यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
इन्स्टिट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़
लैंग्वजिज़ ऐंड कल्चर्ज़ ऑफ़
एशिया ऐंड ऐफ़्रिका
तोक्यो
यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ाॅरेन स्टडीज़
Mellon Project
प्रेमचन्द
गोदान
(Devanagari text reconstituted from Professor K. Machida's roman
transcription)
Chapter Seventeen.
(unparagraphed text)
गाँव में ख़बर फैल
गयी कि राय साहब ने पंचों को
बुलाकर ख़ूब डाँटा औरर इन लोगों
ने जितने रुपए वसूल किये थे, वह सब इनके पेट से निकाल
लिये।
वह तो इन लोगों को
जेहल भेजवा रहे थे; लेकिन इन लोगों ने
हाथ-पाँव
जोड़े, थूककर
चाटा, तब जाके
उन्होंने छोड़ा।
धनिया का कलेजा शीतल हो गया,
गाँव में
घूम-घूमकर
पंचों को लज्जित करती फिरती थी -- आदमी न सुने ग़रीबों की
पुकार, भगवान्
तो सुनते हैं।
लोगों ने सोचा था,
इनसे डाँड़ लेकर मज़े
से फुलौड़ियाँ खायेंगे।
भगवान् ने ऐसा तमाचा लगाया कि
फुलौड़ियाँ मुँह से निकल पड़ीं।
एक-एक के
दो-दो भरने
पड़े।
अब चाटो मेरा मकान लेकर।
मगर बैलों के बिना खेती
कैसे हो?
गाँवों में बोआई शुरू हो गयी।
कार्तिक के महीने में किसान
के बैल मर जायँ,
तो उसके दोनों हाथ कट जाते
हैं।
होरी के दोनों हाथ कट
गये थे।
औरर सब लोगों के
खेतों में हल चल रहे थे।
बीज डाले जा रहे थे।
कहीं-कहीं
गीत की तानें सुनायी देती थीं।
होरी के खेत किसी अनाथ अबला के
घर की भाँति सूने पड़े थे।
पुनिया के पास भी गोई थी;
शोभा के पास भी गोई
थी; मगर उन्हें
अपने खेतों की बुआई से कहाँ
फ़ुरसत कि होरी की बुआई करें।
होरी दिन-भर
इधर-उधर मारा-मारा फिरता था।
कहीं इसके खेत में जा
बैठता, कहीं उसकी
बोआई करा देता।
इस तरह कुछ अनाज मिल जाता।
धनिया, रूपा,
सोना सभी दूसरों
की बोआई में लगी रहती थीं।
जब तक बोआई रही, पेट की रोटियाँ मिलती
गयीं, विशेष कष्ट न
हुआ।
मानसिक वेदना तो अवश्य होती
थी; पर खाने भर को
मिल जाता था।
रात को नित्य स्त्री-पुरुष में थोड़ी-सी लड़ाई हो जाती थी।
यहाँ तक कि कार्तिक का महीना बीत गया
औरर गाँव में मज़दूरी मिलनी भी कठिन
हो गयी।
अब सारा दारमदार ऊख पर था, जो खेतों में खड़ी थी।
रात का समय था।
सर्दी ख़ूब पड़ रही थी।
होरी के घर में आज कुछ
खाने को न था।
दिन को तो थोड़ा-सा भुना हुआ मटर मिल गया था; पर इस वक़्त चूल्हा जलाने का
कोई डौल न था औरर रूपा भूख के मारे
व्याकुल भी औरर द्वार पर कौड़े के
सामने बैठी रो रही थी।
घर में जब अनाज का एक दाना भी नहीं
है, तो क्या
माँगे, क्या
कहे!
जब भूख न सही गयी तो वह आग
माँगने के बहाने पुनिया के घर गयी।
पुनिया बाजरे की रोटियाँ
औरर बथुए का साग पका रही थी।
सुगन्ध से रूपा के मुँह
में पानी भर आया।
पुनिया ने पूछा -- क्या अभी तेरे घर आग नहीं जली,
क्या री?
रूपा ने दीनता से कहा -- आज तो घर में कुछ था ही
नहीं, आग कहाँ से
जलती?
' तो फिर आग
काहे को माँगने आयी है? '
' दादा तमाखू
पियेंगे। '
पुनिया ने उपले की आग उसकी ओर
फेंक दी; मगर रूपा
ने आग उठायी नहीं औरर समीप जाकर बोली
-- तुम्हारी रोटियाँ
महक रही हैं काकी!
मुझे बाजरे की रोटियाँ बड़ी
अच्छी लगती हैं।
पुनिया ने मुस्कराकर पूछा
-- खायेगी?
' अम्मा
डाटेंगी। '
' अम्मा से
कौन कहने जायगा। '
रूपा ने पेट-भर रोटियाँ खायीं औरर
जूठे मुँह भागी हुई घर चली गयी।
होरी मन-मारे बैठा था कि पण्डित दातादीन ने जाकर
पुकारा।
होरी की छाती धड़कने लगी।
क्या कोई नयी विपत्ति आनेवाली
है।
आकर उनके चरण छुये औरर
कौड़े के सामने उनके लिए माँची रख दी।
दातादीन ने बैठते हुए
अनुग्रह भाव से कहा -- अबकी तो तुम्हारे खेत परती पड़
गये होरी!
तुमने गाँव में किसी
से कुछ कहा नहीं,
नहीं भोला की मजाल थी कि
तुम्हारे द्वार से बैल खोल ले
जाता!
