यूनिवर्सिटी ऑफ़
विर्जिनिया
विडम्बना
by Narendra K. Sinha
(with author's permission)
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जयंती
औरर जयदेव दोनों अपने
छोटे-से गाँव
के मिडिल स्कूल में पढ़ते थे।
दोनों सातवीं कक्षा में
थे।
जयंती बार-बार
फ़ेल होते रहने के कारण चौदह
साल की उमर में भी सातवीं कक्षा
में ही थी।
जयदेव पासवाले गाँव से आता
था।
माँ-बाप की
खेती-बारी के काम
में मदद करते रहने के कारण
जयदेव ने पढ़ाई देर से शुरू की
औरर पन्द्रह वर्ष की अवस्था हो जाने
के बाद भी सातवीं कक्षा तक ही पहुँचा
था।
[5]
शिक्षकों को विश्वास था कि मिडिल की
परीक्षा में जयदेव ज़िले-भर में प्रथम आएगा।
वह बहुत मेधावी
था।
गणित के कठिन से
कठिन प्रश्न क्यों न हो, सर पर सरसों तेल
चुपड़े चमकते बालों वाला
जयदेव बिना
उसे सुलझाए छोड़ता न था।
इसलिये वह अपनी कक्षा
में सभी के द्वारा प्रशंसित भी था।
सदा हँसमुख
रहनेवाला, भोले-भाले-से
चेहरेवाला जयदेव सभी का प्रियपात्र बन
गया था।
[10]
जयन्ती उस गाँव के
छोटे-से अस्पताल
के कम्पाउंडर की लड़की थी।
वह अपने माता-पिता
के साथ क्वार्टर में रहती थी।
पिता सुनते कम थे।
माँ कम उम्र में ही गठिया से
पीड़ित हो गयी थी।
दोनों बड़े सीधे-सादे व्यक्ति थे।
[15]
अस्पताल औरर पास के क्वार्टर स्कूल
से पौन मील की दूरी पर थे।
स्कूल से चलने
पर गाँव के कुछ मिटटी के घर पार
करने के बाद आम का एक बग़ीचा मिलता था।
बग़ीचे के बाद एक पतली-सी बरसाती नदी मिलती थी।
नदी के पार ऊँचे-से टील पर अस्पताल था औरर अस्पताल
के पीछे दो लगे-लगे क्वार्टर थे।
एक बड़ा क्वार्टर डाक्टर के लिए था औरर
उससे कुछ छोटा कम्पाउण्डर के लिये।
[20]
डाक्टर अटठाईस-तीस का एक
नवयुक था।
वह अपनी पत्नी तथा दो बच्चों
के साथ क्वार्टर में रहता था।
जयदेव के गाँव का रास्ता अस्पताल की
बाईँ ओर से चलकर काम्पाउण्डर के
क्वार्टर की बगल से निकलता था औरर
वहाँ से मील-भर की
दूरी पर था।
जयदेव अकेला ही उस रास्ते से
गुज़रता था।
जयंती अपने क्र्वाटर से निकलकर
पैदल ही स्कूल आती थी।
[25]
जयंती ने एक बार
स्कूल के प्रधानाध्यपक से शिकायत की कि
गाँव के पार आम के बग़ीचे के
पास एक लड़का आकर उसे छेड़ने की कोश्ािश्ा
करता है, औरर
भद्दे-भद्दे फ़ल्मिी
गाने गाता है।
प्रधान ने पूछा,
" क्या तुम उस
छेड़नेवाले लड़के को पहचानती
हो ?"
जयंती बोली ,
" अब पहचान गई हूँ।
"
" है कौन ?"
