यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
इन्स्टिट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ लैंग्वजिज़ ऐंड कल्चर्ज़ ऑफ़ एशिया ऐंड ऐफ़्रिका
तोक्यो यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ाॅरेन स्टडीज़


Mellon Project


प्रेमचन्द
गोदान
(Devanagari text reconstituted from Professor K. Machida's roman transcription)

Chapter Twenty-three.
(unparagraphed text)

        गोबर औरर झुनिया के जाने के बाद घर सुनसान रहने लगा। धनिया को बार-बार मुन्नू की याद आती रहती है। बच्चे की माँ तो झुनिया थी; पर उसका पालन धनिया ही करती थी। वही उसे उबटन मलती, काजल लगाती, सुलाती औरर जब काम-काज से अवकाश मिलता, उसे प्यार करती। वात्सल्य का यह नशा ही उसकी विपत्ति को भुलाता रहता था। उसका भोला-भाला, मक्खन-सा मुँह देखकर वह अपनी सारी चिन्ता भूल जाती औरर स्नेहमय गर्व से उसका हृदय फूल उठता। वह जीवन का आधार अब न था। उसका सूना खटोला देखकर वह रो उठती वह कवच जो सारी चिन्ताओं औरर दुराशाओं से उसकी रक्षा करता था, उससे छिन गया था। वह बार-बार सोचती, उसने झुनिया के साथ ऐसी कौन-सी बुराई की थी, जिसका उसने यह दंड दिया। डाइन ने आकर उसका सोना-सा घर मिट्टी में मिला दिया। गोबर ने तो कभी उसकी बात का जवाब भी न दिया था। इसी राँड़ ने उसे फोड़ा औरर वहाँ ले जाकर न जाने कौन-कौन-सा नाच नचायेगी। यहाँ ही वह बच्चे की कौन बहुत परवाह करती थी। उसे तो अपनी मिस्सी-काजल, माँग-चोटी से ही छुट्टी नहीं मिलती। बच्चे की देख-भाल क्या करेगी। बेचारा अकेला ज़मीन पर पड़ा रोता होगा। बेचारा एक दिन भी तो सुख से नहीं रहने पाता। कभी खाँसी, कभी दस्त, कभी कुछ, कभी कुछ। यह सोच-सोचकर उसे झुनिया पर क्रोध आता। गोबर के लिए अब भी उसके मन में वही ममता थी। इसी चुड़ैल ने उसे कुछ खिला-पिलाकर अपने वश में कर लिया। ऐसी मायाविनी न होती, तो यह टोना ही कैसे करती। कोई बात न पूछता था। भौजाइयों की लातें खाती थी। यह भुग्गा मिल गया तो आज रानी हो गयी। होरी ने चिढ़कर कहा -- जब देखा तब तू झुनिया ही को दोस देती है। यह नहीं समझती कि अपना सोना खोटा तो सोनार का क्या दोस। गोबर उसे न ले जाता तो क्या आप-से-आप चली जाती? सहर का दाना-पानी लगने से लौंडे की आँखें बदल गयीं। ऐसा क्यों नहीं समझ लेती। धनिया गरज उठी -- अच्छा चुप रहो। तुम्हीं ने राँड़ को मूड़ पर चढ़ा रखा था, नहीं मैंने पहले ही दिन झाड़ू मारकर निकाल दिया होता। खलिहान में डाठें जमा हो गयी थीं। होरी बैलों को जुखर कर अनाज माँड़ने जा रहा था। पीछे मुँह फेरकर बोला -- मान ले, बहू ने गोबर को फोड़ ही लिया, तो तू इतना कुढ़ती क्यों है? जो सारा ज़माना करता है, वही गोबर ने भी किया। अब उसके बाल-बच्चे हुए। मेरे बाल-बच्चों के लिए क्यों अपनी साँसत कराये, क्यों हमारे सिर का बोझ अपने सिर पर रखे! ' तुम्हीं उपद्रव की जड़ हो। ' ' तो मुझे भी निकाल दे। ले जा बैलों को अनाज माँड़। मैं हुक़्क़ा पीता हूँ। ' ' तुम चलकर चक्की पीसो मैं अनाज माड़ूँगी। ' विनोद में दु:ख उड़ गया। वही उसकी दवा है। धनिया प्रसन्न होकर रूपा के बाल गूँथने बैठ गयी जो बिलकुल उलझकर रह गये थे, औरर होरी खलिहान चला। रसिक बसन्त सुगन्ध औरर प्रमोद औरर जीवन की विभूति लुटा रहा था, दोनों हाथों से, दिल खोलकर। कोयल आम की डालियों में छिपी अपनी रसीली, मधुर, आत्मस्पर्शी कूक से आशाओं को जगाती फिरती थी। महुए की डालियों पर मैनों की बरात-सी लगी बैठी थी। नीम औरर सिरस औरर करौंदे अपनी महक में नशा-सा घोल देते थे। होरी आमों के बाग़ में पहुँचा, तो वृक्षों के नीचे तारे-से खिले थे। उसका व्यथित, निराश मन भी इस व्यापक शोभा औरर स्फूर्ति में आकर गाने लगा -- ' हिया जरत रहत दिन-रैन। आम की डरिया कोयल बोले, तनिक न आवत चैन। ' सामने से