यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
इन्स्टिट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़
लैंग्वजिज़ ऐंड कल्चर्ज़ ऑफ़
एशिया ऐंड ऐफ़्रिका
तोक्यो
यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ाॅरेन स्टडीज़
Mellon Project
प्रेमचन्द
गोदान
(Devanagari text reconstituted from Professor K. Machida's roman
transcription)
Chapter Thirteen.
(unparagraphed text)
गोबर अँधेरे ही
मुँह उठा औरर कोदई से बिदा माँगी।
सबको मालूम हो गया था कि उसका
ब्याह हो चुका है;
इसलिए उससे कोई विवाह-सम्बन्धी चर्चा नहीं की।
उसके शील-स्वभाव ने सारे घर को मुग्ध कर
लिया था।
कोदई की माता को तो उसने
ऐसे मीठे शब्दों में औरर
उसके मातृपद की रक्षा करते हुए, ऐसा उपदेश दिया कि उसने
प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया था।
' तुम बड़ी
हो माता जी, पूज्य
हो।
पुत्र माता के रिन से सौ जन्म
लेकर भी उरिन नहीं हो सकता, लाख जन्म लेकर भी उरिन नहीं हो सकता।
करोड़ जन्म लेकर भी नहीं ।।। '
बुढ़िया इस संख्यातीत श्रद्धा पर
गद्गद हो गयी।
इसके बाद गोबर ने जो कुछ
कहा, उसमें बुढ़िया
को अपना मंगल ही दिखायी दिया।
वैद्य एक बार रोगी को चंगा कर
दे, फिर रोगी उसके
हाथों विष भी ख़ुशी से पी लेगा
-- अब जैसे आज ही
बहू घर से रूठकर चली गयी, तो किसकी हेठी हुई।
बहू को कौन जानता है?
किसकी लड़की है,
किसकी नातिन है, कौन
जानता है!
सम्भव है, उसका
बाप घसियारा ही रहा हो ।।।।
बुढ़िया ने निश्चयात्मक भाव से कहा
-- घसियारा तो है ही
बेटा, पक्का घसियारा
सबेरे उसका मुँह देख लो, तो दिन-भर पानी न मिले।
गोबर बोला -- तो ऐसे आदमी की क्या हँसी हो
सकती है!
हँसी हुई तुम्हारी औरर
तुम्हारे आदमी की।
जिसने पूछा, यही पूछा कि किसकी बहू है?
फिर वह अभी लड़की है, अबोध, अल्हड़।
नीच माता-पिता की
लड़की है, अच्छी कहाँ
से बन जाय!
तुमको तो बूढ़े
तोते को राम-नाम
पढ़ाना पड़ेगा।
मारने से तो वह पढ़ेगा
नहीं, उसे तो सहज
स्नेह ही से पढ़ाया जा सकता है।
ताड़ना भी दो;
लेकिन उसके मुँह मत लगो।
उसका तो कुछ नहीं बिगड़ता, तुम्हारा अपमान होता है।
जब गोबर चलने लगा, तो बुढ़िया ने खाँड़
औरर सत्तू मिलाकर उसे खाने को दिया।
गाँव के औरर कई आदमी मजूरी की
टोह में शहर जा रहे थे।
बातचीत में रास्ता कट गया औरर
नौ बजते-बजते
सब लोग अमीनाबाद के बाज़ार में जा
पहुँचे।
गोबर हैरान था, इतने आदमी नगर में कहाँ से
आ गये?
आदमी पर आदमी गिरा पड़ता था।
उस दिन बाज़ार में चार-पाँच सौ मज़दूरों से कम
न थे।
राज औरर बढ़ई औरर लोहार औरर
बेलदार औरर खाट बुननेवाले औरर
टोकरी ढोनेवाले औरर संगतराश सभी
जमा थे।
गोबर यह जमघट देखकर निराश हो
गया।
इतने सारे मजूरों को
कहाँ काम मिला जाता है।
औरर उसके हाथ में तो
कोई औरजार भी नहीं है।
कोई क्या जानेगा कि वह क्या काम कर सकता
है।
कोई उसे क्यों रखने लगा।
बिना औरज़ार के उसे कौन
पूछेगा?
धीरे-धीरे
एक-एक करके
मजूरों को काम मिलता जा रहा था।
कुछ लोग निराश होकर घर
लौटे जा रहे थे।
अधिकतर वह बूढ़े औरर निकम्मे बच
रहे थे, जिनका कोई
पुछत्तर न था।
औरर उन्हीं में गोबर भी था।
लेकिन अभी आज उसके पास खाने
को है।
कोई ग़म नहीं।
सहसा मिरज़ा खुर्शेद ने
मज़दूरों के बीच में आकर ऊँची
आवाज़ से कहा -- जिसको
छ: आने रोज़ पर काम करना हो, वह मेरे साथ आये।
सबको छ: आने मिलेंगे।
पाँच बजे छुट्टी मिलेगी।
दस-पाँच
राजों औरर बढ़इयों को छोड़कर सब
के सब उनके साथ चलने को तैयार हो
गये।
चार सौ फटे-हालों की एक विशाल सेना सज गयी।
आगे मिरज़ा थे, कन्धे पर मोटा सोटा रखे हुए।
पीछे भुखमरों की लम्बी क़तार
थी, जैसे
भेड़ें हों।
एक बूढ़े ने मिरज़ा से पूछा
-- कौन काम करना है
मालिक?
