यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
इन्स्टिट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़
लैंग्वजिज़ ऐंड कल्चर्ज़ ऑफ़
एशिया ऐंड ऐफ़्रिका
तोक्यो
यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ाॅरेन स्टडीज़
Mellon Project
प्रेमचन्द
गोदान
(Devanagari text reconstituted from Professor K. Machida's roman
transcription)
Chapter Twenty-two.
(unparagraphed text)
इधर कुछ दिनों से राय
साहब की कन्या के विवाह की बातचीत हो रही थी।
उसके साथ ही एलेक्शन भी सिर पर आ
पहुँचा था; मगर इन
सबों से आवश्यक उन्हें दीवानी
में एक मुक़दमा दायर करना था जिसकी
कोर्ट-फ़ीस ही पचास हज़ार
होती थी, ऊपर के
ख़र्च अलग।
राय साहब के साले जो अपनी रियासत
के एकमात्र स्वामी थे,
ऐन जवानी में मोटर लड़ जाने के
कारण गत हो गये थे, औरर राय साहब अपने कुमार पुत्र की
ओर से उस रियासत पर अधिकार पाने के लिए
क़ानून की शरण लेना चाहते थे।
उनके चचेरे सालों ने
रियासत पर कब्ज़ा जमा लिया था औरर राय साहब को
उसमें से कोई हिस्सा देने पर
तैयार न थे।
राय साहब ने बहुत चाहा कि आपस
में समझौता हो जाय औरर उनके
चचेरे साले माकूल गुज़ारा लेकर हट
जायें, यहाँ तक कि
वह उस रियासत की आधी आमदनी छोड़ने पर तैयार
थे; मगर सालों
ने किसी तरह का समझौता स्वीकार न किया, औरर केवल लाठी के ज़ोर
से रियासत में तहसील-वसूल शुरू कर दी।
राय साहब को अदालत की शरण जाने के
सिवा कोई मार्ग न रहा।
मुक़दमे में लाखों का
ख़र्च था; मगर रियासत भी
बीस लाख से कम की जायदाद न थी।
वकीलों ने निश्चय रूप से कह
दिया था कि आपकी शर्तिया डिग्री होगी।
ऐसा मौक़ा कौन छोड़ सकता
था?
मुश्किल यही था कि यह तीनों काम एक
साथ आ पड़े थे औरर उन्हें किसी तरह टाला न
जा सकता था।
कन्या की अवस्था १८ वर्ष की हो गयी थी
औरर केवल हाथ में रुपए न रहने का कारण अब
तक उसका विवाह टल जाता था।
ख़र्च का अनुमान एक लाख का था।
जिसके पास जाते, वही बड़ा-सा
मुँह खोलता; मगर
हाल में एक बड़ा अच्छा अवसर हाथ आ गया था।
कुँवर दिग्विजयसिंह की पत्नी
यक्ष्मा की भेंट हो चुकी थी, औरर कुँवर साहब अपने उजड़े घर
को जल्द से जल्द बसा लेना चाहते थे।
सौदा भी वारे से तय हो गया
औरर कहीं शिकार हाथ से निकल न जाय, इसलिए इसी लग्न में विवाह
होना परमावश्यक था।
कुँवर साहब दुर्वासनाओं
के भंडार थे।
शराब,
गाँजा, अफ़ीम, मदक,
चरस, ऐसा कोई नशा न
था, जो वह न करते
हों।
औरर ऐयाशी तो रईस की शोभा
है।
वह रईस ही क्या,
जो ऐयाश न हो।
धन का उपभोग औरर किया ही कैसे
जाय?
मगर इन सब दुर्गुणों के
होते हुए भी वह ऐसे प्रतिभावान्
थे कि
अच्छे-अच्छे विद्वान्
उनका लोहा मानते थे।
संगीत,
नाट्यकला, हस्तरेखा,
ज्योतिष, योग,
लाठी, कुश्ती, निशानेबाज़ी आदि कलाओं
में अपना जोड़ न रखते थे।
इसके साथ ही बड़े दबंग औरर
निर्भीक थे।
राष्ट्रीय आन्दोलन में दिल
खोलकर सहयोग देते थे; हाँ,
गुप्त रूप से।
अधिकारियों से यह बात छिपी न
थी, फिर भी उनकी बड़ी प्रतिष्ठा
थी औरर साल में एक-दो बार गवर्नर साहब भी उनके
मेहमान हो जाते थे।
औरर अभी अवस्था तीस-बत्तीस से अधिक न थी औरर स्वास्थ्य
तो ऐसा था कि अकेले एक बकरा खाकर हज़म कर
डालते थे।
राय साहब ने समझा, बिल्ली के भागों छींका टूटा।
अभी कुँवर साहब षोडशी से
निवृत्त भी न हुए थे कि राय साहब ने
बातचीत शुरू कर दी।
कुँवर साहब के लिए विवाह केवल
अपना प्रभाव औरर शक्ति बढ़ाने का साधन था।
राय साहब कौंसिल के मेम्बर
थे ही; यों भी
प्रभावशाली थे।
राष्ट्रीय संग्राम में
अपने त्याग का परिचय देकर श्रद्धा के पात्र भी
बन चुके थे।
शादी तय होने में कोई बाधा
न हो सकती थी।
औरर वह तय हो गयी।
रहा एलेक्शन।
यह सोने की हँसिया थी, जिसे न उगलते बनता था,
न निगलते।
अब तक वह दो बार निर्वाचित हो
चुके थे औरर दोनों ही बार उन पर
एक-एक लाख की चपत पड़ी थी;
मगर अबकी एक राजा साहब उसी इलाक़े
से खड़े हो गये थे औरर डंके
की चोट ऐलान कर दिया था कि चाहे हर एक वोटर
को एक-एक हज़ार ही
क्यों न देना पड़े, चाहे पचास लाख की रियासत मिट्टी
में मिल जाय; मगर
राय अमरपालसिंह को कौंसिल में न
जाने दूँगा।
औरर उन्हें अधिकारियों ने
अपनी सहायता का आश्वासन भी दे दिया था।
राय साहब विचारशील थे, चतुर थे,
अपना नफ़ा-नुक़सान
समझते थे; मगर
राजपूत थे।
औरर पोतड़ों के रईस थे।
वह चुनौती पाकर मैदान से
कैसे हट जायँ?
