहान लेनेवाला इसपिट्टर है, न जाने किस-किस महकमे के अफ़सर हैं, नहर के अलग, जंगल के अलग, ताड़ी-सराब के
अलग, गाँव-सुधार के अलग खेती-विभाग के अलग।
कहाँ तक गिनाऊँ।
पादड़ी आ जाता है, तो उसे भी रसद देना पड़ता
है, नहीं शिकायत कर
दे।
औरर जो कहो कि इतने
महकमों औरर इतने अफ़सरों से
किसान का कुछ उपकार होता हो, नाम को नहीं।
कभी ज़मींदार ने गाँव पर हल पीछे
दो-दो रुपये चन्दा
लगाया।
किसी बड़े अफ़सर की दावत की थी।
किसानों ने देने से
इनकार कर दिया।
बस, उसने
सारे गाँव पर जाफा कर दिया।
हाकिम भी ज़मींदार ही का पच्छ करते
हैं।
यह नहीं सोचते कि किसान भी आदमी
हैं, उनके भी
बाल-बच्चे
हैं, उनकी भी
इज़्ज़त-आबरू है।
औरर यह सब हमारे दब्बूपन का फल
है।
मैंने गाँव भर में
डोंड़ी पिटवा दी कि कोई बेसी लगान न दो
औरर न खेत छोड़ो, हमको कोई कायल कर दे, तो हम जाफा देने को
तैयार हैं;
लेकिन जो तुम चाहो कि बेमुँह
के किसानों को पीसकर पी जायँ तो
यह न होगा।
गाँववालों ने मेरी बात
मान ली, औरर सबने
जाफा देने से इनकार कर दिया।
ज़मींदार ने देखा, सारा गाँव एक हो गया है, तो लाचार हो गया।
खेत बेदख़ल कर दे, तो जोते कौन!
इस ज़माने में जब तक कड़े न
पड़ो, कोई नहीं
सुनता।
बिना रोये तो बालक भी माँ
से दूध नहीं पाता।
रामसेवक तीसरे पहर चला गया औरर
धनिया औरर होरी पर न मिटनेवाला असर छोड़
गया।
दातादीन का मन्त्र जाग गया।
उन्होंने पूछा -- अब क्या कहते हो?
होरी ने धनिया की ओर इशारा करके
कहा -- इससे पूछो।
' हम तुम
दोनों से पूछते हैं। '
धनिया बोली -- उमिर तो ज़्यादा है; लेकिन तुम लोगों की राय
है, तो मुझे
भी मंज़ूर है।
तक़दीर में जो लिखा होगा,
वह तो आगे आयेगा
ही; मगर आदमी अच्छा है।
औरर होरी को तो रामसेवक पर
वह विश्वास हो गया था,
जो दुर्बलों को जीवटवाले
आदमियों पर होता है।
वह शेख़ चिल्ली के-से मंसूबे बाँधने लगा
था।
ऐसा आदमी उसका हाथ पकड़ ले, तो बेड़ा पार है।
विवाह का मुहूर्त ठीक हो गया।
गोबर को भी बुलाना होगा।
अपनी तरफ़ से लिख दो, आने न आने का उसे अख़्तियार है।
यह कहने को तो मुँह न
रहे कि तुमने मुझे बुलाया कब
था?
सोना को भी बुलाना होगा।
धनिया ने कहा -- गोबर तो ऐसा नहीं था,
लेकिन जब झुनिया आने
दे।
परदेश जाकर ऐसा भूल गया कि न
चिट्ठी न पत्री।
न जाने कैसे हैं।
-- यह
कहते-कहते उसकी
आँखें सजल हो गयीं।
गोबर को ख़त मिला, तो चलने को तैयार हो गया।
झुनिया को जाना अच्छा तो न लगता
था; पर इस अवसर पर कुछ कह
न सकी।
बहन के ब्याह में भाई का न जाना
कैसे सम्भव है!
सोना के ब्याह में न जाने का
कलंक क्या कम है?