" नाम तो नहीं
मालूम, पर लम्बा
दुबला-पतला
गोरा-सा है औरर
काला चश्मा लगाता है। "
[30]
दूसरे
मास्टर ने बताया, " वही
चन्द्रिका होगा।
सातवीं कक्षा में फ़ेल होने
के बाद से आवारागर्दी करता रहता है।
"
प्रधान ने
चन्द्रिका को बुलवाकर सभी लड़कों
औरर जयंती के सामने उसे
डाँट लगाई औरर कान पकड़वाए।
जयदंती ख़ुश तो हुई पर अब
उसे औरर भी डर लगने लगा।
उसने सोचा कि
चंद्रिका इस अपमान का बदला उससे अवश्य
लेगा।
[35]
इसपर प्रधान ने
सुझाव दिया कि चूँकि जयदेव का रास्ता
भी वही है जो जयंती का है,
अत: क्यों नहीं
जयदेव ही आते समय उसे अपने साथ
लेता आए औरर जाते समय साथ लेता
जाए।
यह प्रबन्ध जयंती तथा
जयदेव दोनों को स्वीकार हो
गया।
दूसरे ही दिन से
यह दिनचर्या आरम्भ हो गयी।
शुरू
में रास्ते-भर
दोनों में कुछ
पढाई-लिखाई की बात चलती
रही, अपने-अपने परिवारों की
शिकायतें तथा गौरव-गाथा भी चली।
पर, एक दिन जयदेव ने जयंती
से पूछ लिया, " चन्द्रिका के छेड़ने पर
तुम इतना डर गयीं कि तुम्हें
मेरी सहायता की ज़रूरत पड़ गई ?"
[40]
जयन्ती ने
मुँह बनाते हुए कहा, " किसी के छेड़ने से
मैं डरनेवाली नहीं हूँ
जयदेव !
पर कोई किसी काम का भी
तो हो !
वह मेरी ही उम्र का
होगा।
अब जैसे तुम हो।
तुम्हारे साथ चुम्मी-चाटी के अलावा औरर क्या किया जा
सकता है ?" कहकर वह
मुस्कुरा पड़ी।
[45]
जयदेव इतना सुनकर
सन्न रह गया।
जयंन्ती ने कितनी प्रगल्भता तथा
बेश्ामीर् से जवाब दिया था !
वह चुपचाप आगे बढ़ता गया औरर
उसके क्वार्टर के रास्ते अपने
गाँव चला गया।
*
*
*
जयदेव कुछ दिनों तक
अन्यमनस्क बना रहा।
उसकी अपनी भी उम्र कम थी, सम्भवत: उसने जयंती के सभी
मन्तव्य को समझा भी न हो,
फिर भी, वह एक आघात की अवस्था में डूबा
रहा, यह सोचता रहा कि
यह कैसी लड़की है औरर उसका साथ देना
चाहिए या नहीं।
[50]
जयन्ती ने उसके मन की
उथल-पुथल को अधिक ही
समझ रखा था।
उसे लगा कि जयदेव इसीलिए अप्रसन्न है
कि उसे छोटा या अपदार्थ ठहराया गया है
औरर जयन्ती को पाने के अयोग्य
माना गया है।
एक दिन
अपने क्वार्टर के रास्ते वह आम के
बगान के पास रुक गई।
बोली, " थोड़ी देर यहीं पर
क्यों नहीं बैठ लेते ?
"
जयदेव एक झिझक के
साथ बोला, " मुझे देर हो
जाएगी, जयंती।
[55]
मुझे आगे जाना होता है।
फिर अँधेरे में रास्ता
नहीं दिखता। "
जयन्ती हँसी, " क्यों बेवकूफ़ बना रहे
हो मुझे !
अब तो गमीर् आ रही
है औरर दिन बड़े हो रहे
हैं। "
फिर ठुनकते हुए
बोली, " आओ न
बैठें थोड़ी देर, बस थोड़ी देर। "
[60]
जयदेव मन मारकर एक पेड़ के
तने पर बैठ गया।
जयंती अचानक पास आकर पूछ
बैठी, " जयदेव,
तुम क्या मुझे प्यार
करने लगे हो ? "
जयदेव चौंक पड़ा
औरर उसकी ओर तेज़ नज़र से
देखते हुए बोला, " क्या कह रही हो, जयन्ती ?