यों उनसे राजा
सूर्यप्रतापसिंह ने आकर कहा होता,
भाई साहब, आप तो दो बार कौंसिल
में जा चुके,
अबकी मुझे जाने दीजिए, तो शायद राय साहब ने उनका स्वागत किया
होता।
कौंसिल का मोह अब उन्हें न
था; लेकिन इस
चुनौती के सामने ताल ठोंकने
के सिवा औरर कोई राह ही न थी।
एक मसलहत औरर भी थी।
मिस्टर तंखा ने उन्हें विश्वास
दिलाया था कि आप खड़े हो जायँ, पीछे राजा साहब से एक लाख की
थैली लेकर बैठ जाइएगा।
उन्होंने यहाँ तक कहा था कि राजा
साहब बड़ी ख़ुशी से एक लाख दे
देंगे; मेरी
उनसे बातचीत हो चुकी है; पर अब मालूम हुआ, राजा साहब राय साहब को परास्त करने का
गौरव नहीं छोड़ना चाहते औरर इसका
मुख्य कारण था, राय साहब की
लड़की की शादी कुँवर साहब से ठीक होना।
दो प्रभावशाली घरानों का
संयोग वह अपनी प्रतिष्ठा के लिए हानिकारक
समझते थे।
उधर राय साहब को ससुराली ज़ायदाद
मिलने की भी आशा थी।
राजा साहब के पहलू में यह
काँटा भी बुरी तरह खटक रहा था।
कहीं वह ज़ायदाद इन्हें मिल गयी
-- औरर क़ानून राय साहब
के पक्ष में था ही --
तब तो राजा साहब का एक प्रतिद्वन्दी खड़ा हो
जायगा; इसलिए उनका धर्म
था कि राय साहब को कुचल डालें औरर उनकी
प्रतिष्ठा धूल में मिला दें।
बेचारे राय साहब बड़े संकट
नें पड़ गये थे।
उन्हें यह सन्देह होने लगा था
कि केवल अपना मतलब निकालने के लिए मिस्टर
तंखा ने उन्हें धोखा दिया।
यह ख़बर मिली थी कि अब राजा साहब के
पैरोकार हो गये हैं।
यह राय साहब के घाव पर नमक था।
उन्होंने कई बार तंखा को
बुलाया था; मगर वह या
तो घर पर मिलते ही न थे, या आने का वादा करके भूल जाते
थे।
आख़िर आज ख़ुद उनसे मिलने का इरादा
करके वह उनके पास जा पहुँचे।
संयोग से मिस्टर तंखा घर पर
मिल गये; मगर राय साहब
को पूरे घंटे-भर उनकी प्रतीक्षा करनी
पड़ी।
यह वही मिस्टर तंखा हैं, जो राय साहब के द्वार पर एक बार
रोज़ हाज़िरी दिया करते थे।
आज इतना मिज़ाज हो गया है।
जले बैठे थे।
ज्योंही मिस्टर तंखा
सजे-सजाये, मुँह में सिगार
दबाये कमरे में आये औरर हाथ बढ़ाया
कि राय साहब ने बमगोला छोड़ दिया -- मैं घंटे-भर से यहाँ बैठा हुआ
हूँ औरर आप
निकलते-निकलते अब निकले
हैं।
मैं इसे अपनी तौहीन समझता
हूँ!
मिस्टर तंखा ने एक सोफ़े पर
बैठकर निश्चिन्त भाव से धुआँ उड़ाते
हुए कहा -- मुझे इसका
खेद है।
मैं एक ज़रूरी काम में लगा था।
आपको फ़ोन करके मुझसे समय
ठीक कर लेना चाहिए था।
आग में घी पड़ गया; मगर राय साहब ने क्रोध को दबाया।
वह लड़ने न आये थे।
इस अपमान को पी जाने का ही अवसर था।
बोले --
हाँ, यह गलती हुई।
आजकल आपको बहुत कम फ़ुरसत रहती
है, शायद।
' जी हाँ,
बहुत कम, वरना मैं अवश्य आता। '
' मैं उसी
मुआमले के बारे में आप से
पूछने आया था।
समझौता की तो कोई आशा नहीं
मालूम होती।
उधर तो जंग की तैयारियाँ
बड़े ज़ोरों से हो रही
हैं। '
' राजा साहब
को तो आप जानते ही हैं, झक्कड़ आदमी हैं, पूरे सनकी।
कोई न कोई धुन उन पर सवार रहती
है।
आजकल यही धुन है कि राय साहब को
नीचा दिखाकर रहेंगे।
औरर उन्हें जब एक धुन सवार
हो जाती है, तो
फिर किसी की नहीं सुनते, चाहे कितना ही नुक़सान उठाना पड़े।
कोई चालीस लाख का बोझ सिर पर
है, फिर भी वही
दम-ख़म है, वही अलल्ले-तलल्ले ख़र्च हैं।
पैसे को तो कुछ समझते
ही नहीं।
नौकरों का वेतन छ:-छ: महीने से बाक़ी पड़ा हुआ
है; मगर हीरा-महल बन रहा है।
संगमरमर का तो फ़र्श है।
पच्चीकारी ऐसी हो रही है कि
आँखें नहीं ठहरतीं।
अफ़सरों के पास रोज़ डालियाँ
जाती रहती हैं।
सुना है,
कोई अँग्रेज़ मैनेजर रखने
वाले हैं। '
' फिर आपने
कैसे कह दिया था कि आप कोई समझौता करा
देंगे। '
' मुझसे
जो कुछ हो सकता था वह मैंने किया।
इसके सिवा मैं औरर क्या कर सकता
था।
अगर कोई व्यक्ति अपने दो-चार लाख रुपए फूँकने ही पर
तुला हुआ हो,
तो मेरा क्या बस! '
राय साहब अब क्रोध न सँभाल सके
-- ख़ासकर जब उन
दो-चार लाख रुपए
में से दस-बीस
हज़ार आपके हत्थे चढ़ने की भी आशा हो।
मिस्टर तंखा क्यों दबते।
बोले --
राय साहब, अब साफ़-साफ़ न कहलवाइए।
यहाँ न मैं संन्यासी
हूँ, न आप।
हम सभी कुछ न कुछ कमाने ही निकले
हैं।
आँख के अँधों औरर
गाँठ के पूरों की तलाश आपको भी
उतनी ही है, जितनी
मुझको।
आपसे मैंने खड़े
होने का प्रस्ताव किया।
आप एक लाख के लोभ से खड़े
हो गये; अगर गोटी
लाल हो जाती, तो आज
आप एक लाख के स्वामी होते औरर बिना एक पाई
क़रज़ लिये कुँवर साहब से सम्बन्ध भी हो
जाता औरर मुक़दमा भी दायर हो जाता; मगर आपके दुर्भाग्य से वह
चाल पट पड़ गयी।
जब आप ही ठाठ पर रह गये, तो मुझे क्या मिलता।
आख़िर मैंने झक मारकर उनकी
पूँछ पकड़ी।
किसी न किसी तरह यह वैतरणी तो पार करनी
ही है।
राय साहब को ऐसा आवेश आ रहा था कि
इस दुष्ट को गोली मार दें।
इसी बदमाश ने सब्ज़ बाग़ दिखाकर उन्हें
खड़ा किया औरर अब अपनी सफ़ाई दे रहा है, पीठ में धूल भी नहीं
लगने देता, लेकिन
परिस्थिति ज़बान बन्द किये हुए थी।
' तो अब
आपके किये कुछ नहीं हो सकता? '
' ऐसा ही
समझिए। '
' मैं
पचास हज़ार पर भी समझौता करने को तैयार
हूँ। '
' राजा साहब किसी
तरह न मानेंगे। '
' पच्चीस हज़ार पर
तो मान जायँगे? '
' कोई आशा
नहीं।
वह साफ़ कह चुके हैं। '
' वह कह
चुके हैं या आप कह रहे हैं। '
' आप
मुझे झूठा समझते हैं? '
राय साहब ने विनम्र स्वर में कहा
-- मैं आपको
झूठा नहीं समझता;
लेकिन इतना ज़रूर समझता हूँ कि आप
चाहते, तो
मुआमला हो जाता। '
' तो आप का
ख़्याल है,
मैंने समझौता नहीं होने
दिया? '
' नहीं,
यह मेरा मतलब नहीं है।
मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि
आप चाहते तो काम हो जाता औरर मैं
इस झमेले में न पड़ता। '
मिस्टर तंखा ने घड़ी की तरफ़ देखकर कहा
-- तो राय साहब, अगर आप साफ़ कहलाना चाहते
हैं, तो सुनिए
-- अगर आपने दस हज़ार का
चेक मेरे हाथ में रख दिया
होता, तो आज
निश्चय एक लाख के स्वामी होते।
आप शायद चाहते होंगे,
जब आपको राजा साहब से रुपए
मिल जाते, तो आप
मुझे हज़ार-दो-हज़ार दे
देते।
तो मैं ऐसी कच्ची गोली
नहीं खेलता।
आप राजा साहब से रुपए लेकर तिजोरी
में रखते औरर मुझे अँगूठा
दिखा देते।
फिर मैं आपका क्या बना
लेता?
