यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
इन्स्टिट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़
लैंग्वजिज़ ऐंड कल्चर्ज़ ऑफ़
एशिया ऐंड ऐफ़्रिका
तोक्यो
यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ाॅरेन स्टडीज़
Mellon Project
प्रेमचन्द
गोदान
(Devanagari text reconstituted from Professor K. Machida's roman
transcription)
Chapter Twenty-four.
(unparagraphed text)
सोना सत्रहवें साल
में थी औरर इस साल उसका विवाह करना आवश्यक था।
होरी तो दो साल से इसी फ़क्रि
में था, पर हाथ ख़ाली
होने से कोई क़ाबू न चलता था।
मगर इस साल जैसे भी हो, उसका विवाह कर देना ही चाहिए,
चाहे क़रज़ लेना
पड़े, चाहे खेत
गिरों रखने पड़ें।
औरर अकेले होरी की बात चलती
तो दो साल पहले ही विवाह हो गया
होता।
वह किफ़ायत से काम करना चाहता था।
पर धनिया कहती थी, कितना ही हाथ बाँधकर ख़र्च करो;
दो-ढाई सौ लग ही जायँगे।
झुनिया के आ जाने से बिरादरी
में इन लोगों का स्थान कुछ हेठा
हो गया था औरर बिना सौ दो-सौ दिये कोई कुलीन वर न
मिल सकता था।
पिछले साल चैती में कुछ न
मिला।
था तो पण्डित दातादीन से आधा
साझा; मगर पण्डित जी ने
बीज औरर मजूरी का कुछ ऐसा ब्योरा बताया
कि होरी के हाथ एक चौथाई से ज़्यादा अनाज न
लगा।
औरर लगान देना पड़ गया पूरा।
ऊख औरर सन की फ़सल नष्ट हो गयी।
सन तो वर्षा अधिक होने औरर
ऊख दीमक लग जाने के कारण।
हाँ, इस साल की
चैती अच्छी थी औरर ऊख भी ख़ूब लगी हुई थी।
विवाह के लिए गल्ला तो मौजूद
था; दो सौ रुपए भी हाथ
आ जायँ, तो
कन्या-ऋण से उसका
उद्धार हो जाय।
अगर गोबर सौ रुपए की मदद कर दे,
तो बाक़ी सौ रुपए होरी
को आसानी से मिल जायँगे।
झिंगुरीसिंह औरर मँगरू साह
दोनों ही अब कुछ नर्म पड़ गये
थे।
जब गोबर परदेश में कमा रहा
है, तो उनके रुपए
मारे न पड़ सकते थे।
एक दिन होरी ने गोबर के पास
दो-तीन दिन के लिए
जाने का प्रस्ताव किया।
मगर धनिया अभी तक गोबर के वह कठोर
शब्द न भूली थी।
वह गोबर से एक पैसा भी न लेना
चाहती थी, किसी तरह
नहीं!
होरी ने झुँझलाकर कहा
-- लेकिन काम कैसे
चलेगा, यह बता।
धनिया सिर हिलाकर बोली -- मान लो,
गोबर परदेश न गया होता, तब तुम क्या करते?
वही अब करो।
होरी की ज़बान बन्द हो गयी।
एक क्षण बाद बोला -- मैं तो तुझसे पूछता
हूँ।
धनिया ने जान बचाई -- यह सोचना मरदों का काम है।
होरी के पास जवाब तैयार था
-- मान ले, मैं न होता, तू ही अकेली रहती, तब तू क्या करती।
वह कर।
धनिया ने तिरस्कार भरी आँखों
से देखा -- तब
मैं कुश-कन्या भी
दे देती तो कोई हँसनेवाला न था।
कुश-कन्या
होरी भी दे सकता था।
इसी में उसका मंगल था; लेकिन कुछ-मर्यादा कैसे छोड़ दे?
उसकी बहनों के विवाह में
तीन-तीन सौ बराती द्वार
पर आये थे।
दहेज भी अच्छा ही दिया गया था।
नाच-तमाशा,
बाजा,
गाजा, हाथी-घोड़े, सभी
आये थे।
आज भी बिरादरी में उसका नाम है।
दस गाँव के आदमियों से
उसका हेल-मेल है।
कुश-कन्या
देकर वह किसे मुँह दिखायेगा?
इससे तो मर जाना अच्छा है।
औरर वह क्यों कुश-कन्या दे?
पेड़-पालों हैं, ज़मीन है औरर थोड़ी-सी साख भी है;
अगर वह एक बीघा भी बेंच दे, तो सौ मिल जायँ; लेकिन किसान के लिए ज़मीन जान
से भी प्यारी है,
कुल-मर्यादा से भी
प्यारी है।
औरर कुल तीन ही बीघे तो
उसके पास हैं; अगर
एक बीघा बेंच दे,
तो फिर खेती कैसे करेगा?
