यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
इन्स्टिट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़
लैंग्वजिज़ ऐंड कल्चर्ज़ ऑफ़
एशिया ऐंड ऐफ़्रिका
तोक्यो
यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ाॅरेन स्टडीज़
Mellon Project
प्रेमचन्द
गोदान
(Devanagari text reconstituted from Professor K. Machida's roman
transcription)
Chapter Thirty-six.
(unparagraphed text)
दो दिन तक गाँव में
ख़ूब धूम-धाम रही।
बाजे बजे, गाना-बजाना
हुआ औरर रूपा रो-धोकर बिदा हो गयी; मगर होरी को किसी ने घर से
निकलते न देखा।
ऐसा छिपा बैठा था, जैसे मुँह में कालिख
लगी हो।
मालती के आ जाने से चहल-पहल औरर बढ़ गयी।
दूसरे गाँवों की स्त्रियाँ
भी आ गयीं।
गोबर ने अपने शील-स्नेह से सारे गाँव को
मुग्ध कर लिया है।
ऐसा कोई घर न था, जहाँ वह अपने मीठे व्यवहार की याद न
छोड़ आया हो।
भोला तो उसके पैरों
पर गिर पड़े।
उनकी स्त्री ने उसको पान खिलाये
औरर एक रुपया बिदायी दी औरर उसका लखनऊ का पता भी
पूछा।
कभी लखनऊ आयेगी तो उससे ज़रूर
मिलेगी।
अपने रुपए की उससे चर्चा न की।
तीसरे दिन जब गोबर चलने
लगा, तो होरी ने
धनिया के सामने आँखों में
आँसू भरकर वह अपराध स्वीकार किया, जो कई दिन से उसकी आत्मा को मथ रहा
था, औरर रोकर
बोला -- बेटा,
मैंने इस ज़मीन के
मोह से पाप की गठरी सिर लादी।
न जाने भगवान् मुझे इसका क्या
दंड देंगे!
गोबर ज़रा भी गर्म न हुआ, किसी प्रकार का रोष उसके
मुँह पर न था।
श्रद्धाभाव से बोला -- इसमें अपराध की तो कोई
बात नहीं है दादा,
हाँ रामसेवक के रुपए अदा कर देना चाहिए।
आख़िर तुम क्या करते हो?
मैं किसी लायक़ नहीं, तुम्हारी खेती में उपज
नहीं, करज़ कहीं मिल
नहीं सकता, एक महीने
के लिए भी घर में भोजन नहीं।
ऐसी दशा में तुम औरर कर ही
क्या सकते थे?
जैजात न बचाते तो रहते
कहाँ?
जब आदमी का कोई बस नहीं चलता,
तो अपने को तक़दीर पर ही
छोड़ देता है।
न जाने यह धाँधली कब तक चलती
रहेगी।
जिसे पेट की रोटी मयस्सर
नहीं, उसके लिए मरजाद
औरर इज़्ज़त सब ढोंग है।
औररों की तरह तुमने भी
दूसरों का गला दबाया होता, उनकी जमा मारी होती, तो तुम भी भले आदमी
होते।
तुमने कभी नीति को नहीं
छोड़ा, यह उसी का दंड
है।
तुम्हारी जगह मैं होता तो
या तो जेहल में होता या फाँसी पर
गया होता।
मुझसे यह कभी बरदाश्त न होता कि
मैं कमा-कमाकर सबका घर
भरूँ औरर आप अपने बाल-बच्चों के साथ मुँह
में जाली लगाये बैठा रहूँ।
धनिया बहू को उसके साथ
भेजने पर राज़ी न हुई।
झुनिया का मन भी अभी
कुछ दिन यहाँ रहने का था।
तय हुआ कि गोबर अकेला ही जाय।
दूसरे दिन प्रात:काल गोबर सबसे
बिदा होकर लखनऊ चला।
होरी उसे गाँव के बाहर तक
पहुँचाने आया।
गोबर के प्रति इतना प्रेम उसे कभी
न हुआ था।
जब गोबर उसके चरणों पर
झुका, तो होरी