दुलारी सहुआइन, गुलाबी साड़ी पहने चली आ रही थीं। पाँव में मोटे चाँदी के कड़े थे, गले में मोटी सोने की हँसली, चेहरा सूखा हुआ; पर दिल हरा। एक समय था, जब होरी खेत-खलिहान में उसे छेड़ा करता था। वह भाभी थी, होरी देवर था, इस नाते से दोनों में विनोद होता रहता था। जब से साहजी मर गये, दुलारी ने घर से निकलना छोड़ दिया। सारे दिन दूकान पर बैठी रहती थी औरर वहीं वे सारे गाँव की ख़बर लगाती रहती थी। कहीं आपस में झगड़ा हो जाय, सहुआइन वहाँ बीच-बचाव करने के लिए अवश्य पहुँचेगी। आने रुपए सूद से कम पर रुपए उधार न देती थी। औरर यद्यपि सूद के लोभ में मूल भी हाथ न आता था -- जो रुपए लेता, खाकर बैठ रहता -- मगर उसके ब्याज का दर ज्यों-का-त्यों बना रहता था। बेचारी कैसे वसूल करे। नालिश-फ़रियाद करने से रही, थाना-पुलिस करने से रही, केवल जीभ का बल था; पर ज्यों-ज्यों उम्र के साथ जीभ की तेज़ी बदलती जाती थी, उसकी काट घटती जाती थी। अब उसकी गालियों पर लोग हँस देते थे औरर मज़ाक़ में कहते -- क्या करेगी रुपए लेकर काकी, साथ तो एक कौड़ी भी न ले जा सकेगी। ग़रीब को खिला-पिलाकर जितनी असीस मिल सके, ले-ले। यही परलोक में काम आयेगा। औरर दुलारी परलोक के नाम से जलती थी। होरी ने छेड़ा -- आज तो भाभी, तुम सचमुच जवान लगती हो। सहुआइन मगन होकर बोली -- आज मंगल का दिन है, नज़र न लगा देना। इसी मारे मैं कुछ पहनती-ओढ़ती नहीं। घर से निकली तो सभी घूरने लगते हैं, जैसे कभी कोई मेहरिया देखी न हो। पटेश्वरी लाला की पुरानी बान अभी तक नहीं छूटी। होरी ठिठक गया; बड़ा मनोरंजक प्रसंग छिड़ गया था। बैल आगे निकल गये। ' वह तो आजकल बड़े भगत हो गये हैं। देखती नहीं हो, हर पूरनमासी को सत्यनारायण की कथा सुनते हैं औरर दोनों जून मन्दिर में दर्शन करने जाते हैं। ' ' ऐसे लम्पट जितने होते हैं, सभी बूढ़े होकर भगत बन जाते हैं। कुकर्म का परासचित तो करना ही पड़ता है। पूछो, मैं अब बुढ़िया हुई, मुझसे क्या हँसी। ' ' तुम अभी बुढ़िया कैसे हो गयी भाभी? मुझे तो अब भी ।।। ' ' अच्छा चुप ही रहना, नहीं डेढ़ सौ गाली दूँगी। लड़का परदेस कमाने लगा, एक दिन नेवता भी न खिलाया, सेंत-मेंत में भाभी बताने को तैयार। ' ' मुझसे क़सम ले लो भाभी, जो मैंने उसकी कमाई का एक पैसा भी छुआ हो। न जाने क्या लाया, कहाँ ख़रच किया, मुझे कुछ भी पता नहीं। बस एक जोड़ा धोती औरर एक पगड़ी मेरे हाथ लगी। ' ' अच्छा कमाने तो लगा, आज नहीं कल घर सँभालेगा ही। भगवान् उसे सुखी रखे। हमारे रुपए भी थोड़ा-थोड़ा देते चलो। सूद ही तो बढ़ रहा है। ' ' तुम्हारी एक-एक पाई दूँगा भाभी, हाथ में पैसे आने दो। औरर खा ही जायेंगे, तो कोई बाहर के तो नहीं हैं, हैं तो तुम्हारे ही। ' सहुआइन ऐसी विनोद भरी चापलूसियों से निरस्त्र हो जाती थी। मुस्कराती हुई अपनी राह चली गयी। होरी लपककर बैलों के पास पहुँच गया औरर उन्हें पौर में डालकर चक्कर देने लगा। सारे गाँव का यही एक खलिहान था। कहीं मँड़ाई हो रही थी, कोई अनाज ओसा रहा था, कोई गल्ला तौल रहा था। नाई, बारी, बढ़ई, लोहार, पुरोहित, भाट, भिखारी, सभी अपने-अपने जेवरें लेने के लिए जमा हो गये थे। एक पेड़ के नीचे झिंगुरीसिंह खाट पर बैठे अपनी सवाई उगाह रहे थे। कई बनिये खड़े गल्ले का भाव-ताव कर रहे थे। सारे खलिहान में मंडी की-सी रौनक़ थी। एक खटकिन बेर औरर मकोय बेच रही थी औरर एक खोंचेवाला तेल के सेव औरर जलेबियाँ लिये फिर रहा था। पण्डित दातादीन भी होरी से अनाज बँटवाने के लिए आ पहुँचे थे औरर झिंगुरीसिंह के साथ खाट पर बैठे थे। दातादीन ने सुरती मलते हुए कहा -- कुछ सुना, सरकार भी महाजनों से कह रही है कि सूद का दर घटा दो, नहीं डिग्री न मिलेगी। झ्ंिगुरी तमाखू फाँककर बोले -- पण्डित मैं तो एक बात जानता हूँ। तुम्हें गरज पड़ेगी तो सौ बार हमसे रुपए उधार लेने आओगे, औरर हम जो