यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
इन्स्टिट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़
लैंग्वजिज़ ऐंड कल्चर्ज़ ऑफ़
एशिया ऐंड ऐफ़्रिका
तोक्यो
यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ाॅरेन स्टडीज़
Mellon Project
प्रेमचन्द
गोदान
(Devanagari text reconstituted from Professor K. Machida's roman
transcription)
Chapter Sixteen.
(unparagraphed text)
राय साहब को ख़बर मिली कि
इलाक़े में एक वारदात हो गयी है औरर
होरी से गाँव के पंचों ने
जुरमाना वसूल कर लिया है, तो फ़ौरन नोखेराम को
बुलाकर जवाब-तलब किया
-- क्यों
उन्हें, इसकी इत्तला
नहीं दी गयी।
ऐसे नमकहराम दग़ाबाज़ आदमी के लिए
उनके दरबार में जगह नहीं है।
नोखेराम ने इतनी गालियाँ
खायीं, तो ज़रा
गर्म होकर बोले -- मैं अकेला थोड़ा ही था।
गाँव के औरर पंच भी तो
थे।
मैं अकेला क्या कर लेता।
राय साहब ने उनकी तोंद की तरफ़
भाले-जैसी नुकीली
दृष्टि से देखा --
मत बको जी!
तुम्हें उसी वक़्त कहना चाहिए था,
जब तक सरकार को इत्तला न
हो जाय, मैं
पंचों को जुरमाना न वसूल
करने दूँगा।
पंचों को मेरे औरर
मेरी रिआया के बीच में दख़ल देने का
हक़ क्या है?
इस डाँड़-बाँध के सिवा इलाक़े में
औरर कौन-सी आमदनी
है?
वसूली सरकार के घर गयी।
बक़ाया असामियों ने दबा लिया।
तब मैं कहाँ जाऊँ?
क्या खाऊँ,
तुम्हारा सिर!
यह लाखों रुपए साल का ख़र्च कहाँ
से आये?
खेद है कि दो पुश्तों
से कारिन्दगीरी करने पर मुझे आज
तुम्हें यह बात बतलानी पड़ती है।
कितने रुपए वसूल हुए थे होरी
से?
नोखेराम ने सिटपिटा कर कहा
-- अस्सी रुपए!
' नक़द? '
' नक़द उसके
पास कहाँ थे हुज़ूर!
कुछ अनाज दिया,
बाक़ी में अपना घर लिख दिया। '
राय साहब ने स्वार्थ का पक्ष छोड़कर
होरी का पक्ष लिया -- अच्छा
तो आपने औरर बगुलाभगत
पंचों ने मिलकर मेरे एक मातबर
असामी को तबाह कर दिया।
मैं पूछता हूँ, तुम लोगों को क्या
हक़ था कि मेरे इलाक़े में मुझे
इत्तला दिये बग़ैर मेरे असामी से
जुरमाना वसूल करते।
इसी बात पर अगर मैं चाहूँ,
तो आपको औरर उस
जालिये पटवारी औरर उस धूर्त पण्डित को
सात-सात साल के लिए
जेल भिजवा सकता हूँ।
आपने समझ लिया कि आप ही इलाक़े के
बादशाह हैं।
मैं कहे देता हूँ,
आज शाम तक जुरमाने की
पूरी रक़म मेरे पास पहुँच जाय;
वरना बुरा होगा।
मैं एक-एक
से चक्की पिसवाकर छोड़ूँगा।
जाइए,
हाँ, होरी को
औरर उसके लड़के को मेरे पास भेज
दीजिएगा।
नोखेराम ने दबी ज़बान से कहा
-- उसका लड़का तो गाँव
छोड़कर भाग गया।
जिस रात को यह वारदात हुई, उसी रात को भागा।
राय साहब ने रोष से कहा -- झूठ मत बोलो।
तुम्हें मालूम है, झूठ से मेरे बदन
में आग लग जाती है।
मैंने आज तक कभी नहीं सुना
कि कोई युवक अपनी प्रेमिका को उसके घर
से लाकर फिर ख़ुद भाग जाय।
अगर उसे भागना ही होता, तो वह उस लड़की को लाता
क्यों?
तुम लोगों की इसमें
भी ज़रूर कोई शरारत है।
तुम गंगा में डूबकर भी
अपनी सफ़ाई दो, तो
मानने का नहीं।
तुम लोगों ने अपने
समाज की प्यारी मर्यादा की रक्षा के लिए उसे धमकाया
होगा।
बेचारा भाग न जाता, तो क्या करता!