रो पड़ा, मानो फिर
उसे पुत्र के दर्शन न होंगे।
उसकी आत्मा में उल्लास था, गर्व था, संकल्प था।
पुन्न से यह श्रद्धा औरर
स्नेह पाकर वह तेजवान हो गया है, विशाल हो गया है।
कई दिन पहले उस पर जो अवसाद-सा छा गया था, एक अन्धकार-सा,
जहाँ वह अपना मार्ग भूल
जाता था, वहाँ अब उत्साह
है औरर प्रकाश है।
रूपा अपनी ससूराल में ख़ुश थी।
जिस दशा में उसका बालपन बीता
था, उसमें पैसा
सबसे क़ीमती चीज़ थी।
मन में कितनी साधें
थीं, जो मन
में ही घुट-घुटकर रह गयी थीं।
वह अब उन्हें पूरा कर रही थी औरर
रामसेवक अधेड़ होकर भी जवान हो गया था।
रूपा के लिए वह पति था, उसके जवान,
अधेड़ या बूढ़े होने से उसकी
नारी-भावना में
कोई अन्तर न आ सकता था।
उसकी यह भावना पति के रंग-रूप या उम्र पर आश्रित न थी,
उसकी बुनियाद इससे
बहुत गहरी थी,
श्वेत परम्पराओं की तह में, जो केवल किसी भूकम्प से
ही हिल सकती थीं।
उसका यौवन अपने ही में मस्त
था, वह अपने ही लिए अपना
बनाव-सिंगार करती थी
औरर आप ही ख़ुश होती थी।
रामसेवक के लिए उसका दूसरा रूप था।
तब वह गृहिणी बन जाती थी, घर के काम-काज में लगी हुई।
अपनी जवानी दिखाकर उसे लज्जा या चिन्ता
में न डालना चाहती थी।
किसी तरह की अपूर्णता का भाव उसके मन
में न आता था।
अनाज से भरे हुए बखार औरर
गाँव से सिवान तक फैले हुए खेत
औरर द्वार पर ढोरों की क़तारें
औरर किसी प्रकार की अपूर्णता को उसके अन्दर
आने ही न देती थीं।
औरर उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा थी
अपने घरवालों की ख़ुशी देखना।
उनकी ग़रीबी कैसे दूर कर
दे?
उस गाय की याद अभी तक उसके दिल में
हरी थी, जो मेहमान की
तरह आयी थी औरर सब को रोता छोड़कर चली गयी
थी।
वह स्मृति इतने दिनों के बाद
अब औरर भी मृदु हो गयी थी।
अभी उसका निजत्व इस नये घर में न
जम पाया था।
वही पुराना घर उसका अपना घर था।
वहीं के लोग अपने आत्मीय
थे, उन्हीं का दु:ख
उसका दु:ख औरर उन्हीं का सुख उसका सुख था।
इस द्वार पर ढोरों का एक रेवड़
देखकर उसे वह हर्ष न हो सकता था, जो अपने द्वार पर एक गाय
देखकर होता।
उस के दादा की यह लालसा कभी पूरी न
हुई।
जिस दिन वह गाय आयी थी, उन्हें कितना उछाह हुआ था, जैसे आकाश से कोई
देवी आ गयी हो।
तब से फिर उन्हें इतनी समाई ही न
हुई कि कोई दूसरी गाय लाते, पर वह जानती थी, आज भी वह लालसा होरी के मन में
उतनी ही सजग है।
अबकी यह जायगी,
तो साथ वह धौरी गाय ज़रूर लेती जायगी।
नहीं,
अपने आदमी से क्यों न भेजवा दे।
रामसेवक से पूछने की देर थी।
मंज़ूरी हो गयी, औरर दूसरे दिन एक अहीर के मारफ़त रूपा
ने गाय भेज दी।
अहीर से कहा,
दादा से कह देना,
मंगल के दूध पीने के लिए भेजी
है।
होरी भी गाय लेने की फ़क्रि
में था।
यों अभी उसे गाय की कोई जल्दी न
थी; मगर मंगल यहीं
है औरर बिना दूध के कैसे रह सकता
है!