ब्याज चाहेंगे, लेंगे। सरकार अगर असामियों को रुपए उधार देने का कोई बन्दोबस्त न करेगी, तो हमें इस क़ानून से कुछ न होगा। हम दर कम लिखायेंगे; लेकिन एक सौ में पचीस पहले ही काट लेंगे। इसमें सरकार क्या कर सकती है। ' यह तो ठीक है; लेकिन सरकार भी इन बातों को ख़ूब समझती है। इसकी भी कोई रोक निकालेगी, देख लेना। ' ' इसकी कोई रोक हो ही नहीं सकती। ' ' अच्छा, अगर वह शर्त कर दे, जब तक स्टाम्प पर गाँव के मुखिया या कारिन्दा के दसख़त न होंगे, वह पक्का न होगा, तब क्या करोगे? ' ' असामी को सौ बार गरज होगी, मुखिया को हाथ-पाँव जोड़ के लायेगा औरर दसखत करायेगा। हम तो एक चौथाई काट ही लेंगे। ' ' औरर जो फँस जाओ! जाली हिसाब लिखा औरर गये चौदह साल को। ' झिंगुरीसिंह ज़ोर से हँसा -- तुम क्या कहते हो पण्डित, क्या तब संसार बदल जायेगा? क़ानून औरर न्याय उसका है, जिसके पास पैसा है। क़ानून तो है कि महाजन किसी असामी के साथ कड़ाई न करे, कोई ज़मींदार किसी कास्तकार के साथ सख़्ती न करे; मगर होता क्या है। रोज़ ही देखते हो। ज़मींदार मुसक बँधवा के पिटवाता है औरर महाजन लात औरर जूते से बात करता है। जो किसान पोढ़ा है, उससे न ज़मींदार बोलता है, न महाजन। ऐसे आदमियों से हम मिल जाते हैं औरर उनकी मदद से दूसरे आदमियों की गर्दन दबाते हैं। तुम्हारे ही ऊपर राय साहब के पाँच सौ रुपए निकलते हैं; लेकिन नोखेराम में है इतनी हिम्मत कि तुमसे कुछ बोले? वह जानते हैं, तुमसे मेल करने ही में उनका हित है। असामी में इतना बूता है कि रोज़ अदालत दौड़े? सारा कारबार इसी तरह चला जायगा, जैसे चल रहा है। कचहरी-अदालत उसी के साथ है, जिसके पास पैसा है। हम लोगों को घबराने की कोई बात नहीं। यह कहकर उन्होंने खलिहान का एक चक्कर लगाया औरर फिर आकर खाट पर बैठते हुए बोले -- हाँ, मतई के ब्याह का क्या हुआ? हमारी सलाह तो है कि उसका ब्याह कर डालो अब तो बड़ी बदनामी हो रही है। दातादीन को जैसे ततैया ने काट खाया। इस आलोचना का क्या आशय था, वह ख़ूब समझते थे। गर्म होकर बोले -- पीठ पीछे आदमी जो चाहे बके, हमारे मुँह पर कोई कुछ कहे, तो उसकी मूँछें उखाड़ लूँ। कोई हमारी तरह नेमी बन तो ले। कितनों को जानता हूँ, जो कभी सन्ध्या-बन्दन नहीं करते, न उन्हें धरम से मतलब, न करम से; न कथा से मतलब, न पुरान से। वह भी अपने को ब्राह्मण कहते हैं। हमारे ऊपर क्या हँसेगा कोई, जिसने अपने जीवन में एक एकादसी भी नागा नहीं की, कभी बिना स्नान-पूजन किये मुँह में पानी नहीं डाला। नेम का निभाना कठिन है। कोई बता दे कि हमने कभी बाज़ार की कोई चीज़ खायी हो, या किसी दूसरे के हाथ का पानी पिया हो, तो उसकी टाँग की राह निकल जाऊँ। सिलिया हमारी चौखट नहीं लाँघने पाती, चौखट; बरतन-भाँड़े छूना तो दूसरी बात है। मैं यह नहीं कहता कि मतई यह बहुत अच्छा काम कर रहा है, लेकिन जब एक बार एक बात हो गयी तो यह पाजी का काम है कि औररत को छोड़ दे। मैं तो खुल्लमखुल्ला कहता हूँ, इसमें छिपाने की कोई बात नहीं। स्त्री-जाति पवित्र है। दातादीन अपनी जवानी में स्वयम् बड़े रसिया रह चुके थे; लेकिन अपने नेम-धर्म से कभी नहीं चूके। मातादीन भी सुयोग्य पुत्र की भाँति उन्हीं के पद-चिह्नों पर चल रहा था। धर्म का मूल तत्व है पूजा-पाठ, कथाव्रत औरर चौका-चूल्हा। जब पिता-पुत्र दोनों ही मूल तत्व को पकड़े हुए हैं, तो किसकी मजाल है कि उन्हें पथ-भ्रष्ट कह सके। छिंगुरीसिंह ने क़ायल होकर कहा -- मैंने तो भाई, जो सुना था, वह तुमसे कह दिया। दातादीन ने महाभारत औरर पुराणों से ब्राह्मणों-द्वारा अन्य जातियों की कन्याओं के ग्रहण किये जाने की एक लम्बी सूची पेश की औरर यह सिद्ध कर दिया कि उनसे जो सन्तान हुई, वह ब्राह्मण कहलायी औरर आजकल के जो ब्राह्मण हैं, वह उन्हीं सन्तानों की सन्तान हैं। यह प्रथा आदिकाल से चली आयी है औरर इसमें कोई