नोखेराम इसका प्रतिवाद न कर सके।
मालिक जो कुछ कहें वह ठीक है।
वह यह भी न कह सके कि आप ख़ुद चलकर
झूठ-सच की जाँच कर
लें।
बड़े आदमियों का क्रोध पूरा
समर्पण चाहता है।
अपने ख़िलाफ़ एक शब्द भी नहीं सुन
सकता।
पंचों ने राय साहब का यह
फ़ैसला सुना, तो
नशा हिरन हो गया।
अनाज तो अभी तक ज्यों का
त्यों पड़ा था; पर रुपए
तो कब के ग़ायब हो गये।
होरी का मकान रेहन लिखा गया था;
पर उस मकान को देहात
में कौन पूछता था।
जैसे हिन्दू स्त्री पति के साथ घर की
स्वामिनी है, औरर पति
त्याग दे, तो कहीं
की नहीं रहती, उसी तरह यह
घर होरी के लिए लाख रुपए का है; पर उसकी असली क़ीमत कुछ भी नहीं।
औरर इधर राय साहब बिना रुपए लिए मानने
के नहीं।
यही होरी जाकर रो आया होगा।
पटेश्वरीलाल सबसे ज़्यादा भयभीत
थे।
उनकी तो नौकरी ही चली जायगी।
चारों सज्जन इस गहन समस्या पर विचार कर
रहे थे, पर किसी की अक्ल
काम न करती थी।
एक दूसरे पर दोष रखता था।
फिर ख़ूब झगड़ा हुआ।
पटेश्वरी ने अपनी लम्बी शंकाशील
गर्दन हिलाकर कहा --
मैं मना करता था कि होरी के विषय
में हमें चुप्पी साधकर रह जाना चाहिए।
गाय के मामले में सबको
तावान देना पड़ा।
इस मामले में तावान ही से गला
न छूटेगा, नौकरी
से हाथ धोना पड़ेगा; मगर तुम लोगों को रुपए की
पड़ी थी।
निकालो बीस-बीस रुपए।
अब भी कुशल है।
कहीं राय साहब ने रपट कर दी, तो सब जने बँध
जाओगे।
दातादीन ने ब्रह्मतेज दिखाकर कहा
-- मेरे पास बीस रुपए की
जगह बीस पैसे भी नहीं हैं।
ब्राहमणों को भोज दिया
गया, होम हुआ।
क्या इसमें कुछ ख़रच ही नहीं
हुआ?
राय साहब की हिम्मत है
कि मुझे जेल ले जायँ?
ब्रह्म बनकर घर का घर मिटा दूँगा।
अभी उन्हें किसी ब्राह्मण से
पाला नहीं पड़ा।
झिंगुरीसिंह ने भी कुछ इसी
आशय के शब्द कहे।
वह राय साहब के नौकर नहीं
हैं।
उन्होंने होरी को मारा
नहीं, पीटा नहीं,
कोई दबाव नहीं डाला।
होरी अगर प्रायश्चित करना चाहता था,
तो उन्होंने इसका
अवसर दिया।
इसके लिए कोई उन पर अपराध नहीं लगा
सकता; मगर नोखेराम
की गर्दन इतनी आसानी से न छूट सकती थी।
यहाँ मज़े से बैठे राज
करते थे।
वेतन तो दस रुपए से ज़्यादा न
था; पर एक हज़ार साल की ऊपर की
आमदनी थी, सैकड़ों
आदमियों पर हुकूमत, चार-चार प्यादे
हाज़िर, बेगार में
सारा काम हो जाता था,
थानेदार तक कुरसी देते थे, यह चैन उन्हें औरर कहाँ
था!
औरर पटेश्वरी तो नौकरी के
बदौलत महाजन बने हुए थे।
कहाँ जा सकते थे?
दो-तीन दिन
इसी चिन्ता में पड़े रहे कि कैसे इस
विपत्ति से निकलें।
आख़िर उन्हें एक मार्ग सूझ ही गया।
कभी-कभी कचहरी
में उन्हें दैनिक ' बिजली '
देखने को मिल जाती थी।
यदि एक गुमनाम पत्र उसके सम्पादक की
सेवा में भेज दिया जाय कि राय साहब किस तरह
असामियों से जुरमाना वसूल करते
हैं तो बचा को लेने के
देने पड़ जायँ।
नोखेराम भी सहमत हो गये।
दोनों ने मिलकर किसी तरह एक पत्र
लिखा औरर रजिस्टरी भेज दिया।
सम्पादक ओंकारनाथ तो ऐसे
पत्रों की ताक में रहते थे।
पत्र पाते ही तुरन्त राय साहब को
सूचना दी।
उन्हें एक ऐसा समाचार मिला
है, जिस पर विश्वास
करने की उनकी इच्छा नहीं होती; पर संवाददाता ने ऐसे प्रमाण
दिये कि सहसा अविश्वास भी नहीं किया जा सकता।
क्या यह सच है कि राय साहब ने अपने
इलाक़े के एक असामी से अस्सी रुपए तावान इसलिए
वसूल किये कि उसके पुत्र ने एक विधवा
को घर में डाल लिया था?