कई दिन इसी हैस-बेस में गुज़रे।
होरी कुछ फ़ैसला न कर सका।
दशहरे की छुट्टियों के दिन
थे।
झिंगुरी,
पटेश्वरी औरर नोखेराम तीनों ही
सज्जनों के लड़के छुट्टियों
में घर आये थे।
तीनों अँग्रेज़ी पढ़ते
थे औरर यद्यपि तीनों बीस-बीस साल के हो गये
थे, पर अभी तक
यूनिवर्सिटी में जाने का नाम न
लेते थे।
एक-एक क्लास
में दो-दो,
तीन-तीन साल पड़े
रहते।
तीनों की शादियाँ हो चुकी
थीं।
पटेश्वरी के सपूत बिन्देसरी
तो एक पुत्र के पिता भी हो चुके
थे।
तीनों दिन भर ताश
खेलते, भंग
पीते औरर छैला बने घूमते।
वे दिन में कई-कई बार होरी के द्वार की ओर ताकते
हुए निकलते औरर कुछ ऐसा संयोग
था कि जिस वक़्त वे निकलते, उसी वक़्त सोना भी किसी-न-किसी काम से
द्वार पर आ खड़ी होती।
इन दिनों वह वही साड़ी पहनती थी,
जो गोबर उसके लिए
लाया था।
यह सब तमाशा देख-देखकर होरी का ख़ून सूखता जाता
था, मानो उसकी खेती
चौपट करने के लिए आकाश में
ओलेवाले पीले बादल उठे चले
आते हों!
एक दिन तीनों उसी कुएँ पर
नहाने जा पहुँचे, जहाँ होरी ऊख सींचने के लिए
पुर चला रहा था।
सोना मोट ले रही थी।
होरी का ख़ून आज खौल उठा।
उसी साँझ को वह दुलारी सहुआइन
के पास गया।
सोचा,
औररतों में दया होती है,
शायद इसका दिल पसीज जाय औरर
कम सूद पर रुपए दे दे।
मगर दुलारी अपना ही रोना ले
बैठी।
गाँव में ऐसा कोई घर न था
जिस पर उसके कुछ रुपए न आते हों,
यहाँ तक कि
झिंगुरीसिंह पर भी उसके बीस रुपए आते
थे; लेकिन कोई
देने का नाम न लेता था।
बेचारी कहाँ से रुपए
लाये?
होरी ने गिड़गिड़ाकर कहा -- भाभी, बड़ा
पुन्न होगा।
तुम रुपए न दोगी, मेरे गले की फाँसी खोल
दोगी।
झिंगुरी औरर पटेसरी मेरे
खेतों पर दाँत लगाये हुए
हैं।
मैं सोचता हूँ, बाप-दादा की
यही तो निसानी है, यह
निकल गयी, तो जाऊँगा
कहाँ?
एक सपूत वह होता है कि घर की सम्पत
बढ़ाता है, मैं
ऐसा कपूत हो जाऊँ कि बाप-दादों की कमाई पर झाड़ू फेर
दूँ।
दुलारी ने क़सम खाई -- होरी,
मैं ठाकुर जी के चरन छू कर कहती हूँ
कि इस समय मेरे पास कुछ नहीं है।
जिसने लिया,
वह देता नहीं, तो
मैं क्या करूँ?
तुम कोई ग़ैर तो नहीं
हो।
सोना भी मेरी ही लड़की है; लेकिन तुम्हीं
बताओ, मैं क्या
करूँ?
तुम्हारा ही भाई हीरा है।
बैल के लिए पचास रुपए लिये।
उसका तो कहीं पता-ठिकाना नहीं,
उसकी घरवाली से माँगो तो लड़ने को
तैयार।
शोभा भी देखने में बड़ा
सीधा-सादा है; लेकिन पैसा देना नहीं
जानता।
औरर असल बात तो यह है कि किसी
के पास है ही नहीं,
दें कहाँ से।
सबकी दशा देखती हूँ, इसी मारे सबर कर जाती हूँ।
लोग किसी तरह पेट पाल रहे
हैं, औरर क्या।
खेत-बारी
बेचने की मैं सलाह न दूँगी।
कुछ नहीं है, मरजाद तो है।
फिर कनफुसकियों में
बोली -- पटेसरी लाला
का लौंडा तुम्हारे घर की ओर बहुत चक्कर
लगाया करता है।
तीनों का वही हाल है।
इनसे चौकस रहना।
यह सहरी हो गये, गाँव का भाई-चारा क्या समझें।
लड़के गाँव में भी
हैं; मगर
उनमें कुछ लिहाज है, कुछ अदब है,
कुछ डर है।
ये सब तो छूटे साँड़
हैं।
मेरी कौसल्या ससुराल से आयी
थी, मैंने
सबों के ढंग देखकर उसके ससुर
को बुला कर बिदा कर दिया।
कोई कहाँ तक पहरा दे।
होरी को मुस्कराते देखकर
उसने सरस ताड़ना के भाव से कहा -- हँसोगे होरी तो
मैं भी कुछ कह दूँगी।
तुम क्या किसी से कम नटखट थे।
दिन में पचीसों बार
किसी-न-किसी बहाने मेरी दुकान पर आया
करते थे; मगर
मैंने कभी ताका तक नहीं।
होरी ने मीठे प्रतिवाद के साथ कहा
-- यह तो तुम झूठ
बोलती हो भाभी!