लज्जा की बात नहीं। झिंगुरीसिंह उनके पाण्डित्य पर मुग्ध होकर बोले -- तब क्यों आजकल लोग वाजपेयी औरर सुकुल बने फिरते हैं? ' समय-समय की परथा है औरर क्या! किसी में उतना तेज तो हो। बिस खाकर उसे पचाना तो चाहिए। वह सतजुग की बात थी, सतजुग के साथ गयी। अब तो अपना निबाह बिरादरी के साथ मिलकर रहने में है; मगर करूँ क्या, कोई लड़कीवाला आता ही नहीं। तुमसे भी कहा, औररों से भी कहा, कोई नहीं सुनता तो मैं क्या लड़की बनाऊँ? ' झिंगुरीसिंह ने डाँटा -- झूठ मत बोलो पण्डित, मैं दो आदमियों को फाँस-फूँसकर लाया; मगर तुम मुँह फैलाने लगे, तो दोनों कान खड़े करके निकल भागे। आख़िर किस बिरते पर हज़ार-पाँच सौ माँगते हो तुम? दस बीघे खेत औरर भीख के सिवा तुम्हारे पास औरर क्या है? दातादीन के अभिमान को चोट लगी। डाढ़ी पर हाथ फेरकर बोले -- पास कुछ न सही, मैं भीख ही माँगता हूँ, लेकिन मैंने अपनी लड़कियों के ब्याह में पाँच-पाँच सौ दिये हैं; फिर लड़के के लिए पाँच सौ क्यों न माँगूँ? किसी ने सेंत-मेंत में मेरी लड़की ब्याह ली होती तो मैं भी सेंत में लड़का ब्याह लेता। रही हैसियत की बात। तुम जजमानी को भीख समझो, मैं तो उसे ज़मींदारी समझता हूँ; बंकघर। ज़मींदारी मिट जाय, बंकघर टूट जाय, लेकिन जजमानी अन्त तक बनी रहेगी।  जब तक हिन्दू-जाति रहेगी,  तब तक ब्राह्मण भी रहेंगे औरर जजमानी भी रहेगी। सहालग में मज़े से घर बैठे सौ-दो सौ फटकार लेते हैं। कभी भाग लड़ गया, तो चार-पाँच सौ मार लिया। कपड़े, बरतन, भोजन अलग। कहीं--कहीं नित ही कार-परोजन पड़ा ही रहता है। कुछ न मिले तब भी एक-दो थाल औरर दो-चार आने दक्षिणा मिल ही जाते हैं। ऐसा चैन न ज़मींदारी में है, न साहूकारी में। औरर फिर मेरा तो सिलिया से जितना उबार होता है, उतना ब्राह्मन की कन्या से क्या होगा? वह तो बहुरिया बनी बैठी रहेगी। बहुत होगा रोटियाँ पका देगी। यहाँ सिलिया अकेली तीन आदमियों का काम करती है। औरर मैं उसे रोटी के सिवा औरर क्या देता हूँ? बहुत हुआ, तो साल में एक धोती दे दी। दूसरे पेड़ के नीचे दातादीन का निजी पैरा था। चार बैलों से मँड़ाई हो रही थी। धन्ना चमार बैलों को हाँक रहा था, सिलिया पैरे से अनाज निकाल-निकालकर ओसा रही थी औरर मातादीन दूसरी ओर बैठा अपनी लाठी में तेल मल रहा था। सिलिया साँवली सलोनी, छरहरी बालिका थी, जो रूपवती न होकर भी आकर्षक थी। उसके हास में, चितवन में, अंगों के विलास में हर्ष का उन्माद था, जिससे उसकी बोटी-बोटी नाचती रहती थी, सिर से पाँव तक भूसे के अणुओं में सनी, पसीने से तर, सिर के बाल आधे खुले, वह दौड़-दौड़कर अनाज ओसा रही थी, मानो तन-मन से कोई खेल खेल रही हो। मातादीन ने कहा -- आज साँझ तक नाज बाक़ी न रहे सिलिया! तू थक गयी हो तो मैं आऊँ? सिलिया प्रसन्न मुख बोली -- तुम काहे को आओगे पण्डित! मैं संझा तक सब ओसा दूँगी। ' अच्छा, तो मैं अनाज ढो-ढोकर रख आऊँ। तू अकेली क्या-क्या कर लेगी? ' ' तुम घबड़ाते क्यों हो, मैं ओसा भी दूँगी, ढोकर रख भी आऊँगी। पहर रात तक यहाँ एक दाना भी न रहेगा। दुलारी सहुआइन आज अपना लेहना वसूल करती फिरती थी। सिलिया उसकी दूकान से होली के दिन दो पैसे का गुलाबी रंग लायी थी। अभी तक पैसे न दिये थे। सिलिया के पास आकर बोली -- क्यों री सिलिया, महीना-भर रंग लाये हो गया, अभी तक पैसे नहीं दिये। माँगती हूँ तो मटककर चली जाती है। आज मैं बिना पैसा लिये न जाऊँगी। मातादीन चुपके-से सरक गया था। सिलिया का तन औरर मन दोनों लेकर भी बदले में कुछ न देना चाहता था। सिलिया अब उसकी निगाह में केवल काम करने की मशीन थी, औरर कुछ नहीं। उसकी ममता को वह बड़े कौशल से नचाता रहता था। सिलिया ने आँख उठाकर देखा तो मातादीन वहाँ न था। बोली -- चिल्लाओ मत सहुआइन, यह ले लो, दो की जगह चार पैसे का अनाज। अब क्या जान लेगी? मैं मरी थोड़े ही जाती थी! उसने