मिरज़ा साहब ने जो काम बतलाया,
उस पर सब औरर भी चकित हो
गये।
केवल एक कबड्ड:ी खेलना!
यह कैसा आदमी है, जो कबड्ड:ी खेलने के लिए छ:
आना रोज़ दे रहा है।
सनकी तो नहीं है कोई!
बहुत धन पाकर आदमी सनक ही जाता है।
बहुत पढ़ लेने से भी आदमी
पागल हो जाते हैं।
कुछ लोगों को सन्देह
होने लगा, कहीं यह
कोई मखौल तो नहीं है!
यहाँ से घर पर ले जाकर कह
दे, कोई काम नहीं
है, तो कौन इसका
क्या कर लेगा!
वह चाहे कबड्ड:ी खेलाये,
चाहे आँख
मिचौनी, चाहे
गुल्लीडंडा, मजूरी
पेशगी दे दे।
ऐसे झक्कड़ आदमी का क्या
भरोसा?
गोबर ने डरते-डरते कहा --
मालिक, हमारे पास कुछ
खाने को नहीं है।
पैसे मिल जायँ, तो कुछ लेकर खा लूँ।
मिरज़ा ने झट छ: आने पैसे
उसके हाथ में रख दिये औरर ललकारकर
बोले -- मजूरी
सबको चलते-चलते
पेशगी दे दी जायगी।
इसकी चिन्ता मत करो।
मिरज़ा साहब ने शहर के बाहर
थोड़ी-सी ज़मीन ले रखी
थी।
मजूरों ने जाकर देखा,
तो एक बड़ा अहाता घिरा हुआ था
औरर उसके अन्दर केवल एक छोटी-सी फूस की झोंपड़ी थी, जिसमें तीन-चार कुर्सियाँ थीं, एक मेज़।
थोड़ी-सी
किताबें मेज़ पर रखी हुई थीं।
झोंपड़ी बेलों औरर
लताओं से ढकी हुई बहुत सुन्दर लगती
थी।
अहाते में एक तरफ़ आम औरर
नीबू औरर अमरूद के पौधे लगे हुए
थे, दूसरी तरफ़ कुछ
फूल।
बड़ा हिस्सा परती था।
मिरज़ा ने सबको क़तार में खड़ा
करके ही मजूरी बाँट दी।
अब किसी को उनके पागलपन में
सन्देह न रहा।
गोबर पैसे पहले ही पा चुका
था, मिरज़ा ने उसे
बुलाकर पौधे सींचने का काम
सौंपा।
उसे कबड्ड:ी खेलने को न
मिलेगी।
मन में ऐंठकर रह गया।
इन बुड्ढों को उठा-उठाकर पटकता;
लेकिन कोई परवाह नहीं।
बहुत कबड्ड:ी खेल चुका है।
पैसे तो पूरे मिल
गये।
आज युगों के बाद इन
ज़रा-ग्रस्तों को
कबड्ड:ी खेलने का सौभाग्य मिला।
अधिक-तर तो
ऐसे थे,
जिन्हें याद भी न आता था कि कभी कबड्ड:ी खेली
है या नहीं।
दिनभर शहर में पिसते थे।
पहर रात गये घर पहुँचते थे
औरर जो कुछ रूखा-सूखा मिल जाता था, खाकर पड़े रहते थे।
प्रात:काल फिर वही चरखा शुरू हो जाता था।
जीवन नीरस,
निरानन्द, केवल एक ढर्रा
मात्र हो गया था।
आज जो यह अवसर मिला, तो बूढ़े भी जवान हो गये।
अधमरे बूढ़े, ठठरियाँ लिये, मुँह में दाँत न पेट
में आँत,
जाँघ के ऊपर धोतियाँ या तहमद चढ़ाये
ताल ठोक-ठोककर उछल
रहे थे, मानो उन
बूढ़ी हड्डियों में जवानी धँस पड़ी
हो।
चटपट पाली बन गयी, दो नायक बन गये।
गोीयों का चुनाव होने
लगा।
औरर बारह बजते-बजते खेल शुरू हो गया।
जाड़ों की ठंडी धूप ऐसी
क्रीड़ाओं के लिए आदर्श ळ्तु है।
इधर अहाते के फाटक पर मिरज़ा साहब
तमाशाइयों को टिकट बाँट रहे थे।
उन पर इस तरह की कोई-न-कोई सनक
हमेशा सवार रहती थी।
अमीरों से पैसा लेकर
ग़रीबों को बाँट देना।
इस बूढ़ी कबड्ड:ी का विज्ञापन कई दिन से
हो रहा था।
बड़े-बड़े
पोस्टर चिपकाये गये थे, नोटिस बाँटे गये थे।
यह खेल अपने ढंग का निराला
होगा, बिलकुल
अभूतपूर्व।
भारत के बूढ़े आज भी कैसे
पोढ़े हैं,
जिन्हें यह देखना हो, आयें औरर अपनी आँखें
तृप्त कर लें।
जिसने यह तमाशा न देखा, वह पछतायेगा।
ऐसा सुअवसर फिर न मिलेगा।
टिकट दस रुपए से लेकर दो आने तक
के थे।
तीन बजते-बजते सारा अहाता भर गया।
मोटरों औरर फिटनों का
ताँता लगा हुआ था।
दो हज़ार से कम की भीड़ न थी।
रईसों के लिए
कुर्सियों औरर बेंचों का
इन्तज़ाम था।
साधारण जनता के लिए साफ़ सुथरी ज़मीन।
मिस मालती,
मेहता, खन्ना, तंखा औरर राय साहब सभी
विराजमान थे।
खेल शुरू हुआ, तो मिरज़ा ने मेहता से कहा
-- आइए डाक्टर साहब, एक गोई हमारी औरर आपकी भी हो
जाय।
मिस मालती बोली -- फ़लिासफ़र का जोड़ फ़लिासफ़र ही से हो
सकता है।
मिरज़ा ने मूँछों पर ताव
देकर कहा -- तो क्या आप
समझती हैं,
मैं फ़लिासफ़र नहीं हूँ।
मेरे पास पुछल्ला नहीं
है; लेकिन हूँ
मैं फ़लिासफ़र।
आप मेरा इम्तहान ले सकते
हैं मेहताजी!
