यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
इन्स्टिट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़
लैंग्वजिज़ ऐंड कल्चर्ज़ ऑफ़
एशिया ऐंड ऐफ़्रिका
तोक्यो
यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ाॅरेन स्टडीज़
Mellon Project
प्रेमचन्द
गोदान
(Devanagari text reconstituted from Professor K. Machida's roman
transcription)
Chapter Twenty-one.
(unparagraphed text)
देहातों में साल
के छ: महीने किसी न किसी उत्सव में
ढोल-मजीरा बजता रहता
है।
होली के एक महीना पहले से एक
महीना बाद तक फाग उड़ती है;
आषाढ़ लगते ही आल्हा शुरू हो जाता है औरर
सावन-भादों
में कजलियाँ होती हैं।
कजलियों के बाद रामायण-गान होने लगता है।
सेमरी भी अपवाद नहीं है।
महाजन की धमकियाँ औरर कारिन्दे की
बोलियाँ इस समारोह में बाधा नहीं
डाल सकतीं।
घर में अनाज नहीं है, देह पर कपड़े नहीं
हैं, गाँठ
में पैसे नहीं हैं, कोई परवाह नहीं।
जीवन की आनन्दवृत्ति तो दबाई
नहीं जा सकती, हँसे बिना तो जिया नहीं जा सकता।
यों होली में
गाने-बजाने का
मुख्य स्थान नोखेराम की चौपाल थी।
वहीं भंग बनती थी, वहीं रंग उड़ता था, वहीं नाच होता था।
इस उत्सव में कारिन्दा साहब के
दस-पाँच रुपए ख़र्च
हो जाते थे।
औरर किसमें यह सामथ्र्य थी कि
अपने द्वार पर जलसा कराता?
लेकिन अबकी गोबर ने गाँव
के सारे नवयुवकों को अपने
द्वार पर खींच लिया है औरर नोखेराम की
चौपाल ख़ाली पड़ी हुई है।
गोबर के द्वार भंग घुट रही
है, पान के बीड़े
लग रहे हैं,
रंग घोला जा रहा है, फ़र्श बिछा हुआ है, गाना हो रहा है, औरर चौपाल में सन्नाटा छाया
हुआ है।
भंग रखी हुई है, पीसे कौन?
ढोल-मजीरा सब
मौजूद है; पर
गाये कौन?
जिसे देखो, गोबर के द्वार की ओर दौड़ा चला
जा रहा है।
यहाँ भंग में
गुलाब-जल औरर
केसर औरर बादाम की बहार है।
हाँ-हाँ,
सेर-भर बादाम गोबर
ख़ुद लाया।
पीते ही चोला तर हो जाता
है, आँखें
खुल जाती हैं।
ख़मीरा तमाखू लाया है, ख़ास बिसवाँ की!
रंग में भी केवड़ा छोड़ा
है।
रुपए कमाना भी जानता है; औरर ख़रच करना भी जानता है।
गाड़कर रख लो,
तो कौन देखता है?
धन की यही शोभा है।
औरर केवल भंग ही नहीं है।
जितने गानेवाले हैं,
सबका नेवता भी है।
औरर गाँव में न
नाचनेवालों की कमी है, न गानेवालों की, न अभिनय करनेवालों की।
शोभा ही लँगड़ों की ऐसी
नक़ल करता है कि क्या कोई करेगा औरर बोली
की नक़ल करने में तो उसका सानी नहीं
है।
जिसकी बोली कहो, उसकी बोले -- आदमी की भी, जानवर
की भी।
गिरधर नक़ल करने में बेजोड़
है।
वकील की नक़ल वह करे, पटवारी की नक़ल वह करे, थानेदार की,
चपरासी की, सेठ की
-- सभी की नक़ल कर सकता है।
हाँ,
बेचारे के पास वैसा सामान नहीं
है, मगर अबकी गोबर
ने उसके लिए सभी सामान मँगा दिया है,
औरर उसकी नक़लें
देखने जोग होंगी।
यह चर्चा इतनी फैली कि साँझ से
ही तमाशा देखनेवाले जमा होने
लगे।
आस-पास के
गाँवों से दर्शकों की
टोलियाँ आने लगीं।
दस बजते-बजते तीन-चार
हज़ार आदमी जमा हो गये।
औरर जब गिरधर झिंगुरीसिंह का रूप
धरे अपनी मंडली के साथ खड़ा हुआ, तो लोगों को
खड़े होने की जगह भी न मिलती थी।
वही खल्वाट सिर,
वही बड़ी मूँछें, औरर वही तोंद!
बैठे भोजन कर रहे हैं
औरर पहली ठकुराइन बैठी पंखा झल रही
हैं।
ठाकुर ठकुराइन को रसिक
नेत्रों से देखकर कहते हैं
-- अब भी तुम्हारे ऊपर वह
जोबन है कि कोई जवान भी देख ले,
तो तड़प जाय।
औरर ठकुराइन फूलकर कहती
हैं, जभी तो गयी
नवेली लाये।
' उसे तो
लाया हूँ तुम्हारी सेवा करने के लिए।
वह तुम्हारी क्या बराबरी करेगी? '
छोटी बीबी यह वाक्य सुन लेती है
औरर मुँह फुलाकर चली जाती है।
दूसरे दृश्य में ठाकुर खाट
पर लेटे हैं औरर छोटी बहू
मुँह फेरे हुए ज़मीन पर बैठी है।
ठाकुर बार-बार
उसका मुँह अपनी ओर फेरने की विफल
चेष्टा करके कहते हैं -- मुझसे क्यों रूठी हो
मेरी लाड़ली?