रुपए मिलते ही वह सबसे पहले गाय
लेगा।
मंगल अब केवल उसका पोता नहीं
है, केवल गोबर का
बेटा नहीं है,
मालती देवी का खिलौना भी है।
उसका लालन-पालन
उसी तरह का होना चाहिए।
मगर रुपये कहाँ से आयें।
संयोग से उसी दिन एक ठीकेदार
ने सड़क के लिए गाँव के ऊसर में
कंकड़ की खुदाई शुरू की।
होरी ने सुना तो चट-पट वहाँ जा पहुँचा, औरर आठ आने रोज़ पर
खुदाई करने लगा; अगर
यह काम दो महीने भी टिक गया, तो गाय भर को रुपए मिल जायँगे।
दिन-भर लू
औरर धूप में काम करने के बाद वह घर
आता, तो बिलकुल मरा
हुआ; पर अवसाद का नाम
नहीं।
उसी उत्साह से दूसरे दिन काम करने
जाता।
रात को भी खाना खा कर डिब्बी के
सामने बैठ जाता,
औरर सुतली कातता।
कहीं बारह-एक
बजे सोने जाता।
धनिया भी पगला गयी थी, उसे इतनी मेहनत करने से
रोकने के बदले ख़ुद उसके साथ
बैठी-बैठी सुतली
कातती।
गाय तो लेनी ही है, रामसेवक के रुपए भी तो अदा
करने हैं।
गोबर कह गया है।
उसे बड़ी चिन्ता है।
रात के बारह बज गये थे।
दोनों बैठे सुतली कात
रहे थे।
धनिया ने कहा -- तुम्हें नींद आती हो तो
जाके सो रहो।
भोरे फिर तो काम करना है।
होरी ने आसमान की ओर देखा
-- चला जाऊँगा।
अभी तो दस बजे होंगे।
तू जा,
सो रह।
' मैं
तो दोपहर को छन-भर पौढ़ रहती हूँ। '
' मैं भी
चबेना करके पेड़ के नीचे सो
लेता हूँ। '
' बड़ी लू
लगती होगी। '
' लू क्या
लगेगी?
अच्छी छाँह है। '
' मैं डरती
हूँ, कहीं तुम
बीमार न पड़ जाओ। '
' चल; बीमार वह पड़ते हैं,
जिन्हें बीमार पड़ने की
फ़ुरसत होती है।
यहाँ तो यह धुन है कि अबकी
गोबर आये, तो
रामसेवक के आधे रुपए जमा रहें।
कुछ वह भी लायेगा।
बस इस साल इस रिन से गला छूट
जाय, तो दूसरी ज़िन्दगी
हो। '
' गोबर की
अबकी बड़ी याद आती है।
कितना सुशील हो गया है। '
चलती बेर पैरों पर गिर
पड़ा। '
' मंगल
वहाँ से आया तो कितना तैयार था।
यहाँ आकर दुबला हो गया है।
'
' वहाँ
दूध, मक्खन, क्या नहीं पाता था?
यहाँ रोटी मिल जाय वही बहुत है।
ठीकेदार से रुपए मिले औरर गाय
लाया। '
' गाय तो कभी
आ गयी होती, लेकिन
तुम जब कहना मानो।
अपनी खेती तो सँभाले न
सँभलती थी, पुनिया
का भार भी अपने सिर ले लिया। '
' क्या करता,
अपना धरम भी तो कुछ है।
हीरा ने नालायक़ी की तो उसके
बाल-बच्चों को
सँभालनेवाला तो कोई चाहिए ही था।
कौन था मेरे सिवा, बता?
मैं न मदद करता, तो आज उनकी क्या गति होती, सोच।
इतना सब करने पर भी तो मँगरू
ने उस पर नालिश कर ही दी। '
' रुपए गाड़कर
रखेगी तो क्या नालिश न होगी? '
' क्या बकती है।
खेती से पेट चल जाय यही बहुत
है।
गाड़कर कोई क्या रखेगा। '
' हीरा तो
जैसे संसार ही से चला गया। '
' मेरा मन
तो कहता है कि वह आवेगा, कभी न कभी ज़रूर। '
दोनों सोये।
होरी अँधेरे मुँह उठा
तो देखता है कि हीरा सामने खड़ा है,
बाल बढ़े हुए, कपड़े तार-तार, मुँह
सूखा हुआ, देह
में रक्त औरर मांस का नाम नहीं,
जैसे क़द भी छोटा हो
गया है।
दौड़कर होरी के क़दमों पर गिर
पड़ा।
होरी ने उसे छाती से लगाकर कहा
-- तुम तो बिलकुल
घुल गये हीरा!