मालती ने पूछा -- अच्छा बतलाइए, आप
आइडियलिस्ट हैं या मेटीरियलिस्ट।
' मैं
दोनों हूँ। '
' यह
क्योंकर? '
' बहुत अच्छी
तरह।
जब जैसा मौक़ा देखा, वैसा बन गया। '
' तो आपका
अपना कोई निश्चय नहीं है। '
' जिस बात का आज
तक कभी निश्चय न हुआ,
औरर न कभी होगा, उसका
निश्चय मैं भला क्या कर सकता हूँ!
औरर लोग आँखें फोड़कर
औरर किताबें चाटकर जिस नतीजे पर
पहुँचते हैं, वहाँ मैं यों ही
पहुँच गया।
आप बता सकती हैं, किसी फ़लिासफ़र ने अक्ली गद्दे लड़ाने
के सिवाय औरर कुछ किया है? '
डाक्टर मेहता ने अचकन के बटन
खोलते हुए कहा --
तो चलिए हमारी औरर आपकी हो ही जाय।
औरर कोई माने या न माने,
मैं आपको फ़लिासफ़र
मानता हूँ।
मिरज़ा ने खन्ना से पूछा
-- आपके लिए भी कोई
जोड़ ठीक करूँ?
मालती ने पुचारा दिया -- हाँ,
हाँ, इन्हें ज़रूर
ले जाइए मिस्टर तंखा के साथ।
खन्ना झेंपते हुए
बोले -- जी
नहीं, मुझे क्षमा
कीजिए।
मिरज़ा ने रायसाहब से पूछा
-- आपके लिए कोई
जोड़ लाऊँ?
राय साहब बोले -- मेरा जोड़ तो ओंकारनाथ का
है, मगर वह आज नज़र ही
नहीं आते।
मिरज़ा औरर मेहता भी नंगी
देह, केवल जाँघिए
पहने हुए मैदान में पहुँच
गये।
एक इधर, दूसरा
उधर।
खेल शुरू हो गया।
जनता बूढ़े कुलेलों पर
हँसती थी, तालियाँ
बजाती थी, गालियाँ
देती थी, ललकारती
थी, बाज़ियाँ लगाती थी।
वाह!
ज़रा इन बूढ़े बाबा को
देखो!
किस शान से जा रहे हैं,
जैसे सबको मारकर ही
लौटेंगे।
अच्छा, दूसरी तरफ़
से भी उन्हीं के बड़े भाई निकले।
दोनों कैसे
प्ैंतरे बदल रहे हैं!
इन हड्डियों में अभी बहुत
जान है।
इन लोगों ने जितना घी खाया
है, उतना अब हमें
पानी भी मयस्सर नहीं।
लोग कहते हैं, भारत धनी हो रहा है।
होता होगा।
हम तो यही देखते हैं कि इन
बुड्ढों-जैसे जीवट के जवान भी आज
मुश्किल से निकलेंगे।
वह उधरवाले बुड्ढे ने
इसे दबोच लिया।
बेचारा छूट निकलने के लिए कितना
ज़ोर मार रहा है; मगर
अब नहीं जा सकते बच्चा!
एक को तीन लिपट गये।
इस तरह लोग अपनी दिलचस्पी ज़ाहिर कर रहे
थे; उनका सारा ध्यान
मैदान की ओर था।
खिलाड़ियों के आघात-प्रतिघात,
उछल-कूद, धर-पकड़ औरर
उनके मरने-जीने
में सभी तन्मय हो रहे थे।
कभी चारों तरफ़ से क़हक़हे
पड़ते, कभी कोई अन्याय
या धाँधली देखकर लोग ' छोड़ दो,
छोड़ दो ' का गुल
मचाते, कुछ लोग
तैश में आकर पाली की तरफ़ दौड़ते,
लेकिन जो
थोड़े-से सज्जन
शामियाने में ऊँचे दरजे के टिकट
लेकर बैठे थे,
उन्हें इस खेल में विशेष आनन्द न
मिल रहा था।
वे इससे अधिक महत्व की बातें कर
रहे थे।
खन्ना ने जिंजर का ग्लास ख़ाली करके
सिगार सुलगाया औरर राय साहब से बोले
-- मैंने आप
से कह दिया, बैंक
इससे कम सूद पर किसी तरह राज़ी न होगा औरर
यह रिआयत भी मैंने आपके साथ की
है; क्योंकि
आपके साथ घर का मुआमला है।
राय साहब ने मूँछों
में मुस्कराहट को लपेटकर कहा -- आपकी नीति में घरवालों
को ही उलटे छुरे से हलाल करना
चाहिए?