बतलाइए?
कहीं नालिश-फ़रियाद भी तो नहीं कर सकता था।
राय साहब ने आहत नेत्रों से
देखा -- आप मुझे
इतना बेईमान समझते हैं?
तंखा ने कुरसी से उठते
हुए कहा -- इसे
बेईमानी कौन समझता है।
आजकल यही चतुराई है।
कैसे दूसरों को उल्लू
बनाया जा सके, यही सफल
नीति है; औरर आप
इसके आचार्य हैं।
राय साहब ने मुट्ठी बाँधकर कहा
-- मैं?
' जी हाँ,
आप!
पहले चुनाव में
मैंने जी-जान
से आपकी पैरवी की।
आपने बड़ी मुश्किल से रो
धोकर पाँच सौ रुपए दिये, दूसरे चुनाव में आपने
एक सड़ी-सी टूटी-फूटी कार देकर अपना गला छुड़ाया।
दूध का जला छाँछ भी
फूँक-फूँककर पीता
है। '
वह कमरे से निकल गये औरर कार
लाने का हुक्म दिया?
राय साहब का ख़ून खौल रहा था।
इस अशिष्टता की भी कोई हद है।
एक तो घंटे-भर इन्तज़ार कराया औरर अब इतनी
बेमुरौवती से पेश आकर उन्हें
ज़बरदस्ती घर से निकाल रहा है; अगर उन्हें विश्वास होता कि वह मिस्टर
तंखा को पटकनी दे सकते हैं,
तो कभी न चूकते;
मगर तंखा डील-डौल में उनसे सवाये
थे।
जब मिस्टर तंखा ने हार्न
बजाया, तो वह भी आकर
अपनी कार पर बैठे औरर सीधे मिस्टर खन्ना
के पास पहुँचे।
नौ बज रहे थे; मगर खन्ना साहब अभी तक मीठी नींद का आनन्द
ले रहे थे।
वह दो बजे रात के पहले कभी न
सोते थे औरर नौ बजे तक सोना
स्वाभाविक ही था।
यहाँ भी राय साहब को आधा घंटा
बैठना पड़ा; इसलिए जब
कोई साढ़े नौ बजे मिस्टर खन्ना
मुस्कराते हुए निकले तो राय साहब ने
डाँट बताई -- अच्छा!
अब सरकार की नींद खुली है, साढ़े नौ बजे।
रुपए जमा कर लिये हैं न, जभी यह बेफ़क्रिी है।
मेरी तरह तालुक्केदार
होते, तो अब तक
आप भी किसी द्वार पर खड़े होते।
बैठे-बैठे सिर
में चक्कर आ जाता।
मिस्टर खन्ना ने सिगरेट-केस उनकी तरफ़ बढ़ाते हुए
प्रसन्न मुख से कहा --
रात सोने में बड़ी देर हो गयी।
इस वक़्त किधर से आ रहे
हैं?
राय साहब ने थोड़े से
शब्दों में अपनी सारी कठिनाइयाँ बयान कर
दीं।
दिल में खन्ना को गालियाँ
देते थे, जो
उनका सहपाठी होकर भी सदैव उन्हें ठगने की
फ़क्रि किया करता था; मगर
मुँह पर उसकी ख़ुशामद करते थे।
खन्ना ने ऐसा भाव बनाया, मानो उन्हें बड़ी चिन्ता हो
गयी है, बोले
-- मेरी तो सलाह
है; आप एलेक्शन को
गोली मारें,
औरर अपने सालों पर मुक़दमा दायर कर
दें।
रही शादी, वह
तो तीन दिन का तमाशा है।
उसके पीछे ज़ेरबार होना
मुनासिब नहीं।
कुँवर साहब मेरे दोस्त
हैं,
लेन-देन का कोई
सवाल न उठने पायेगा।
राय साहब ने व्यंग करके कहा
-- आप यह भूल जाते
हैं।
मिस्टर खन्ना कि मैं बैंकर
नहीं, ताल्लुक़ेदार
हूँ।
कुँवर साहब दहेज नहीं
माँगते, उन्हें
ईश्वर ने सब कुछ दिया है, लेकिन आप जानते हैं, यह मेरी अकेली लड़की है औरर
उसकी माँ मर चुकी है।
वह आज ज़िन्दा होती तो शायद सारा घर
लुटाकर भी उसे सन्तोष न होता।
तब शायद मैं उसे हाथ रोककर
ख़र्च करने का आदेश देता; लेकिन अब तो मैं उसकी माँ
भी हूँ, बाप भी
हूँ।
अगर मुझे अपने हृदय का रक्त
निकालकर भी देना पड़े,
तो मैं ख़ुशी से दे दूँगा।
इस विधुर-जीवन में मैंने
सन्तान-प्रेम में ही
अपनी आत्मा की प्यास बुझाई है।
दोनों बच्चों के प्यार
में ही अपने पत्नी-व्रत का पालन किया है।
मेरे लिए यह असम्भव है कि इस शुभ
अवसर पर अपने दिल के अरमान न निकालूँ।
मैं अपने मन को तो समझा
सकता हूँ पर जिसे मैं पत्नी का आदेश
समझता हूँ, उसे
नहीं समझाया जा सकता।
औरर एलेक्शन के मैदान से
भागना भी मेरे लिए सम्भव नहीं है।
मैं जानता हूँ, मैं हारूँगा।
राजा साहब से मेरा कोई मुकाबला
नहीं; लेकिन राजा साहब
को इतना ज़रूर दिखा देना चाहता हूँ कि
अमरपालसिंह नर्म चारा नहीं है।
' औरर
मुक़दमा दायर करना तो आवश्यक ही है? '
' उसी पर तो
सारा दारोमदार है।
अब आप बतलाइए,
आप मेरी क्या मदद कर सकते हैं? '
' मेरे
डाइरेक्टरों का इस विषय में जो
हुक्म है, वह आप
जानते हैं।
औरर राजा साहब भी हमारे डाइरेक्टर
हैं, यह भी आपको
मालूम है।
पिछला वसूल करने के लिए
बार-बार ताकीद हो रही है।
कोई नया मुआमला तो शायद ही
हो सके। '
राय साहब ने मुँह लटकाकर कहा
-- आप तो मेरा
डोंगा ही डुबाये देते हैं
मिस्टर खन्ना!