' तुम्हारी
लाड़ली जहाँ हो,
वहाँ जाओ।
मैं तो लौंड़ी
हूँ,
दूसरों की सेवा-टहल करने के लिए आयी हूँ। '
' तुम
मेरी रानी हो। '
तुम्हारी सेवा-टहल करने के लिए वह बुढ़िया
है। '
पहली ठकुराइन सुन लेती हैं
औरर झाड़ू लेकर घर में घुसती
हैं औरर कई झाड़ू उन पर जमाती हैं।
ठाकुर साहब जान बचाकर भागते
हैं।
फिर दूसरी नक़ल हुई, जिसमें ठाकुर ने दस रुपए का
दस्तावेज़ लिखकर पाँच रुपए दिये, शेष नज़राने औरर तहरीर
औरर दस्तूरी औरर ब्याज में काट लिये।
किसान आकर ठाकुर के चरण पकड़कर
रोने लगता है।
बड़ी मुश्किल से ठाकुर रुपए देने पर राज़ी
होते
हैं।
जब काग़ज़ लिख जाता है औरर आदमी के
हाथ में पाँच रुपए रख दिये जाते
हैं, तो वह चकराकर
पूछता है --
' यह तो
पाँच ही हैं मालिक! '
' पाँच
नहीं दस हैं।
घर जाकर गिनना। '
' नहीं
सरकार, पाँच
हैं! '
' एक रुपया
नज़राने का हुआ कि नहीं? '
' हाँ,
सरकार! '
' एक तहरीर
का? '
' हाँ,
सरकार! '
' एक कागद
का? '
' हाँ,
सरकार! '
' एक दस्तूरी
का? '
' हाँ,
सरकार! '
' एक सूद
का? '
' हाँ,
सरकार! '
' पाँच
नगद, दस हुए कि
नहीं? '
' हाँ,
सरकार!
अब यह पाँचों भी मेरी ओर
से रख लीजिए। '
' कैसा पागल
है? '
' नहीं
सरकार, एक रुपया छोटी
ठकुराइन का नज़राना है,
एक रुपया बड़ी ठकुराइन का।
एक रुपया छोटी ठकुराइन के पान
खाने को, एक बड़ी
ठकुराइन के पान खाने को।
बाक़ी बचा एक, वह
आपकी क्रिया-करम के लिए।
'
इसी तरह नोखेराम औरर
पटेश्वरी औरर दातादीन की -- बारी-बारी से
सबकी ख़बर ली गयी।
औरर फबतियों में चाहे
कोई नयापन न हो औरर नक़लें पुरानी
हों; लेकिन
गिरधारी का ढंग ऐसा हास्यजनक था, दर्शक इतने सरल हृदय थे कि
बेबात की बात में भी हँसते थे।
रात-भर
भँड़ैती होती रही औरर सताये हुए
दिल, कल्पना में
प्रतिशोध पाकर प्रसन्न होते रहे।
आख़िरी नक़ल समाप्त हुई, तो कौवे बोल रहे थे।
सबेरा होते ही जिसे
देखो, उसी की ज़बान पर
वही रात के गाने, वही
नक़ल, वही फ़किरे।
मुखिये तमाशा बन गये।
जिधर निकलते हैं, उधर ही दो-चार
लड़के पीछे लग जाते हैं औरर वही
फ़किरे कसते हैं।
झिंगुरीसिंह तो दिल्लगीबाज़
आदमी थे, इसे दिल्लगी
में लिया; मगर
पटेश्वरी में चिढ़ने की बुरी आदत थी।
औरर पण्डित दातादीन तो इतने
तुनुक-मिज़ाज थे कि
लड़ने पर तैयार हो जाते थे।
वह सबसे सम्मान पाने के आदी
थे।
कारिन्दा की तो बात ही क्या, राय साहब तक उन्हें देखते ही सिर
झुका देते थे।
उनकी ऐसी हँसी उड़ाई जाय औरर
अपने ही गाँव में -- यह उनके लिये असह्य था।
अगर उनमें ब्रह्मतेज होता
तो इन दुष्टों को भस्म कर
देते।
ऐसा शाप देते कि सब के सब भस्म
हो जाते; लेकिन
इस कलियुग शाप का असर ही जाता रहा।
इसलिए उन्होंने कलियुगवाला
हथियार निकाला।
होरी के द्वार पर आये औरर
आँखें निकालकर बोले -- क्या आज भी तुम काम करने न
चलोगे होरी?
अब तो तुम अच्छे हो गये।
मेरा कितना हरज़ हो गया, यह तुम नहीं सोचते।
गोबर देर में सोया था।
अभी-अभी उठा था
औरर आँखें मलता हुआ बाहर आ रहा था कि
दातादीन की आवाज़ कान में पड़ी।
पालागन करना तो दूर रहा, उलटे औरर हेकड़ी दिखाकर
बोला -- अब वह तुम्हारी
मजूरी न करेंगे।
हमें अपनी ऊख जो बोनी है।
दातादीन ने सुरती फाँकते हुए
कहा -- काम कैसे नहीं
करेंगे?
साल के बीच में काम नहीं
छोड़ सकते।
जेठ में छोड़ना हो छोड़
दें, करना हो
करें।
उसके पहले नहीं छोड़ सकते।
गोबर ने जम्हाई लेकर कहा -- उन्होंने तुम्हारी
ग़ुलामी नहीं लिखी है।
जब तक इच्छा थी,
काम किया।
अब नहीं इच्छा है, नहीं करेंगे।
इसमें कोई ज़बरदस्ती नहीं कर
सकता।
' तो होरी
काम नहीं करेंगे? '
' ना! '
' तो
हमारे रुपए सूद समेत दे दो।
तीन साल का सूद होता है सौ
रुपया।
असल मिलाकर दो सौ होते
हैं।
हमने समझा था, तीन रुपए महीने सूद में कटते
जायँगे; लेकिन
तुम्हारी इच्छा नहीं है, तो मत करो।
मेरे रुपए दे दो।
धन्ना सेठ बनते हो, तो धन्ना सेठ का काम करो।
होरी ने दातादीन से कहा -- तुम्हारी चाकरी से मैं कब
इनकार करता हूँ महाराज?
लेकिन हमारी ऊख भी तो बोने
को पड़ी है।
गोबर ने बाप को डाँटा
-- कैसी चाकरी औरर किसकी
चाकरी?
यहाँ तो कोई किसी का चाकर नहीं।
सभी बराबर हैं।
अच्छी दिल्लगी है।
किसी को सौ रुपए उधार दे दिये
औरर उससे सूद में ज़िन्दगी भर काम
लेते रहे।
मूल ज्यों का त्यों!