यहीं लहास गिर जाती।
मैं तुमसे जने:ू हाथ
में लेकर कहता हूँ, होरी,
मैंने तुम्हारे ऊपर डाँड़ न लगाया था।
धनिया मुझे नाहक़ बदनाम करती फिरती
है।
यह लाला पटेश्वरी औरर
झिंगुरीसिंह की कारस्तानी है।
मैं तो लोगों के
कहने से पंचायत में बैठ भर गया
था।
वह लोग तो औरर कड़ा दंड लगा
रहे थे।
मैंने कह-सुनके कम कराया; मगर अब सब जने सिर पर हाथ धरे रो
रहे हैं।
समझे थे,
यहाँ उन्हीं का राज है।
यह न जानते थे, कि गाँव का राजा कोई औरर है।
तो अब अपने खेतों की
बोआई का क्या इन्तज़ाम कर रहे हो?
होरी ने करुण-कंठ से कहा --
क्या बताऊँ महाराज, परती
रहेंगे।
' परती
रहेंगे?
यह तो बड़ा अनर्थ होगा!
' भगवान् की
यही इच्छा है, तो अपना
क्या बस। '
' मेरे
देखते तुम्हारे खेत कैसे परती
रहेंगे।
कल मैं तुम्हारी बोआई करा
दूँगा।
अभी खेत में कुछ तरी है।
उपज दस दिन पीछे होगी, इसके सिवा औरर कोई बात
नहीं।
हमारा तुम्हारा आधा साझा रहेगा।
इसमें न तुम्हें कोई
टोटा है, न
मुझे।
मैंने आज बैठे-बैठे सोचा, तो चित्त बड़ा दुखी हुआ कि
जुते-जुताये
खेत परती रहे जाते हैं! '
होरी सोच में पड़ गया।
चौमासे-भर इन खेतों में खाद
डाली, जोता औरर आज
केवल बोआई के लिए आधी फ़सल देनी पड़ रही
है।
उस पर एहसान कैसा जता रहे
हैं; लेकिन
इससे तो अच्छा यही है कि खेत परती पड़
जायँ।
औरर कुछ न मिलेगा, लगान तो निकल ही आयेगा।
नहीं, अबकी
बेबाक़ी न हुई, तो
बेदख़ली आयी धरी है।
उसने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
दातादीन प्रसन्न होकर बोले
-- तो चलो, मैं अभी बीज तौल
दूँ, जिसमें
सबेरे का झंझट न रहे।
रोटी तो खा ली है न?
होरी ने लजाते हुए आज घर
में चूल्हा न जलने की कथा कही।
दातादीन ने मीठे उलाहने के भाव
से कहा -- अरे!
तुम्हारे घर में चूल्हा
नहीं जला औरर तुमने मुझसे कहा भी
नहीं!
हम तुम्हारे बैरी तो नहीं
थे।
इसी बात पर तुमसे मेरा जी
कुढ़ता है।
अरे भले आदमी, इसमें लाज-सरम की कौन बात है।
हम सब एक ही तो हैं।
तुम सूद्र हुए तो क्या,
हम बाम्हन हुए तो क्या,
हैं तो सब एक ही घर
के।
दिन सबके बराबर नहीं जाते।
कौन जाने, कल मेरे ही ऊपर कोई संकट आ
पड़े, तो मैं
तुमसे अपना दु:ख न कहूँगा तो
किससे कहूँगा।
अच्छा जो हुआ, चलो बेंग ही के साथ
तुम्हें मन-दो-मन अनाज
खाने को भी तौल दूँगा।
आध घंटे में होरी
मन-भर जौ का टोकरा सिर
पर रखे आया औरर घर की चक्की चलने लगी।
धनिया रोती थी औरर साहस के साथ
जौ पीसती थी।
भगवान् उसे किस कुकर्म का यह
दंड दे रहे हैं!
दूसरे दिन से बोआई शुरू
हुई।
होरी का सारा परिवार इस तरह काम में
जुटा हुआ था,
मानो सब कुछ अपना ही है।
कई दिन के बाद सिंचाई भी इसी तरह हुई।
दातादीन को सेत-मेत के मजूर मिल गये।
अब कभी-कभी उनका
लड़का मातादीन भी घर में आने लगा।
जवान आदमी था,
बड़ा रसिक औरर बातचीत का मीठा; दातादीन जो कुछ छीन-झपटकर लाते थे, वह उसे भाँग-बूटी में उड़ाता था।
एक चमारिन से उसकी आशनाई हो गयी
थी, इसलिए अभी तक ब्याह न
हुआ था।
वह रहती थी; पर
सारा गाँव यह रहस्य जानते हुए भी कुछ न
बोल सकता था।
हमारा धर्म है हमारा भोजन।
भोजन पवित्र रहे फिर हमारे धर्म
पर कोई आँच नहीं आ सकती।
रोटियाँ ढाल बन कर अधर्म से
हमारी रक्षा करती हैं।
अब साझे की खेती होने से
मातादीन को झुनिया से बातचीत करने का
अवसर मिलने लगा।
वह ऐसे दाँव से आता, जब घर में झुनिया के
सिवा औरर कोई न होता; कभी किसी बहाने से, कभी किसी बहाने से।
झुनिया रूपवती न थी; लेकिन जवान थी औरर उसकी चमारिन
प्रेमिका से अच्छी थी।
कुछ दिन शहर में रह चुकी थी,
पहनना-ओढ़ना,
बोलना-चालना जानती थी
औरर लज्जाशील भी थी,
जो स्त्री का सबसे बड़ा आकर्षण है।
मातादीन कभी-कभी
उसके बच्चे को गोद में उठा लेता
औरर प्यार करता।
झुनिया निहाल हो जाती थी।
एक दिन उसने झुनिया से कहा
-- तुम क्या देखकर
गोबर के साथ आयीं झूना?