बिना कुछ रस पाये थोड़े ही आता
था।
चिड़िया एक बार परच जाती है, तभी दूसरी बार आँगन में
आती है।
' चल
झूठे। '
' आँखों से न ताकती रही
हो; लेकिन तुम्हारा
मन तो ताकता ही था; बल्कि
बुलाता था। '
' अच्छा रहने
दो, बड़े आए अन्तरजामी
बन के।
तुम्हें बार-बार मँड़राते देख के मुझे
दया आ जाती थी, नहीं
तुम कोई ऐसे बाँके जवान न
थे। '
हुसेनी एक पैसे का नमक
लेने आ गया औरर यह परिहास बन्द हो गया।
हुसेनी नमक लेकर चला गया,
तो दुलारी ने फिर कहा
-- गोबर के पास
क्यों नहीं चले जाते।
देखते भी आओगे औरर साइत
कुछ मिल भी जाय।
होरी निराश मन से बोला
-- वह कुछ न देगा।
लड़के चार पैसे कमाने लगते
हैं, तो उनकी
आँखें फिर जाती हैं।
मैं तो बेहयाई करने को
तैयार था; लेकिन
धनिया नहीं मानती।
उसकी मरज़ी बिना चला जाऊँ तो घर
में रहना अपाढ़ कर दे।
उसका सुभाव तो जानती हो।
दुलारी ने कटाक्ष करके कहा -- तुम तो मेहरिया के
जैसे ग़ुलाम हो गये।
' तुमने
पूछा ही नहीं तो क्या करता? '
' मेरी
ग़ुलामी करने को कहते तो
मैंने लिखा लिया होता, सच!
' तो अब
से क्या बिगड़ा है, लिखा
लो न।
दो सौ में लिखता
हूँ, इन दामों
महँगा नहीं हूँ। '
' तब धनिया
से तो न बोलोगे? '
' नहीं,
कहो क़सम खाऊँ। '
' औरर जो
बोले? '
' तो मेरी
जीभ काट लेना। '
' अच्छा तो
जाओ, घर ठीक-ठाक करो,
मैं रुपए दे दूँगी। '
होरी ने सजल नेत्रों से
दुलारी के पाँव पकड़ लिये।
भावावेश से मुँह बन्द हो
गया।
सहुआइन ने पाँव खींचकर कहा
-- अब यही सरारत मुझे
अच्छी नहीं लगती।
मैं साल-भर के भीतर अपने रुपए सूद-समेत कान पकड़कर लूँगी।
तुम तो व्यवहार के ऐसे
सच्चे नहीं हो;
लेकिन धनिया पर मुझे विश्वास है।
सुना पण्डित तुमसे बहुत
बिगड़े हुए हैं।
कहते हैं, इसे गाँव से निकालकर नहीं
छोड़ा तो बाह्मण नहीं।
तुम सिलिया को निकाल बाहर
क्यों नहीं करते?
बैठे-बैठायें झगड़ा मोल ले लिया।
' धनिया उसे
रखे हुए है,
मैं क्या करूँ। '
' सुना
है, पण्डित कासी गये
थे।
वहाँ एक बड़ा नामी विद्वान्् पण्डित
है।
वह पाँच सौ माँगता है।
तब परासचित करायेगा।
भला,
पूछो ऐसा अँधेर नहीं हुआ है।
जब धरम नष्ट हो गया, तो एक नहीं हज़ार परासचित करो,
इसे क्या होता है।
तुम्हारे हाथ का छुआ पानी कोई न
पियेगा, चाहे जितना
परासचित करो। '
होरी यहाँ से घर चला, तो उसका दिल उछल रहा था।
जीवन में ऐसा सुखद अनुभव
उसे न हुआ था।
रास्ते में शोभा के घर गया
औरर सगाई लेकर चलने के लिए नेवता
दे आया।
फिर दोनों दातादीन के पास सगाई
की सायत पूछने गये।
वहाँ से आकर द्वार पर सगाई की
तैयारियों की सलाह करने लगे।
धनिया ने बाहर निकलकर कहा -- पहर रात गयी, अभी रोटी खाने की बेला नहीं
आयी?