यह महाजनी नहीं है, ख़ून चूसना है।
' तो रुपए
दे दो भैया, लड़ाई
काहे की।
मैं आने रुपए ब्याज लेता
हूँ।
तुम्हें गाँवघर का समझकर आध
आने रुपए पर दिया था। '
' हम तो एक
रुपया सैकड़ा देंगे।
एक कौड़ी बेसी नहीं।
तुम्हें लेना हो तो
लो, नहीं अदालत
से लेना।
एक रुपया सैकड़े ब्याज कम नहीं
होता। '
' मालूम
होता है, रुपए की
गर्मी हो गयी है। '
' गर्मी
उन्हें होती है,
जो एक के दस लेते हैं।
हम तो मजूर हैं।
हमारी गर्मी पसीने के रास्ते बह
जाती है।
मुझे याद है, तुमने बैल के लिए तीस रुपए
दिये थे।
उसके सौ हुए।
औरर अब सौ के दो सौ हो
गये।
इसी तरह तुम लोगों ने
किसानों को लूट-लूटकर मजूर बना डाला औरर आप उनकी
ज़मीन के मालिक बन
बैठे।
तीस के दो सौ!
कुछ हद है।
कितने दिन हुए होंगे
दादा? '
होरी ने कातर कंठ से कहा
-- यही आठ-नौ साल हुए होंगे।
गोबर ने छाती पर हाथ रखकर कहा
-- नौ साल में
तीस रुपए के दो सौ!
एक रुपए के हिसाब से कितना होता
है?
उसने ज़मीन पर एक ठीकरे से हिसाब
लगाकर कहा -- दस साल
में छत्तीस रुपए होते हैं।
असल मिलाकर छाछठ।
उसके सत्तर रुपए ले लो।
इससे बेसी मैं एक कौड़ी न
दूँगा।
दातादीन ने होरी को बीच में
डालकर कहा -- सुनते
हो होरी गोबर का फ़ैसला?
मैं अपने दो सौ छोड़
के सत्तर रुपए ले लूँ, नहीं अदालत करूँ।
इस तरह का व्यवहार हुआ तो कै दिन
संसार चलेगा?
औरर तुम बैठे सुन रहे
हो; मगर यह समझ
लो, मैं
ब्राह्मण हूँ,
मेरे रुपए हज़म करके तुम चैन न
पाओगे।
मैंने ये सत्तर रुपए भी
छोड़े, अदालत भी न
जाऊँगा, जाओ।
अगर मैं ब्राह्मण हूँ,
तो अपने पूरे
दो सौ रुपए लेकर दिखा दूँगा!
औरर तुम मेरे द्वार पर
आवोगे औरर हाथ बाँधकर दोगे।
दातादीन झल्लाये हुए लौट पड़े।
गोबर अपनी जगह बैठा रहा।
मगर होरी के पेट में
धर्म की क्रान्ति मची हुई थी।
अगर ठाकुर या बनिये के रुपए
होते, तो उसे
ज़्यादा चिन्ता न होती;
लेकिन ब्राह्मण के रुपए!
उसकी एक पाई भी दब गयी, तो हड्ड:ी तोड़कर निकलेगी।
भगवान् न करें कि ब्राह्मण का
कोप किसी पर गिरे।
बंस में कोई
चिल्लू-भर पानी
देनेवाला, घर
में दिया जलानेवाला भी नहीं रहता।
उसका धर्मभीरु मन त्रस्त हो उठा।
उसने दौड़कर पण्डितजी के चरण पकड़
लिये औरर आर्त स्वर में बोला
-- महाराज, जब तक मैं जीता हूँ, तुम्हारी एक-एक पाई चुकाऊँगा।
लड़कों की बातों पर मत
जाओ।
मामला तो हमारे-तुम्हारे बीच में हुआ है।
वह कौन होता है?
दातादीन ज़रा नरम पड़े -- ज़रा इसकी ज़बरदस्ती देखो, कहता है दो सौ रुपए के
सत्तर लो या अदालत जाओ।
अभी अदालत की हवा नहीं खायी है,
जभी।
एक बार किसी के पाले पड़
जायँगे, तो फिर
यह ताव न रहेगा।
चार दिन सहर में क्या रहे, तानासाह हो गये।
' मैं
तो कहता हूँ महाराज, मैं तुम्हारी एक-एक पाई चुकाऊँगा। '
' तो कल
से हमारे यहाँ काम करने आना पड़ेगा।
'
' अपनी ऊख
बोना है महाराज,
नहीं तुम्हारा ही काम करता। '
दातादीन चले गये तो गोबर
ने तिरस्कार की आँखों से देखकर कहा
-- गये थे देवता
को मनाने!
तुम्हीं लोगों ने
तो इन सबों का मिज़ाज बिगाड़ दिया है।
तीस रुपए दिये,
अब दो सौ रुपए लेगा, औरर डाँट ऊपर से बतायेगा औरर
तुमसे मजूरी करायेगा औरर काम कराते-कराते मार
डालेगा ! '
होरी ने अपने विचार में
सत्य का पक्ष लेकर कहा -- नीति
हाथ से न छोड़ना चाहिए बेटा; अपनी-अपनी करनी
अपने साथ है।
हमने जिस ब्याज पर रुपए लिए, वह तो देने ही
पड़ेंगे।
फिर ब्राह्मण ठहरे।
इनका पैसा हमें
पचेगा?
ऐसा माल तो इन्हीं
लोगों को पचता है।
गोबर ने त्योरियाँ चढ़ाईं
-- नीति छोड़ने को
कौन कह रहा है।
औरर कौन कह रहा है कि ब्राह्मण का
पैसा दबा लो?
मैं तो यही कहता हूँ कि इतना
सूद नहीं देंगे।
बंकवाले बारह आने सूद
लेते हैं।
तुम एक रुपए ले लो।
औरर क्या किसी को लूट
लोगे?
' उनका
रोयाँ जो दुखी होगा? '
' हुआ करे।
उनके दुखी होने के डर से
हम बिल क्यों खोदें? '
' बेटा,
जब तक मैं जीता
हूँ, मुझे
अपने रास्ते चलने दो।
जब मैं मर जाऊँ, तो तुम्हारी जो इच्छा हो वह
करना। '
' तो फिर
तुम्हीं देना।
मैं तो अपने हाथों
अपने पाँव में कुल्हाड़ी न मारूँगा।
मेरा गधापन था कि तुम्हारे बीच
में बोला --
तुमने खाया है,
तुम भरो।
मैं क्यों अपनी जान
दूँ? '
यह कहता हुआ गोबर भीतर चला गया।
झुनिया ने पूछा -- आज सबेरे-सबेरे दादा से क्यों उलझ पड़े ?