झुनिया ने लजाते हुए कहा
-- भाग खींच लाया
महाराज, औरर क्या
कहूँ।
मातादीन दु:खी मन से बोला
-- बड़ा बेवफ़ा आदमी है।
तुम जैसी लच्छमी को छोड़कर न
जाने कहाँ मारा-मारा फिर
रहा है।
चंचल सुभाव का आदमी है, इसीसे मुझे शंका
होती है कि कहीं औरर न फँस गया हो।
ऐसे आदमियों को तो
गोली मार देना चाहिए।
आदमी का धरम है, जिसकी बाँह पकड़े, उसे निभाये।
यह क्या कि एक आदमी की ज़िन्दगी ख़राब कर दी औरर
आप दूसरा घर ताकने लगे।
युवती रोने लगी।
मातादीन ने इधर-उधर ताककर उसका हाथ पकड़ लिया औरर समझाने
लगा -- तुम उसकी
क्यों परवा करती हो झूना, चला गया, चला
जाने दो।
तुम्हारे लिए किस बात की कमी है।
रुपये-पैसे,
गहना-कपड़ा, जो चाहो मुझसे लो।
झुनिया ने धीरे से हाथ छुड़ा
लिया औरर पीछे हटकर बोली -- सब तुम्हारी दया है महाराज?
मैं तो कहीं की न रही।
घर से भी गयी, यहाँ से भी गयी।
न माया मिली, न
राम ही हाथ आये।
दुनिया का रंग-ढंग न जानती थी।
इसकी मीठी-मीठी
बातें सुनकर जाल में फँस गई।
मातादीन ने गोबर की बुराई करनी
शुरू की -- वह तो निरा
लफ़ंगा है, घर का न घाट
का।
जब देखो,
माँ-बाप से लड़ाई।
कहीं पैसा पा जाय, चट जुआ खेल डालेगा, चरस औरर गाँजे में
उसकी जान बसती थी,
सोहदों के साथ घूमना, बहू-बेटियों को छेड़ना, यही उसका काम था।
थानेदार साहब बदमाशी में उसका
चालान करनेवाले थे, हम लोगों ने बहुत
ख़ुशामद की तब जा कर छोड़ा।
दूसरों के खेत-खलिहान से अनाज उड़ा लिया करता था।
कई बार तो ख़ुद उसी ने पकड़ा था;
पर गाँव-घर समझकर छोड़ दिया।
सोना ने बाहर आ कर कहा -- भाभी,
अम्माँ ने कहा है अनाज निकालकर धूप
में डाल दो,
नहीं तो चोकर बहुत निकलेगा।
पण्डित ने जैसे बखार में
पानी डाल दिया हो।
मातादीन ने अपनी सफ़ाई दी -- मालूम होता है, तेरे घर बरसात नहीं हुई।
चौमासे में लकड़ी तक गीली
हो जाती है, अनाज
तो अनाज ही है।
यह कहता हुआ वह बाहर चला गया।
सोना ने आकर उसका खेल बिगाड़ दिया।
सोना ने झुनिया से पूछा
-- मातादीन क्या करने
आये थे?
झुनिया ने माथा सिकोड़ कर कहा
-- पगहिया माँग रहे
थे।
मैंने कह दिया, यहाँ पगहिया नहीं है।
' यह सब बहाना
है।
बड़ा ख़राब आदमी है। '
' मुझे
तो बड़ा भला आदमी लगता है।
क्या ख़राबी है उसमें? '
' तुम
नहीं जानती?
सिलिया चमारिन को रखे हुए
है। '
' तो इसी
से ख़राब आदमी हो गया? '
' औरर काहे
से आदमी ख़राब कहा जाता है? '
' तुम्हारे
भैया भी तो मुझे लाये हैं।
वह भी ख़राब आदमी हैं? '
सोना ने इसका जवाब न देकर कहा
-- मेरे घर में
फिर कभी आयेगा, तो
दुत्कार दूँगी।
' औरर जो
उससे तुम्हारा ब्याह हो जाय? '
सोना लजा गयी -- तुम तो भाभी, गाली देती हो।
क्यों,
इसमें गाली की क्या बात है? '
' मुझसे
बोले, तो
मुँह झुलस दूँ। '
' तो क्या
तुम्हारा ब्याह किसी देवता से होगा।
गाँव में ऐसा सुन्दर,
सजीला जवान दूसरा कौन
है? '
' तो तुम
चली जाओ उसके साथ,
सिलिया से लाख दर्जे अच्छी हो। '
' मैं
क्यों चली जाऊँ?
मैं तो एक के साथ चली आयी।
अच्छा है या बुरा। '
' तो
मैं भी जिसके साथ ब्याह होगा, उसके साथ चली जाऊँगी, अच्छा हो या बुरा। '
' औरर जो
किसी बूढ़े के साथ ब्याह हो गया? '
सोना हँसी -- मैं उसके लिए नरम-नरम रोटियाँ पकाऊँगी, उसकी दवाइयाँ
कूटूँ-छानूँगी,
उसे हाथ पकड़कर उठाऊँगी,
जब मर जायगा, तो
मुँह ढाँपकर रोऊँगी।
' औरर जो
किसी जवान के साथ हुआ! '
' तब तुम्हारा
सिर, हाँ नहीं
तो! '
' अच्छा
बताओ, तुम्हें
बूढ़ा अच्छा लगता है, कि
जवान? '
' जो
अपने को चाहे वही जवान है, न चाहे वही बूढ़ा है। '
' दैव
करे, तुम्हारा बयाह किसी
बूढ़े से हो जाय, तो देखूँ, तुम उसे कैसे चाहती हो।
तब मनाओगी,
किसी तरह यह निगोड़ा मर जाय, तो किसी जवान को लेकर बैठ
जाऊँ। '
' मुझे
तो उस बूढ़े पर दया आये। '
इस साल इधर एक शक्कर का मिल खुल गया था।
उसके कारिन्दे औरर दलाल
गाँव-गाँव घूमकर
किसानों की खड़ी ऊख मोल ले लेते
थे।
वही मिल था,
जो मिस्टर खन्ना ने खोला था।
एक दिन उसका कारिन्दा इस गाँव में भी
आया।
किसानों ने जो उससे
भाव-ताव किया, तो मालूम हुआ, गुड़ बनाने में कोई
बचत नहीं है; जब घर
में ऊख पेरकर भी यही दाम मिलता है,
तो पेरने की मेहनत
क्यों उठायी जाय?