' मेरे
पास जो कुछ निज का है, वह आपका है;
लेकिन बैंक के मुआमले में
तो मुझे अपने स्वामियों के
आदेशों को मानना ही पड़ेगा। '
' अगर यह ज़ायदाद
हाथ आ गयी, औरर
मुझे इसकी पूरी आशा है, तो पाई-पाई अदा
कर दूँगा। '
' आप बतला
सकते हैं, इस वक़्त
आप कितने पानी में हैं? '
राय साहब ने हिचकते हुए कहा
-- पाँच-छ: लाख समझिए।
कुछ कम ही होंगे।
खन्ना ने अविश्वास के भाव से
कहा -- या तो आपको याद
नहीं है, या आप छिपा
रहे हैं।
राय साहब ने ज़ोर देकर कहा
-- जी नहीं, मैं न भूला
हूँ, औरर न छिपा रहा
हूँ।
मेरी ज़ायदाद इस वक़्त कम से कम पचास
लाख की है औरर ससुराल की ज़ायदाद भी इससे कम
नहीं है।
इतनी ज़ायदाद पर दस-पाँच लाख का बोझ कुछ नहीं के
बराबर है।
' लेकिन यह
आप कैसे कह सकते हैं कि ससुरालवाली
ज़ायदाद पर भी क़रज़ नहीं है। '
' जहाँ तक
मुझे मालूम है, वह ज़ायदाद बे-दाग़ है। '
' औरर
मुझे यह सूचना मिली है कि उस ज़ायदाद पर दस
लाख से कम का भार नहीं है।
उस ज़ायदाद पर तो अब कुछ मिलने
से रहा, औरर आपकी
ज़ायदाद पर भी मेरे ख़याल में दस लाख से
कम देना नहीं है।
औरर वह ज़ायदाद अब पचास लाख की नहीं
मुश्किल से पचीस लाख की है।
इस दशा में कोई बैंक
आपको क़रज़ नहीं दे सकता।
यों समझ लीजिए कि आप ज्वालामुखी
के मुख पर खड़े हैं।
एक हल्की सी ठोकर आपको पाताल में
पहुँचा सकती है।
आपको इस मौक़े पर बहुत
सँभलकर चलना चाहिए। '
राय साहब ने उनका हाथ अपनी तरफ़ खींचकर
कहा -- यह सब मैं
ख़ूब समझता हूँ,
मित्रवर!
लेकिन जीवन की ट्रैजेडी औरर
इसके सिवा क्या है कि आपकी आत्मा जो काम करना
नहीं चाहती, वही आपको
करना पड़े।
आपको इस मौक़े पर मेरे लिए
कम से कम दो लाख का इन्तज़ाम करना पड़ेगा।
खन्ना ने लम्बी साँस लेकर कहा
-- माई गाड!
दो लाख।
असम्भव,
बिलकुल असम्भव!
' मैं
तुम्हारे द्वार पर सर पटककर प्राण दे
दूँगा, खन्ना इतना
समझ लो।
मैंने तुम्हारे ही
भरोसे यह सारे प्रोग्राम बाँधे
हैं।
अगर तुमने निराश कर दिया, तो शायद मुझे ज़हर खा
लेना पड़े।
मैं सूर्यप्रतापसिंह के
सामने घुटने नहीं टेक सकता।
कन्या का विवाह अभी दो चार महीने टल सकता
है।
मुक़दमा दायर करने के लिए अभी काफ़ी वक़्त
है; लेकिन यह
एलेक्शन सिर पर आ गया है, औरर मुझे सबसे बड़ी फ़क्रि यही
है। '
खन्ना ने चकित होकर कहा -- तो आप एलेक्शन में
दो लाख लगा देंगे?
' एलेक्शन का
सवाल नहीं है भाई, यह
इज़्ज़त का सवाल है।
क्या आपकी राय में मेरी इज़्ज़त दो
लाख की भी नहीं।
मेरी सारी रियासत बिक जाय, ग़म नहीं; मगर सूर्यप्रतापसिंह को
मैं आसानी से विजय न पाने
दूँगा। '
खन्ना ने एक मिनट तक धुआँ
निकालने के बाद कहा --
बैंक की जो स्थिति है वह मैंने
आपको सामने रख दी।
बैंक ने एक तरह से
लेन-देन का काम बन्द कर
दिया है।
मैं कोशिश करूँगा कि आपके
साथ ख़ास रिआयत की जाय;
लेकिन < b:Øes:n:ðss="" es=""> यह आप
जानते हैं।
> पर मेरा कमीशन क्या रहेगा?
मुझे आपके लिए ख़ास तौर पर
सिफ़ारिश करनी पड़ेगी; राजा
साहब का अन्य डाइरेक्टरों पर कितना प्रभाव
है, यह भी आप जानते
हैं।
मुझे उनके ख़िलाफ़ गुट-बन्दी करनी पड़ेगी।
यों समझ लीजिए कि मेरी
ज़िम्मेदारी पर ही मुआमला होगा।
राय साहब का मुँह गिर गया।
खन्ना उनके अन्तरंग मित्रों
में थे।
साथ के पढ़े हुए, साथ के बैठनेवाले।
औरर यह उनसे कमीशन की आशा रखते
हैं, इतने
बेमुरव्वती?
आख़िर वह जो इतने दिनों से
खन्ना की ख़ुशामद करते हैं, वह किस दिन के लिए?
बाग़ में फल निकले, शाक-भाजी
पैदा हो, सब से
पहले खन्ना के पास डाली भेजते
हैं।
कोई उत्सव हो, कोई जलसा हो, सबसे पहले खन्ना को निमन्त्रण
देते हैं।
उसका यह जवाब हो।
उदास मन से बोले -- आपकी जो इच्छा हो; लेकिन मैं आपको अपना
भाई समझता था।
खन्ना ने कृतज्ञता के भाव से कहा
-- यह आपकी कृपा है।
मैंने भी सदैव आपको अपना
बड़ा भाई समझा है औरर अब भी समझता हूँ।
कभी आपसे कोई पर्दा नहीं
रखा, लेकिन व्यापार एक
दूसरा क्षेत्र है।
यहाँ कोई किसी का दोस्त
नहीं, कोई किसी का भाई
नहीं।
जिस तरह मैं भाई के नाते
आपसे यह नहीं कह सकता कि मुझे
दूसरों से ज़्यादा कमीशन दीजिए, उसी तरह आपको भी मेरे
कमीशन में रियायत के लिए आग्रह न करना
चाहिए।
मैं आपको विश्वास दिलाता
हूँ, कि मैं
जितनी रिआयत आप के साथ कर सकता हूँ, उतना करूँगा।
कल आप दफ़्तर के वक़्त आयें औरर
लिखा-पढ़ी कर लें।
बस, बिजनेस
ख़त्म।
आपने कुछ औरर सुना!