गोबर ने सारा वृत्तान्त कह
सुनाया औरर अन्त में बोला -- इनके ऊपर रिन का बोझ इसी तरह
बढ़ता जायगा।
मैं कहाँ तक भरूँगा?
उन्होंने कमा-कमाकर दूसरों का घर भरा है।
मैं क्यों उनकी खोदी हुई
खन्दक में गिरूँ?
इन्होंने मुझसे पूछकर
करज़ नहीं लिया।
न मेरे लिए लिया।
मैं उसका देनदार नहीं हूँ।
उधर मुखियों में गोबर
को नीचा दिखाने के लिए षडयन्त्र रचा जा रहा था।
यह लौंडा शिकंजे में न
कसा गया, तो गाँव
में अधर्म मचा देगा।
प्यादे से फ़रज़ी हो गया है
न, टेढ़े तो
चलेगा ही।
जाने कहाँ से इतना क़ानून सीख
आया है?
कहता है, रुपए
सैकड़े सूद से बेसी न दूँगा।
लेना हो तो लो, नहीं अदालत जाओ।
रात इसने सारे गाँव के
लौंडों को बटोरकर कितना अनर्थ
किया।
लेकिन मुखियों में भी
ईष्र्या की कमी न थी।
सभी अपने बराबरवालों के
परिहास पर प्रसन्न थे।
पटेश्वरी औरर नोखेराम
में बातें हो रही थीं।
पटेश्वरी ने कहा -- मगर सबों को घर-घर की रत्ती-रत्ती का हाल मालूम है।
झिंगुरीसिंह को तो
सबों ने ऐसा रगेटा कि कुछ न
पूछो।
दोनों ठकुराइनों की
बातें सुन-सुनकर लोग हँसी के मारे
लोट गये।
नोखेराम ने ठट्टा मारकर कहा
-- मगर नक़ल सच्ची थी।
मैंने कई बार उनकी छोटी
बेगम को द्वार पर खड़े लौंडों
से हँसी करते देखा।
' औरर बड़ी रानी
काजल औरर सेंदुर औरर महावर लगाकर जवान
बनी रहती हैं। '
' दोनों में रात-दिन छिड़ी रहती है।
झिंगुरी पक्का बेहया है।
कोई दूसरा होता तो पागल
हो जाता। '
' सुना,
तुम्हारी बड़ी भद्दी नक़ल की।
चमरिया के घर में बन्द कराके
पिटवाया। '
' मैं
तो बचा पर बक़ाया लगान का दावा करके ठीक कर
दूँगा।
वह भी क्या याद करेंगे कि किसी से
पाला पड़ा था। '
' लगान तो
उसने चुका दिया है न? '
' लेकिन रसीद
तो मैंने नहीं दी।
सबूत क्या है कि लगान चुका
दिया?
औरर यहाँ कौन हिसाब-किताब देखता है?
आज ही प्यादा भेजकर बुलाता
हूँ। '
होरी औरर गोबर दोनों
ऊख बोने के लिए खेत सींच रहे
थे।
अबकी ऊख की खेती होने की आशा
तो थी नहीं, इसलिए
खेत परती पड़ा हुआ था।
अब बैल आ गये हैं, तो ऊख क्यों न बोई
जाय!
मगर दोनों जैसे छत्तीस
बने हुए थे।
न बोलते थे, न ताकते थे।
होरी बैलों को हाँक रहा
था औरर गोबर मोट ले रहा था।
सोना औरर रूपा दोनों
खेत में पानी दौड़ा रही थीं कि
उनमें झगड़ा हो गया।
विवाद का विषय यह था कि झिंगुरीसिंह
को छोटी ठकुराइन पहले ख़ुद खाकर पति
को खिलाती है या पति को खिलाकर तब ख़ुद
खाती है।
सोना कहती थी, पहले वह ख़ुद खाती है।
रूपा का मत इसके प्रतिकूल था।
रूपा ने जिरह की -- अगर वह पहले खाती है, तो क्यों मोटी नहीं
है?
ठाकुर क्यों मोटे
हैं?
अगर ठाकुर उन पर गिर पड़ें, तो ठकुराइन पिस जायँ।
सोना ने प्रतिवाद किया -- तू समझती है, अच्छा खाने से लोग मोटे
हो जाते हैं।
अच्छा खाने से लोग बलवान््
होते हैं,
मोटे नहीं होते।
मोटे होते हैं,
घास-पात खाने से।
' तो
ठकुराइन ठाकुर से बलवान है? '
' औरर क्या।
अभी उस दिन दोनों में लड़ाई
हुई, तो ठकुराइन
ने ठाकुर को ऐसा ढकेला कि उनके
घुटने फूट गये। '
' तो तू
भी पहले आप खाकर तब जीजा को
खिलायेगी? '
' औरर
क्या। '
' अम्माँ
तो पहले दादा को खिलाती हैं। '
' तभी तो जब
देखो तब दादा डाँट देते हैं।
मैं बलवान होकर अपने मरद
को क़ाबू में रखूँगी।
तेरा मरद तुझे पीटेगा,
तेरी हड्डी तोड़कर रख देगा। '
रूपा रुआँसी होकर बोली -- क्यों पीटेगा, मैं मार खाने का काम ही न
करूँगी।
' वह कुछ न
सुनेगा।
तूने ज़रा भी कुछ कहा औरर वह मार
चलेगा।
मारते-मारते तेरी
खाल उधेड़ लेगा। '
रूपा ने बिगड़कर सोना की साड़ी
दाँतों से फाड़ने की चेष्टा की।
औरर असफल होने पर चुटकियाँ
काटने लगी।
सोना ने औरर चिढ़ाया -- वह तेरी नाक भी काट लेगा।
इस पर रूपा ने बहन को दाँत से
काट खाया।
सोना की बाँह लहुआ गयी।
उसने रूपा को ज़ोर से ढकेल
दिया।
वह गिर पड़ी औरर उठकर रोने लगी।
सोना भी दाँतों के निशान
देखकर रो पड़ी।
उन दोनों का चिल्लाना सुनकर
गोबर ग़ुस्से में भरा हुआ आया
औरर दोनों को दो-दो घूँसे जड़ दिये।
दोनों रोती हुई खेत
से निकलकर घर चल दीं।
सिंचाई का काम रुक गया।
इस पर पिता-पुत्र में एक झड़प हो गयी।
होरी ने पूछा -- पानी कौन चलायेगा?