सारा गाँव खड़ी ऊख बेचने को
तैयार हो गया; अगर
कुछ कम भी मिले,
तो परवाह नहीं।
तत्काल तो मिलेगा।
किसी को बैल लेना था, किसी को बाक़ी चुकाना था,
कोई महाजन से गला
छुड़ाना चाहता था।
होरी को बैलों की गोईं
लेनी थी।
अबकी ऊख की पैदावार अच्छी न थी; इसलिए यह डर था कि माल न पड़ेगा।
औरर जब गुड़ के भाव मिल की चीनी
मिलेगी, तो गुड़
लेगा ही कौन?
सभी ने बयाने ले लिये।
होरी को कम-से-कम सौ
रुपये की आशा थी।
इसमें एक मामूली गोई आ
जायगी; लेकिन
महाजनों को क्या करे!
दातादीन,
मँगरू, दुलारी,
सिंगुरीसिंह सभी
तो प्राण खा रहे थे।
अगर महाजनों को देने
लगेगा, तो सौ
रुपए सूद-भर को भी न
होंगे!
कोई ऐसी जुगुत न सूझती
थी कि ऊख के रुपए हाथ आ जायँ औरर किसी को ख़बर
न हो।
जब बैल घर आ जायँगे, तो कोई क्या कर
लेगा?
गाड़ी लदेगी,
तो सारा गाँव देखेगा ही, तौल पर जो रुपए
मिलेंगे, वह
सबको मालूम हो जायँगे।
सम्भव है मँगरू औरर दातादीन हमारे
साथ-साथ रहें।
इधर रुपए मिले,
उधर उन्होंने गर्दन पकड़ी।
शाम को गिरधर ने पूछा -- तुम्हारी ऊख कब तक जायेगी
होरी काका?
होरी ने झाँसा दिया -- अभी तो कुछ ठीक नहीं है
भाई, तुम कब तक ले
जाओगे?
गिरधर ने भी झाँसा दिया -- अभी तो मेरा भी कुछ ठीक
नहीं है काका!
औरर लोग भी इसी तरह की उड़नघाइयाँ
बताते थे, किसी
को किसी पर विश्वास न था।
झिंगुरीसिंह के सभी रिनियाँ
थे, औरर सबकी यही इच्छा
थी कि झिंगुरीसिंह के हाथ रुपए न पड़ने
पायें, नहीं वह
सबका सब हज़म कर जायगा।
औरर जब दूसरे दिन असामी फिर
रुपये माँगने जायगा, तो नया काग़ज़,
नया नज़राना, नई तहरीर।
दूसरे दिन शोभा आकर बोला
-- दादा कोई ऐसा उपाय
करो कि झिंगुरी को हैज़ा हो जाय।
ऐसा गिरे कि फिर न उठे।
होरी ने मुस्कराकर कहा -- क्यों, उसके बाल-बच्चे नहीं हैं?
' उसके
बाल-बच्चों को
देखें कि अपने बाल-बच्चों को
देखें?
वह तो दो-दो मेहरियों को आराम से
रखता है, यहाँ तो
एक को रूखी रोटी भी मयस्सर नहीं, सारी जमा ले लेगा।
एक पैसा भी घर न लाने देगा। '
' मेरी
तो हालत औरर भी ख़राब है भाई, अगर रुपए हाथ से निकल गये, तो तबाह हो जाऊँगा।
गोईं के बिना तो काम न
चलेगा। '
' अभी तो
दो-तीन दिन ऊख
ढोते लगेंगे।
ज्यों ही सारी ऊख पहुँच
जाय, जमादार से
कहें कि भैया कुछ ले ले, मगर ऊख चटपट तौल दे, दाम पीछे देना।
इधर झिंगुरी से कह
देंगे, अभी रुपए
नहीं मिले। '
होरी ने विचार करके कहा -- झिंगुरीसिंह
हमसे-तुमसे कई
गुना चतुर है सोभा!
जाकर मुनीम से मिलेगा औरर
उसीसे रुपए ले लेगा।
हम-तुम
ताकते रह जायँगे।
जिस खन्ना बाबू का मिल है, उन्हीं खन्ना बाबू की महाजनी
कोठी भी है।
दोनों एक हैं।
शोभा निराश होकर बोला -- न जाने इन महाजनों से
भी कभी गला छूटेगा कि नहीं।
होरी बोला -- इस जनम में तो कोई आशा
नहीं है भाई!
हम राज नहीं चाहते, भोग-विलास
नहीं चाहते, ख़ाली
मोटा-झोटा
पहनना, औरर
मोटा-झोटा खाना
औरर मरजाद के साथ रहना चाहते हैं।
वह भी नहीं सधता।
शोभा ने धूर्तता के साथ कहा
-- मैं तो
दादा, इन सबों को
अबकी चकमा दूँगा।
जमादार को कुछ दे-दिलाकर इस बात पर राज़ी कर लूँगा कि रुपए
के लिए हमें ख़ूब दौड़ायें।
झिंगुरी कहाँ तक
दौड़ेंगे।
होरी ने हँसकर कहा -- यह सब कुछ न होगा
भैया!