कब आये?
आज तुम्हारी बार-बार याद आ रही थी।
बीमार हो क्या?
आज उसकी आँखों में वह हीरा
न था जिसने उसकी ज़िन्दगी तल्ख़ कर दी थी, बल्कि वह हीरा था, जो बे-माँ-बाप का
छोटा-सा बालक था।
बीच के ये पचीस-तीस साल जैसे मिट गये, उनका कोई चिन्ह भी नहीं था।
हीरा ने कुछ जवाब न दिया।
खड़ा रो रहा था।
होरी ने उसका हाथ पकड़कर गढगढ कंठ
से कहा -- क्यों
रोते हो भैया, आदमी से भूल-चूल होती ही है।
कहाँ रहा इतने दिन?
हीरा कातर स्वर में बोला -- कहाँ बताऊँ दादा!
बस यही समझ लो कि तुम्हारे
दर्शन बदे थे, बच
गया।
हत्या सिर पर सवार थी।
ऐसा लगता था कि वह गऊ मेरे
सामने खड़ी है;
हरदम, सोते-जागते,
कभी आँखों से ओझल न होती।
मैं पागल हो गया औरर पाँच
साल पागल-खाने
में रहा।
आज वहाँ से निकले छ: महीने
हुए।
माँगता-खाता
फिरता रहा।
यहाँ आने की हिम्मत न पड़ती थी।
संसार को कौन मुँह
दिखाऊँगा।
आख़िर जी न माना।
कलेजा मज़बूत करके चला आया।
तुमने बाल-बच्चों को ।।।
होरी ने बात काटी -- तुम नाहक़ भागे।
अरे,
दारोग़ा को दस-पाँच
देकर मामला रफ़े-दफ़े
करा दिया जाता औरर होता क्या?
' तुमसे
जीते-जी उरिन न
हूँगा दादा। '
' मैं
कोई ग़ैर थोड़े हूँ भैया। '
होरी प्रसन्न था।
जीवन के सारे संकट, सारी निराशाएँ मानो उसके
चरणों पर लोट रही थीं।
कौन कहता है जीवन संग्राम
में वह हारा है।
यह उल्लास, यह
गर्व, यह पुलक क्या हार
के लक्षण हैं!
इन्हीं हारों में उसकी विजय
है।
उसके टूटे-फूटे अस्त्र उसकी विजय-पताकाएँ हैं।
उसकी छाती फूल उठी हैं, मुख पर तेज आ गया है।
हीरा की कृतज्ञता में उसके जीवन की
सारी सफलता मूर्तिमान्् हो गयी है।
उसके बखार में सौ-दो-सौ मन अनाज भरा होता, उसकी हाँड़ी में हज़ार-पाँच सौ गड़े
होते, पर उससे यह
स्वर्ग का सुख क्या मिल सकता था?
हीरा ने उसे सिर से पाँव तक
देखकर कहा -- तुम भी
तो बहुत दुबले हो गये दादा!
होरी ने हँसकर कहा -- तो क्या यह मेरे
मोटे होने के दिन हैं?
मोटे वह होते हैं,
जिन्हें न रिन की सोच
होता है, न इज़्ज़त का।
इस ज़माने में मोटा होना
बेहयाई है।
सौ को दुबला करके तब एक
मोटा होता है।
ऐसे मोटेपन में क्या
सुख?
सुख तो जब है, कि सभी मोटे हों।
सोभा से भेंट हुई?