दौड़े-दौड़े गये, दोनों को भगा आये।
अब जाकर मना क्यों नहीं
लाते?
' तुम्हीं
ने इन सबों को बिगाड़ रखा है। '
' उस तरह
मारने से औरर भी निर्लज्ज हो
जायँगी। '
' दो जून
खाना बन्द कर दो, आप ठीक
हो जायँ। '
' मैं उनका
बाप हूँ, क़साई नहीं
हूँ। '
पाँव में एक बार ठोकर लग
जाने के बाद किसी कारण से बार-बार ठोकर लगती है औरर कभी-कभी अँगूठा पक जाता है औरर
महीनों कष्ट देता है।
पिता औरर पूत्र के सद्भाव को
आज उसी तरह की चोट लग गयी थी औरर उस पर यह तीसरी
चोट पड़ी।
गोबर ने घर जाकर झुनिया को
खेत में पानी देने के लिए साथ
लिया।
झुनिया बच्चे को लेकर खेत
में गयी।
धनिया औरर उसकी दोनों
बेटियाँ ताकती रहीं।
माँ को भी गोबर की यह
उद्दंडता बुरी लगती थी।
रूपा को मारता तो वह बुरा न
मानती, मगर जवान लड़की
को मारना, यह उसके लिए
असह्य था।
आज ही रात को गोबर ने लखनऊ
लौट जाने का निश्चय कर लिया।
यहाँ अब वह नहीं रह सकता।
जब घर में उसकी कोई पूछ
नहीं है, तो वह
क्यों रहे।
वह लेन-देन के मामले में बोल
नहीं सकता।
लड़कियों को ज़रा मार दिया तो
लोग ऐसे जामे के बाहर हो
गये, मानो वह बाहर का
आदमी है।
तो इस सराय में वह न रहेगा।
दोनों भोजन करके बाहर
आये थे कि नोखेराम के प्यादे ने
आकर कहा -- चलो, कारिन्दा साहब ने बुलाया है।
होरी ने गर्व से कहा -- रात को क्यों बुलाते
हैं, मैं
तो बाक़ी दे चुका हूँ।
प्यादा बोला --
मुझे तो तुम्हें बुलाने का
हुक्म मिला है।
जो कुछ अरज करना हो, वहीं चलकर करना।
होरी की इच्छा न थी, मगर जाना पड़ा;
गोबर विरक्त-सा बैठा
रहा।
आध घंटे में होरी लौटा
औरर चिलम भर कर पीने लगा।
अब गोबर से न रहा गया।
पूछा -- किस
मतलब से बुलाया था?
होरी ने भर्राई हुई आवाज़
में कहा --
मैंने पाई-पाई
लगान चुका दिया।
वह कहते हैं, तुम्हारे ऊपर दो साल की बाक़ी है।
अभी उस दिन मैंने ऊख
बेची, पचीस रुपए वहीं
उनको दे दिये,
औरर आज वह दो साल का बाक़ी निकालते हैं।
मैंने कह दिया, मैं एक धेला न दूँगा।
गोबर ने पूछा -- तुम्हारे पास रसीद तो
होगी?
' रसीद कहाँ
देते हैं?
'
' तो तुम
बिना रसीद लिए रुपए देते ही क्यों
हो? '
' मैं क्या
जानता था, वह लोग
बेईमानी करेंगे।
यह सब तुम्हारी करनी का फल है।
तुमने रात को उनकी हँसी
उड़ाई, यह उसी का दंड है।
पानी में रह कर मगर से बैर
नहीं किया जाता।
सूद लगाकर सत्तर रुपए बाक़ी निकाल दिये।
ये किसके घर से
आयेंगे? '
गोबर ने अपनी सफ़ाई देते हुए
कहा -- तुमने रसीद
ले ली होती तो मैं लाख उनकी हँसी उड़ाता, तुम्हारा बाल भी बाँका न कर
सकते।
मेरी समझ में नहीं आता कि
लेन-देन में
तुम सावधानी से क्यों काम नहीं
लेते।
यों रसीद नहीं देते,
तो डाक से रुपया
भेजो।
यही तो होगा, एकाध रुपया महसूल पड़ जायगा।
इस तरह की धाँधली तो न होगी।
' तुमने
यह आग न लगाई होती,
तो कुछ न होता।
अब तो सभी मुखिया बिगड़े हुए
हैं।
बेदख़ली की धमकी दे रहे
हैं, दैव जाने
कैसे बेड़ा पार लगेगा! '
' मैं जाकर
उनसे पूछता हूँ। '
' तुम जाकर
औरर आग लगा दोगे। '
' अगर आग लगानी
पड़ेगी, तो आग भी
लगा दूँगा।
वह बेदख़ली करते हैं, करें।
मैं उनके हाथ में
गंगाजली रखकर अदालत में क़सम खिलाऊँगा।
तुम दुम दबाकर बैठे रहो।
मैं इसके पीछे जान लड़ा
दूँगा।
मैं किसी का एक पैसा दबाना नहीं
चाहता, न अपना एक पैसा
खोना चाहता हूँ। '
वह उसी वक़्त उठा औरर नोखेराम की
चौपाल में जा पहुँचा।
देखा तो सभी मुखिया
लोगों का कैबिनेट बैठा हुआ
है।
गोबर को देखकर सब के सब
सतर्क हो गये।
वातावरण में षडयन्त्र की-सी कुंठा भरी हुई थी।
गोबर ने उत्तेजित कंठ से
पूछा -- यह क्या बात है
कारिन्दा साहब, कि आपको दादा
ने हाल तक का लगान चुकता कर दिया औरर आप अभी
दो साल की बाक़ी निकाल रहे हैं।
यह कैसा गोलमाल है?
नोखेराम ने मसनद पर लेटकर
रोब दिखाते हुए कहा -- जब तक होरी है, मैं तुमसे लेन-देन की कोई बातचीत नहीं करना
चाहता।
गोबर ने आहत स्वर में कहा
-- तो मैं घर
में कुछ नहीं हूँ?
' तुम
अपने घर में सब कुछ होगे।
यहाँ तुम कुछ नहीं हो।
'
' अच्छी बात
है, आप बेदख़ली दायर
कीजिए।
मैं अदालत में तुम से
गंगाजली उठाकर रुपए दूँगा; इसी गाँव से एक सौ सहादतें
दिलाकर साबित कर दूँगा कि तुम रसीद नहीं
देते।
सीधे-साधे
किसान हैं, कुछ
बोलते नहीं,
तो तुमने समझ लिया कि सब काठ के उल्लू
हैं।
राय साहब वहीं रहते हैं,
जहाँ मैं रहता
हूँ।
गाँव के सब लोग उन्हें
हौवा समझते होंगे, मैं नहीं समझता।
रत्ती-रत्ती
हाल कहूँगा औरर देखूँगा तुम
कैसे मुझ से दोबारा रुपए वसूल कर
लेते हो। '
उसकी वाणी में सत्य का बल था।
डरपोक प्राणियों में सत्य भी
गूँगा हो जाता है।
वही सीमेंट जो ईट पर चढ़कर पत्थर
हो जाता है, मिट्टी
पर चढ़ा दिया जाय, तो
मिट्टी हो जायगा।
गोबर की निर्भीक स्पष्टवादिता ने
उस अनीत के बख़्तर को बेध डाला जिससे सज्जित
होकर नोखेराम की दुर्बल आत्मा अपने
को शक्तिमान्् समझ रही थी।
नोखेराम ने जैसे कुछ
याद करने का प्रयास करके कहा -- तुम इतना गर्म क्यों हो
रहे हो, इसमें
गर्म होने की कौन बात है।
अगर होरी ने रुपए दिये
हैं, तो
कहीं-न-कहीं तो टाँक गये
होंगे।
मैं कल काग़ज़ निकालकर
देखूँगा।
अब मुझे कुछ-कुछ याद आ रहा है कि शायद होरी ने
रुपए दिये थे।
तुम निसाख़ातिर रहे; अगर रुपए यहाँ आ गये हैं,
तो कहीं जा नहीं
सकते।
तुम थोड़े-से रुपये के लिए झूठ थोड़े
ही बोलोगे औरर न मैं ही इन
रुपयों से धनी हो जाऊँगा।
गोबर ने चौपाल से आकर
होरी को ऐसा लथाड़ा कि बेचारा
स्वार्थ-भीरु बूढ़ा
रुआँसा हो गया --
तुम तो बच्चों से भी
गये-बीते हो
जो बिल्ली की म्याऊँ सुनकर चिल्ला उठते
हैं।
कहाँ-कहाँ
तुम्हारी रच्छा करता फिरूँगा।
मैं तुम्हें सत्तर रुपए
दिये जाता हूँ।
दातादीन ले तो देकर भरपाई लिखा
देना।
इसके ऊपर तुमने एक पैसा भी दिया
तो फिर मुझसे एक पैसा भी न
पाओगे।
मैं परदेश में इसलिए
नहीं पड़ा हूँ कि तुम अपने को
लुटवाते रहो औरर मैं कमाकर भरता
रहूँ, मैं कल
चला जाऊँगा; लेकिन
इतना कहे देता हूँ, किसी से एक पैसा उधार मत लेना
औरर किसी को कुछ मत देना।
मँगरू,
दुलारी, दातादीन
-- सभी से एक रुपया
सैकड़े सूद कराना होगा।
धनिया भी खाना खाकर बाहर निकल आयी।
बोली -- अभी
क्यों जाते हो बेटा, दो-चार दिन
औरर रहकर ऊख की बोनी करा लो औरर कुछ
लेन-देन का हिसाब भी
ठीक कर लो, तो जाना।
गोबर ने शान जमाते हुए कहा
-- मेरा दो-तीन रुपए रोज़ का घाटा हो रहा
है, यह भी समझती
हो!
यहाँ मैं बहुत-बहुत तो चार आने की
मजूरी ही तो करता हूँ।
औरर अबकी मैं झुनिया को भी
लेता जाऊँगा।
वहाँ मुझे खाने-पीने की बड़ी तकलीफ़ होती है।
धनिया ने डरते-डरते कहा --
जैसी तुम्हारी इच्छा;
लेकिन वहाँ वह कैसे अकेले घर
सँभालेगी,
कैसे बच्चे की देख-भाल करेगी?
'
' अब बच्चे
को देखूँ कि अपना सुभीता
देखूँ,
मुझसे चूल्हा नहीं फूँका जाता। '
' ले जाने
को मैं नहीं रोकती, लेकिन परदेश में बाल-बच्चों के साथ रहना,
न कोई आगे न
पीछे; सोचो
कितना झंझट है। '
' परदेश
में संगी-साथी
निकल ही आते हैं अम्माँ औरर यह तो
स्वारथ का संसार है।
जिसके साथ चार पैसे ग़म खाओ
वही अपना।
ख़ाली हाथ तो माँ-बाप भी नहीं पूछते। '
धनिया कटाक्ष समझ गयी।
उसके सिर से पाँव तक आग लग गयी।
बोली --
माँ-बाप को भी
तुमने उन्हीं पैसे के यारों
में समझ लिया?
' आँखों देख रहा हूँ। '
' नहीं देख
रहे हो;
माँ-बाप का मन इतना
निठुर नहीं होता।
हाँ, लड़के
अलबत्ता जहाँ चार पैसे कमाने लगे कि
माँ-बाप से
आँखें फेर लीं।
इसी गाँव में एक-दो नहीं,
दस-बीस परतोख दे
दूँ।
माँ-बाप
करज़-कवाम लेते
हैं, किसके
लिए?
लड़के-लड़कियों ही के लिए कि अपने
भोग-विलास के
लिए। '
' क्या जाने
तुमने किसके लिए करज़ लिया?
मैंने तो एक पैसा भी
नहीं जाना। '
' बिना पाले
ही इतने बड़े हो गये? '
' पालने
में तुम्हारा लगा क्या?