कुशल इसी में है कि
झिंगुरीसिंह के हाथ-पाँव जोड़ो।
हम जाल में फँसे हुए
हैं।
जितना ही फड़फड़ाओगे, उतना ही औरर जकड़ते जाओगे।
' तुम तो
दादा, बूढ़ों
की-सी बातें कर रहे
हो।
कटघरे में फँसे बैठे
रहना तो कायरता है।
फन्दा औरर जकड़ जाय बला से; पर गला छुड़ाने के लिए
ज़ोर तो लगाना ही पड़ेगा।
यही तो होगा झिंगुरी
घर-द्वार नीलाम करा
लेंगे; करा
लें नीलाम!
मैं तो चाहता हूँ कि
हमें कोई रुपए न दे, हमें भूखों मरने
दे, लातें
खाने दे, एक पैसा
भी उधार न दे; लेकिन
पैसावाले उधार न दें तो सूद
कहाँ से पायें।
एक हमारे ऊपर दावा करता है, तो दूसरा हमें कुछ कम
सूद पर रुपए उधार देकर अपने जाल में
फँसा लेता है।
मैं तो उसी दिन रुपये
लेने जाऊँगा, जिस
दिन झिंगुरी कहीं चला गया होगा।
होरी का मन भी विचलित हुआ -- हाँ, यह
ठीक है।
' ऊख तुलवा
देंगे।
रुपए दाँव-घात
देखकर ले आयँगे। '
' बस-बस, यही
चाल चलो। '
दूसरे दिन प्रात:काल गाँव के कई
आदमियों ने ऊख काटनी शुरू की।
होरी भी अपने खेत में
गँड़ासा लेकर पहुँचा।
उधर से शोभा भी उसकी मदद को आ
गया।
पुनिया,
झुनिया, धनिया,
सोना सभी खेत में
जा पहुँचीं।
कोई ऊख काटता था, कोई छीलता था,
कोई पूले बाँधता था।
महाजनों ने जो ऊख कटते
देखी, तो पेट
में चूहे दौड़े।
एक तरफ़ से दुलारी दौड़ी, दूसरी तरफ़ से मँगरू साह,
तीसरी ओर से मातादीन
औरर पटेश्वरी औरर झिंगुरी के
पियादे।
दुलारी हाथ-पाँव में मोटे-मोटे चाँदी के कड़े
पहने, कानों
में सोने का झूमक, आँखों में काजल
लगाये, बूढ़े
यौवन को रँगे-रँगाये आकर बोली -- पहले मेरे रुपये दे दो
तब ऊख काटने दूँगी।
मैं जितना ही ग़म खाती
हूँ, उतना ही तुम
शेर होते हो।
दो साल से एक धेला सूद नहीं
दिया, पचास तो
मेरे सूद के होते हैं।
होरी ने घिघियाकर कहा -- भाभी, ऊख
काट लेने दो,
इनके रुपये मिलते हैं, तो जितना हो सकेगा, तुमको भी दूँगा।
न गाँव छोड़कर भागा जाता
हूँ, न इतनी जल्द
मौत ही आयी जाती है।
खेत में खड़ी ऊख तो रुपये न
देगी?
दुलारी ने उसके हाथ से
गँड़ासा छीनकर कहा -- नीयत
इतनी ख़राब हो गयी है तुम लोगों
की, तभी तो बरक्कत
नहीं होती।
आज पाँच साल हुए, होरी ने दुलारी से तीस रुपये
लिये थे, तीन साल
में उसके सौ रुपये हो
गये, तब स्टाम्प लिखा गया।
दो साल में उस पर पचास रुपया
सूद चढ़ गया था।
होरी बोला -- सहुआइन, नीयत
तो कभी ख़राब नहीं की,
औरर भगवान् चाहेंगे, तो पाई-पाई
चुका दूँगा।
हाँ, आजकल
तंग हो गया हूँ, जो चाहे कह लो।
सहुआइन को
जाते देर नहीं हुई कि मँगरू साह
पहुँचे।
काला रंग, तोंद कमर के नीचे लटकती हुई,
दो बड़े-बड़े दाँत सामने जैसे
काट खाने को निकले हुए, सिर पर टोपी,
गले में चादर,
उम्र अभी पचास से ज़्यादा नहीं; पर लाठी के सहारे चलते थे।
गठिया का मरज़ हो गया था।
खाँसी भी आती थी।
लाठी टेककर खड़े हो गये औरर
होरी को डाँट बतायी -- पहले हमारे रुपये दे दो
होरी, तब ऊख काटो।
हमने रुपये उधार दिये थे,
ख़ैरात नहीं थे।
तीन-तीन साल
हो गये, न सूद न
ब्याज; मगर यह न समझना कि
तुम मेरे रुपये हज़म कर जाओगे।
मैं तुम्हारे मुर्दे
से भी वसूल कर लूँगा।
शोभा मसख़रा था।
बोला -- तब
काहे को घबड़ाते हो साहजी, इनके मुर्दे ही से वसूल कर
लेना।
नहीं, एक
दो साल के आगे पीछे दोनों ही
सरग में पहुँचोगे।
वहीं भगवान् के सामने अपना
हिसाब चुका लेना।
मँगरू ने शोभा को बहुत
बुरा-भला कहा -- जमामार,
बेईमान इत्यादि।
लेने की बेर तो दुम
हिलाते हो, जब
देने की बारी आती है, तो गुर्राते हो।
घर बिकवा लूँगा; बैल बधिये नीलाम करा लूँगा।
शोभा ने फिर छेड़ा -- अच्छा, ईमान
से बताओ साह,
कितने रुपए दिये थे, जिसके अब तीन सौ रुपये हो
गये हैं?
' जब तुम
साल के साल सूद न दोगे, तो आप ही बढ़ेंगे। '
' पहले-पहल
कितने रुपये दिये थे
तुमने?