खाकर बैठो।
गपड़चौथ करने को तो सारी रात
पड़ी है।
होरी ने उसे भी परामर्श
में शरीक होने का अनुरोध करते
हुए कहा -- इसी सहालग
में लगन ठीक हुआ है।
बता, क्या-क्या सामान लाना चाहिए।
मुझे तो कुछ मालूम
नहीं।
' जब कुछ
मालूम ही नहीं,
तो सलाह करने क्या बैठे हो।
रुपए-पैसे
का डौल भी हुआ कि मन की मिठाई खा रहे
हो। '
होरी ने गर्व से कहा -- तुझे इससे क्या मतलब।
तू इतना बता दे क्या-क्या सामान लाना होगा?
' तो
मैं ऐसी मन की मिठाई नहीं खाती। '
' तू इतना
बता दे कि हमारी बहनों के ब्याह में
क्या-क्या सामान आया था। '
' पहले यह
बता दो, रुपए मिल
गये? '
' हाँ,
मिल गये, औरर नहीं क्या भंग खायी हो।
'
' तो
पहले चलकर खा लो।
फिर सलाह करेंगे। '
मगर जब उसने सुना कि दुलारी से
बातचीत हुई है,
तो नाक सिकोड़ कर बोली -- उससे रुपए लेकर आज तक कोई उरिन
हुआ है?
चुड़ैल कितना कसकर सूद लेती
है!
' लेकिन करता
क्या?
दूसरा देता कौन है। '
' यह क्यों
नहीं कहते कि इसी बहाने दो गाल
हँसने-बोलने
गया था।
बूढ़े हो गये, पर यह बान न गयी। '
' तू तो
धनिया, कभी-कभी बच्चों की-सी बातें करने लगती है।
मेरे-जैसे फटेहालों से वह
हँस-बोलेगी?
सीधे मुँह बात तो करती
नहीं। '
' तुम-जैसों को छोड़कर उसके पास
औरर जायगा ही कौन? '
' उसके द्वार
पर अच्छे-अच्छे नाक
रगड़ते हैं,
धनिया, तू क्या जाने।
उसके पास लच्छमी है। '
' उसने
ज़रा-सी हामी भर दी, तुम चारों ओर
ख़ुशख़बरी लेकर दौड़े। '
' हामी नहीं भर
दी, पक्का वादा किया है।
'
होरी रोटी खाने गया औरर
शोभा अपने घर चला गया, तो सोना सिलिया के साथ बाहर
निकली।
वह द्वार पर खड़ी सारी बातें सुन
रही थी।
उसकी सगाई के लिए दो सौ रुपए
दुलारी से उधार लिये जा रहे हैं,
यह बात उसके पेट
में इस तरह खलबली मचा रही थी, जैसे ताज़ा चूना पानी में
पड़ गया हो।
द्वार पर एक कुप्पी जल रही थी, जिससे ताक के ऊपर की दीवार काली
हो गयी थी।
दोनों बैल नाँद
में सानी खा रहे थे औरर कुत्ता
ज़मीन पर टुकड़े के इन्तज़ार में बैठा
हुआ था।
दोनों युवतियाँ
बैलों की चरनी के पास आकर खड़ी हो
गयीं।
सोना बोली -- तूने कुछ सुना?
दादा सहुआइन से मेरी सगाई के लिए
दो सौ रुपए उधार ले रहे हैं।
सिलिया घर का रत्ती-रत्ती हाल जानती थी।
बोली-घर
में पैसा नहीं है, तो क्या करें?
सोना ने सामने के काले
वृक्षों की ओर ताकते हुए कहा
-- मैं ऐसा
नहीं करना चाहती,
जिसमें माँ-बाप
को कर्जा लेना पड़े।
कहाँ से देंगे
बेचारे, बता!
पहले ही क़रज़ के बोझ से दबे
हुए हैं।
दो सौ औरर ले
लेंगे, तो
बोझा औरर भारी होगा कि नहीं?
' बिना
दान-दहेज के बड़े
आदमियों का कहीं ब्याह होता है
पगली?
बिना दहेज के तो कोई
बूढ़ा-ठेला ही
मिलेगा।
जायगी बूढ़े के साथ? '
' बूढ़े
के साथ क्यों जाऊँ?