जब तक बच्चा था,
दूध पिला दिया।
फिर लावारिस की तरह छोड़ दिया।
जो सबने खाया, वही मैंने खाया।
मेरे लिए दूध नहीं आता था,
मक्खन नहीं बँधा था।
औरर तुम भी चाहती हो, औरर दादा भी चाहते हैं कि
मैं सारा करज़ा चुकाऊँ, लगान दूँ,
लड़कियों का ब्याह करूँॡ।
जैसे मेरी ज़िन्दगी तुम्हारा
देना भरने ही के लिए है।
मेरे भी तो बाल-बच्चे हैं? '
धनिया सन्नाटे में आ गयी।
एक ही क्षण में उसके जीवन का
मृदु स्वप्न जैसे टूट गया।
अब तक वह मन में प्रसन्न थी कि अब उसका
दु:ख-दरिद्र सब दूर
हो गया।
जब से गोबर घर आया उसके मुख
पर हास की एक छटा खिली रहती थी।
उसकी वाणी में मृदुता औरर
व्यवहारों में उदारता आ गयी।
भगवान् ने उस पर दया की है,
तो उसे सिर झुकाकर
चलना चाहिए।
भीतर की शान्ति बाहर सौजन्य बन गयी थी।
ये शब्द तपते हुए बालू की तरह
हृदय पर पड़े औरर चने की भाँति सारे
अरमान झुलस गये।
उसका सारा घमंड चूर-चूर हो गया।
इतना सुन लेने के बाद अब जीवन
में क्या रस रह गया।
जिस नौका पर बैठकर इस जीवन-सागर को पार करना चाहती थी,
वह टूट गयी, तो किस सुख के लिए जिये!
लेकिन नहीं।
उसका गोबर इतना स्वार्थी नहीं है।
उसने कभी माँ की बात का जवाब नहीं
दिया, कभी किसी बात के लिए
ज़िद नहीं की।
जो कुछ रूखा-सूखा मिल गया,
वही खा लेता था।
वही भोला-भाला शील-स्नेह
का पुतला आज क्यों ऐसी दिल
तोड़नेवाली बातें कर रहा है?
उसकी इच्छा के विरुद्ध तो किसी ने
कुछ नहीं कहा।
माँ-बाप
दोनों ही उसका मुँह जोहते
रहते हैं।
उसने ख़ुद ही लेन-देन की बात चलायी; नहीं उससे कौन कहता है कि तु
माँ-बाप का देना
चुका।
माँ-बाप के
लिए यही क्या कम सुख है कि वह इज़्ज़त-आबरू के साथ भलेमानसों की तरह
कमाता-खाता है।
उससे कुछ हो सके, तो माँ-बाप की मदद कर दे।
नहीं हो सकता तो माँ-बाप उसका गला न दबायेंगे।
झुनिया को ले जाना चाहता
है, ख़ुशी से
ले जाय।
धनिया ने तो केवल उसकी भलाई
के ख़याल से कहा था कि झुनिया को वहाँ
ले जाने में उसे जितना आराम
मिलेगा उससे कहीं ज़्यादा झंझट बढ़ जायगा।
उसमें ऐसी-कौन-सी
लगनेवाली बात थी कि वह इतना बिगड़ उठा।
हो न हो,
यह आग झुनिया ने लगाई है।
वही बैठे-बैठे उसे मन्तर पढ़ा रही है।
यहाँ सौक-सिंगार करने को नहीं मिलता;
घर का कुछ न कुछ काम भी करना
ही पड़ता है।
वहाँ रुपए-पैसे हाथ में
आयेंगे, मज़े
से चिकना खायगी, चिकना
पहनेगी औरर टाँग फैलाकर सोयेगी।
दो आदमियों की रोटी पकाने
में क्या लगता है,
वहाँ तो पैसा चाहिए।
सुना, बाज़ार
में पकी-पकाई
रोटियाँ मिल जाती हैं।
यह सारा उपद्रव उसी ने खड़ा किया
है, सहर में कुछ
दिन रह भी चुकी है।
वहाँ का दाना-पानी मुँह लगा हुआ है।
यहाँ कोई पूछता न था।
यह भोंदू मिल गया।
इसे फाँस लिया।
जब यहाँ पाँच महीने का पेट
लेकर आयी थी, तब कैसी
म्याँव-म्याँव करती थी।
तब यहाँ सरन न मिली होती, तो आज कहीं भीख माँगती
होती।
यह उसी नेकी का बदला है!
इसी चुड़ैल के पीछे डाँड़
देना पड़ा, बिरादरी
में बदनामी हुई,
खेती टूट गयी, सारी
दुर्गत हो गयी।
औरर आज यह चुड़ैल जिस पत्तल
में खाती है उसी में छेद कर रही है।
पैसे देखे, तो आँख हो गयी।
तभी ऐंठी-ैंठी फिरती है मिज़ाज नहीं मिलता।
आज लड़का चार पैसे कमाने लगा है
न।
इतने दिनों बात नहीं
पूछी, तो सास का
पाँव दबाने के लिए तेल लिए दौड़ती थी।
डाइन उसके जीवन की निधि को उसके हाथ
से छीन लेना चाहती है।
दुखित स्वर में बोली
-- यह मन्तर तुम्हें
कौन दे रहा है बेटा, तुम तो ऐसे न थे।
माँ-बाप
तुम्हारे ही हैं,
बहनें तुम्हारी ही हैं, घर तुम्हारा ही है।
यहाँ बाहर का कौन है।
औरर हम क्या बहुत दिन बैठे
रहेंगे?
घर की मरज़ाद बनाये रहोगे,
तो तुम्हीं को
सुख होगा।
आदमी घरवालों ही के लिए धन कमाता
है कि औरर किसी के लिए?
अपना पेट तो सुअर भी पाल लेता
है।
मैं न जानती थी, झुनिया नागिन बनकर हमी को डसेगी।
गोबर ने तिनककर कहा -- अम्माँ, नादान
नहीं हूँ कि झुनिया मुझे मन्तर
पढ़ायेगी।
तुम उसे नाहक़ कोस रही हो।
तुम्हारी गिरस्ती का सारा बोझ मैं
नहीं उठा सकता।
मुझ से जो कुछ हो
सकेगा, तुम्हारी मदद कर
दूँगा; लेकिन
अपने पाँवों में बेड़ियाँ
नहीं डाल सकता।
झुनिया भी कोठरी से निकलकर
बोली -- अम्माँ,
जुलाहे का ग़ुस्सा डाढ़ी पर
न उतारे।
कोई बच्चा नहीं है कि उन्हें
फोड़ लूँगी।
अपना-अपना
भला-बुरा सब समझते
हैं।
आदमी इसीलिए नहीं जन्म लेता कि सारी
उम्र तपस्या करता रहे,
औरर एक दिन ख़ाली हाथ मर जाय।
सब ज़िन्दगी का कुछ सुख चाहते
हैं, सब की लालसा
होती है कि हाथ में चार पैसे
हों।
धनिया ने दाँत पीस कर कहा -- अच्छा झुनिया, बहुत ज्ञान न बघार।
अब तू भी अपना भला-बुरा सोचने योग हो गयी
है।
जब यहाँ आकर मेरे पैरों
पर सिर रक्खे रो रही थी,
तब अपना भला-बुरा
नहीं सूझा था?