पचास ही तो। '
' कितने दिन
हुए, यह भी तो
देख। '
' पाँच-छ: साल
हुए होंगे? '
' दस साल हो
गये पूरे,
ग्यारहवाँ जा रहा है। '
' पचास रुपये
के तीन सौ रुपए लेते तुम्हें ज़रा
भी सरम नहीं आती! '
' सरम
कैसी, रुपये दिये
हैं कि ख़ैरात माँगते हैं। '
होरी ने इन्हें भी
चिरौरी-बिनती करके बिदा
किया।
दातादीन ने होरी के साझे
में खेती की थी।
बीज देकर आधी फ़सल ले
लेंगे।
इस वक़्त कुछ छेड़-छाड़ करना नीति-विरुद्ध था।
झिंगुरीसिंह ने मिल के
मैनेजर से पहले ही सब कुछ कह-सुन रखा था।
उनके प्यादे गाड़ियों पर ऊख
लदवाकर नाव पर पहुँचा रहे थे।
नदी गाँव से आध मील पर थी।
एक गाड़ी दिन-भर
में सात-आठ चक्कर कर
लेती थी।
औरर नाव एक खेवे में पचास
गाड़ियों का बोझ लाद लेती थी।
इस तरह किफ़ायत पड़ती थी।
इस सुविधा का इन्तज़ाम करके
झिंगुरीसिंह ने सारे इलाक़े को
एहसान से दबा दिया था।
तौल शुरू होते ही
झिंगुरीसिंह ने मिल के फाटक पर आसन जमा
लिया।
हर-एक की ऊख
तौलाते थे, दाम
का पुरज़ा लेते थे, ख़ज़ांची से रुपए वसूल करते
थे औरर अपना पावना काटकर असामी को दे
देते थे।
असामी कितना ही रोये, चीख़े, किसी की
न सुनते थे।
मालिक का यही हुक्म था।
उनका क्या बस!
होरी को एक सौ बीस रुपए मिले।
उसमें से झिंगुरीसिंह
ने अपने पूरे रुपये सूद समेत
काटकर कोई पचीस रुपये होरी के हवाले
किये।
होरी ने रुपये की ओर उदासीन भाव
से देखकर कहा -- यह
लेकर मैं क्या करूँगा ठाकुर, यह भी तुम्हीं ले लो।
मेरे लिए मजूरी बहुत
मिलेगी।
झिंगुरी ने पचीसों
रुपये ज़मीन पर फेंककर कहा -- लो या फेंक दो, तुम्हारी ख़ुशी।
तुम्हारे कारन मालिक की घुड़कियाँ
खायीं औरर अभी राय साहब सिर पर सवार हैं कि
डाँड़ के रुपये अदा करो।
तुम्हारी ग़रीबी पर दया करके इतने
रुपये दिये देता हूँ, नहीं एक धेला भी न देता।
अगर राय साहब ने सख़्ती की तो उल्टे
औरर घर से देने पड़ेंगे।
होरी ने धीरे से रुपये उठा
लिये औरर बाहर निकला कि नोखेराम ने
ललकारा।
होरी ने जाकर पचीसों रुपये
उनके हाथ पर रख दिये,
औरर बिना कुछ कहे जल्दी से भाग गया।
उसका सिर चक्कर खा रहा था।
शोभा को इतने ही रुपये
मिले थे।
वह बाहर निकला,
तो पटेश्वरी ने घेरा।
शोभा बदल पड़ा।
बोला --
मेरे पास रुपये नहीं हैं; तुम्हें जो कुछ करना
हो, कर लो।
पटेश्वरी ने गर्म होकर कहा
-- ऊख बेची है कि
नहीं?
' हाँ,
बेची है। '
' तुम्हारा यही
वादा तो था कि ऊख बेचकर रुपया
दूँगा? '
' हाँ,
था तो। '
' फिर क्यों
नहीं देते।
औरर सब लोगों को दिये
हैं कि नहीं? '
' हाँ,
दिये हैं। '
' तो
मुझे क्यों नहीं देते? '
' मेरे
पास अब जो कुछ बचा है, वह बाल-बच्चों के लिए है। '
पटेश्वरी ने बिगड़कर कहा -- तुम रुपये दोगे
शोभा, औरर हाथ
जोड़कर औरर आज ही।
हाँ, अभी
जितना चाहो, बहक लो।
एक रपट में जाओगे छ: महीने
को, पूरे छ:
महीने को, न एक दिन
बेस न एक दिन कम।
यह जो नित्य जुआ खेलते
हो, वह एक रपट में
निकल जायगा।
मैं ज़मींदार या महाजन का नौकर
नहीं हूँ, सरकार
बहादुर का नौकर हूँ, जिसका दुनिया भर में राज है
औरर जो तुम्हारे महाजन औरर ज़मींदार
दोनों का मालिक है।
पटेश्वरी लाला आगे बढ़ गये।
शोभा औरर होरी कुछ दूर
चुपचाप चले।
मानो इस धिक्कार ने उन्हें
संज्ञाहीन कर दिया हो।
तब होरी ने कहा -- शोभा,
इसके रुपये दे दो।
समझ लो, ऊख
में आग लग गयी थी।
मैंने भी यही सोचकर, मन को समझाया है।
शोभा ने आहत कंठ से कहा
-- हाँ, दे दूँगा दादा!
न दूँगा तो जाऊँगा
कहाँ?
सामने से गिरधर ताड़ी पिये
झूमता चला आ रहा था।
दोनों को देखकर बोला
-- झिंगुरिया ने
सारे का सारा ले लिया होरी काका!