भैया बूढ़े थे जो
झुनिया को ले आये।
उन्हें किसने कै पैसे
दहेज में दिये थे? '
' उसमें
बाप-दादा का नाम डूबता
है। '
' मैं
तो सोनारीवालों से कह
दूँगी, अगर
तुमने ऐसा पैसा भी दहेज लिया,
तो मैं तुमसे
ब्याह न करूँगी। '
सोना का विवाह सोनारी के एक धनी
किसान के लड़के से ठीक हुआ था।
' औरर जो
वह कह दें, कि
मैं क्या करूँ,
तुम्हारे बाप देते हैं, मेरे बाप लेते
हैं, इसमें
मेरा क्या अख़्तियार है? '
सोना ने जिस अस्त्र को रामबाण समझा
था, अब मालूम हुआ कि
वह बाँस की कैन है।
हताश होकर बोली -- मैं एक बार उससे कह के देख
लेना चाहती हूँ;
अगर उसने कह दिया, मेरा
कोई अख़्तियार नहीं है, तो क्या गोमती यहाँ से
बहुत दूर है।
डूब मरूँगी।
माँ-बाप
ने मर-मर के
पाला-पोसा।
उसका बदला क्या यही है कि उनके घर से
जाने लगूँ,
तो उन्हें कर्जे से औरर लादती
जाऊँ?
माँ-बाप
को भगवान् ने दिया हो, तो ख़ुशी से जितना चाहें
लड़की को दें,
मैं मना नहीं करती; लेकिन जब वह पैसे-पैसे को तंग हो
रहे हैं, आज महाजन
नालिश करके लिल्लाम करा ले, तो कल मजूरी करनी पड़ेगी, तो कन्या का धरम यही है कि डूब
मरे।
घर की ज़मीन-जैजात तो बच जायगी, रोटी का सहारा तो रह जायगा।
माँ-बाप चार
दिन मेरे नाम को रोकर सन्तोष कर
लेंगे।
यह तो न होगा कि मेरा ब्याह करके
उन्हें जन्म भर रोना पड़े।
तीन-चार साल
में दो सौ के दूने हो
जायँगे, दादा कहाँ
से लाकर देंगे।
सिलिया को जान पड़ा, जैसे उसकी आँख में नयी
ज्योति आ गयी है।
आवेश में सोना को छाती
से लगाकर बोली --
तूने इतनी अक्कल कहाँ से सीख ली
सोना?
देखने में तो तू बड़ी
भोली-भाली है।
' इसमें
अक्कल की कौन बात है चुड़ैल।
क्या मेरे आँखें नहीं
हैं कि मैं पागल हूँ।
दो सौ मेरे ब्याह में
लें।
तीन-चार साल
में वह दूना हो जाय।
तब रुपिया के ब्याह में दो
सौ औरर लें।
जो कुछ खेती-बारी है, सब
लिलाम-तिलाम हो
जाये, औरर
द्वार-द्वार भीख
माँगते फिरें।
यही न?
इससे तो कहीं अच्छा है कि
मैं अपनी ही जान दे दूँ।
मुँह अँधेरे
सोनारी चली जाना औरर उसे बुला
लाना; मगर
नहीं, बुलाने का काम
नहीं।
मुझे उससे बोलते लाज
आयेगी।
तू ही मेरा यह सन्देशा कह देना।
देख क्या जवाब देते हैं।
कौन दूर है?
नदी के उस पार ही तो है।
कभी-कभी ढोर
लेकर इधर आ जाता है।
एक बार उसकी भ्ैंस मेरे खेत
में पड़ गयी थी,
तो मैंने उसे बहुत गालियाँ दी
थीं।
हाथ जोड़ने लगा।
हाँ, यह
तो बता, इधर मतई से
तेरी भेंट नहीं हुई!
सुना,
बाह्मन लोग उन्हें बिरादरी में नहीं
ले रहे हैं।
सिलिया ने हिकारत के साथ कहा -- बिरादरी में क्यों न
लेंगे;
हाँ, बूढ़ा रुपए नहीं
ख़रच करना चाहता।
इसको पैसा मिल जाय, तो झूठी गंगा उठा ले।
लड़का आजकल बाहर ओसारे में टिक्कड़
लगाता है।
' तू इसे
छोड़ क्यों नहीं देती?