मेहता साहब आजकल मालती पर
बे-तरह रीझे हुए
हैं।
सारी फ़लिासफ़ी निकल गयी।
दिन में एक-दो बार ज़रूर हाज़िरी दे आते
हैं, औरर शाम
को अक्सर दोनों साथ-साथ सैर करने निकलते हैं।
यह तो मेरी ही शान थी कि कभी मालती
के द्वार पर सलामी करने न गया।
शायद अब उसी की कसर निकाल रही है।
कहाँ तो यह हाल था कि जो कुछ
हैं, मिस्टर खन्ना
हैं।
कोई काम होता, तो खन्ना के पास दौड़ी आती।
जब रुपयों की ज़रूरत पड़ती तो
खन्ना के नाम पुरज़ा आता।
औरर कहाँ अब मुझे देखकर
मुँह फेर लेती हैं।
मैंने ख़ास उन्हीं के लिए
फ़्र:ांस से एक घड़ी मँगवाई थी।
बड़े शौक़ से लेकर गया;
मगर नहीं ली।
अभी कल मेवों की डाली भेजी थी
-- काश्मीर से
मँगवाये थे --
वापस कर दी।
मुझे तो आश्चर्य होता
है कि आदमी इतनी जल्द कैसे इतना बदल जाता है।
राय साहब मन में तो उनकी
बेक़द्री पर ख़ुश हुए; पर सहानुभूति दिखाकर बोले
-- अगर यह भी मान लें
कि मेहता से उसका प्रेम हो गया है,
तो भी व्यवहार तोड़ने का
कोई कारण नहीं है।
खन्ना व्यथित स्वर में बोले
-- यही तो रंज है
भाई साहब!
यह तो मैं शुरू से जानता
था वह मेरे हाथ नहीं आ सकती!
मैं आप से सत्य कहता
हूँ, मैं कभी
इस धोखे में नहीं पड़ा कि मालती को
मुझसे प्रेम है।
प्रेम-जैसी
चीज़ उनसे मिल सकती है, इसकी मैंने कभी आशा ही नहीं की।
मैं तो केवल उनके रूप का
पुजारी था।
साँप में विष है, यह जानते हुए भी हम उसे
दूध पिलाते हैं।
तोते से ज़्यादा निठुर जीव
औरर कौन होगा;
लेकिन केवल उसके रूप औरर वाणी पर मुग्ध
होकर लोग उसे पालते हैं औरर
सोने के पिंजरे में रखते
हैं।
मेरे लिए भी मालती उसी तोते
के समान थी।
अफ़सोस यही है कि मैं पहले
क्यों न चेत गया।
इसके पीछे मैंने अपने
हज़ारों रुपए बरबाद कर दिये भाई साहब!
जब उसका रुक्का पहुँचा, मैंने तुरन्त रुपए भेजे।
मेरी कार आज भी उसकी सवारी में
है।
उसके पीछे मैंने अपना घर
चौपट कर दिया भाई साहब!
हृदय में जितना रस था, वह ऊसर की ओर इतने वेग
से दौड़ा कि दूसरी तरफ़ का उद्यान बिलकुल
सूखा रह गया।
बरसों हो गये, मैंने गोविन्दी से
दिल खोलकर बात भी नहीं की।
उसकी सेवा औरर स्नेह औरर त्याग
से मुझे उसी तरह अरुचि हो गयी थी, जैसे अजीर्ण के रोगी
को मोहनभोग से हो जाती है।
मालती मुझे उसी तरह नचाती थी,
जैसे मदारी बन्दर को
नचाता है।
औरर मैं ख़ुशी से नाचता था।
वह मेरा अपमान करती थी औरर मैं
ख़ुशी से हँसता था।
वह मुझ पर शासन करती थी औरर
मैं सिर झुकाता था।
उसने मुझे कभी मुँह
नहीं लगाया, यह
मैं स्वीकार करता हूँ।
उसने मुझे कभी प्रोत्साहन
नहीं दिया, यह भी सत्य
है, फिर भी मैं
पतंग की भाँति उसके मुख-दीप पर प्राण देता था।
औरर अब वह मुझसे शिष्टाचार का
व्यवहार भी नहीं कर सकती!
लेकिन भाई साहब!
मैं कहे देता हूँ कि
खन्ना चुप बैठनेवाला आदमी नहीं है।
उसके पुरज़े मेरे पास
सुरक्षित हैं;
मैं उससे एक-एक पाई
वसूल कर लूँगा,
औरर डाक्टर मेहता को तो मैं लखनऊ
से निकालकर दम लूँगा।
उनका रहना यहाँ असम्भव कर दूँगा ।।।
उसी वक़्त हार्न की आवाज़ आयी औरर एक क्षण
में मिस्टर मेहता आकर खड़े हो गये।
गोरा चिट्टा रंग, स्वास्थ्य की लालिमा गालों पर चमकती
हुई, नीची अचकन, चूड़ीदार पाजामा, सुनहली ऐनक।
सौम्यता के देवता-से लगते थे।
खन्ना ने उठकर हाथ मिलाया -- आइए मिस्टर मेहता, आप ही का ज़िकर हो रहा था।
मेहता ने दोनों
सज्जनों से हाथ मिलाकर कहा -- बड़ी अच्छी साइत में घर से चला था कि
आप दोनों साहबों से एक ही जगह
भेंट हो गयी।
आपने शायद पत्रों में
देखा होगा, यहाँ
महिलाओं के लिए एक व्यायामशाला का आयोजन
हो रहा है।
मिस मालती उस कमेटी की सभानेत्री
हैं।
अनुमान किया गया है कि शाला में
दो लाख रुपए लगेंगे।
नगर में उसकी कितनी ज़रूरत है,
यह आप लोग मुझसे
ज़्यादा जानते हैं।
मैं चाहता हूँ आप
दोनों साहबों का नाम सबसे ऊपर
हो।
मिस मालती ख़ुद आनेवाली थीं;
पर पर आज उनके फ़ादर की तबीयत
अच्छी नहीं है, इसलिए न
आ सकीं।
उन्होंने चन्दे की सूची राय
साहब के हाथ में रख दी।
पहला नाम राजा सूर्यप्रतापसिंह का था
जिसके सामने पाँच हज़ार रुपए की रक़म थी।
उसके बाद कुँवर
दिग्विजयसिंह के तीन हज़ार रुपए थे।
इसके बाद औरर कई रक़में इतनी या
इससे कुछ कम थी।
मालती ने पाँच सौ रुपये
दिये थे औरर डाक्टर मेहता ने एक हज़ार रुपए।
राय साहब ने अप्रतिभ होकर कहा -- कोई चालीस हज़ार तो आप
लोगों ने फटकार लिये।
मेहता ने गर्व से कहा
-- यह सब आप
लोगों की दया है।
औरर यह केवल तीन घंटों का
परिश्रम है।
राजा सूर्यप्रतापसिंह ने शायद ही
किसी सार्वजनिक कार्य में भाग लिया
हो; पर आज तो
उन्होंने बे-कहे-सुने
चेक लिख दिया!
देश में जागृति है।
जनता किसी भी शुभ काम में
सहयोग देने को तैयार है।
केवल उसे विश्वास होना चाहिए कि
उसके दान का सद्व्यय होगा।
आपसे तो मुझे बड़ी आशा
है, मिस्टर खन्ना!
खन्ना ने उपेक्षा-भाव से कहा --
मैं ऐसे फ़जूल के कामों
में नहीं पड़ता।
न जाने आप लोग पच्छिम की ग़ुलामी
में कहाँ तक जायँगे।
यों ही महिलाओं को घर
से अरुचि हो रही है।
व्यायाम की धुन सवार हो गयी, तो वह कहीं की न रहेंगी।
जो औररत घर का काम करती है,
उसके लिए किसी व्यायाम की ज़रूरत
नहीं।
औरर जो घर का कोई काम नहीं करती
औरर केवल भोग-विलास में रत है, उसके व्यायाम के लिए चन्दा देना
मैं अधर्म समझता हूँ।
मेहता ज़रा भी निरुत्साह न हुए -- ऐसी दशा में मैं
आपसे कुछ माँगूँगा भी नहीं।
जिस आयोजन में हमें
विश्वास न हो उसमें किसी तरह की मदद देना
वास्तव में अधर्म है।
आप तो मिस्टर खन्ना से सहमत नहीं
हैं राय साहब!