यह ख़्याल भी तुम्हारे मन
में कैसे आया ? "
" क्यों, मैं प्यार किये जाने लायक़
नहीं हूँ क्या ? "
[65]
जयदेव चुप रहा।
जयंती बोली, " उस दिन का तुम बुरा मान गए।
देखो जयदेव, डाक्टर साहब कहते हैं कि लड़की
को अपने से डयोढ़ी या दूनी
अवस्था के आदमी से प्यार करना चाहिए।
क्योंकि , ऐसा ही आदमी प्यार का अर्थ
ठीक-ठीक समझता है औरर
लड़की को ख़ुश रख सकता है। "
" क्या ? "
[70]
आश्चर्य से मुँह
फाड़कर तथा आँखों को फैलाते
हुए जयदेव ने पूछा, " डाक्टर साहब क्या तुमसे ऐसी
बातें किया करते हैं ? "
जयंती चपलता से
मुस्कुराई, " अब यह मत
पूछ बैठना कि वे औरर क्या-क्या करते हैं मेरे
साथ। "
जयदेव व्यंग्य से
बोला, " इसीलिए तुम
इतने वषोर् ं से सातवीं
कक्षा में फ़ेल होती रहती हो। "
जयंती
हँसी, " जयदेव,
असली परीक्षा जीवन की होती
है औरर मैं उसमें
तुमसे आगे हूँ, बहुत आगे। "
" जयंती, तब
तुम्हें पढ़ने की आवश्यकता ही क्या
है ?
[75]
कल से मैं
तुम्हारे साथ आना-जाना
नहीं करूँगा।
प्रधान से मैं कह दूँगा।
"
जयंती गिड़गिड़ाने
लगी, " नहीं-नहीं,
कृपाकर ऐसा मत करो।
मैं कुछ समय स्कूल में
बिताना चाहती हूँ, नहीं तो मैं अपने
बुडढे माँ-पिता
के साथ सारे दिन घर में रहकर पागल
हो जाऊँगी।
माफ़ करो, अब
मैं तुमसे कोई ऐसी बात
नहीं करूँगी।
[80]
मैं हाथ जोड़ती हूँ। "
औरर उसने सचमुच
अपने हाथ जोड़ दिये।
जयदेव इतना ही
बोला, " ठीक है,
उठो। "
*
*
*
उसके बाद
से जयदेव सदा जयंती से थोड़ा
आगे रहकर चलने लगा।
कभी साथ क़दम-से-क़दम मिलाकर
चलने की नौबत ही नहीं आती।
[85]
जयदेव अपना कर्तव्य निबाह रहा था।
जयंती की बातें सुनकर उसे
जो चोट पहुँची थी, उससे वह उबर नहीं पा रहा था।
वह डाक्टर के साथ क्या करती है यह
जानने की भी उत्सुकता बनी रही।
पर वह जयंती के साथ इस प्रकार की कोई
घनिष्ठता की बात नहीं करना चाहता था।
उसे यह भी डर लगा कि यह लड़की उसे बदनाम
कर देगी।
[90]
इसमें किसी बात की शर्म तो
है नहीं !
इतनी कम उम्र में
इसमें इतनी प्रगल्भता कहाँ से आ
गई ?