चबैना को भी एक पैसा न छोड़ा।
हत्यारा कहीं का।
रोया गिड़गिड़ाया; पर इस पापी को दया न आयी।
शोभा ने कहा -- ताड़ी तो पिये
हुए हो, उस पर
कहते हो, एक पैसा
भी न छोड़ा!
गिरधर ने पेट दिखाकर कहा -- साँझ हो गयी, जो पानी की बूँद भी कंठ तले
गयी हो, तो
गो-मांस बराबर।
एक इकन्नी मुँह में दबा ली थी।
उसकी ताड़ी पी ली।
सोचा,
साल-भर पसीना गारा
है, तो एक दिन ताड़ी
तो पी लूँ; मगर
सच कहता हूँ, नसा
नहीं है।
एक आने में क्या नसा होगा।
हाँ, झूम
रहा हूँ जिसमें लोग समझें
ख़ूब पिये हुए है।
बड़ा अच्छा हुआ काका, बेबाक़ी हो गयी।
बीस लिये,
उसके एक सौ साठ भरे, कुछ हद है!
होरी घर पहुँचा, तो रूपा पानी लेकर दौड़ी, सोना चिलम भर लायी, धनिया ने चबेना औरर नमक
लाकर रख दिया औरर सभी आशा भरी आँखों
से उसकी ओर ताकने लगीं।
झुनिया भी चौखट पर आ खड़ी हुई थी।
होरी उदास बैठा था।
कैसे मुँह-हाथ धोये,
कैसे चबेना खाये।
ऐसा लज्जित औरर ग्लानित था, मानो हत्या करके आया हो।
धनिया ने पूछा -- कितने की तौल हुई?
' एक सौ बीस
मिले; पर सब वहीं
लुट गये, धेला भी
न बचा। '
धनिया सिर से पाँव तक भस्म हो उठी।
मन में ऐसा उद्वेग उठा कि
अपना मुँह नोच ले।
बोली --
तुम जैसा घामड़ आदमी भगवान् ने
क्यों रचा, कहीं
मिलते तो उनसे पूछती।
तुम्हारे साथ सारी ज़िन्दगी तलख़ हो
गयी, भगवान् मौत
भी नहीं देते कि जंजाल से जान
छूटे।
उठाकर सारे रुपए बहनोीयों को
दे दिये।
अब औरर कौन आमदनी है, जिससे गोई आयेगी।
हल में क्या मुझे
जोतोगे, या आप
जुतोगे?
मैं कहती हूँ, तुम बूढ़े हुए, तुम्हें इतनी अक्ल भी नहीं आई कि
गोईं-भर के रुपए तो
निकाल लेते!
कोई तुम्हारे हाथ से छीन
थोड़े लेता।
पूस की यह ठंड औरर किसी की देह पर
लत्ता नहीं।
ले जाओ सबको नदी में
डुबा दो।
सिसक-सिसक कर
मरने से तो एक दिन मर जाना फिर अच्छा है।
कब तक पुआल में घुसकर रात
काटेंगे औरर पुआल में घुस
भी लें, तो
पुआल खाकर रहा तो न जायगा!
तुम्हारी इच्छा हो घास ही खाओ,
हमसे तो घास न खायी
जायगी।
यह कहते-कहते वह
मुस्करा पड़ी।
इतनी देर में उसकी समझ में
यह बात आने लगी थी कि महाजन जब सिर पर सवार हो
जाय, औरर अपने हाथ
में रुपए हों औरर महाजन जानता हो कि
इसके पास रुपए हैं,
तो असामी कैसे अपनी जान बचा सकता
है!
होरी सिर नीचा किये अपने भाग्य
को रो रहा था।
धनिया का मुस्कराना उसे न दिखायी दिया।
बोला --
मजूरी तो मिलेगी।
मजूरी करके खायँगे।
धनिया ने पूछा -- कहाँ है इस गाँव में
मजूरी?
औरर कौन मुँह लेकर
मजूरी करोगे?
महतो नहीं कहलाते!
होरी ने चिलम के कई कश लगाकर कहा
-- मजूरी करना कोई पाप
नहीं है।
मजूर बन जाय तो किसान हो जाता
है।
किसान बिगड़ जाय तो मजूर हो जाता
है।
मजूरी करना भाग्य में न होता
तो यह सब बिपत क्यों आती?
क्यों गाय मरती?
क्यों लड़का नालायक़ निकल जाता?
धनिया ने बहू औरर
बेटियों की ओर देखकर कहा -- तुम सब की सब क्यों
घेरे खड़ी हो, जाकर
अपना-अपना काम देखो।
वह औरर हैं जो हाट-बाज़ार से आते हैं,
तो बाल-बच्चों के लिए दो-चार पैसे की कोई चीज़
लिये आते हैं।
यहाँ तो यह लोभ लग रहा होगा
कि रुपए तुड़ायें कैसे?
एक कम न हो जायगा; इसी से इनकी कमाई में बरक्कत नहीं
होती।
जो ख़रच करते हैं, उन्हें मिलता है।
जो न खा सकें, न पहन सकें, उन्हें रुपए मिले ही
क्यों?
ज़मीन में गाड़ने के
लिए?
होरी ने खिलखिलाकर पूछा -- कहाँ है वह गाड़ी हुई
थाती?
' जहाँ रखी
है, वहीं होगी।
रोना तो यही है कि यह जानते
हुए भी पैसों के लिए मरते
हो!
चार पैसे की कोई चीज़ लाकर
बच्चों के हाथ पर रख देते तो पानी
में न पड़ जाते।
झिंगुरी से तुम कह देते
कि एक रुपया मुझे दे दो, नहीं मैं तुम्हें एक
पैसा न दूँगा,
जाकर अदालत में लेना, तो वह ज़रूर दे देता। '
होरी लज्जित हो गया।
अगर वह झल्लाकर पच्चीसों रुपये
नोखेराम को न दे देता, तो नोखे क्या कर
लेते?