अन्दाज़ से कोई सेर-भर अनाज ढेर में से निकालकर सहुआइन के फैले हुए अंचल में डाल दिया। उसी वक़्त मातादीन पेड़ की आड़ से झल्लाया हुआ निकला औरर सहुआइन का अंचल पकड़कर बोला -- अनाज सीधे से रख दो सहुआइन, लूट नहीं है। फिर उसने लाल-लाल आँखों से सिलिया को देखकर डाँटा -- तूने अनाज क्यों दे दिया? किससे पूछकर दिया? तू कौन होती है मेरा अनाज देने वाली? सहुआइन ने अनाज ढेर में डाल दिया औरर सिलिया हक्का-बक्का होकर मातादीन का मुँह देखने लगी। ऐसा जान पड़ा, जिस डाल पर वह निश्चिन्त बैठी हुई थी, वह टूट गयी औरर अब वह निराधार नीचे गिरी जा रही है! खिसियाये हुए मुँह से, आँखों में आँसू भरकर, सहुआइन से बोली -- तुम्हारे पैसे मैं फिर दे दूँगी सहुआइन! आज मुझ पर दया करो। सहुआइन ने उसे दयाद्र्र नेत्रों से देखा औरर मातादीन को धिक्कार भरी आँखों से देखती हुई चली गयी। तब सिलिया ने अनाज ओसाते हुए आहत गर्व से पूछा -- तुम्हारी चीज़ में मेरा कुछ अख़्तियार नहीं है? मातादीन आँखें निकालकर बोला -- नहीं, तुझे कोई अख़्तियार नहीं है। काम करती है, खाती है। जो तू चाहे कि खा भी, लुटा भी; तो यह यहाँ न होगा। अगर तुझे यहाँ न परता पड़ता हो, कहीं औरर जाकर काम कर। मजूरों की कमी नहीं है। सेंत में नहीं लेते, खाना-कपड़ा देते हैं। सिलिया ने उस पक्षी की भाँति, जिसे मालिक ने पर काटकर पिंजरे से निकाल दिया हो, मातादीन की ओर देखा। उस चितवन में वेदना अधिक थी या भत्र्सना, यह कहना कठिन है। पर उसी पक्षी की भाँति उसका मन फड़फड़ा रहा था औरर ऊँची डाल पर उन्मुक्त वायु-मंडल में उड़ने की शक्ति न पाकर उसी पिंजरे में जा बैठना चाहता था, चाहे उसे बेदाना, बेपानी, पिंजरे की तीलियों से सिर टकराकर मर ही क्यों न जाना पड़े। सिलिया सोच रही थी, अब उसके लिए दूसरा कौन-सा ठौर है। वह ब्याहता न होकर भी संस्कार में औरर व्यवहार में औरर मनोभावना में ब्याहता थी, औरर अब मातादीन चाहे उसे मारे या काटे, उसे दूसरा आश्रय नहीं है, दूसरा अवलम्ब नहीं है। उसे वह दिन याद आये -- औरर अभी दो साल भी तो नहीं हुए -- जब यही मातादीन उसके तलवे सहलाता था, जब उसने जने:ू हाथ में लेकर कहा था -- सिलिया, जब तक दम में दम है, तुझे ब्याहता की तरह रखूँगा; जब वह प्रेमातुर होकर हार में औरर बाग़ में औरर नदी के तट पर उसके पीछे-पीछे पागलों की भाँति फिरा करता था। औरर आज उसका यह निष्ठुर व्यवहार! मुट्ठी-भर अनाज के लिए उसका पानी उतार लिया। उसने कोई जवाब न दिया। कंठ में नमक के एक डले का-सा अनुभव करती हुई, आहत हृदय औरर शिथिल हाथों से फिर काम करने लगी। उसी वक़्त उसकी माँ, बाप, दोनों भाई औरर कई अन्य चमारों ने न जाने किधर से आकर मातादीन को घेर लिया। सिलिया की माँ ने आते ही उसके हाथ से अनाज की टोकरी छीनकर फेंक दी औरर गाली देकर बोली -- राँड़, जब तुझे मज़दूरी ही करनी थी, तो घर की मजूरी छोड़ कर यहाँ क्या करने आयी। जब ब्राह्मण के साथ रहती है, तो ब्राह्मण की तरह रह। सारी बिरादरी की नाक कटवाकर भी चमारिन ही बनना था, तो यहाँ क्या घी का लोंदा लेने आयी थी। चुल्लू-भर पानी में डूब नहीं मरती! झिंगुरीसिंह औरर दातादीन दोनों दौड़े औरर चमारों के बदले हुए तेवर देखकर उन्हें शान्त करने की चेष्टा करने लगे। झिंगुरीसिंह ने सिलिया के बाप से पूछा -- क्या बात है चौधरी, किस बात का झगड़ा है? सिलिया का बाप हरखू साठ साल का बूढ़ा था; काला, दुबला, सूखी मिर्च की तरह पिचका हुआ; पर उतना ही तीक्ष्ण। बोला -- झगड़ा कुछ नहीं है ठाकुर, हम आज या तो मातादीन को चमार बना के छोड़ेंगे, या उनका औरर अपना रकत एक कर देंगे। सिलिया कन्या जात है, किसी--किसी के घर जायगी ही। इस पर हमें कुछ नहीं कहना है; मगर उसे जो कोई भी रखे, हमारा होकर रहे। तुम हमें ब्राह्मण नहीं बना सकते, मुदा हम तुम्हें चमार बना सकते हैं। हमें