गोबर आद्र्र कंठ से बोला
-- माँ बाप से
खिंचे रहना कोई अच्छी बात नहीं है।
अब हमारे हाथ-पाँव हैं, उनसे खिंच लें, चाहे लड़ लें; लेकिन जन्म तो उन्हीं ने
दिया, पाल-पोसकर जवान तो उन्हीं ने
किया, अब वह हमें चार
बात भी कहें, तो
हमें ग़म खाना चाहिए।
इधर मुझे बार-बार अम्माँ-दादा की
याद आया करती है।
उस बखत मुझे न जाने क्यों
उन पर ग़ुस्सा आ गया।
तेरे कारन माँ-बाप को भी छोड़ना पड़ा।
झुनिया तिनक उठी -- मेरे सिर पर यह पाप न लगाओ,
हाँ!
तुम्हीं को लड़ने की सूझी थी।
मैं तो अम्माँ के पास
इसने दिन रही, कभी
साँस तक न लिया।
' लड़ाई
तेरे कारन हुई। '
' अच्छा मेरे ही कारन सही।
मैंने भी तो
तुम्हारे लिए अपना घर-बार छोड़ दिया। '
' तेरे घर
में कौन तुझे प्यार करता था।
भाई बिगड़ते थे, भावजें जलाती थीं।
भोला जो तुझे पा जाते
तो कच्चा ही खा जाते। '
' तुम्हारे
ही कारन। '
' अबकी जब तक
रहें, इस तरह
रहें कि उन्हें भी ज़िन्दगानी का कुछ सुख
मिले।
उनकी मरज़ी के ख़िलाफ़ कोई काम न
करें।
दादा इतने अच्छे हैं कि कभी
मुझे डाँटा तक नहीं।
अम्माँ ने कई बार मारा है; लेकिन वह जब मारती थीं,
तब कुछ-न कुछ खाने को दे देती
थीं।
मारती थीं; पर
जब तक मुझे हँसा न लें, उन्हें चैन न आता था। '
दोनों ने मालती से ज़िक्र
किया।
मालती ने छुट्टी ही नहीं दी,
कन्या के उपहार के लिए एक
चर्खा औरर हाथों का कंगन भी दिया।
वह ख़ुद जाना चाहती थी; लेकिन कई ऐसे मरीज़ उसके इलाज
में थे,
जिन्हें एक दिन के लिए भी न छोड़ सकती थी।
हाँ, शादी
के दिन आने का वादा किया औरर बच्चे के लिए
खिलौनों का ढेर लगा दिया।
उसे बार-बार
चूमती थी औरर प्यार करती थी, मानो सब कुछ पेशगी ले
लेना चाहती है औरर बच्चा उसके प्यार की
बिलकुल परवा न करके घर चलने के लिए
ख़ुश था, उस घर के लिए
जिसको उसने देखा तक न था।
उसकी बाल-कल्पना
में घर स्वर्ग से भी बढ़कर कोई चीज़ थी।
गोबर ने घर पहुँचकर उसकी दशा
देखी तो ऐसा निराश हुआ कि इसी वक़्त यहाँ
से लौट जाय।
घर का एक हिस्सा गिरने-गिरने हो गया था।
द्वार पर केवल एक बैल बँधा
हुआ था, वह भी नीमजान।
धनिया औरर होरी दोनों
फूले न समाये;
लेकिन गोबर का जी उचाट था।
अब इस घर के सँभलने की क्या आशा
है!