बहुत होता बक़ाया पर दो-चार आना सूद ले लेता;
मगर अब तो चूक हो
गयी!
झुनिया ने भीतर जाकर सोना से
कहा -- मुझे तो दादा
पर बड़ी दया आती है।
बेचारे दिन-भर के थके-माँदे घर आये, तो अम्माँ कोसने लगीं।
महाजन गला दबाये था, तो क्या करते बेचारे!
' तो बैल
कहाँ से आयेंगे? '
' महाजन अपने
रुपए चाहता है।
उसे तुम्हारे घर के
दुखड़ों से क्या मतलब? '
' अम्माँ
वहाँ होतीं,
तो महाजन को मज़ा चखा देतीं।
अभागा रोकर रह जाता। '
झुनिया ने दिल्लगी की -- तो यहाँ रुपये की कौन
कमी है।
तुम महाजन से ज़रा हँसकर बोल
दो, देखो सारे
रुपए छोड़ देता है कि नहीं।
सच कहती हूँ, दादा का सारा दुख-दलिद्दर दूर हो जाय।
सोना ने दोनों
हाथों से उसका मुँह दबाकर कहा -- बस,
चुप ही रहना, नहीं
कहे देती हूँ।
अभी जाकर अम्माँ से मातादीन की सारी क़लई
खोल दूँ तो रोने लगो।
झुनिया ने पूछा -- क्या कह दोगी अम्माँ से?
कहने को कोई बात भी हो।
जब वह किसी बहाने से घर में आ
जाते हैं, तो
क्या कह दूँ कि निकल जाओ, फिर मुझसे कुछ ले तो
नहीं जाते।
कुछ अपना ही दे जाते हैं।
सिवाय मीठी-मीठी
बातों के वह झुनिया से कुछ नहीं
पा सकते!
औरर अपनी मीठी बातों को
महँगे दामों बेचना भी मुझे
आता है।
मैं ऐसी अनाड़ी नहीं हूँ
कि किसी के झाँसे में आ जाऊँ।
हाँ, जब जान
जाऊँगी कि तुम्हारे भैया ने वहाँ किसी
को रख लिया है, तब की
नहीं चलाती।
तब मेरे ऊपर किसी का कोई बन्धन न
रहेगा।
अभी तो मुझे विश्वास है कि
वह मेरे हैं औरर मेरे ही कारन
उन्हें गली-गली ठोकर
खाना पड़ रहा है।
हँसने-बोलने की बात न्यारी है, पर मैं उनसे विश्वासघात
न करूँगी।
जो एक से दो का हुआ, वह किसी का नहीं रहता।
शोभा ने आकर होरी को पुकारा
औरर पटेश्वरी के रुपए उसके हाथ में
रखकर बोला --
भैया, तुम जाकर
ये रुपए लाला को दे दो।
मुझे उस घड़ी न जाने क्या हो
गया था।
होरी रुपए लेकर उठा ही था कि शंख की
ध्वनि कानों में आयी।
गाँव के उस सिरे पर ध्यानसिंह
नाम के एक ठाकुर रहते थे।
पल्टन में नौकर थे औरर कई
दिन हुए, दस साल के बाद
रजा लेकर आये थे।
बगदाद, अदन,
सिंगापुर, बर्मा --
चारों तरफ़ घूम चुके थे।
अब ब्याह करने की धुन में थे।
इसीलिए पूजा-पाठ करके ब्राह्मणों को
प्रसन्न रखना चाहते थे।
होरी ने कहा -- जान पड़ता है सातों अध्याय
पूरे हो गये।
आरती हो रही है।
शोभा बोला -- हाँ, जान
तो पड़ता है, चलो
आरती ले लो।
होरी ने चिन्तित भाव से कहा
-- तुम जाओ,
मैं थोड़ी देर
में आता हूँ।
ध्यानसिंह जिस दिन आये थे,
सब के घर सेर-सेर भर मिठाई बैना भेजी थी।
होरी से जब कभी रास्ते मिल
जाते, कुशल
पूछते।
उनकी कथा में जाकर आरती में
कुछ न देना अपमान की बात थी।
आरती का थाल उन्हीं के हाथ में
होगा।
उनके सामने होरी कैसे ख़ाली
हाथ आरती ले लेगा!
इससे तो कहीं अच्छा है कि वह कथा
में जाये ही नहीं।
इतने आदमियों में
उन्हें क्या याद आयेगी कि होरी नहीं आया।
कोई रजिस्टर लिये तो बैठा
नहीं है कि कौन आया, कौन नहीं आया।
वह जाकर खाट पर लेट रहा।
मगर उसका हृदय मसोस-मसोस कर रह जाता था।
उसके पास एक पैसा भी नहीं
है!
ताँबे का एक पैसा!
आरती के पुण्य औरर माहात्म्य का उसे
बिलकुल ध्यान न था।
बात थी केवल व्यवहार की।
ठाकुरजी की आरती तो वह केवल
श्रद्धा की भेंट देकर ले सकता था;
लेकिन मर्यादा कैसे
तोड़े, सबकी
आँखों में हेठा कैसे
बने!
सहसा वह उठ बैठा।
क्यों मर्यादा की ग़ुलामी करे।
मर्यादा के पीछे आरती का पुण्य
क्यों छोड़े।
लोग हँसेंगे, हँस लें।
उसे परवा नहीं है।
भगवान् उसे कुकर्म से
बचाये रखें,
औरर वह कुछ नहीं चाहता।
वह ठाकुर के घर की ओर चल पड़ा।
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Recoded: 20 Sept. 1999 to 6 Oct 1999.
Chapter Seventeen posted: 13 Oct. 1999.