सम्पादक का कर्तव्य उन्हें मज़बूर
करता है कि वह मुआमले की जाँच करें
औरर जनता के हितार्थ उसे प्रकाशित कर
दें।
राय साहब इस विषय में जो कुछ
कहना चाहें, सम्पादक जी
उसे भी प्रकाशित कर देंगे।
सम्पादकजी दिल से चाहते हैं कि यह
ख़बर गलत हो; लेकिन
उसमें कुछ भी सत्य हुआ, तो वह उसे प्रकाश में लाने
के लिए विवश हो जायँगे।
मैत्री उन्हें कर्तव्य-पथ से नहीं हटा सकती।
राय साहब ने यह सूचना पायी, तो सिर पीट लिया।
पहले तो उनकी ऐसी उत्तेजना
हुई कि जाकर ओंकारनाथ को गिनकर पचास
हंटर जमायें औरर कह दें, जहाँ वह पत्र छापना वहाँ यह
समाचार भी छाप देना;
लेकिन इसका परिणाम सोचकर मन को शान्त किया
औरर तुरन्त उनसे मिलने चले।
अगर देर की,
औरर ओंकारनाथ ने वह संवाद छाप
दिया, तो उनके
सारे यश में कालिमा पुत जायगी।
ओंकारनाथ सैर करके लौटे
थे औरर आज के पत्र के लिए सम्पादकीय लेख
लिखने की चिन्ता में बैठे हुए
थे; पर मन पक्षी की
भाँति अभी उड़ा-उड़ा फिरता था।
उनकी धर्मपत्नी ने रात में
उन्हें कुछ ऐसी बातें कह डाली थीं
जो अभी तक काँटों की तरह चुभ रही
थीं।
उन्हें कोई दरिद्र कह ले,
अभागा कह ले, बुद्धू कह ले, वह ज़रा भी बुरा न मानते थे;
लेकिन यह कहना कि उनमें
पुरुषत्व नहीं है,
यह उनके लिए असह्य था।
औरर फिर अपनी पत्नी को यह कहने का क्या
हक़ है?
उससे तो यह आशा की जाती है कि
कोई इस तरह का आक्षेप करे, तो उसका मुँह बन्द कर दे।
बेशक वह ऐसी ख़बरें नहीं
छापते, ऐसी
टिप्पणियाँ नहीं करते कि सिर पर कोई आफ़त आ
जाय।
फूँक-फूँककर क़दम रखते हैं।
इन काले कानूनों के युग
में वह औरर कर ही क्या सकते हैं;
मगर वह क्यों साँप
के बिल में हाथ नहीं डालते?
इसीलिए तो कि उनके घरवालों
को कष्ट न उठाने पड़े।
औरर उनकी सहिष्णुता का उन्हें यह
पुरस्कार मिल रहा है?
क्या अँधेर है!
उनके पास रुपए नहीं हैं,
तो बनारसी साड़ी कैसे
मँगा दें?
डाक्टर सेठ औरर प्रोफ़ेसर भाटिया
औरर न जाने किस-किस की
स्त्रियाँ बनारसी साड़ी पहनती हैं, तो वह क्या करें?
क्यों उनकी पत्नी इन
साड़ीवालियों को अपनी खद्दर की साड़ी से
लज्जित नहीं करती?
उनकी ख़ुद तो यह आदत है कि किसी
बड़े आदमी से मिलने जाते हैं,
तो मोटे से
मोटे कपड़े पहन लेते हैं औरर
कुछ कोई आलोचना करे तो उसका
मुँहतोड़ जवाब देने को तैयार
रहते हैं।
उनकी पत्नी में क्यों वही
आत्माभिमान नहीं है?
वह क्यों दूसरों का
ठाट-बाट देखकर विचलित
हो जाती है?
उसे समझना चाहिए कि वह एक देश-भक्त पुरुष की पत्नी है।
देश-भक्त के
पास अपनी भक्ति के सिवा औरर क्या सम्पत्ति है।
इसी विषय को आज के अग्रलेख का
विषय बनाने की कल्पना करते-करते उनका ध्यान राय साहब के
मुआमले की ओर जा पहुँचा।
राय साहब सूचना का क्या उत्तर देते
हैं, यह देखना
है।
अगर वह अपनी सफ़ाई देने में सफल
हो जाते हैं,
तब तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर वह यह समझें कि
ओंकारनाथ दबाव,
भय, या मुलाहजे
में आकर अपने कर्तव्य से मुँह
फेर लेंगे तो यह उनका भ्रम है।
इस सारे तप औरर साधन का पुरस्कार
उन्हें इसके सिवा औरर क्या मिलता है कि
अवसर पड़ने पर वह इन क़ानूनी डकैतों का
भंडा-फोड़ करें।
उन्हें ख़ूब मालूम है कि राय
साहब बड़े प्रभावशाली जीव हैं।
कौंसिल के मेम्बर तो
हैं ही।
अधिकारियों में भी उनका काफ़ी
रुसूख है।
वह चाहें,
तो उन पर झूठे मुक़दमे चलवा सकते
हैं, अपने
गुंडों से राह चलते पिटवा सकते
हैं; लेकिन
ओंकार इन बातों से नहीं डरता।
जब तक उसकी देह में प्राण है,
वह आततायियों की ख़बर
लेता रहेगा।
सहसा मोटरकार की आवाज़ सुन कर वह
चौंके।
तुरन्त काग़ज़ लेकर अपना लेख आरम्भ कर
दिया।
औरर एक ही क्षण में राय साहब ने
उनके कमरे में क़दम रक्खा।
ओंकारनाथ ने न उनका स्वागत
किया, न कुशल-क्षेम पूछा, न कुरसी दी।
उन्हें इस तरह देखा मानो कोई
मुलाज़िम उनकी अदालत में आया हो औरर
रोब से मिले हुए स्वर में पूछा
-- आपको मेरा
पुरज़ा मिल गया था?