वह ग़ुलामी करता है; लेकिन भरपेट खाता तो है।
केवल एक ही मालिक का तो नौकर है।
यहाँ तो जिसे देखो,
वही रोब जमाता है।
ग़ुलामी है; पर सूखी।
मेहनत करके अनाज पैदा करो
औरर जो रुपए मिलें, वह दूसरों को दे दो।
आप बैठे राम-राम करो।
दादा ही का कलेजा है कि यह सब सहते
हैं।
उससे तो एक
दिन न सहा जाय।
औरर यह दशा कुछ होरी ही की न थी।
सारे गाँव पर यह विपत्ति थी।
ऐसा एक आदमी भी नहीं, जिसकी रोनी सूरत न हो, मानो उनके प्राणों की जगह
वेदना ही बैठी उन्हें कठपुतलियों
की तरह नचा रही हो।
चलते-फिरते थे,
काम करते थे,
पिसते थे,
घुटते थे; इसलिए
कि पिसना औरर घुटना उनकी तक़दीर में लिखा था।
जीवन में न कोई आशा है,
न कोई उमंग, जैसे उनके जीवन के
सोते सूख गये हों औरर सारी
हरियाली मुरझा गयी हो।
जेठ के दिन हैं, अभी तक खलिहानों में
अनाज मौजूद है;
मगर किसी के चेहरे पर ख़ुशी नहीं है।
बहुत कुछ तो खलिहान में ही
तुलकर महाजनों औरर कारिन्दों की
भेंट हो चुका है औरर जो कुछ
बचा है, वह भी
दूसरों का है।
भविष्य अन्धकार की भाँति उनके सामने
है।
उसमें उन्हें कोई रास्ता
नहीं सूझता।
उनकी सारी चेतनाएँ शिथिल हो गयी
हैं।
द्वार पर मनों कूड़ा जमा है
दुर्गन्ध उड़ रही है;
मगर उनकी नाक में न गन्ध है, न आँखों में ज्योति।
सरेशाम द्वार पर गीदड़ रोने
लगते हैं; मगर
किसी को ग़म नहीं।
सामने जो कुछ मोटा-झोटा आ जाता है, वह खा लेते हैं,
उसी तरह जैसे इंजिन
कोयला खा लेता है।
उनके बैल चूनी-चोकर के बग़ैर नाद में
मुँह नहीं डालते; मगर उन्हें केवल पेट में
कुछ डालने को चाहिए।
स्वाद से उन्हें कोई प्रयोजन
नहीं।
उनकी रसना मर चुकी है।
उनके जीवन में स्वाद का लोप
हो गया है।
उनसे धेले-धेले के लिए बेईमानी करवा
लो,
मुट्ठी-भर अनाज के
लिए लाठियाँ चलवा लो।
पतन की वह इन्तहा है, जब आदमी शर्म औरर इज़्ज़त को भी
भूल जाता है।
लड़कपन से गोबर ने
गाँवों की यही दशा देखी थी औरर उनका आदी
हो चुका था; पर आज
चार साल के बाद उसने जैसे एक नयी
दुनिया देखी।
भले आदमियों के साथ रहने
से उसकी बुद्धि कुछ जग उठी है; उसने राजनैतिक जलसों
में पीछे खड़े होकर भाषण सुने
हैं औरर उनसे अंग-अंग में बिधा है।
उसने सुना है औरर समझा है
कि अपना भाग्य ख़ुद बनाना होगा, अपनी बुद्धि औरर साहस से इन
आफ़तों पर विजय पाना होगा।
कोई देवता, कोई गुप्त शक्ति उनकी मदद करने न
आयेगी।
औरर उसमें गहरी संवेदना
सजग हो उठी है।
अब उसमें वह पहले की उद्दंडता
औरर ग़रूर नहीं है।
वह नम्र औरर उद्योग-शील हो गया है।
जिस दशा में पड़े हो, उसे स्वार्थ औरर लोभ
के वश होकर औरर क्यों बिगाड़ते
हो?
दु:ख ने तुम्हें एक सूत्र
में बाँध दिया है।
बन्धुत्व के इस दैवी बन्धन को
क्यों अपने तुच्छ स्वार्थों में
तोड़े डालते हो?
उस बन्धन को एकता का बन्धन बना लो।
इस तरह के भावों ने उसकी
मानवता को पंख-से लगा दिये हैं।
संसार का ऊँच-नीच देख लेने के बाद निष्कपट
मनुष्यों में जो उदारता आ जाती
है, वह अब मानो आकाश
में उड़ने के लिए पंख फड़फड़ा रही है।
होरी को अब वह कोई काम करते
देखता है, तो
उसे हटाकर ख़ुद करने लगता है, जैसे पिछले
दुव्र्यवहार का प्रायश्चित करना चाहता हो।
कहता है, दादा
अब कोई चिन्ता मत करो,
सारा भार मुझ पर छोड़ दो, मैं अब हर महीने ख़र्च
भेजूँगा,
इतने दिन तो मरते-खपते रहे कुछ दिन तो आराम कर
लो; मुझे धिक्कार
है कि मेरे रहते तुम्हें इतना
कष्ट उठाना पड़े।
औरर होरी के रोम-रोम से बेटे के लिए
आशीर्वाद निकल जाता है।
उसे अपनी जीर्ण देह में
दैवी स्फूर्ति का अनुभव होता है।
वह इस समय अपने क़रज़ का ब्योरा कहकर उसकी
उठती जवानी पर चिन्ता की बिजली क्यों
गिराये?