कम्पाउंडर तथा उसकी पत्नी तो
सीधे-साधे लोग
हैं।
चूँकि गरमी पड़ने
लगी थी, क्लास सुबह
के होने लगे थे।
सुबह स्कूल जाना तो अच्छा लगता था
पर लौटते समय मुश्किल पड़ती थी।
[95]
दस-ग्यारह बजे
दिन से ही गर्म हवा चलने लगी थी।
छुट्टी साढ़े ग्यारह बजे दिन
में होती थी, जयदेव को घर
पहुँचने में साढ़े बारह बज
जाते थे।
इस गमीर् के समय जयन्ती का क्वार्टर
उसके लिए बीच का पड़ाव बन गया था।
यद्यपि जयंती जब-तब आम के बग़ीचे में
रुकना चाहती थी जहाँ वह गप्पें भी मार
सके औरर कच्चे आम गिराकर खा भी
सके, पर जयदेव
उसे ऐसा करने नहीं देता था।
एक दिन स्कूल
से चलकर जयन्ती के क्वार्टर तक आते-आते
जयदेव के माथे पर पसीने की बहुत
सारी बूँद ें झलकने लगी थीं।
[100]
कमरे में आकर एक
स्टूल पर बैठते ही पहले उसने
जयंती से पानी माँगा।
उसके पानी पीते ही जयंती उसके
पास आकर कहने लगी, "
देखो तो कितना पसीना बह रहा
है, लाओ
पोंछ दूँ। "
जयदेव ने मना
किया, फिर भी वह नहीं
मानी औरर उसके औरर भी निकट आकर अपनी
चुन्नी से उसका पसीना पोंछने
लगी।
इसी बीच अकस्मात् कम्पाउंडर साहब
कमरे में आ गए।
[105]
यह देखते ही जयंती छिटककर अलग खड़ी
हो गई, औरर
जयदेव सर झुकाकर खड़ा हो गया।
कम्पाउंडर साहब ने
जयदेव को इश्ाारा किया, " जयदेव, मैं तुमसे कुछ बात
करना चाहता हूँ।
तुम मेरे साथ आओ। "
श्ार्म तथा भय से
घबराते हुए जयदेव उनके
पीछे-पीछे चला औरर
एकांत पाते ही काँपती तथा क्षमाथीर्
आवाज़ में बोल पड़ा, "
सर, मेरी कोई ग़लती नहीं थी।
"
कम्पाउंडर साहब ने
उसे आश्वस्त करते हुए कहा, " मैं जानता हूँ तुम्हारी
कोई ग़लती नहीं थी।
[110]
मैं यह भी जानता हूँ कि
तुम भले औरर मेधावी लड़के
हो।
तुम ने मेरी बेटी के लिए अब
तक जो भी किया उसका एहसास मुझे है।
तब मेरी प्रार्थना है कि तुम
मुझपर एक औरर एहसान कर दो। "
जयदेव को संतुष्टि
हुई।
बड़े शील के साथ बोला, " सर, क्या है
बताइये !
[115]
मैं आपकी आज्ञा अवश्य
मानूँगा। "
जयदेव ने
ज्यों ही कम्पाउंडर साहब से
आँखें मिलाईं उन्होंने स्वर
में आग्रह लाते हुए कहा "
जयदेव, जयंती जो भी चाहती हो
तुम उसकी इच्छा पूरी कर दो।
बेटे, हमपर
तुम्हारा बड़ा एहसान होगा।
मैं जानता हूँ तुम अभी
विवाह के लिए तैयार नहीं होगे
औरर न तुम्हारे माता-पिता ही तैयार होंगे।
शायद जाति के भेद के कारण यह बाद
में भी संभव नहीं हो।
[120]
पर बेटे, जयंती के शरीर की कुछ
आवश्यकताएँ हैं।
वह अपनी उम्र से अधिक बड़ी हो गई
है।
तुम मेरी प्रार्थना मानकर उसकी
आवश्यकताओं की पूर्ति कर
दो। "
जयदेव
घबरा गया।
उसे अपने कानों पर विश्वास
नहीं हो रहा था।
[125]
यह कह क्या रहे हैं ?
शरीर की आवश्यकताओं का
तात्पर्य क्या है ?
वह हतबुद्ध-सा सर झुकाकर खड़ा रहा।
" तुम क्या
सोच रहे हो, बेटे ?