' यह आप क्या फ़रमा
रहे हैं। '
' ठीक कह रहा
हूँ।
सूर्यप्रताप सिंह से आपने
केवल सात फ़ी सदी लिया है, मुझसे नौ फ़ी सदी माँग रहे
हैं औरर उस पर एहसान भी रखते हैं।
क्यों न हो। '
खन्ना ने क़हक़हा मारा, मानो यह कथन हँसने के ही
योग्य था।
' उन
शर्तों पर मैं आपसे भी वही सूद
ले लूँगा।
हमने उनकी जायदाद रेहन रख ली है
औरर शायद यह जायदाद फिर उनके हाथ न जायगी। '
' मैं
अपनी कोई जायदाद निकाल दूँगा।
नौ परसेंट देने से यह
कहीं अच्छा है कि फ़ालतू जायदाद अलग कर दूँ।
मेरी जैकसन रोडवाली कोठी आप
निकलवा दें।
कमीशन ले लीजिएगा। '
' उस कोठी का
सुभीते से निकलना ज़रा मुश्किल है।
आप जानते हैं, वह जगह बस्ती से कितनी दूर है;
मगर ख़ैर, देखूँगा।
आप उसकी क़ीमत का क्या अन्दाज़ा करते
हैं? '
राय साहब ने एक लाख पचीस हज़ार बताये।
पन्द्रह बीघे ज़मीन भी तो है
उसके साथ।
खन्ना स्तम्भित हो गये।
बोले --
आप आज के पन्द्रह साल पहले का स्वप्न देख
रहे हैं राय साहब!
आपको मालूम होना चाहिए कि इधर
जायदादों के मूल्य में पचास
परसेंट की कमी हो गयी है।
राय साहब ने बुरा मानकर कहा -- जी नहीं, पन्द्रह साल पहले उसकी क़ीमत डेढ़ लाख
थी।
' मैं
ख़रीददार की तलाश में रहूँगा; मगर मेरा कमीशन पाँच प्रतिशत
होगा, आपसे। '
' औररों से शायद दस प्रतिशत हो
क्यों; क्या
करोगे इतने रुपए लेकर? '
' आप जो
चाहें दे दीजिएगा।
अब तो राज़ी हुए।
शुगर के हिस्से अभी तक आपने न
ख़रीदे।
अब बहुत थोड़े-से हिस्से बच रहे हैं।
हाथ मलते रह जाइएगा।
इंश्योरेंस की पालिसी भी
आपने न ली।
आप में टाल-मटोल की बुरी आदत है।
जब अपने लाभ की बातों का इतना
टाल-मटोल है,
तब दूसरों को आप
लोगों से क्या लाभ हो सकता
है!
इसी से कहते हैं, रियासत आदमी की अक्ल चर जाती है।
मेरा बस चले तो मैं
ताल्लुक़े-दारी की
रियासतें ज़ब्त कर लूँ। '
मिस्टर तंखा मालती पर जाल फेंक
रहे थे।
मालती ने साफ़ कह दिया था कि वह एलेक्शन
के झमेले में नहीं पड़ना
चाहती; पर तंखा इतनी
आसानी से हार माननेवाले व्यक्ति न थे।
आकर कुहनियों के बल मेज़ पर
टिककर बोले -- आप ज़रा
उस मुआमले पर फिर विचार करें।
मैं कहता हूँ ऐसा मौक़ा
शायद आपको फिर न मिले।
रानी साहब चन्दा को आपके
मुक़ाबले में रुपए में एक आना भी
चांस नहीं है।
मेरी इच्छा केवल यह है कि
कौंसिल में ऐसे लोग
जायँ,
जिन्होंने जीवन में कुछ अनुभव
प्राप्त किया है औरर जनता की कुछ सेवा की है।
जिस महिला ने भोग-विलास के सिवा कुछ जाना ही नहीं,
जिसने जनता को हमेशा
अपनी कार का पेट्रोल समझा, जिसकी सबसे मूल्यवान सेवा वे
पार्टियाँ हैं,
जो वह गवर्नरों औरर
सेक्रेटरियों को दिया करती
हैं, उनके लिए इस
कौंसिल में स्थान नहीं है।
नयी कौंसिल में बहुत
कुछ अधिकार प्रतिनिधियों के हाथ में
होगा औरर मैं नहीं चाहता कि वह अधिकार
अनधिकारियों के हाथ में जाय।
मालती ने पीछा छुड़ाने के लिए कहा
-- लेकिन साहब, मेरे पास दस-बीस हज़ार एलेक्शन पर ख़र्च करने के
लिए कहाँ है?