अपनी बिरादरी में किसी के साथ
बैठ जा औरर आराम से रह।
वह तेरा अपमान तो न करेगा। '
' हाँ
रे, क्यों
नहीं, मेरे
पीछे उस बेचारे की इतनी दुरदशा हुई,
अब मैं उसे छोड़
दूँ।
अब वह चाहे पण्डित बन जाय चाहे
देवता बन जाय,
मेरे लिए तो वही मतई है, जो मेरे पैरों पर सिर
रगड़ा करता था; औरर
बाह्मण भी हो जाय औरर बाह्मणी से ब्याह भी
कर ले, फिर भी जितनी उसकी
सेवा मैंने की है, वह कोई बाह्मणी क्या करेगी।
अभी मान-मरजाद
के मोह में वह चाहे मुझे
छोड़ दे; लेकिन
देख लेना, फिर दौड़ा
आयेगा। '
' आ चुका अब।
तुझे पा जाय तो कच्चा ही खा
जाय। '
' तो उसे
बुलाने ही कौन जाता है।
अपना-अपना धरम अपने-अपने साथ है।
वह अपना धरम तोड़ रहा है, तो मैं अपना धरम
क्यों तोड़ूँ। '
प्रात:काल सिलिया सोनारी की ओर
चली; लेकिन होरी
ने रोक लिया।
धनिया के सिर में दर्द था।
उसकी जगह क्यारियों को बराना था।
सिलिया इनकार न कर सकी।
यहाँ से जब दोपहर को
छुट्टी मिली तो वह सोनारी चली।
इधर तीसरे पहर होरी फिर कुएँ पर
चला तो सिलिया का पता न था।
बिगड़कर बोला -- सिलिया कहाँ उड़ गई?
रहती है, रहती
है, न जाने किधर चल
देती है, जैसे
किसी काम में जी ही नहीं लगता।
तू जानती है सोना, कहाँ गयी है?
सोना ने बहाना किया।
मुझे तो कुछ मालूम
नहीं।
कहती थी,
धोबिन के घर कपड़े लेने जाना
है, वहीं चली गयी
होगी।
धनिया ने खाट से उठकर कहा -- चलो,
मैं क्यारी बराये देती हूँ।
कौन उसे मजूरी देते हो
जो उसे बिगड़ रहे हो।
' हमारे घर
में रहती नहीं है?
उसके पीछे सारे गाँव में
बदनाम नहीं हो रहे हैं? '
' अच्छा, रहने दो, एक कोने में पड़ी हुई
है, तो उससे
किराया लोगे? '
' एक कोने
में नहीं पड़ी हुई है, एक पूरी कोठरी लिये हुए
है। '
' तो उस
कोठरी का किराया होगा कोई पचास रुपए महीना!
'
' उसका किराया एक
पैसा सही।
हमारे घर में रहती है, जहाँ जाय पूछकर जाय।
आज आती है तो ख़बर लेता
हूँ। '
पुर चलने लगा।
धनिया को होरी ने न आने दिया।
रूपा क्यारी बराती थी।
औरर सोना मोट ले रही थी।
रूपा गीली मिट्टी के चूल्हे औरर
बरतन बना रही थी, औरर
सोना सशंक आँखों से सोनारी
की ओर ताक रही थी।
शंका भी थी,
आशा भी थी, शंका अधिक
थी, आशा कम।
सोचती थी,
उन लोगों को रुपए मिल रहे
हैं, तो
क्यों छोड़ने लगे।
जिनके पास पैसे हैं,
वे तो पैसे पर
औरर भी जान देते हैं।
औरर गौरी महतो तो एक ही लालची
हैं।
मथुरा में दया है, धरम है; लेकिन बाप की इच्छा जो होगी,
वही उसे माननी पड़ेगी;
मगर सोना भी बचा को
ऐसा फटकारेगी कि याद करेंगे।
वह साफ़ कहेगी,
जाकर किसी धनी की लड़की से ब्याह कर, तुझ-जैसे पुरुष के साथ मेरा निबाह
न होगा।
कहीं गौरी महतो मान गये,
तो वह उनके चरन
धो-धोकर पियेगी।
उनकी ऐसी सेवा करेगी कि अपने
बाप की भी न की होगी।
औरर सिलिया को भर-पेट मिठाई खिलायेगी।
गोबर ने उसे जो रुपया दिया था
उसे वह अभी तक संचे हुए थी।
इस मृदु कल्पना से उसकी
आँखें चमक उठीं औरर कपोलों
पर हलकी-सी लाली दौड़ गई।
मगर सिलिया अभी तक आयी क्यों
नहीं?
कौन बड़ी दूर है।
न आने दिया होगा उन
लोगों ने।
अहा!
वह आ रही है;
लेकिन बहुत धीरे-धीरे आती है।
सोना का दिल बैठ गया।
अभागे नहीं माने साइत, नहीं सिलिया दौड़ती आती।
तो सोना से हो चुका ब्याह।
मुँह धो रखो।
सिलिया आयी ज़रूर पर कुएँ पर न आकर
खेत में क्यारी बराने लगी।
डर रही थी, होरी
पूछेंगे कहाँ थी अब तक, तो क्या जवाब देगी।
सोना ने यह दो घंटे का
समय बड़ी मुश्किल से काटा।
पुर छूटते ही वह भागी हुई सिलिया
के पास पहुँची।
' वहाँ जाकर
तू मर गयी थी क्या!