तुम मुझ पर विश्वास करो।
[130]
मैं तुम्हें किसी
परेशानी में नहीं डालूँगा।
बेटे, मेरी
प्रार्थना मान लो।
हमारा बड़ा उपकार होगा। "
जयदेव
के दिमाग़ में अचानक सब कुछ
कौंध गया।
यह हो क्या रहा है ?
[135]
यह कह क्या रहे हैं ?
अब उसके सामने सब स्पष्ट हो
गया।
वह हाथ जोड़कर बोला, " सर, यह आप क्या
कह रहे हैं,
क्यों कह रहे हैं -
मेरी समझ में कुछ नहीं आ
रहा। "
कम्पाउंडर
साहब सर धुनते हुए भर्राई आवाज़
में बोले, "
जयदेव, मैं
तुमसे क्या कहूँ ?
[140]
अपने घर की लाज चली गई।
यह हमारी बेटी इस डाक्टर के चक्कर
में पड़ गई है।
डाक्टर ने उसे पूरी तरह फाँस लिया
है।
यह हमारे नियंत्रण में नहीं
रही।
नौकरी के कुछ साल रह गए हैं।
[145]
सोचता था बेटी की शादी करके
निश्चिन्त हो जाता !
अब क्या होगा यही चिन्ता खाए जा रही है।
डाक्टर मुझे सभी तरह से बर्बाद करने पर तुला
हुआ है।
मैं क्या कहूँ, किससे कहूँ ?"
इतना
कहते-कहते वह बिलखकर रोने
लगे।
[150]
जयदेव की जीभ जैसे तालू
से चिपक गई थी।
वह कुछ भी कह सकने में अपने
को असमर्थ पा रहा था।
कम्पाउंडर साहब अपनी धुन में
बोलते गए, " बेटे, मैंने अपना तबादला कराने
की पूरी कोश्ािश्ा की, पर यह डाक्टर हर बार मेरी
कोश्ािश्ाों को नाकाम कर देता
है।
अपने परिवार को किसी-न-किसी बहाने लगातार
ससुराल में रखे हुए है औरर
मेरी बेटी को बर्बाद कर रहा है।
धमकी देता है कि
मैंने चूँ भी किया तो
मुझे औरर मेरी नौकरी
दोनों को बर्बाद कर देगा।
[155]
तुम कृपाकर किसी प्रकार जयन्ती को अपने
अधिकार में ले लो, मैं तुम्हारी मदद करूँगा।
कुछ ऊँच-नीच हो
जाएगा तो मैं देख लूँगा।
इस डाक्टर के चंगुल
से मुझे मुक्ति दिला दो, बेटे !"
फिर अचानक
जैसे वह बोलते-बोलते थक गये औरर
हाँफने लगे।
जयदेव कुछ भी न बोला।
[160]
वह उस निरीह बाप को दया की दृष्टि से
देख रहा था, उसकी
विडम्बना पर विश्वास नहीं कर पा रहा था।
उसने कम्पाउंडर साहब के सामने
अपने दोनों हाथ जोड़ दिये।
उनके पास कुछ क्षण
खड़े रहकर जयदेव उलटे पाँव बाहर आया।
कमरे से बाहर दीवार से चिपकी हुई
जयंती खड़ी थी।
जयदेव ने जलती हुई
घृणापूर्ण दृष्टि से जयन्ती की
ओर देखा औरर बाहर पगडंडी पर उतर
गया।
[165]
उस समय एक बजे दिन की
चिलचिलाती धूप भी उसे अच्छी लग रही थी।
इतने ही क्षणों में वह
अपने को कितना वयस्क औरर प्रौढ़
महसूस करने लगा था।
*
*
*
जयदेव के पिता
दूसरे दिन उसके स्कूल जाकर उसका
ट्रांसफ़र सर्टिफ़किेट ले आए।
To index of post-Independence
literature.
To index of मल्हार.