मैं वह पत्र लिखने के लिए बाध्य
नहीं था, मेरा
कर्तव्य यह था कि स्वयम् उसकी तहक़ीक़ात करता; लेकिन मुरौवत में
सिद्धान्तों की कुछ न कुछ हत्या करनी ही पड़ती
है।
क्या उस संवाद में कुछ सत्य
है?
राय साहब उसका सत्य होना अस्वीकार न कर
सके।
हालाँ कि अभी तक उन्हें
जुरमाने के रुपए नहीं मिले थे
औरर वह उनके पाने से साफ़ इनकार कर सकते
थे; लेकिन वह
देखना चाहते थे कि यह महाशय किस पहलू पर
चलते हैं।
ओंकारनाथ ने खेद प्रकट करते
हुए कहा -- तब तो
मेरे लिए उस संवाद को प्रकाशित करने के
सिवा औरर कोई मार्ग नहीं है।
मुझे इसका दु:ख है कि
मुझे अपने एक परम हितैषी मित्र की
आलोचना करनी पड़ रही है; लेकिन कर्तव्य के आगे व्यक्ति
कोई चीज़ नहीं।
सम्पादक अगर अपना कर्तव्य न पूरा कर
सके, तो उसे इस
आसन पर बैठने का कोई हक़ नहीं है।
राय साहब कुरसी पर डट गये औरर पान
की गिलौरियाँ मुँह में भरकर
बोले -- लेकिन यह
आपके हक़ में अच्छा न होगा।
मुझे जो कुछ होना
है, पीछे
होगा, आपको तत्काल
दंड मिल जायगा; अगर आप
मित्रों की परवाह नहीं करते, तो मैं भी उसी
कैंड़े का आदमी हूँ।
ओंकारनाथ ने शहीद का गौरव
धारण करके कहा -- इसका
तो मुझे कभी भय नहीं हुआ।
जिस दिन मैंने पत्र-सम्पादन का भार लिया, उसी दिन प्राणों का मोह छोड़
दिया, औरर मेरे
समीप एक सम्पादक की सबसे शानदार मौत यही है कि
वह न्याय औरर सत्य की रक्षा करता हुआ अपना बलिदान कर
दे।
' अच्छी बात है।
मैं आपकी चुनौती स्वीकार करता
हूँ।
मैं अब तक आपको मित्र समझता आया
था; मगर अब आप लड़ने ही
पर तैयार हैं, तो लड़ाई ही सही।
आख़िर मैं आपके पत्र का
पँचगुना चन्दा क्यों देता हूँ।
केवल इसीलिए कि वह मेरा ग़ुलाम बना
रहे।
मुझे परमात्मा ने रईस बनाया है।
पचहत्तर रुपया देता हूँ; इसीलिए कि आपका मुँह बन्द रहे।
जब आप घाटे का रोना रोते
हैं औरर सहायता की अपील करते
हैं, औरर ऐसी
शायद ही कोई तिमाही जाती हो, जब आपकी अपील न निकलती हो, तो मैं ऐसे
मौक़े पर आपकी कुछ न कुछ मदद कर देता
हूँ।
किसलिए!
दीपावली,
दसहरा, होली में
आपके यहाँ बैना भेजता हूँ,
औरर साल में पच्चीस बार
आपकी दावत करता हूँ,
किसलिए!
आप रिश्वत औरर कर्तव्य
दोनों साथ-साथ
नहीं निभा सकते। '
ओंकारनाथ उत्तेजित होकर
बोले, -- मैंने कभी रिश्वत नहीं
ली।
राय साहब ने फटकारा -- अगर यह व्यवहार रिश्वत नहीं है तो
रिश्वत क्या है?