ताकते-ताकते आँखें फूट
गयीं। '
सिलिया को बुरा लगा -- तो क्या मैं वहाँ
सोती थी।
इस तरह की बातचीत राह चलते थोड़े ही
हो जाती है।
अवसर देखना पड़ता है।
मथुरा नदी की ओर ढोर चराने
गये थे।
खोजती-खोजती
उसके पास गयी औरर तेरा सन्देसा कहा।
ऐसा परसन हुआ कि तुझसे क्या
कहूँ।
मेरे पाँव पर गिर पड़ा औरर
बोला -- सिल्लो,
मैंने तो जब
से सुना है कि सोना मेरे घर
में आ रही है, तब
से आँखों की नींद हर गयी है।
उसकी वह गालियाँ मुझे फल
गयीं; लेकिन काका
को क्या करूँ।
वह किसी की नहीं सुनते।
सोना ने टोका -- तो न सुनें।
सोना भी ज़िद्धिन है।
जो कहा है वह कर दिखायेगी।
फिर हाथ मलते रह जायँगे।
' बस उसी छन
ढोरों को वहीं छोड़, मुझे लिये हुए गौरी
महतो के पास गया।
महतो के चार पुर चलते
हैं।
कुआँ भी उन्हीं का है।
दस बीघे का ऊख है।
महतो को देख के मुझे
हँसी आ गयी।
जैसे कोई घसियारा हो।
हाँ, भाग का
बली है।
बाप-बेटे
में ख़ूब कहा-सुनी हुई।
गौरी महतो कहते थे, तुझसे क्या मतलब, मैं चाहे कुछ लूँ
या न लूँ; तू
कौन होता है बोलनेवाला।
मथुरा कहता था, तुमको लेना-देना है,
तो मेरा ब्याह मत करो, मैं अपना ब्याह जैसे
चाहूँगा कर लूँगा।
बात बढ़ गयी औरर गौरी महतो ने
पनहियाँ उतारकर मथुरा को ख़ूब पीटा।
कोई दूसरा लड़का इतनी मार खाकर बिगड़ खड़ा
होता।
मथुरा एक घूँसा भी जमा
देता, तो महतो
फिर न उठते; मगर
बेचारा पचासों जूते खाकर भी कुछ न
बोला।
आँखों में आँसू
भरे, मेरी ओर
ग़रीबों की तरह ताकता हुआ चला गया।
तब महतो मुझ पर बिगड़ने लगे।
सैकड़ों गालियाँ दीं;
मगर मैं क्यों
सुनने लगी थी।
मुझे उनका क्या डर था?
मैंने सफ़ा कह दिया -- महतो,
दो-तीन सौ कोई
भारी रक़म नहीं है,
औरर होरी महतो,
इतने में बिक न जायँगे, न तुम्हीं धनवान हो
जाओगे, वह सब धन
नाच-तमासे में ही
उड़ जायगा, हाँ, ऐसी बहू न पाओगे।
सोना ने सजल नेत्रों
से पूछा -- महतो
इतनी ही बात पर उन्हें मारने लगे?