रानी साहब तो दो-चार लाख ख़र्च कर सकती हैं।
मुझे भी साल में
हज़ार-पाँच सौ रुपए
उनसे मिल जाते हैं, यह रक़म भी हाथ से निकल जायगी।
' पहले आप यह
बता दें कि आप जाना चाहती हैं, या नहीं? '
' जाना तो
चाहती हूँ, मगर फ़्र:ी
पास मिल जाय! '
' तो यह
मेरा ज़िम्मा रहा।
आपको फ़्र:ी पास मिल जायगा। '
' जी
नहीं, क्षमा कीजिए।
मैं हार की ज़िल्लत नहीं उठाना चाहती।
जब रानी साहब रुपए की थैलियाँ खोल
देंगी औरर एक-एक
वोट पर एक-एक अशफऱ्ी
चढ़ने लगेगी, तो
शायद आप भी उधर वोट देंगे। '
' आपके ख़याल
में एलेक्शन महज़ रुपए से जीता जा सकता
है। '
' जी
नहीं, व्यक्ति भी एक चीज़
है।
लेकिन मैंने केवल एक बार
जेल जाने के सिवा औरर क्या जन-सेवा की है?
औरर सच पूछिए तो उस बार भी
मैं अपने मतलब ही से गयी थी, उसी तरह जैसे राय साहब औरर
खन्ना गये थे।
इस नयी सभ्यता का आधार धन है, विद्या औरर सेवा औरर
कुल औरर जाति सब धन के सामने हेय
है।
कभी-कभी
इतिहास में ऐसे अवसर आ जाते हैं,
जब धन को आन्दोलन
के सामने नीचा देखना पड़ता है;
मगर इसे अपवाद समझिए।
मैं अपनी ही बात कहती हूँ।
कोई ग़रीब औररत दवाखाने में
आ जाती है, तो
घंटों उससे बोलती तक नहीं।
पर कोई महिला कार पर आ गयी, तो द्वार तक जाकर उसका स्वागत करती
हूँ औरर उसकी ऐसी उपासना करती
हूँ, मानो
साक्षात्् देवी है।
मेरी औरर रानी साहब का कोई
मुकाबला नहीं।
जिस तरह के कौंसिल बन रहे
हैं, उनके लिए रानी
साहब ही ज़्यादा उपयुक्त हैं।
उधर मैदान में मेहता की टीम
कमज़ोर पड़ती जाती थी।
आधे से ज़्यादा खिलाड़ी मर चुके
थे।
मेहता ने अपने जीवन में
कभी कबड्ड:ी न खेली थी।
मिरज़ा इस फन के उस्ताद थे।
मेहता की तातीलें अभिनय के
अभ्यास में कटती थीं।
रूप भरने में वह अच्छे-अच्छे को चकित कर देते
थे।
औरर मिरज़ा के लिए सारी दिलचस्पी अखाड़े
में थी,
पहलवानों के भी औरर परियों के
भी।
मालती का ध्यान उधर भी लगा हुआ था।
उठकर राय साहब से बीली -- मेहता की पार्टी तो बुरी तरह पिट
रही है।
राय साहब औरर खन्ना में
इंश्योरेंस की बातें हो रही
थीं।
राय साहब उस प्रसंग से ऊबे हुए
मालूम होते थे।
मालती ने मानो उन्हें एक बन्धन
से मुक्त कर दिया।
उठकर बोले -- जी हाँ, पिट
तो रही है।
मिरज़ा पक्का खिलाड़ी है।
' मेहता
को यह क्या सनक सूझी।
व्यर्थ अपनी भद्द करा रहे
हैं। '
' इसमें
काहे की भद्द?
दिल्लगी ही तो है। '
' मेहता की तरफ़
से जो बाहर निकलता है, वही मर जाता है। '
एक क्षण के बाद उसने पूछा -- क्या इस खेल में हाफ़ टाइम
नहीं होता?
खन्ना को शरारत सूझी।
बोले --
आप चले थे मिरज़ा से मुकाबला करने।
समझते थे, यह भी फ़लिासफ़ी है।
' मैं
पूछती हूँ, इस
खेल में हाफ़ टाइम नहीं होता? '
खन्ना ने फिर चिढ़ाया -- अब खेल ही ख़तम हुआ जाता है।
मज़ा आयेगा तब, जब मिरज़ा मेहता को दबोचकर
रगड़ेंगे औरर मेहता साहब ' चीं '
बोलेंगे।
' मैं
तुमसे नहीं पूछती।
राय साहब से पूछती हूँ। '
राय साहब बोले -- इस खेल में हाफ़ टाइम!
एक ही एक आदमी तो सामने आता है।
' अच्छा, मेहता का एक आदमी औरर मर
गया। '
खन्ना बोले -- आप देखती रहिए!