ब्राह्मण बना दो, हमारी सारी बिरादरी बनने को तैयार है। जब यह समरथ नहीं है, तो फिर तुम भी चमार बनो। हमारे साथ खाओ-पिओ, हमारे साथ उठो-बैठो। हमारी इज़्ज़त लेते हो, तो अपना धरम हमें दो। दातादीन ने लाठी फटकार कर कहा -- मुँह सँभाल कर बातें कर हरखुआ! तेरी बिटिया वह खड़ी है, ले जा जहाँ चाहे। हमने उसे बाँध नहीं रक्खा है। काम करती थी, मजूरी लेती थी। यहाँ मजूरों की कमी नहीं है। सिलिया की माँ उँगली चमकाकर बोली -- वाह-वाह पण्डित! ख़ूब नियाव करते हो। तुम्हारी लड़की किसी चमार के साथ निकल गयी होती औरर तुम इस तरह की बातें करते, तो देखती। हम चमार हैं इसलिए हमारी कोई इज़्ज़त ही नहीं! हम सिलिया को अकेले न ले जायँगे, उसके साथ मातादीन को भी ले जायँगे, जिसने उसकी इज़्ज़त बिगाड़ी है। तुम बड़े नेमी-धरमी हो। उसके साथ सोओगे; लेकिन उसके हाथ का पानी न पिओगे! यही चुड़ैल है कि यह सब सहती है। मैं तो ऐसे आदमी को माहुर दे देती। हरखू ने अपने साथियों को ललकारा -- सुन ली इन लोगों की बात कि नहीं! अब क्या खड़े मुँह ताकते हो। इतना सुनना था कि दो चमारों ने लपककर मातादीन के हाथ पकड़ लिये, तीसरे ने झपटकर उसका जने:ू तोड़ डाला औरर इसके पहिले कि दातादीन औरर झिंगुरीसिंह अपनी-अपनी लाठी सँभाल सकें, दो चमारों ने मातादीन के मुँह में एक बड़ी-सी हड्ड:ी का टुकड़ा डाल दिया। मातादीन ने दाँत जकड़ लिये, फिर भी वह घिनौनी वस्तु उनके ओठों में तो लग ही गयी। उन्हें मतली हुई औरर मुँह आप-से-आप खुल गया औरर हड्ड:ी कंठ तक जा पहुँची। इतने में खलिहान के सारे आदमी जमा हो गये; पर आश्चर्य यह कि कोई इन धर्म के लुटेरों से मुज़ाहिम न हुआ। मातादीन का व्यवहार सभी को नापसन्द था। वह गाँव की बहू-बेटियों को घूरा करता था, इसलिए मन में सभी उसकी दुर्गति से प्रसन्न थे। हाँ, ऊपरी मन से लोग चमारों पर रोब जमा रहे थे। होरी ने कहा -- अच्छा, अब बहुत हुआ हरखू! भला चाहते हो, तो यहाँ से चले जाओ। हरखू ने निडरता से उत्तर दिया -- तुम्हारे घर में भी लड़कियाँ हैं होरी महतो, इतना समझ लो। इस तरह गाँव की मरजाद बिगड़ने लगी, तो किसी की आबरू न बचेगी। एक क्षण में शत्रु पर पूरी विजय पाकर आक्रमणकारियों ने वहाँ से टल जाना ही उचित समझा। जनमत बदलते देर नहीं लगती  उससे बचे रहना ही अच्छा है। मातादीन क़ै कर रहा था। दातादीन ने उसकी पीठ सहलाते हुए कहा -- एक-एक को पाँच-पाँच साल के लिए न भेजवाया, तो कहना। पाँच-पाँच साल तक चक्की पिसवाऊँगा। हरखू ने हेकड़ी के साथ जवाब दिया -- इसका यहाँ कोई ग़म नहीं। कौन तुम्हारी तरह बैठे मौज करते हैं। जहाँ काम करेंगे, वहीं आधा पेट दाना मिल जायगा। मातादीन क़ै कर चुकने के बाद निर्जीव-सा ज़मीन पर लेट गया, मानो कमर टूट गयी हो, मानो डूब मरने के लिए चुल्लू भर पानी खोज रहा हो। जिस मर्यादा के बल पर उसकी रसिकता औरर घमंड औरर पुरुषार्थ अकड़ता फिरता था, वह मिट चुकी थी। उस हड्ड:ी के टुकड़े ने उसके मुँह को ही नहीं, उसकी आत्मा को भी अपवित्र कर दिया था। उसका धर्म इसी खान-पान, छूत-विचार पर टिका हुआ था। आज उस धर्म की जड़ कट गयी। अब वह लाख प्रायश्चित्त करे, लाख गोबर खाय औरर गंगाजल पिये, लाख दान-पुण्य औरर तीर्थ-व्रत करे, उसका मरा हुआ धर्म जी नहीं सकता; अगर अकेले की बात होती, तो छिपा ली जाती; यहाँ तो सबके सामने उसका धर्म लुटा। अब उसका सिर हमेशा के लिए नीचा हो गया। आज से वह अपने ही घर में अछूत समझा जायगा। उसकी स्नेहमयी माता भी उससे घृणा करेगी। औरर संसार से धर्म का ऐसा लोप हो गया कि इतने आदमी केवल खड़े तमाशा देखते रहे। किसी ने चूँ तक न की। एक क्षण पहले जो लोग उसे देखते ही पालागन करते थे, अब उसे देखकर मुँह फेर लेंगे। वह किसी मन्दिर में भी न जा सकेगा, न किसी के बरतन-भाँड़े छू सकेगा। औरर यह सब हुआ इस अभागिन सिलिया के कारण। सिलिया जहाँ अनाज ओसा रही थी, वहीं सिर झुकाये खड़ी थी, मानो यह उसी की दुर्गति हो रही है। सहसा उसकी माँ ने आकर डाँटा -- खड़ी ताकती क्या है? चल सीधे घर, नहीं बोटी-बोटी काट डालूँगी। बाप-दादा का नाम तो ख़ूब उजागर कर चुकी, अब क्या करने पर लगी है? सिलिया मूर्तिवत्् खड़ी रही। माता-पिता औरर भाइयों पर उसे क्रोध आ रहा था। यह लोग क्यों उसके बीच में बोलते हैं। वह जैसे चाहती है, रहती है, दूसरों से क्या मतलब? कहते हैं, यहाँ तेरा अपमान होता है, तब क्या कोई ब्राह्मण उसका पकाया खा लेगा? उसके हाथ का पानी पी लेगा? अभी ज़रा देर पहले उसका मन दातादीन के निठुर व्यवहार से खिन्न हो रहा था, पर अपने घरवालों औरर बिरादरी के इस अत्याचार ने उस विराग को प्रचंड अनुराग का रूप दे दिया। विद्रोह-भरे मन से बोली -- मैं कहीं न जाऊँगी। तू क्या यहाँ भी मुझे जीने न देगी? बुढ़िया कर्कश स्वर में बोली -- तू न चलेगी? ' नहीं। ' ' चल सीधे से। ' ' नहीं जाती। ' तुरत दोनों भाइयों ने उसके हाथ पकड़ लिये औरर उसे घसीटते हुए ले चले। सिलिया ज़मीन पर बैठ गयी। भाइयों ने इस पर भी न छोड़ा। घसीटते ही रहे। उसकी साड़ी फट गयी, पीठ औरर कमर की खाल छिल गयी; पर वह जाने पर राज़ी न हुई। तब हरखू ने लड़कों से कहा -- अच्छा, अब इसे छोड़ दो। समझ लेंगे मर गयी; मगर अब जो कभी मेरे द्वार पर आयी तो लहू पी जाऊँगा। सिलिया जान पर खेलकर बोली -- हाँ, जब तुम्हारे द्वार पर जाऊँ, तो पी लेना। बुढ़िया ने क्रोध के उन्माद में सिलिया को कई लातें जमाईं औरर हरखू ने उसे हटा न दिया होता, तो शायद प्राण ही लेकर छोड़ती। बुढ़िया फिर झपटी, तो हरखू ने उसे धक्के देकर पीछे हटाते हुए कहा -- तू बड़ी हत्यारिन है कलिया! क्या उसे मार ही डालेगी? सिलिया बाप के पैरों से लिपटकर बोली -- मार डालो दादा, सब जने मिलकर मार डालो। हाय अम्माँ, तुम इतनी निर्दयी हो; इसीलिए दूध पिलाकर पाला था? सौर में ही क्यों न गला घोंट दिया? हाय! मेरे पीछे पण्डित को भी तुमने भिरस्ट कर दिया। उसका धरम लेकर तुम्हें क्या मिला? अब तो वह भी मुझे न पूछेगा। लेकिन पूछे न पूछे, रहूँगी तो उसी के साथ। वह मुझे चाहे भूखों रखे, चाहे मार डाले, पर उसका साथ न छोड़ूँगी। उनकी साँसत कराके छोड़ दूँ? मर जाऊँगी, पर हरजाई न बनूँगी। एक बार जिसने बाँह पकड़ ली, उसी की रहूँगी। कलिया ने ओठ चबाकर कहा -- जाने दो राँड़ को। समझती है, वह इसका निबाह करेगा; मगर आज ही मारकर भगा न दे तो मुँह न दिखाऊँ। भाइयों को भी दया आ गयी। सिलिया को वहीं छोड़कर सब-के-सब चले गये। तब वह धीरे से उठकर लँगड़ाती, कराहती, खलिहान में आकर बैठ गयी औरर अंचल में मुँह ढाँपकर रोने लगी। दातादीन ने जुलाहे का ग़ुस्सा डाढ़ी पर उतारा -- उनके साथ चली क्यों नहीं गयी री सिलिया! अब क्या करवाने पर लगी हुई है? मेरा सत्यानास कराके भी पेट नहीं भरा? सिलिया ने आँसू-भरी आँखें ऊपर उठाईं। उनमें तेज की झलक थी। ' उनके साथ क्यों जाऊँ? जिसने बाँह पकड़ी है, उसके साथ रहूँगी। ' पण्डितजी ने धमकी दी -- मेरे घर में पाँव रखा, तो लातों से बात करूँगा। सिलिया ने भी उद्दंडता से कहा -- मुझे जहाँ वह रखेंगे, वहाँ रहूँगी। पेड़ तले रखें, चाहे महल में रखें। मातादीन संज्ञाहीन-सा बैठा था। दोपहर होने आ रहा था। धूप पत्तियों से छन-छनकर उसके चेहरे पर पड़ रही थी। माथे से पसीना टपक रहा था। पर वह मौन, निस्पन्द बैठा हुआ था। सहसा जैसे उसने होश में आकर कहा -- मेरे लिए अब क्या कहते हो दादा? दातादीन ने उसके सिर पर हाथ रखकर ढाढ़स देते हुए कहा -- तुम्हारे लिए अभी मैं क्या कहूँ बेटा? चलकर नहाओ, खाओ, फिर पण्डितों की जैसी व्यवस्था होगी, वैसा किया जायगा। हाँ, एक बात है; सिलिया को त्यागना पड़ेगा। मातादीन ने सिलिया की ओर रक्त-भरे नेत्रों से देखा -- मैं अब उसका कभी मुँह न देखूँगा; लेकिन परासचित हो जाने