राय साहब गहरी चिन्ता में डूबे
हुए थे।
सूर्यप्रताप के पाँच हज़ार
उन्हें हतोत्साह किये डालते थे।
चौंककर बोले -- आपने मुझसे कुछ
कहा?
' मैंने कहा, आप तो इस आयोजन में
सहयोग देना अधर्म नहीं
समझते? '
' जिस काम
में आप शरीक हैं, वह धर्म है या अधर्म, इसकी मैं परवाह नहीं
करता। '
' मैं
चाहता हूँ, आप ख़ुद
विचार करें।
औरर अगर आप इस आयोजन को समाज
के लिए उपयोगी समझें, तो उसमें सहयोग दें।
मिस्टर खन्ना की नीति मुझे बहुत
पसन्द आयी। '
खन्ना बोले -- मैं तो साफ़ कहता हूँ औरर
इसीलिए बदनाम हूँ।
राय साहब ने दुर्बल मुस्कान
के साथ कहा -- मुझ
में तो विचार करने की शक्ति है नहीं।
सज्जनों के पीछे चलना ही
मैं अपना धर्म समझता हूँ।
' तो लिखिए
कोई अच्छी रक़म। '
' जो
कहिए, वह लिख दूँ।
'
' जो आप की
इच्छा। '
' आप जो
कहिए, वह लिख दूँ।
'
' तो दो
हज़ार से कम क्या लिखिएगा। '
राय साहब ने आहत स्वर में कहा
-- आपकी निगाह में
मेरी यही हैसियत है?
उन्होंने क़लम उठाया औरर अपना
नाम लिखकर उसके सामने पाँच हज़ार लिख दिये।
मेहता ने सूची उनके हाथ से
ले ली; मगर उन्हें
इतनी ग्लानि हुई कि राय साहब को धन्यवाद देना भी
भूल गये।
राय साहब को चन्दे की सूची दिखाकर
उन्होंने बड़ा अनर्थ किया, यह शूल उन्हें व्यथित करने लगा।
मिस्टर खन्ना ने राय साहब को दया
औरर उपहास की दृष्टि से देखा, मानो कह रहे हों,
कितने बड़े गधे हो
तुम!
सहसा मेहता राय साहब के गले लिपट
गये औरर उन्मुक्त कंठ से बोले
-- Three cheers for Sahib! Hip hip hurrah!
खन्ना ने खिसियाकर कहा -- यह लोग राजे-महराजे ठहरे,
यह इन कामों में दान न दें,
तो कौन दे।
मेहता बोले -- मैं तो आपको राजाओं का
राजा समझता हूँ।
आप उन पर शासन करते हैं।
उनकी कोठी आपके हाथ में है।
राय साहब प्रसन्न हो गये -- यह आपने बड़े मार्के की
बात कही मेहता जी!
हम नाम के राजा हैं।
असली राजा तो हमारे बैंकर
हैं।
मेहता ने खन्ना की ख़ुशामद का
पहलू अख़्तियार किया --
मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है
खन्नाजी!
आप अभी इस काम में नहीं शरीक
होना चाहते, न
सही, लेकिन कभी न कभी ज़रूर
आयेंगे।
लक्ष्मीपतियों की बदौलत ही हमारी
बड़ी-बड़ी संस्थाएँ चलती
हैं।
राष्ट्रीय आन्दोलन को
दो-तीन साल तक किसने
इतनी धूम-धाम से
चलाया!
इतनी धर्मशालायें औरर
पाठशालायें कौन बनवा रहा है?
आज संसार का शासन-सूत्र बैंकरों के हाथ
में है।
सरकार उनके हाथ का खिलौना है।
मैं भी आपसे निराश नहीं
हूँ।
जो व्यक्ति राष्ट्र के लिए जेल
जा सकता है उसके लिए दो-चार हज़ार ख़र्च कर देना कोई बड़ी बात
नहीं है।
हमने तय किया है, इस शाला का बुनियादी पत्थर गोविन्दी
देवी के हाथों रखा जाय।
हम दोनों शीघ्र ही गवर्नर
साहब से भी मिलेंगे औरर मुझे
विश्वास है,
हमें उनकी सहायता मिल जायगी।
लेडी विलसन को महिला-आन्दोलन से कितना प्रेम
है, आप जानते ही
हैं।
राजा साहब की ओर अन्य सज्जनों की भी
राय थी कि लेडी विलसन से ही बुनियाद रखवाई
जाय; लेकिन अन्त
में यही निश्चय हुआ कि यह शुभ कार्य
किसी अपनी बहन के हाथों होना चाहिए।
आप कम-से-कम इस अवसर
पर आयेंगे तो ज़रूर?
खन्ना ने उपहास किया -- हाँ, जब लाई
विलसन आयेंगे तो मेरा
पहुँचना ज़रूरी ही है।
इस तरह आप बहुत-से रईसों को फाँस
लेंगे।
आप लोगों को लटके
ख़ूब सूझते हैं।
औरर हमारे रईस हैं भी इस लायक़।
उन्हें उल्लू बनाकर ही मूँड़ा जा
सकता है।
' जब धन ज़रूरत
से ज़्यादा हो जाता है, तो अपने लिए निकाल का मार्ग
खोजता है।
यों न निकल पायगा तो जुए
में जायगा,
घुड़दौड़ में जायगा, ईट-पत्थर में
जायगा, या ऐयाशी
में जायगा। '
ग्यारह का अमल था।
खन्ना साहब के दफ़्तर का समय आ गया।
मेहता चले गये।
राय साहब भी उठे कि खन्ना ने उनका हाथ
पकड़कर बैठा लिया --
नहीं, आप ज़रा बैठिए।
आप देख रहे हैं, मेहता ने मुझे इस
बुरी तरह फाँसा है कि निकलने का कोई रास्ता
ही नहीं रहा।
गोविन्दी से बुनियाद का पत्थर
रखवायेंगे!
ऐसी दशा में मेरा अलग रहना
हास्यास्पद है या नहीं।
गोविन्दी कैसे राज़ी हो
गयी; मेरी समझ
में नहीं आता औरर मालती ने
कैसे उसे सहन कर
लिया, यह समझना औरर
भी कठिन है।
आपका क्या ख़याल है, इसमें कोई रहस्य है या
नहीं?
राय साहब ने आत्मीयता जताई -- ऐसे मुआमले
में स्त्री को हमेशा पुरुष से सलाह
ले लेनी चाहिए!