' उससे
तो रात को भेंट हो गयी थी।
तुमने तो अपनों को
भी पाला, जो
तुमसे बैर करते थे, उनको भी पाला औरर अपना मरजाद
बनाये बैठे हो।
उसने तो खेत-बारी सब बेच-बाच डाली औरर अब
भगवान् ही जाने उसका निबाह कैसे
होगा? '
आज होरी खुदाई करने चला, तो देह भारी थी।
रात की थकान दूर न हो पाई थी; पर उसके क़दम तेज़ थे औरर
चाल में निद्र्वंद्वता की अकड़ थी।
आज दस बजे ही से लू चलने लगी
औरर दोपहर होते-होते तो आग बरस रही थी।
होरी कंकड़ के झौवे
उठा-उठाकर खदान से सड़क पर
लाता था औरर गाड़ी पर लादता था।
जब दोपहर की छुट्टी हुई, तो वह बेदम हो गया था।
ऐसी थकन उसे कभी न हुई थी।
उसके पाँव तक न उठते थे।
देह भीतर से झुलसी जा रही थी।
उसने न स्नान ही किया, न चबेना।
उसी थकन में अपना अँगोछा बिछाकर
एक पेड़ के नीचे सो रहा; मगर प्यास के मारे कंठ सूखा जाता
है।
ख़ाली पेट पानी पीना ठीक नहीं।
उसने प्यास को रोकने की
चेष्टा की; लेकिन
प्रतिक्षण भीतर की दाह बढ़ती जाती थी।
न रहा गया।
एक मज़दूर ने बाल्टी भर रखी थी औरर
चबेना कर रहा था।
होरी ने उठकर एक लोटा पानी
खींचकर पिया औरर फिर आकर लेट रहा; मगर आधा घंटे में
उसे क़ै हो गयी औरर चेहरे पर
मुर्दनी-सी छा गयी।
उस मज़दूर ने कहा -- कैसा जी है होरी भैया?
होरी के सिर में चक्कर आ रहा था।
बोला --
कुछ नहीं, अच्छा
हूँ।
यह कहते-कहते उसे फिर क़ै हुई औरर
हाथ-पाँव ठंडे
होने लगे।
यह सिर में चक्कर क्यों आ रहा
है?
आँखों के सामने
जैसे अँधेरा छाया जाता है।
उसकी आँखें बन्द हो गयीं
औरर जीवन की सारी स्मृतियाँ सजीव
हो-होकर
हृदय-पट पर आने
लगीं; लेकिन
बेक्रम, आगे की
पीछे, पीछे की
आगे, स्वप्न-चित्रों की भाँति
बेमेल, विकृत
औरर असम्बद्ध।
वह सुखद बालपन आया जब वह
गुल्लियाँ खेलता था औरर माँ की गोद
में सोता था।
फिर देखा,
जैसे गोबर आया है औरर उसके
पैरों पर गिर रहा है।
फिर दृश्य बदला,
धनिया दुलहिन बनी हुई, लाल चुँदरी पहने उसको
भोजन करा रही थी।
फिर एक गाय का चित्र सामने आया, बिलकुल कामधेनु-सी।
उसने उसका दूध दुहा औरर
मंगल को पिला रहा था कि गाय एक देवी बन गयी
औरर ।।।
उसी मज़दूर ने फिर पुकारा -- दोपहरी ढल गयी होरी, चलो झौवा उठाओ।
होरी कुछ न बोला।
उसके प्राण तो न जाने किस-किस लोक में उड़ रहे
थे।
उसकी देह जल रही थी, हाथ-पाँव
ठंडे हो रहे थे।
लू लग गयी थी।
उसके घर आदमी दौड़ाया गया।
एक घंटा में धनिया दौड़ी हुई
आ पहुँची।
शोभा औरर हीरा पीछे-पीछे खटोले की डोली
बनाकर ला रहे थे।
धनिया ने होरी की देह छुई,
तो उसका कलेजा सन््
से हो गया।
मुख काँतिहीन हो गया था।
काँपती हुई आवाज़ से बोली
-- कैसा जी है
तुम्हारा?
होरी ने अस्थिर आँखों से
देखा औरर बोला --
तुम आ गये गोबर?