ज़रा मुझे समझा दीजिए।
क्या आप समझते हैं, आपको छोड़कर औरर सभी
गधे हैं जो नि:स्वार्थ-भाव से आपका घाटा पूरा करते
हैं।
निकालिए अपनी बही औरर बतलाइए अब तक
आपको मेरी रियासत से कितना मिल चुका
है।
मुझे विश्वास है, हज़ारों की रक़म निकलेगी;
अगर आपको स्वदेशी-स्वदेशी चिल्लाकर विदेशी
दवाओं औरर वस्तुओं का विज्ञापन
छापने में शरम नहीं आती, तो मैं अपने असामियों
से डाँड़, तावान
औरर जुर्माना लेते शरमाऊँ?
यह न समझिए कि आप ही किसानों के
हित का बीड़ा उठाये हुए हैं।
मुझे किसानों के साथ
जलना-मरना है, मुझसे बढ़कर दूसरा उनका
हितेच्छु नहीं हो सकता; लेकिन मेरी गुज़र कैसे
हो!
अफ़सरों को दावतें कहाँ
से दूँ, सरकारी
चन्दे कहाँ से दूँ, ख़ानदान के सैकड़ों
आदमियों की ज़रूरतें कैसे पूरी
करूँ।
मेरे घर का क्या ख़र्च है,
यह शायद आप जानते हैं।
तो क्या मेरे घर में
रुपये फलते है?
आयेगा तो आसामियों ही के
घर से।
आप समझते होंगे, ज़मींदार औरर ताल्लुक़ेदार
सारे संसार का सुख भोग रहे हैं।
उनकी असली हालत का आपको ज्ञान नहीं;
अगर वह धर्मात्मा बन कर
रहें, तो उनका
ज़िन्दा रहना मुश्किल हो जाय।
अफ़सरों को डालियाँ न
दें, तो
जेलख़ाना घर हो जाय।
हम बिच्छू नहीं हैं कि अनायास ही
सबको डंक मारते फिरें।
न ग़रीबों का गला दबाना कोई बड़े
आनन्द का काम है; लेकिन
मर्यादाओं का पालन तो करना ही पड़ता है।
जिस तरह आप मेरी रईसी का फ़ायदा उठाना
चाहते हैं, उसी तरह
औरर सभी हमें सोने की मुरग़ी
समझते हैं।
आइए मेरे बँगले पर तो
दिखाऊँ कि सुबह से शाम तक कितने निशाने
मुझ पर पड़ते हैं।
कोई काश्मीर से शाल-दुशाला लिये चला आ रहा है, कोई इत्र औरर तम्बाकू का
एजेंट है, कोई
पुस्तकों औरर पत्रिकाओं का, कोई जीवन-बीमे का,
कोई ग्रामोफ़ोन लिये सिर पर सवार
है, कोई कुछ।
चन्देवाले तो अनगिनती।
क्या सबके सामने अपना दुखड़ा
लेकर बैठ जाऊँ?
ये लोग मेरे द्वार पर
दुखड़ा सुनाने आते हैं?
आते हैं मुझे उल्लू
बनाकर मुझसे कुछ ऐंठने के लिए।
आज मर्यादा का विचार छोड़
दूँ, तो
तालियाँ पिटने लगें।
हुक्काम को डालियाँ न
दूँ, तो बागी
समझा जाऊँ।
तब आप अपने लेखों से
मेरी रक्षा न करेंगे।
काँग्रेस में शरीक
हुआ, उसका तावान अभी तक
देता जाता हूँ।
काली किताब में नाम दरज़ हो गया।
मेरे सिर पर कितना क़रज़ है, यह भी कभी आपने पूछा
है?
अगर सभी महाजन डिग्रियाँ करा
लें, तो
मेरे हाथ की यह अँगूठी तक बिक जायगी।
आप कहेंगे क्यों यह आडम्बर
पालते हो।
कहिए, सात
पुश्तों से जिस वातावरण में पला
हूँ उससे अब निकल नहीं सकता।
घास छीलना मेरे लिए असम्भव है।
आपके पास ज़मीन नहीं, जायदाद नहीं, मर्यादा का झमेला नहीं, आप निर्भीक हो सकते
हैं; लेकिन आप भी
दुम दबाये बैठे रहते हैं।
आपको कुछ ख़बर है, अदालतों में कितनी
रिश्वतें चल रही हैं, कितने ग़रीबों का ख़ून हो रहा
है, कितनी देवियाँ
भ्रष्ट हो रही हैं!
है बूता लिखने का?