सिलिया ने यह बात छिपा रक्खी थी।
ऐसी अपमान की बात सोना के
कानों में न डालना चाहती थी; पर यह प्रश्न सुनकर संयम न रख
सकी।
बोली -- वही
गोबर भैयावाली बात थी।
महतो ने कहा -- आदमी जूठा तभी खाता है जब मीठा हो।
कलंक चाँदी से ही धुलता है।
इस पर मथुरा बोला -- काका कौन घर कलंक से बचा हुआ
है।
हाँ, किसी का
खुल गया, किसी का छिपा
हुआ है।
गौरी महतो भी पहले एक चमारिन
से फँसे थे।
उससे दो लड़के भी हैं।
मथुरा के मुँह से इतना
निकलना था कि डोकरे पर जैसे भूत सवार
हो गया।
जितना लालची है, उतना ही क्रोधी भी है।
बिना लिये न मानेगा।
दोनों घर चलीं।
सोना के सिर पर चरसा, रस्सा औरर जुए का भारी बोझ
था; पर इस समय वह उसे
फूल से भी हल्का लग रहा था।
उसके अन्तस्तल में जैसे आनन्द
औरर स्फूर्ति का सोता खुल गया हो।
मथुरा की वह वीर मूर्ति सामने
खड़ी थी, औरर वह
जैसे उसे अपने हृदय में
बैठाकर उसके चरण आँसुओं से
पखार रही थी।
जैसे आकाश की देवियाँ उसे
गोद में उठाये आकाश में छाई हुई
लालिमा में लिये चली जा रही हों।
उसी रात को सोना को बड़े
ज़ोर का ज्वर चढ़ आया।
तीसरे दिन गौरी महतो ने नाई
के हाथ यह पत्र भेजा --
' स्वस्ती श्री
सर्वोपमा जोग श्री होरी महतो
को गौरीराम का राम-राम
बाँचना।
आगे जो हम लोगों
में दहेज की बातचीत हुई थी, उस पर हमने शान्त मन से विचार
किया, समझ में आया कि
लेन-देन से वर
औरर कन्या दोनों ही के घरवाले
जेरबार होते हैं।
जब हमारा-तुम्हारा सम्बन्ध हो गया, तो हमें ऐसा व्यवहार करना चाहिए
कि किसी को न अखरे।
तुम दान-दहेज की कोई फ़किर मत करना, हम तुमको सौगन्ध
देते हैं।
जो कुछ मोटा-महीन जुरे बरातियों को खिला
देना।
हम वह भी न माँगेंगे।
रसद का इन्तज़ाम हमने कर लिया है।
हाँ, तुम
ख़ुशी-खुर्रमी
से हमारी जो ख़ातिर करोगे वह सिर झुकाकर
स्वीकार करेंगे। '
होरी ने पत्र पढ़ा औरर दौड़े
हुए भीतर जाकर धनिया को सुनाया।
हर्ष के मारे उछला पड़ता था, मगर धनिया किसी विचार में
डूबी बैठी रही।
एक क्षण के बाद बोली -- यह गौरी महतो की भलमनसी है;
लेकिन हमें भी तो
अपने मरजाद का निबाह करना है।
संसार क्या कहेगा!
रुपया हाथ का मैल है।
उसके लिए कुल-मरजाद नहीं छोड़ा जाता।
जो कुछ हमसे हो
सकेगा, देंगे
औरर गौरी महतो को लेना पड़ेगा।
तुम यही जवाब लिख दो।
माँ-बाप की
कमाई में क्या लड़की का कोई हक़ नहीं
है?
नहीं, लिखना
क्या है, चलो,
मैं नाई से सन्देश
कहलाये देती हूँ।
होरी हतबुद्धि-सा आँगन में खड़ा था औरर धनिया
उस उदारता की प्रतिक्रिया में जो गौरी महतो
की सज्जनता ने जगा दी थी,
सन्देशा कह रही थी।
फिर उसने नाई को रस पिलाया औरर
बिदाई देकर बिदा किया।
वह चला गया तो होरी ने कहा
-- यह तूने क्या कर डाला
धनिया?
तेरा मिज़ाज आज तक मेरी समझ
में न आया।
तू आगे भी चलती है, पीछे भी चलती है।
पहले तो इस बात पर लड़ रही थी कि किसी
से एक पैसा करज़ मत लो, कुछ देने-दिलाने का काम नहीं है, औरर जब भगवान् ने
गौरी के भीतर पैठकर यह पत्र लिखवाया तो
तूने कुल-मरजाद का
राग छेड़ दिया।
तेरा मरम भगवान् ही जाने।
धनिया बोली -- मुँह देखकर बीड़ा दिया जाता
है, जानते हो कि
नहीं।
तब गौरी अपनी सान दिखाते
थे, अब वह भलमनसी दिखा
रहे हैं।
ईट का जवाब चाहे पत्थर हो; लेकिन सलाम का जवाब तो गली
नहीं है।
होरी ने नाक सिकोड़कर कहा -- तो दिखा अपनी भलमनसी।
देखें,
कहाँ से रुपए लाती है।
धनिया आँखें चमकाकर बोली
-- रुपए लाना मेरा काम
नहीं है, तुम्हारा
काम है। '
' मैं
तो दुलारी से ही लूँगा। '
' ले लो
उसी से।
सूद तो सभी लेंगे।
जब डूबना ही है, तो क्या तालाब औरर क्या गंगा। '
होरी बाहर आकर चिलम पीने लगा।
कितने मज़े से गला छूटा जाता
था; लेकिन धनिया जब जान
छोड़े तब तो।
जब देखो उल्टी ही चलती है।
इसे जैसे कोई भूत सवार
हो जाता है।
घर की दशा देखकर भी इसकी आँखें
नहीं खुलतीं।
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Recoded: 20 Sept. 1999 to 6 Oct 1999.
Chapter Twenty-four posted: 13 Oct. 1999.