उस घड़ी हम भी अपना भला-बुरा सोचने लगते, तो आज तेरा कहीं पता न
होता।
इसके बाद संग्राम छिड़ गया।
ताने-मेहने,
गाली-गलौज, थुक्का-फ़जीहत, कोई बात
न बची।
गोबर भी बीच-बीच में डंक मारता जाता था।
होरी बरौठे में बैठा सब
कुछ सुन रहा था।
सोना औरर रूपा आँगन में
सिर झुकाये खड़ी थीं; दुलारी,
पुनिया औरर कई स्त्रियाँ बीच-बचाव करने आ पहुँची थीं।
गरजन के बीच में कभी-कभी बूँदें भी गिर जाती
थीं।
दोनों ही अपने-अपने भाग्य को रो रही थीं।
दोनों ही ईश्वर को कोस
रही थीं, औरर
दोनों अपनी-अपनी
निर्दोषिता सिद्ध कर कही थीं।
झुनिया गड़े मुर्दे उखाड़ रही
थी।
आज उसे हीरा औरर शोभा से
विशेष सहानुभूति हो गयी थी, जिन्हें धनिया ने कहीं का
न रखा था।
धनिया की आज तक किसी से न पटी थी,
तो झुनिया से
कैसे पट सकती है।
धनिया अपनी सफ़ाई देने की चेष्टा कर
रही थी; लेकिन न जाने
क्या बात थी कि जनमत झुनिया की ओर था।
शायद इसलिए कि झुनिया संयम हाथ से
न जाने देती थी औरर धनिया आपे से बाहर
थी।
शायद इसलिए कि झुनिया अब कमाऊ पुरुष की
स्त्री थी औरर उसे प्रसन्न रखने में ज़्यादा
मसलहत थी।
तब होरी ने आँगन में आकर
कहा -- मैं तेरे
पैरों पड़ता हूँ धनिया, चुप रह।
मेरे मुँह में कालिख मत
लगा।
हाँ, अभी मन न
भरा हो तो औरर सुन।
धनिया फुँकार मारकर उधर दौड़ी
-- तुम भी मोटी डाल
पकड़ने चले।
मैं ही दोषी हूँ।
वह तो मेरे ऊपर फूल बरसा रही
है?
संग्राम का क्षेत्र बदल गया।
' जो
छोटों के मुँह लगे, वह छोटा। '
धनिया किस तर्क से झुनिया को
छोटा मान ले?
होरी ने व्यथित कंठ से कहा
-- अच्छा वह छोटी
नहीं, बड़ी सही।
जो आदमी नहीं रहना चाहता, क्या उसे बाँधकर
रखेगी?
माँ-बाप का
धरम है, लड़के को
पालपोसकर बड़ा कर देना।
वह हम कर चुके।
उनके हाथ-पाँव हो गये।
अब तू क्या चाहती है, वे दाना-चारा
लाकर खिलायें।
माँ-बाप का
धरम सोलहो आना लड़कों के साथ है।
लड़कों का माँ-बाप के साथ एक आना भी धरम नहीं है।
जो जाता है उसे असीस देकर बिदा
कर दे।
हमारा भगवान् मालिक है।
जो कुछ भोगना बदा है,
भोगेंगे।
चालीस सात
सैंतालीस साल इसी तरह रोते-धोते कट
गये।
दस-पाँच साल
हैं, वह भी
यों ही कट जायँगे।
उधर गोबर जाने की तैयारी कर रहा था।
इस घर का पानी भी उसके लिए हराम है।
माता होकर जब उसे ऐसी-ऐसी बातें कहे, तो अब वह उसका मुँह भी न
देखेगा।
देखते ही देखते उसका बिस्तर
बँध गया।
झुनिया ने भी चुँदरी पहन ली।
मुन्नू भी टोप औरर फ़्र:ाक पहनकर
राजा बन गया।
होरी ने आद्र्र कंठ से कहा
-- बेटा, तुमसे कुछ कहने का मुँह
तो नहीं है;
लेकिन कलेजा नहीं मानता।
क्या ज़रा जाकर अपनी अभागिनी माता के
पाँव छू लोगे, तो कुछ बुरा होगा?
जिस माता की कोख से जनम लिया औरर
जिसका रक्त पीकर पले हो, उसके साथ इतना भी नहीं कर
सकते?
गोबर ने मुँह फेरकर कहा
-- मैं उसे अपनी
माता नहीं समझता।
होरी ने आँखों में
आँसू लाकर कहा --
जैसी तुम्हारी इच्छा।
जहाँ रहो,
सुखी रहो।
झुनिया ने सास के पास जाकर
उसके चरणों को अंचल से छुआ।
धनिया के मुँह से असीस का एक शब्द
भी न निकला।
उसने आँख उठाकर देखा भी नहीं।
गोबर बालक को गोद में लिए
आगे-आगे था।
झुनिया बिस्तर बग़ल में दबाये
पीछे।
एक चमार का लड़का सन्दूक़ लिये था।
गाँव के कई स्त्री-पुरुष गोबर को पहुँचाने
गाँव के बाहर तक आये।
औरर धनिया बैठी रो रही थी,
जैसे कोई उसके
हृदय को आरे से चीर रहा हो।
उसका मातृत्व उस घर के समान हो रहा
था, जिसमें आग लग
गयी हो औरर सब कुछ भस्म हो गया हो।
बैठकर रोने के लिए भी स्थान न
बचा हो।
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Recoded: 20 Sept. 1999 to 6 Oct 1999.
Chapter Twenty-one posted: 13 Oct. 1999.