खन्ना ने राय साहब को धन्यवाद की
आँखों से देखा -- इन्हीं बातों पर गोविन्दी से
मेरा जी जलता है,
औरर उस पर मुझी को लोग बुरा कहते
हैं।
आप ही सोचिए,
मुझे इन झगड़ों से क्या मतलब।
इनमें तो वह पड़े, जिसके पास फ़ालतू रुपए
हों, फ़ालतू समय
हो औरर नाम की हवस हो।
होना यही है कि दो-चार महाशय सेक्रेटरी औरर अंडर
सेक्रेटरी औरर प्रधान औरर उपप्रधान बनकर
अफ़सरों को दावतें
देंगे, उनके
कृपापात्र बनेंगे औरर
यूनिवर्सिटी की छोकरियों को जमा
करके बिहार करेंगे।
व्यायाम तो केवल दिखाने के
दाँत हैं।
ऐसी संस्था में हमेशा यही
होता है औरर यही होगा औरर उल्लू
बनेंगे हम,
औरर हमारे भाई, जो
धनी कहलाते हैं औरर यह सब गोविन्दी
के कारण।
वह एक बार कुरसी से उठे, फिर बैठ गये।
गोविन्दी के प्रति उनका क्रोध प्रचंड
होता जाता था।
उन्होंने दोनों हाथ
से सिर को सँभालकर कहा -- मैं नहीं समझता, मुझे क्या करना चाहिए।
राय साहब ने ठकुर-सोहाती की --
कुछ नहीं, आप
गोविन्दी देवी से साफ़ कह दें, तुम मेहता को इनकारी ख़त
लिख दो, छुट्टी
हुई।
मैं तो लाग-डाँट में फँस गया।
आप क्यों फँसें?
खन्ना ने एक क्षण इस प्रस्ताव पर विचार
करके कहा -- लेकिन
सोचिए, कितना मुश्किल
काम है।
लेडी विलसन से इसका ज़िकर आ चुका
होगा, सारे शहर
में ख़बर फैल गयी होगी औरर शायद आज
पत्रों में भी निकल जाय।
यह सब मालती की शरारत है।
उसीने मुझे ज़िच करने का यह
ढंग निकाला है।
' हाँ,
मालूम तो यही होता
है। '
' वह मुझे
ज़लील करना चाहती है। '
' आप शिलान्यास
के एक दिन पहले बाहर चले जाइएगा। '
' मुश्किल
है राय साहब!
कहीं मुँह दिखाने की जगह न
रहेगी।
उस दिन तो मुझे हैज़ा भी हो
जाय तो वहाँ जाना पड़ेगा। '
राय साहब आशा बाँधे हुए कल आने
का वादा करके ज्यों ही निकले कि खन्ना ने
अन्दर जा कर गोविन्दी को आड़े हाथों लिया
-- तुमने इस
व्यायामशाला की नींव रखना क्यों स्वीकार
किया?
गोविन्दी कैसे कहे कि यह सम्मान
पाकर वह मन में कितनी प्रसन्न हो रही थी,
उस अवसर के लिए कितने
मनोनियोग से अपना भाषण लिख रही थी औरर
कितनी ओजभरी कविता रची थी।
उसने दिल में समझा था, यह प्रस्ताव स्वीकार करके वह खन्ना
को प्रसन्न कर देगी।
उसका सम्मान तो उसके पति ही का सम्मान
है।
खन्ना को इसमें कोई आपत्ति
हो सकती है, इसकी
उसने कल्पना भी न की थी।
इधर कई दिन से पति को कुछ सदय
देखकर उसका मन बढ़ने लगा था।
वह अपने भाषण से, औरर अपनी कविता से लोगों
को मुग्ध कर देने का स्वप्न देख रही थी।
यह प्रश्न सुना औरर खन्ना की
मुद्रा देखी,
तो उसकी छाती धक-धक
करने लगी।
अपराधी की भाँति बोली -- डाक्टर मेहता ने आग्रह
किया, तो
मैंने स्वीकार कर लिया।
' डाक्टर मेहता
तुम्हें कुएँ में गिरने को
कहें, तो शायद
इतनी ख़ुशी से न तैयार होगी। '
गोविन्दी की ज़बान बन्द।
' तुम्हें जब ईश्वर ने
बुद्धि नहीं दी,
तो क्यों मुझसे नहीं पूछ
लिया?
मेहता औरर मालती, दोनों यह चाल चलकर मुझसे
दो-चार हज़ार
ऐंठने की फ़क्रि में हैं।
औरर मैंने ठान लिया है कि
कौड़ी भी न दूँगा।
तुम आज ही मेहता को इनकारी ख़त लिख
दो। '
गोविन्दी ने एक क्षण सोचकर कहा
-- तो तुम्हीं लिख
दो न।
' मैं
क्यों लिखूँ?
बात की तुमने, लिखूँ मैं! '
' डाक्टर साहब कारण
पूछेंगे,
तो क्या बताऊँगी?
'
' बताना अपना सिर
औरर क्या।
मैं इस व्यभिचारशाला को एक धेली
भी नहीं देना चाहता! '
' तो
तुम्हें देने को कौन कहता
है? '
खन्ना ने होंठ चबाकर कहा
-- कैसी बेसमझी
की-सी बातें करती
हो?
तुम वहाँ नींव रखोगी औरर
कुछ दोगी नहीं,
तो संसार क्या कहेगा?
गोविन्दी ने जैसे संगीन की
नोक पर कहा -- अच्छी बात
है, लिख दूँगी।
' आज ही लिखना
होगा। '
' कह तो दिया
लिखूँगी। '
खन्ना बाहर आये औरर डाक देखने
लगे।
उन्हें दफ़्तर जाने में देर
हो जाती थी तो चपरासी घर पर ही डाक दे जाता था।
शक्कर तेज़ हो गयी है।
खन्ना का चेहरा खिल उठा।
दूसरी चिट्ठी खोली।
ऊख की दर नियत करने के लिए जो
कमेटी बैठी थी,
उसने तय कर लिया कि ऐसा नियन्त्रण नहीं किया जा
सकता।
धत तेरी की!
वह पहले यही बात कह रहे थे;
पर इस अग्निहोत्री ने गुल
मचाकर ज़बरदस्ती कमेटी बैठाई।
आख़िर बचा के मुँह पर थप्पड़ लगा।
यह मिलवालों औरर किसानों
के बीच का मुआमला है। सरकार
इसमें दख़ल देनेवाली
कौन।
सहसा मिस मालती कार से उतरीं।
कमल की भाँति खिली, दीपक की भाँति दमकती, स्फूर्ति औरर उल्लास की प्रतिमा-सी --
निश्शंक, निद्र्वन्द्व
मानो उसे विश्वास है कि संसार
में उसके लिए आदर औरर सुख का द्वार
खुला हुआ है।
खन्ना ने बरामदे में आकर
अभिवादन किया।
मालती ने पूछा -- क्या यहाँ मेहता आये
थे?
' हाँ,
आये तो थे। '
' कुछ कहा,
कहाँ जा रहे
हैं? '
' यह तो
कुछ नहीं कहा। '
' जाने
कहाँ डुबकी लगा गये।
मैं चारों तरफ़ घूम आयी।
आपने व्यायामशाला के लिए कितना
दिया? '
खन्ना ने अपराधी-स्वर में कहा -- मैंने इस मुआमले को
समझा ही नहीं।
मालती ने बड़ी-बड़ी आँखों से उन्हें
तरेरा, मानो सोच
रही हो कि उन पर दया करे या रोष।
' इसमें
समझने की क्या बात थी,
औरर समझ लेते आगे-पीछे, इस वक़्त
तो कुछ देने की बात थी।
मैंने मेहता को ठेलकर
यहाँ भेजा था।
बेचारे डर रहे थे कि आप न
जाने क्या जवाब दें।
आपकी इस कंजूसी का क्या फल
होगा, आप जानते
हैं?