सामग्री मैं देता
हूँ, प्रमाणसहित।
ओंकारनाथ कुछ नर्म होकर
बोले -- जब कभी अवसर
आया है, मैंने
क़दम पीछे नहीं हटाया।
राय साहब भी कुछ नर्म हुए -- हाँ,
मैं स्वीकार करता हूँ कि दो-एक मौक़ों पर आपने
जवाँमरदी दिखायी है;
लेकिन आप की निगाह हमेशा अपने लाभ की ओर
रही है, प्रजा-हित की ओर नहीं।
आँखें न निकालिए औरर न
मुँह लाल कीजिए।
जब कभी आप मैदान में आये
हैं, उसका शुभ
परिणाम यही हुआ कि आपके सम्मान औरर प्रभाव
औरर आमदनी में इज़ाफ़ा हुआ है; अगर मेरे साथ भी आप वही चाल
चल रहे हों,
तो मैं आपकी ख़ातिर करने को तैयार
हूँ।
रुपए न दूँगा; क्योंकि वह रिश्वत है।
आपकी पत्नीजी के लिए कोई आभूषण
बनवा दूँगा।
है मंज़ूर?
अब मैं आपसे सत्य कहता हूँ
कि आपको जो संवाद मिला वह गलत है;
मगर यह भी कह देना चाहता
हूँ कि अपने औरर सभी भाइयों की तरह
मैं असामियों से जुर्माना
लेता हूँ औरर साल में दस-पाँच हज़ार रुपए मेरे हाथ लग
जाते हैं, औरर
अगर आप मेरे मुँह से यह कौर छीनना
चाहेंगे, तो
आप घाटे में रहेंगे।
आप भी संसार में सुख से
रहना चाहते हैं,
मैं भी चाहता हूँ।
इससे क्या फ़ायदा कि आप न्याय औरर
कर्तव्य का ढोंग रचकर मुझे भी ज़ेरबार
करें, ख़ुद भी
ज़ेरबार हों।
दिल की बात कहिए।
मैं आपका बैरी नहीं हूँ।
आपके साथ कितनी ही बार एक चौके
में, एक मेज़ पर खा
चुका हूँ।
मैं यह भी जानता हूँ कि आप
तकलीफ़ में हैं।
आपकी हालत शायद मेरी हालत से भी ख़राब
है।
हाँ, अगर आप
ने हरिश्चन्द्र बनने की क़सम खा ली है,
तो आप की ख़ुशी।
मैं चलता हूँ।
राय साहब कुरसी से उठ खड़े हुए।
ओंकारनाथ ने उनका हाथ पकड़कर
सन्धिभाव से कहा --
नहीं-नहीं, अभी आपको बैठना पड़ेगा।
मैं अपनी पोज़ीशन साफ़ कर देना
चाहता हूँ।
आपने मेरे साथ जो सलूक
किये हैं, उनके
लिए मैं आपका आभारी हूँ; लेकिन यहाँ सिद्धान्त की बात आ गयी
है औरर आप जानते हैं, सिद्धान्त प्राणों से भी प्यारे
होते हैं।
राय साहब कुर्सी पर बैठकर ज़रा
मीठे स्वर में बोले -- अच्छा भाई, जो
चाहे लिखो।
मैं तुम्हारे सिद्धान्त को
तोड़ना नहीं चाहता।
औरर तो क्या होगा, बदनामी होगी।
हाँ, कहाँ
तक नाम के पीछे पीछे मरूँ!
कौन ऐसा ताल्लुक़ेदार
है, जो
असामियों को थोड़ा-बहुत नहीं सताता।
कुत्ता हड्ड:ी की रखवाली करे तो
खाय क्या?
मैं इतना ही कर सकता हूँ कि
आगे आपको इस तरह की कोई शिकायत न
मिलेगी; अगर आपको
मुझ पर कुछ विश्वास है, तो इस बार क्षमा कीजिए।
किसी दूसरे सम्पादक से मैं इस
तरह की ख़ुशामद न करता।
उसे सरे बाज़ार पिटवाता; लेकिन मुझसे आपकी
दोस्ती है; इसलिए दबना
ही पड़ेगा।
यह समाचार-पत्रों का युग है।
सरकार तक उनसे डरती है, मेरी हस्ती क्या!
आप जिसे चाहें बना दें।
ख़ैर यह झगड़ा ख़तम कीजिए।
कहिए, आजकल पत्र की
क्या दशा है?
कुछ ग्राहक बढ़े?
ओंकारनाथ ने अनिच्छा के भाव
से कहा -- किसी न किसी तरह
काम चल जाता है औरर वर्तमान परिस्थिति
में मैं इससे अधिक आशा नहीं रखता।
मैं इस तरफ़ धन औरर भोग की
लालसा लेकर नहीं आया था; इसलिए मुझे शिकायत नहीं है।
मैं जनता की सेवा करने आया था
औरर वह यथाशक्ति किये जाता हूँ।
राष्ट्र का कल्याण हो, यही मेरी कामना है।
एक व्यक्ति के सुख-दु:ख का कोई मूल्य नहीं।
राय साहब ने ज़रा औरर सहृदय होकर
कहा -- यह सब ठीक है भाई
साहब; लेकिन सेवा
करने के लिए भी जीना ज़रूरी है।
आर्थिक चिन्ताओं में आप
एकाग्रचित्त होकर सेवा भी तो नहीं कर
सकते।
क्या ग्राहक-संख्या बिलकुल नहीं बढ़ रही
है?