वह आराम से खाये-पीये, ज़िन्दगी का
सुख उठाये।
मरने-खपने के लिए वह तैयार है।
यही उसका जीवन है।
राम-राम जपकर वह
जी भी तो नहीं सकता।
उसे तो फावड़ा औरर कुदाल चाहिए।
राम-नाम की माला
फेरकर उसका चित्त न शान्त होगा।
गोबर ने कहा -- कहो तो मैं सबसे क़िस्त
बँधवा लूँ औरर हर महीने-महीने देता जाऊँ।
सब मिलकर कितना होगा?
होरी ने सिर हिलाकर कहा -- नहीं बेटा, तुम काहे को तकलीफ़ उठाओगे।
तुम्हीं को कौन बहुत
मिलते हैं।
मैं सब देख लूँगा।
ज़माना इसी तरह थोड़े ही रहेगा।
रूपा चली जाती है।
अब क़रज़ ही चुकाना तो है।
तुम कोई चिन्ता मत करना।
खाने-पीने
का संजम रखना।
अभी देह बना लोगे, तो सदा आराम से रहोगे।
मेरी कौन?
मुझे तो मरने-खपने की आदत पड़ गयी है।
अभी मैं तुम्हें खेती
में नहीं जोतना चाहता बेटा!
मालिक अच्छा मिल गया है।
उसकी कुछ दिन सेवा कर
लोगे, तो आदमी
बन जाओगे!
वह तो यहाँ आ चुकी हैं।
साक्षात देवी हैं।
' ब्याह के दिन
फिर आने को कहा है। '
' हमारे
सिर-आँखों पर
आयें।
ऐसे भले आदमियों के
साथ रहने से चाहे पैसे कम भी
मिलें; लेकिन ज्ञान
बढ़ता है औरर आँखें खुलती
हैं। '
उसी वक़्त पण्डित दातादीन ने होरी को
इशारे से बुलाया औरर दूर ले जाकर कमर
से सौ-सौ
रुपये के दो नोट निकालते हुए
बोले --
तुमने मेरी सलाह मान ली, बड़ा अच्छा किया।
दोनों काम बन गये।
कन्या से भी उरिन हो गये औरर
बाप-दादों की निशानी
भी बच गयी।
मुझसे जो कुछ हो सका,
मैंने तुम्हारे
लिए कर दिया, अब तुम
जानो, तुम्हारा काम
जाने।
होरी ने रुपए लिए तो उसका हाथ
काँप रहा था, उसका सिर ऊपर
न उठ सका, मुँह से
एक शब्द न निकला, जैसे
अपमान के अथाह गढ़े में गिर पड़ा है
औरर गिरता चला जाता है।
आज तीस साल तक जीवन से लड़ते
रहने के बाद वह परास्त हुआ है औरर ऐसा
परास्त हुआ है कि मानो उसको नगर के
द्वार पर खड़ा कर दिया गया है औरर जो आता
है, उसके मुँह
पर थूक देता है।
वह चिल्ला-चिल्ला कर
कह रहा है, भाइयो
मैं दया का पात्र हूँ मैंने
नहीं जाना जेठ की लू कैसी होती है
औरर माघ की वर्षा कैसी होती है?
इस देह को चीरकर देखो, इसमें कितना प्राण रह गया
है, कितना ज़ख़्मों
से चूर, कितना
ठोकरों से कुचला हुआ!
उससे पूछो, कभी तूने विश्राम के दर्शन
किये, कभी तू छाँह
में बैठा।
उस पर यह अपमान!
औरर वह अब भी जीता है, कायर,
लोभी, अधम।
उसका सारा विश्वास जो अगाध होकर
स्थूल औरर अन्धा हो गया था, मानो टूक-टूक उड़ गया है।
दातादीन ने कहा -- तो मैं जाता हूँ।
न हो, तो
तुम इसी वखत नोखेराम के पास चले
जाओ।
होरी दीनता से बोला -- चला जाऊँगा महाराज!
मगर मेरी इज़्ज़त तुम्हारे हाथ है।
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Recoded: 20 Sept. 1999 to 6 Oct 1999.
Chapter Thirty-five posted: 13 Oct. 1999.