यहाँ के व्यापारी समाज से कुछ न
मिलेगा।
आपने शायद मुझे अपमानित करने
का निश्चय कर लिया है।
सबकी सलाह थी कि लेडी विलसन बुनियाद
रखें।
मैंने गोविन्दी देवी का पक्ष
लिया औरर लड़कर सब को राज़ी किया औरर अब आप
फ़रमाते हैं,
आपने इस मुआमले को समझा ही नहीं।
आप बैंकिंग की गुत्थियाँ
समझते हैं; पर
इतनी मोटी बात आप की समझ में न आयी।
इसका अर्थ इसके सिवा औरर कुछ
नहीं है, कि तुम
मुझे लज्जित करना चाहते हो।
अच्छी बात है,
यही सही? '
मालती का मुख लाल हो गया था।
खन्ना घबराये, हेकड़ी जाती रही;
पर इसके साथ ही उन्हें यह भी मालूम हुआ कि
अगर वह काँटों में फँस गये
हैं, तो मालती
दल-दल में फँस गयी
है; अगर उनकी
थैलियों पर संकट आ पड़ा है, तो मालती की प्रतिष्ठा पर संकट
आ पड़ा है, जो
थैलियों से ज़्यादा मूल्यवान है।
तब उनका मन मालती की दुरवस्था का आनन्द
क्यों न उठाये?
उन्होंने मालती को अरदब
में डाल दिया था।
औरर यद्यपि वह उसे रुष्ट कर
देने का साहस खो चुके थे; पर दो-चार खरी-खरी
बातें कह सुनाने का अवसर पाकर छोड़ना न
चाहते थे।
यह भी दिखा देना चाहते थे कि
मैं निरा भोंदू नहीं हूँ।
उसका रास्ता रोककर बोले -- तुम मुझ पर इतनी
कृपालु हो गयी हो, इस पर मुझे आश्चर्य हो रहा
है मालती!
मालती ने भवें सिकोड़कर कहा
-- मैं इसका आशय
नहीं समझी।
' क्या अब
मेरे साथ तुम्हारा वही बर्ताव है,
जो कुछ दिन पहले
था? '
' मैं
तो उसमें कोई अन्तर नहीं
देखती। '
' लेकिन
मैं तो आकाश-पाताल का अन्तर देखता हूँ। '
' अच्छा मान
लो, तुम्हारा
अनुमान ठीक है, तो
फिर?
मैं तुमसे एक
शुभ-कार्य में
सहायता माँगने आयी हूँ, अपने व्यवहार की परीक्षा देने आयी
हूँ।
औरर अगर तुम समझते हो,
कुछ चन्दा देकर तुम यश
औरर धन्यवाद के सिवा औरर कुछ पा सकते
हो, तो तुम
भ्रम में हो। '
खन्ना परास्त हो गये।
वह ऐसे सकरे कोने
में फँस गये थे, जहाँ इधर-उधर
हिलने का भी स्थान न था।
क्या वह उससे यह कहने का साहस रखते
हैं कि मैंने अब तक तुम्हारे ऊपर
हज़ारों रुपए लुटा दिये, क्या उसका यही पुरस्कार है?
लज्जा से उनका मुँह
छोटा-सा निकल आया,
जैसे सिकुड़ गया
हो!
झेंपते हुए बोले
-- मेरा आशय यह न था
मालती, तुम बिलकुल
ग़लत समझीं।
मालती ने परिहास के स्वर में कहा
-- ख़ुदा करे, मैंने ग़लत समझा
हो, क्योंकि अगर
मैं उसे सच समझ लूँगी, तो तुम्हारे साये से
भी भागूँगी।
मैं रुपवती हूँ।
तुम भी मेरे अनेक
चाहनेवालों में से एक हो।
वह मेरी कृपा थी कि जहाँ मैं
औररों के उपहार लौटा देती थी,
तुम्हारी सामान्य-से-सामान्य चीज़ें भी धन्यवाद के साथ
स्वीकार कर लेती थी, औरर
ज़रूरत पड़ने पर तुमसे रुपए भी माँग लेती
थी, अगर तुमने
अपने धनोन्माद में इसका कोई दूसरा
अर्थ निकाल लिया, तो
मैं तुम्हें क्षमा करूँगी।
यह पुरुष-प्रकृति का अपवाद नहीं; मगर यह समझ लो कि धन ने आज तक किसी
नारी के हृदय पर विजय नहीं पायी, औरर न कभी पायेगा।
खन्ना एक-एक शब्द
पर मानो गज़-गज़ भर
नीचे धँसते जाते थे।
अब औरर ज़्यादा चोट सहने का
उनमें जीवट न था।
लज्जित होकर बोले -- मालती,
तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ,
अब औरर ज़लील न करो।
औरर न सही तो मित्र-भाव तो बना रहने दो।
यह कहते हुए उन्होंने दराज़
से चेकबुक निकाला औरर एक हज़ार लिखकर डरते
डरते मालती की तरफ़ बढ़ाया।
मालती ने चेक लेकर निर्दय
व्यंग किया -- यह
मेरे व्यवहार का मूल्य है या व्यायामशाला का
चन्दा?
खन्ना सजल आँखों से
बोले -- अब मेरी
जान बख़्शो मालती,
क्यों मेरे मुँह में कालिख
पोत रही हो।
मालती ने ज़ोर से क़हक़हा मारा
-- देखो, डाँट भी बताई औरर एक हज़ार रुपए भी
वसूल किये।
अब तो तुम कभी ऐसी शरारत न
करोगे?
' कभी
नहीं, जीते जी कभी
नहीं। '
' कान
पकड़ो। '
' कान पकड़ता
हूँ; मगर अब तुम
दया करके जाओ औरर मुझे एकान्त
में बैठकर सोचने औरर रोने
दो।
तुमने आज मेरे जीवन का सारा
आनन्द ।।।। '
मालती औरर ज़ोर से हँसी
-- देखो खन्ना,
तुम मेरा बहुत अपमान
कर रहे हो औरर तुम जानते हो,
रूप अपमान नहीं सह सकता।
मैंने तो तुम्हारे साथ
भलाई की औरर तुम उसे बुराई समझते
हो।
खन्ना विद्रोह भरी आँखों
से देखकर बोले -- तुमने मेरे साथ भलाई की है
या उलटी छूरी से मेरा गला रेता
है?
' क्यों,
मैं तुम्हें लूट-लूटकर अपना घर भर रही थी।
तुम उस लूट से बच गये। '
' क्यों
घाव पर नमक छिड़क रही हो मालती!
मैं भी आदमी हूँ। '
मालती ने इस तरह खन्ना की ओर
देखा, मानो निश्चय
करना चाहती थी कि वह आदमी है या नहीं।
' अभी तो
मुझे इसका कोई लक्षण नहीं दिखाई
देता। '
' तुम
बिलकुल पहेली हो,
आज यह साबित हो गया। '
' हाँ
तुम्हारे लिए पहेली हूँ औरर पहेली
रहूँगी। '
यह कहती हुई वह पक्षी की भाँति फुर्र
से उड़ गयी औरर खन्ना सिर पर हाथ रखकर
सोचने लगे, यह
लीला है, या इसका सच्चा रूप।
Proceed to Chapter Twenty-three.
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Recoded: 20 Sept. 1999 to 6 Oct 1999.
Chapter Twenty-two posted: 13 Oct. 1999.