' बात यह है कि
मैं अपने पत्र का आदर्श गिराना नहीं
चाहता; अगर मैं आज
सिनेमास्टारों के चित्र औरर चरित्र
छापने लगूँ तो मेरे ग्राहक बढ़
सकते हैं;
लेकिन अपनी तो वह नीति नहीं।
औरर भी कितने ही ऐसे
हथकंडे हैं,
जिनसे पत्रों द्वारा धन कमाया जा सकता
है, लेकिन मैं
उन्हें गर्हित समझता हूँ। '
' इसी का यह फल
है कि आज आपका इतना सम्मान है।
मैं एक प्रस्ताव करना चाहता हूँ।
मालूम नहीं आप उसे स्वीकार
करेंगे या नहीं।
आप मेरी ओर से सौ
आदमियों के नाम फ़्र:ी जारी कर दीजिए।
चन्दा मैं दे दूँगा। '
ओंकारनाथ ने कृतज्ञता से सिर
झुकाकर कहा -- मैं
धन्यवाद के साथ आपका दान स्वीकार करता हूँ।
खेद यही है कि पत्रों की ओर
से जनता कितनी उदासीन है।
स्कूल औरर कालिजों औरर
मन्दिरों के लिए धन की कमी नहीं है पर आज
तक एक भी ऐसा दानी न निकला जो पत्रों के
प्रचार के लिए दान देता,
हालाँकि जन-शिक्षा का
उद्देश्य जितने कम ख़र्च में
पत्रों से पूरा हो सकता है,
औरर किसी तरह नहीं हो
सकता।
जैसे शिक्षालयों को
संस्थाओं द्वारा सहायता मिला करती
है, ऐसे ही अगर
पत्रकारों को मिलने लगे, तो इन बेचारों को
अपना जितना समय औरर स्थान विज्ञापनों की
भेंट करना पड़ता है,
वह क्यों करना पड़े?
मैं आपका बड़ा अनुगृहीत
हूँ।
राय साहब बिदा हो गये; ओंकारनाथ के मुख पर
प्रसन्नता की झलक न थी।
राय साहब ने किसी तरह की शर्त न की
थी, कोई बन्धन न लगाया
था; पर ओंकारनाथ आज
इतनी करारी फटकार पा कर भी इस दान को अस्वीकार न कर सके।
परिस्थिति ऐसी आ पड़ी थी कि उन्हें
उबरने का कोई उपाय ही न सूझ रहा था।
प्रेस के कर्मचारियों का तीन
महीने का वेतन बाक़ी पड़ा हुआ था।
काग़ज़वाले के एक हज़ार से ऊपर आ
रहे थे; यही क्या कम था
कि उन्हें हाथ नहीं फैलाना पड़ा।
उनकी स्त्री गोमती ने आकर विद्रोह
के स्वर में कहा --
क्या अभी भोजन का समय नहीं आया, या यह भी कोई नियम है कि जब तक एक न बज
जाय, जगह से न उठो।
कब तक कोई चूल्हा अगोरता रहे।
ओंकारनाथ ने दुखी
आँखों से पत्नी की ओर देखा।
गोमती का विद्रोह उड़ गया।
वह उनकी कठिनाइयों को समझती थी।
दूसरी महिलाओं के
वस्त्राभूषण देखकर कभी-कभी उसके मन में विद्रोह
के भाव जाग उठते थे औरर वह पति को
दो-चार जली-कटी सुना जाती थी; पर वास्तव में यह क्रोध उनके प्रति
नहीं, अपने
दुर्भाग्य के प्रति था,
औरर इसकी थोड़ी-सी
आँच अनायास ही ओंकारनाथ तक पहुँच
जाती थी।
वह उनका तपस्वी जीवन देखकर मन में
कुढ़ती थी औरर उनसे सहानुभूति भी रखती
थी।
बस, उन्हें
थोड़ा-सा सनकी समझती थी।
उनका उदास मुँह देखकर पूछा
-- क्यों उदास
हो, पेट में
कुछ गड़बड़ है क्या?
ओंकारनाथ को मुस्कराना पड़ा
-- कौन उदास है,
मैं?
मुझे तो आज जितनी ख़ुशी
है, उतनी अपने विवाह
के दिन भी न हुई थी।
आज सबेरे पन्द्रह सौ की
बोहनी हुई।
किसी भाग्यवान का मुँह देखा था।
गोमती को विश्वास न आया,
बोली -- झूठे हो।
तुम्हें पन्द्रह सौ कहाँ
मिल जाते हैं।
हाँ, पन्द्रह
रुपए कहो, मान लेती
हूँ।
' नहीं-नहीं,
तुम्हारे सिर की क़सम,
पन्द्रह सौ मारे।
अभी राय साहब आये थे।
सौ ग्राहकों का चन्दा अपनी तरफ़
से देने का वचन दे गये
हैं। '
गोमती का चेहरा उतर गया -- तो मिल चुके?