पर फिर तो कोई दोष न रहेगा। ' परासचित हो जाने पर कोई दोष-पाप नहीं रहता। ' ' तो आज ही पण्डितों के पास जाओ। ' ' आज ही जाऊँगा बेटा! ' ' लेकिन पण्डित लोग कहें कि इसका परासचित नहीं हो सकता, तब? ' ' उनकी जैसी इच्छा। ' ' तो तुम मुझे घर से निकाल दोगे? ' दातादीन ने पुत्र-स्नेह से विह्वल होकर कहा -- ऐसा कहीं हो सकता है, बेटा! धन जाय, धरम जाय, लोक-मरजाद जाय, पर तुम्हें नहीं छोड़ सकता। मातादीन ने लकड़ी उठाई औरर बाप के पीछे-पीछे घर चला। सिलिया भी उठी औरर लँगड़ाती हुई उसके पीछे हो ली। मातादीन ने पीछे फिरकर निर्मम स्वर में कहा -- मेरे साथ मत आ। मेरा तुझसे कोई वास्ता नहीं। इतनी साँसत करवा के भी तेरा पेट नहीं भरता। सिलिया ने धृष्टता के साथ उसका हाथ पकड़कर कहा -- वास्ता कैसे नहीं है? इसी गाँव में तुमसे धनी, तुमसे सुन्दर, तुमसे इज़्ज़तदार लोग हैं। मैं उनका हाथ क्यों नहीं पकड़ती। तुम्हारी यह दुर्दशा ही आज क्यों हुई? जो रस्सी तुम्हारे गले में पड़ गयी है, उसे तुम लाख चाहो, नहीं छोड़ सकते। औरर न मैं तुम्हें छोड़कर कहीं जाऊँगी। मजूरी करूँगी, भीख माँगूँगी; लेकिन तुम्हें न छोड़ूँगी। यह कहते हुए उसने मातादीन का हाथ छोड़ दिया औरर फिर खलिहान में जाकर अनाज ओसाने लगी। होरी अभी तक वहाँ अनाज माँड़ रहा था। धनिया उसे भोजन करने के लिए बुलाने आयी थी। होरी ने बैलों को पैर से बाहर निकालकर एक पेड़ में बाँध दिया औरर सिलिया से बोला -- तू भी जा खा-पी आ सिलिया! धनिया यहाँ बैठी है। तेरी पीठ पर की साड़ी तो लहू से रँग गयी है रे! कहीं घाव पक न जाय। तेरे घरवाले बड़े निर्दयी हैं। सिलिया ने उसकी ओर करुण नेत्रों से देखा -- यहाँ निर्दयी कौन नहीं है, दादा! मैंने तो किसी को दयावान नहीं पाया। ' क्या कहा पण्डित ने? ' ' कहते हैं, मेरा तुमसे कोई वास्ता नहीं। ' ' अच्छा! ऐसा कहते हैं! ' ' समझते होंगे, इस तरह अपने मुँह की लाली रख लेंगे; लेकिन जिस बात को दुनिया जानती है, उसे कैसे छिपा लेंगे। मेरी रोटियाँ भारी हैं, न दें। मेरे लिए क्या? मजूरी अब भी करती हूँ, तब भी करूँगी। सोने को हाथ भर जगह तुम्हीं से माँगूँगी तो क्या तुम न दोगे? ' धनिया दयाद्र्र होकर बोली -- जगह की कौन कमी है बेटी! तू चल मेरे घर रह। होरी ने कातर स्वर में कहा -- बुलाती तो है, लेकिन पण्डित को जानती नहीं? धनिया ने निर्भीक स्वर में कहा -- बिगड़ेंगे तो एक रोटी बेसी खा लेंगे, औरर क्या करेंगे। कोई उनकी दबैल हूँ। उसकी इज़्ज़त ली, बिरादरी से निकलवाया, अब कहते हैं, मेरा तुझसे कोई वास्ता नहीं। आदमी है कि क़साई। यह उसी नीयत का आज फल मिला है। पहले नहीं सोच लिया था। तब तो बिहार करते रहे। अब कहते हैं, मुझसे कौन वास्ता। होरी के विचार में धनिया ग़लती कर रही थी। सिलिया के घरवालों ने मतई को कितना बेधरम कर दिया, यह कोई अच्छा काम नहीं किया। सिलिया को चाहे मारकर ले जाते, चाहे दुलारकर ले जाते। वह उनकी लड़की है। मतई को क्यों बेधरम किया? धनिया ने फटकार बताई -- अच्छा रहने दो, बड़े न्यायी बने हो। मरद-मरद सब एक होते हैं। इसको मतई ने बेधरम किया तब तो किसी को बुरा न लगा। अब जो मतई बेधरम हो गये, तो क्यों बुरा लगता है? क्या सिलिया का धरम, धरम ही नहीं? रखी तो चमारिन, उस पर नेमी-धर्मी बनते हैं। बड़ा अच्छा किया हरखू चौधरी ने। ऐसे गुंडों की यही सज़ा है। तू चल सिलिया मेरे घर। -जाने कैसे बेदरद माँ-बाप हैं कि बेचारी की सारी पीठ लहूलुहान कर दी। तुम जाके सोना को भेज दो। मैं इसे लेकर आती हूँ। होरी घर चला गया औरर सिलिया धनिया के पैरों पर गिरकर रोने लगी।
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Chapter Twenty-four.
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Recoded: 20 Sept. 1999 to 6 Oct 1999.
Chapter Twenty-three posted: 13 Oct. 1999.