इसी तरह सब मर जायँगे औरर आख़िर
में मेहता साहब भी मरेंगे।
मालती जल गयी --
आपकी हिम्मत न पड़ी बाहर निकलने
की।
' मैं
गँवारों के खेल नहीं खेलता।
मेरे लिए टेनिस है। '
' टेनिस
में भी मैं तुम्हें
सैकड़ों गेम दे चुकी
हूँ। '
' आपसे
जीतने का दावा ही कब है? '
' अगर दावा
हो, तो मैं
तैयार हूँ। '
मालती उन्हें फटकार बताकर फिर अपनी जगह पर
आ बैठी।
किसी को मेहता से हमदर्दी
नहीं है।
कोई यह नहीं कहता कि अब खेल ख़त्म कर
दिया जाय।
मेहता भी अजीब बुद्धू आदमी
हैं, कुछ
धाँधली क्यों नहीं कर बैठते।
यहाँ अपनी न्याय-प्रियता दिखा रहे हैं।
अभी हारकर लौटेंगे, तो चारों तरफ़ से
तालियाँ पड़ेंगी।
अब शायद बीस आदमी उनकी तरफ़ औरर
होंगे औरर लोग कितने ख़ुश
हो रहे हैं।
ज्यों-ज्यों अन्त समीप आता जाता था, लोग अधीर होते जाते
थे औरर पाली की तरफ़ बढ़ते जाते थे।
रस्सी का जो एक कठघरा-सा बनाया गया था,
वह तोड़ दिया गया।
स्वयम्-सेवक रोकने की चेष्टा कर रहे
थे; पर उस उत्सुकता
के उन्माद में उनकी एक न चलती थी।
यहाँ तक कि ज्वार अन्तिम बिन्दु तक आ
पहुँचा औरर मेहता अकेले बच गये
औरर अब उन्हें गूँगे का पार्ट
खेलना पड़ेगा।
अब सारा दारमदार उन्हीं पर है; अगर वह बचकर अपनी पाली में
लौट आते हैं,
तो उनका पक्ष बचता है।
नहीं, हार का
सारा अपमान औरर लज्जा लिए हुए उन्हें
लौटना पड़ता है, वह
दूसरे पक्ष के जितने आदमियों को
छूकर अपनी पाली में आयँगे वह सब मर
जायँगे औरर उतने ही आदमी उनकी तरफ़ जी
उठेंगे।
सबकी आँखें मेहता की ओर
लगी हुई थीं।
वह मेहता चले।
जनता ने चारों ओर से आकर
पाली को घेर लिया।
तन्मयता अपनी पराकाष्ठा पर थी।
मेहता कितने शान्त भाव से
शत्रुओं की ओर जा रहे हैं।
उनकी प्रत्येक गति जनता पर प्रतिबिम्बित हो
जाती है, किसी की गर्दन
टेढ़ी हुई जाती है,
कोई आगे को झुक पड़ता है।
वातावरण गर्म हो गया।
पारा ज्वाला-बिन्दु पर आ पहुँचा है।
मेहता शत्रु-दल में घुसे।
दल पीछे हटता जाता है।
उनका संगठन इतना दृढ़ है कि मेहता
की पकड़ या स्पर्श में कोई नहीं आ रहा
है।
बहुतों को जो आशा थी कि
मेहता कम-से-कम अपने पक्ष के दस-पाँच आदमियों को
तो जिला ही लेंगे, वे निराश होते जा रहे
हैं।
सहसा मिरज़ा एक छलाँग मारते हैं
औरर मेहता की कमर पकड़ लेते हैं।
मेहता अपने को छुड़ाने के
लिए ज़ोर मार रहे हैं।
मिरज़ा को पाली की तरफ़ खींचे
लिये आ रहे है।
लोग उन्मत्त हो जाते है।
अब इसका पता चलना मुश्किल है कि कौन
खिलाड़ी है कौन तमाशाई।
सब एक गडमड हो गये हैं।
मिरज़ा औरर मेहता में
मल्लयुद्ध हो रहा है।
मिरज़ा के कई बुड्ढे मेहता की
तरफ़ लपके औरर उनसे लिपट गये।
मेहता ज़मीन पर चुपचाप पड़े हुए
हैं; अगर वह किसी तरह
खींच-खाँचकर दो
हाथ औरर ले जायँ,
तो उनके पचासों आदमी जी उठते
हैं, मगर वह एक इंच
भी नहीं खिसक सकते।
मिरज़ा उनकी गर्दन पर बैठे हुए
हैं।
मेहता का मुख लाल हो रहा है।
आँखें बीरबहूटी बनी हुई
हैं।
पसीना टपक रहा है, औरर मिरज़ा अपने स्थूल शरीर का भार
लिये उनकी पीठ पर हुमच रहे हैं।
मालती ने समीप जाकर उत्तेजित स्वर
में कहा -- मिरज़ा
खुर्शेद, यह
फ़ेयर नहीं है।
बाज़ी ड्रान रही।
खुर्शेद ने मेहता की
गर्दन पर एक घस्सा लगाकर कहा -- जब तक यह ' चीं ' न
बोलेंगे,
मैं हरगिज़ न छोड़ूँगा।
क्यों नहीं ' चीं '
बोलते?
मालती औरर आगे बढ़ी -- ' चीं '
बुलाने के लिए आप इतनी
ज़बरदस्ती नहीं कर सकते।
मिरज़ा ने मेहता की पीठ पर हुमचकर कहा
-- बेशक कर सकता
हूँ।
आप इनसे कह दें, ' चीं '
बोलें, मैं अभी उठा जाता हूँ।
मेहता ने एक बार फिर उठने की
चेष्टा की; पर मिरज़ा
ने उनकी गर्दन दबा दी।
मालती ने उनका हाथ पकड़कर घसीटने
कोशिश करके कहा -- यह
खेल नहीं, अदावत
है।
' अदावत ही
सही। '
' आप न
छोड़ेंगे?