मैंने मंगल के लिये
गाय ले ली है।
वह खड़ी है,
देखो।
धनिया ने मौत की सूरत देखी
थी।
उसे पहचानती थी।
उसे दबे पाँव आते भी देखा
था, आँधी की तरह भी
देखा था।
उसके सामने सास मरी, ससुर मरा,
अपने दो बालक मरे, गाँव के पचासों आदमी मरे।
प्राण में एक धक्का-सा लगा।
वह आधार जिस पर जीवन टिका हुआ था,
जैसे खिसका जा रहा था,
लेकिन नहीं यह धैर्य
का समय है, उसकी शंका
निर्मूल है, लू
लग गयी है, उसी से
अचेत हो गये हैं।
उमड़ते हुए आँसुओं
को रोककर बोली --
मेरी ओर देखो, मैं हूँ, क्या मुझे नहीं
पहचानते?
होरी की चेतना लौटी।
मृत्यु समीप आ गयी थी; आग दहकनेवाली थी।
धुँआँ शान्त हो गया था।
धनिया को दीन आँखों से
देखा, दोनों
कोनों से आँसू की दो
बूँदें ढुलक पड़ी।
क्षीण स्वर में बोला -- मेरा कहा सुना माफ़ करना
धनियाँ!
अब जाता हूँ।
गाय की लालसा मन में ही रह गयी।
अब तो यहाँ के रुपए क्रिया-करम में जायँगे।
रो मत धनिया, अब कब तक जिलायेगी?
सब दुर्दशा तो हो गयी।
अब मरने दे।
औरर उसकी आँखें फिर बन्द हो
गयीं।
उसी वक़्त हीरा औरर शोभा डोली
लेकर पहुँच गये।
होरी को उठाकर डोली में
लिटाया औरर गाँव की ओर चले।
गाँव में यह ख़बर हवा की तरह फैल
गयी।
सारा गाँव जमा हो गया।
होरी खाट पर पड़ा शायद सब कुछ देखता
था, सब कुछ समझता
था; पर ज़बान बन्द हो गयी
थी।
हाँ, उसकी
आँखों से बहते हुए आँसू
बतला रहे थे कि मोह का बन्धन तोड़ना कितना
कठिन हो रहा है।
जो कुछ अपने से नहीं बन
पड़ा, उसी के दु:ख का
नाम तो मोह है।
पाले हुए कर्तव्य औरर निपटाये
हुए कामों का क्या मोह!
मोह तो उन अनाथों को
छोड़ जाने में है, जिनके साथ हम अपना कर्तव्य न निभा
सके; उन अधूरे
मंसूबों में है, जिन्हें हम न पूरा कर सके।
मगर सब कुछ समझकर भी धनिया आशा की मिटती
हुई छाया को पकड़े हुए थी।
आँखों से आँसू गिर
रहे थे, मगर यन्त्र की
भाँति दौड़-दौड़कर
कभी आम भूनकर पना बनाती, कभी होरी की देह में
गेहूँ कि भूसी की मालिश करती।
क्या करे,
पैसे नहीं हैं, नहीं किसी को भेजकर डाक्टर बुलाती।
हीरा ने रोते हुए कहा -- भाभी, दिल
कड़ा करो, गो-दान करा दो, दादा चले।
धनिया ने उसकी ओर तिरस्कार की
आँखों से देखा।
अब वह दिल को औरर कितना कठोर
करे?
अपने पति के प्रति उसका जो कर्म
है, क्या वह उसको
बताना पड़ेगा?
जो जीवन का संगी था उसके नाम
को रोना ही क्या उसका धर्म है?
औरर कई आवाज़ें आयीं -- हाँ गो-दान करा दो, अब
यही समय है।
धनिया यन्त्र की भाँति उठी, आज जो सुतली बेची थी उसके
बीस आने पैसे लायी औरर पति के
ठंडे हाथ में रखकर सामने खड़े दातादीन
से बोली --
महराज, घर में न गाय
है, न बछिया, न पैसा।
यही पैसे हैं, यही इनका गो-दान है।
औरर पछाड़ खाकर
गिर पड़ी।
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Recoded: 20 Sept. 1999 to 6 Oct 1999.
Chapter Thirty-six posted: 13 Oct. 1999.