' नहीं,
राय साहब वादे के पक्के
हैं '
' मैंने किसी ताल्लुक़ेदार को
वादे का पक्का देखा ही नहीं।
दादा एक ताल्लुक़ेदार के नौकर
थे।
साल-साल भर तलब
नहीं मिलती थी।
उसे छोड़कर दूसरे की नौकरी की।
उसने दो साल तक एक पाई न दी।
एक बार दादा गरम पड़े, तो मारकर भगा दिया।
इनके वादों का कोई क़रार
नहीं। '
' मैं आज
ही बिल भेजता हूँ। '
' भेजा
करो।
कह देंगे, कल आना।
कल अपने इलाक़े पर चले
जायँगे।
तीन महीने में
लौटेंगे। '
ओंकारनाथ संशय में पड़
गये।
ठीक तो है,
कहीं राय साहब पीछे से मुकर गये,
तो वह क्या कर
लेंगे।
फिर भी दिल मज़बूत करके कहा -- ऐसा नहीं हो सकता।
कम-से-कम राय साहब
को मैं इतना धोखेबाज़ नहीं
समझता।
मेरा उनके यहाँ कुछ बाक़ी नहीं
है।
गोमती ने उसी सन्देह के भाव
से कहा -- इसी से
तो मैं तुम्हें बुद्ध कहती
हूँ।
ज़रा किसी ने सहानुभूति दिखायी
औरर तुम फूल उठे।
ये मोटे रईस हैं।
इनके पेट में ऐसे
कितने वादे हज़म हो सकते हैं।
जितने वादे करते हैं,
अगर सब पूरा करने
लगें, तो भीख
माँगने की नौबत आ जाय।
मेरे गाँव के ठाकुर साहब
तो दो-दो,
तीन-तीन साल-तक
बनियों का हिसाब न करते थे।
नौकरों का हिसाब तो नाम के
लिए देते थे।
साल-भर काम
लिया, जब नौकर ने
वेतन माँगा, मारकर
निकाल दिया।
कई बार इसी नादिहेन्दी में स्कूल
से उनके लड़कों के नाम कट गये।
आख़िर उन्होंने लड़कों को
घर बुला लिया।
एक बार रेल का टिकट उधार माँगा था।
यह राय साहब भी तो उन्हीं के भाईबन्द
हैं।
चलो भोजन करो औरर चक्की
पीसो, जो
तुम्हारे भाग्य में लिखा है।
यह समझ लो कि ये बड़े आदमी
तुम्हें फटकारते रहें, वही अच्छा है।
यह तुम्हें एक पैसा
देंगे, तो
उसका चौगुना अपने असामियों से
वसूल कर लेंगे।
अभी उनके विषय में जो कुछ
चाहते हो, लिखते
हो।
तब तो ठकुरसोहाती ही कहनी
पड़ेगी।
पण्डित जी भोजन कर रहे थे;
पर कौर मुँह में
फँसा हुआ जान पड़ता था।
आख़िर बिना दिल का बोझ हलका किये
भोजन करना कठिन हो गया।
बोले --
अगर रुपए न दिये, तो
ऐसी ख़बर लूँगा कि याद करेंगे।
उनकी चोटी मेरे हाथ में
है।
गाँव के लोग झूठी ख़बर नहीं
दे सकते।
सच्ची ख़बर देते तो उनकी जान
निकलती है, झूठी ख़बर
क्या देंगे!
राय साहब के ख़िलाफ़ एक रिपोर्ट
मेरे पास आयी है।
छाप दूँ,
बचा को घर से निकलना मुश्किल हो जाय।
मुझे यह ख़ैरात नहीं दे
रहे हैं, बड़े
दबसट में पड़कर इस राह पर आये हैं।
पहले धमकियाँ दिखा रहे थे,
जब देखा इससे काम न
चलेगा, तो यह चारा
फेंका।
मैंने भी सोचा, एक इनके ठीक हो जाने से
तो देश से अन्याय मिटा जाता नहीं, फिर क्यों न इस दान को स्वीकार
कर लूँ।
मैं अपने आदर्श से गिर गया
हूँ ज़रूर; लेकिन
इतने पर भी राय साहब ने दग़ा की, तो मैं भी शठता पर उतर आऊँगा।
जो ग़रीबों को लूटता
है, उसको
लूटने के लिए अपनी आत्मा को बहुत
समझाना न पड़ेगा।
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Recoded: 20 Sept. 1999 to 6 Oct 1999.
Chapter Sixteen posted: 13 Oct. 1999.