'
उसी वक़्त जैसे कोई भूकम्प आ
गया।
मिरज़ा साहब ज़मीन पर पड़े हुए थे
औरर मेहता दौड़े हुए पाली की ओर
भागे जा रहे थे औरर हज़ारों आदमी
पागलों की तरह टोपियाँ औरर
पगड़ियाँ औरर छड़ियाँ उछाल रहे थे।
कैसे यह काया पलट हुई, कोई समझ न सका।
मिरज़ा ने मेहता को गोद
में उठा लिया औरर लिये हुए शामियाने
तक आये।
प्रत्येक मुख पर यह शब्द थे -- डाक्टर साहब ने बाज़ी मार ली।
औरर प्रत्येक आदमी इस हारी हुई बाज़ी
के एकबारगी पलट जाने पर विस्मित था।
सभी मेहता के जीवट औरर
धैर्य का बखान कर रहे थे।
मज़दूरों के लिए पहले से
नारंगियाँ मँगा ली गयी थीं।
उन्हें एक-एक
नारंगी देकर विदा किया गया।
शामियाने में
मेहमानों के चाय-पानी का आयोजन था।
मेहता औरर मिरज़ा एक ही मेज़ पर
आमने-सामने
बैठे।
मालती मेहता के बग़ल में
बैठी।
मेहता ने कहा -- मुझे आज एक नया अनुभव हुआ।
महिला की सहानुभूति हार को जीत बना
सकती है।
मिरज़ा ने मालती की ओर देखा
-- अच्छा!
यह बात थी!
जभी तो मुझे हैरत हो रही
थी कि आप एकाएक कैसे ऊपर आ गये।
मालती शर्म से लाल हुई जाती थी।
बोली -- आप
बड़े बेमुरौवत आदमी हैं
मिरज़ाजी!
मुझे आज मालूम हुआ।
' कुसूर
इनका था।
यह क्यों ' चीं ' नहीं
बोलते थे? '
' मैं
तो ' चीं ' न बोलता, चाहे आप मेरी जान ही ले
लेते। '
कुछ देर मित्रों में
गप-शप होती रही।
फिर धन्यवाद के औरर मुबारकवाद के
भाषण हुए औरर मेहमान लोग बिदा हुए।
मालती को भी एक विजिट करनी थी।
वह भी चली गयी।
केवल मेहता औरर मिरज़ा रह गये।
उन्हें अभी स्नान करना था।
मिट्टी में सने हुए थे।
कपड़े कैसे पहनते।
गोबर पानी खींच लाया औरर
दोनों दोस्त नहाने लगे।
मिरज़ा ने पूछा -- शादी कब तक होगी?
मेहता ने अचम्भे में आकर
पूछा -- किसकी?
' आपकी। '
मेरी शादी!
किसके साथ हो रही है?
' वाह!
आप तो ऐसा उड़ रहे हैं,
गोया यह भी छिपाने की बात
है। '
' नहीं-नहीं,
मैं सच कहता हूँ, मुझे बिलकुल ख़बर नहीं है।
क्या मेरी शादी होने जा रही
है? '
' औरर आप क्या
समझते हैं, मिस
मालती आप की कम्पेनियन बनकर रहेंगी? '
मेहता गम्भीर भाव से बोले
-- आपका ख़याल बिलकुल
ग़लत है।
मिरज़ाजी!
मिस मालती हसीन हैं, ख़ुशमिज़ाज हैं, समझदार हैं, रोशन ख़याल हैं औरर भी
उनमें कितनी ख़ूबियाँ हैं।
लेकिन मैं अपनी जीवन-संगिनी में जो बात
देखना चाहता हूँ,
वह उनमें नहीं है औरर न शायद हो
सकती है।
मेरे ज़ेहन में औररत वफ़ा
औरर त्याग की मूर्ति है, जो अपनी बेज़बानी से, अपनी क़ुर्बानी से, अपने को बिलकुल मिटाकर पति
की आत्मा का एक अंश बन जाती है।
देह पुरुष की रहती है, पर आत्मा स्त्री की होती है।
आप कहेंगे, मर्द अपने को क्यों नहीं
मिटाता?
औररत ही से क्यों इसकी आशा करता
है?
मर्द में वह सामथ्र्य ही नहीं
है।
वह अपने को मिटायेगा, तो शून्य हो जायगा।
वह किसी खोह में जा बैठेगा
औरर सर्वात्मा में मिल जाने का स्वप्न
देखेगा।
वह तेजप्रधान जीव है, औरर अहंकार में यह समझकर कि वह
ज्ञान का पुतला है सीधा ईश्वर में लीन
होने की कल्पना किया करता है।
स्त्री पृथ्वी की भाँति
धैर्यवान्् है,
शान्ति-सम्पन्न है,
सहिष्णु है।
पुरुष में नारी के गुण आ
जाते हैं, तो
वह महात्मा बन जाता है।
नारी में पुरुष के गुण आ
जाते हैं तो वह कुलटा हो जाती
है।
पुरुष आकर्षित होता है स्त्री की
ओर, जो सर्वांश
में स्त्री हो।
मालती ने अभी तक मुझे आकर्षित
नहीं किया।
मैं आपसे किन शब्दों
में कहूँ कि स्त्री मेरी नज़रों
में क्या है?
संसार में जो कुछ सुन्दर
है, उसी की प्रतिमा को
मैं स्त्री कहता हूँ; मैं उससे यह आशा रखता हूँ कि
मैं उसे मार ही डालूँ तो भी
प्रतिहिंसा का भाव उसमें न आये, अगर मैं उसकी आँखों
के सामने किसी स्त्री को प्यार करूँ, तो भी उसकी ईष्र्या न जागे।
ऐसी नारी पाकर मैं उसके
चरणों में गिर पड़ूँगा औरर उसपर
अपने को अर्पण कर दूँगा।
मिरज़ा ने सिर हिलाकर कहा -- ऐसी औररत आपको इस दुनिया
में तो शायद ही मिले।
मेहता ने हाथ मारकर कहा -- एक नहीं हज़ारों; वरना दुनिया वीरान हो जाती।
' ऐसी ही एक
मिसाल दीजिए। '
' मिसेज़
खन्ना को ही ले लीजिए। '
' लेकिन
खन्ना! '
' खन्ना
अभागे हैं, '
जो हीरा पाकर काँच का
टुकड़ा समझ रहे हैं।
सोचिए, कितना
त्याग है औरर उसके साथ ही कितना प्रेम है।
खन्ना के रूपासक्त मन में शायद
उसके लिए रत्ती-भर भी
स्थान नहीं है;
लेकिन आज खन्ना पर कोई आफ़त आ जाय तो वह
अपने को उनपर न्योछावर कर देगी।
खन्ना आज अन्धे या कोढ़ी हो
जायँ, तो भी उसकी
वफ़ादारी में फ़र्क़ न आयेगा।
अभी खन्ना उसकी क़द्र नहीं कर सकते
हैं, मगर आप
देखेंगे, एक
दिन यही खन्ना उसके चरण धो-धोकर पियेंगे।
मैं ऐसी बीबी नहीं चाहता,
जिससे मैं
ऐंस्टीन के सिद्धान्त पर बहस कर
सकूँ, या जो
मेरी रचनाओं के प्रूफ़ देखा करे।
मैं ऐसी औररत चाहता
हूँ, जो
मेरे जीवन को पवित्र औरर उज्ज्वल बना
दे, अपने प्रेम
औरर त्याग से। '
खुर्शेद ने दाढ़ी पर हाथ
फेरते हुए जैसे कोई भूली हुई
बात याद करके कहा -- आपका
ख़याल बहुत ठीक है मिस्टर मेहता!
ऐसी औररत अगर कहीं मिल जाय,
तो मैं भी शादी कर
लूँ, लेकिन
मुझे उम्मीद नहीं है कि मिले।
मेहता ने हँसकर कहा -- आप भी तलाश में रहिए, मैं भी तलाश में
हूँ।
शायद कभी तक़दीर जागे।
' मगर मिस मालती
आपको छोड़नेवाली नहीं।
कहिए लिख दूँ। '
' ऐसी
औररतों से मैं केवल
मनोरंजन कर सकता हूँ, ब्याह नहीं।
ब्याह तो आत्म-समर्पण है। '
' अगर ब्याह
आत्म-समर्पण है,
तो प्रेम क्या
है? '
' प्रेम जब
आत्म-समर्पण का रूप
लेता है, तभी ब्याह
है; उसके पहले
ऐयाशी है। '
मेहता ने कपड़े पहने औरर
विदा हो गये।
शाम हो गयी थी।
मिरज़ा ने जाकर देखा, तो गोबर अभी तक पेड़ों
को सींच रहा था।
मिरज़ा ने प्रसन्न होकर कहा -- जाओ,
अब तुम्हारी छुट्टी है।
कल फिर आओगे?
गोबर ने कातर भाव से कहा
-- मैं कहीं
नौकरी चाहता हूँ मालिक!
' नौकरी करना
है, तो हम
तुझे रख लेंगे। '
' कितना
मिलेगा हुज़ूर! '
' जितना तू
माँगे। '
' मैं क्या
माँगूँ।
आप जो चाहे दे दें। '
' हम
तुम्हें पन्द्रह रुपए देंगे औरर
ख़ूब कसकर काम लेंगे। '
गोबर मेहनत से नहीं डरता।
उसे रुपए मिलें, तो वह आठों पहर काम करने को
तैयार है।
पन्द्रह रुपए मिलें, तो क्या पूछना।
वह तो प्राण भी दे देगा।
बोला --
मेरे लिए कोठरी मिल जाय, वहीं पड़ा रहूँगा।
' हाँ-हाँ,
जगह का इन्तज़ाम मैं कर
दूँगा।
इसी झोपड़ी में एक किनारे
तुम भी पड़ रहना। '
गोबर को जैसे स्वर्ग मिल
गया।
Proceed to Chapter Fourteen.
Return to indexpage of texts.
Return to Mellon Project indexpage.
Recoded: 20 Sept. 1999 to 6 Oct 1999.
Chapter Thirteen posted: 13 Oct. 1999.