यूनिवर्सिटीज़ ऑफ़ मिशिगन ऐंड वर्जिनिया
इंस्टिट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़
लैंग्वजिज़ ऐंड कल्चर्ज़ ऑफ़
एशिया ऐंड ऐफ़्रिका
तोक्यो
यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरेन स्टडीज़
Mellon Project
प्रेमचन्द
गोदान
(Devanagari text reconstituted from Professor K. Machida's roman
transcription)
Chapter Five.
(unparagraphed text)
उधर गोबर खाना खाकर अहिराने
में पहुँचा।
आज झुनिया से उसकी बहुत-सी बातें हुई थीं।
जब वह गाय लेकर चला था, तो झुनिया आधे रास्ते तक
उसके साथ आयी थी।
गोबर अकेला गाय को कैसे
ले जाता।
अपरिचित व्यक्ति के साथ जाने में
उसे आपत्ति होना स्वाभाविक था।
कुछ दूर चलने के बाद झुनिया
ने गोबर को मर्मभरी आँखों
से देखकर कहा -- अब
तुम काहे को यहाँ कभी आओगे।
एक दिन पहले तक गोबर कुमार था।
गाँव में जितनी युवतियाँ
थीं, वह या तो उसकी
बहनें थीं या भाभियाँ।
बहनों से तो कोई छेड़छाड़
हो ही क्या सकती थी,
भाभियाँ अलबत्ता कभी-कभी उससे ठठोली किया करती थीं,
लेकिन वह केवल सरल
विनोद होता था।
उनकी दृष्टि में अभी उसके
यौवन में केवल फूल लगे थे।
जब तक फल न लग जायँ, उस पर ढेले फेंकना व्यर्थ की
बात थी।
औरर किसी ओर से प्रोत्साहन न पाकर
उसका कौमार्य उसके गले से चिपटा हुआ
था।
झुनिया का वंचित मन, जिसे भाभियों के
व्यंग औरर हास-विलास
ने औरर भी लोलुप बना दिया था, उसके कौमार्य ही पर ललचा उठा।
औरर उस कुमार में भी पत्ता
खड़कते ही किसी सोये हुए शिकारी जानवर की तरह
यौवन जाग उठा।
गोबर ने आवरण-हीन रसिकता के साथ कहा -- अगर भिक्षुक को भीख मिलने की आसा
हो, तो वह
दिन-भर औरर रात-भर दाता के द्वार पर खड़ा रहे।
झुनिया ने कटाक्ष करके कहा -- तो यह कहो तुम भी मतलब
के यार हो।
गोबर की धमनियों का रक्त प्रबल
हो उठा।
बोला --
भूखा आदमी अगर हाथ फैलाये तो उसे क्षमा
कर देना चाहिए।
झुनिया औरर गहरे पानी में
उतरी -- भिक्षुक जब तक दस
द्वारे न जाय, उसका
पेट कैसे भरेगा।
मैं ऐसे भिक्षुकों
को मुँह नहीं लगाती।
ऐसे तो गली-गली मिलते हैं।
फिर भिक्षुक देता क्या है, असीस!
असीसों से तो किसी का पेट
नहीं भरता।
मन्द-बुद्धि
गोबर झुनिया का आशय न समझ सका।
झुनिया छोटी-सी थी तभी से ग्राहकों के घर
दूध लेकर जाया करती थी।
ससुराल में उसे
ग्राहकों के घर दूध पहुँचाना
पड़ता था।
आजकल भी दही बेचने का भार उसी पर था।
उसे तरह-तरह
के मनुष्यों से साबिक़ा पड़ चुका था।
दो-चार रुपए
उसके हाथ लग जाते थे, घड़ी-भर के लिए
मनोरंजन भी हो जाता था; मगर यह आनन्द जैसे मँगनी की चीज़
हो।
उसमें टिकाव न था, समर्पण न था,
अधिकार न था।
वह ऐसा प्रेम चाहती थी, जिसके लिए वह जिये औरर
मरे, जिस पर वह अपने
को समर्पित कर दे।
वह केवल जुगनू की चमक
नहीं, दीपक का स्थायी प्रकाश
चाहती थी।
वह एक गृहस्थ की बालिका थी, जिसके गृहिणीत्व को रसिकों की
लगावटबाज़ियों ने कुचल नहीं पाया था।
गोबर ने कामना से उद्दीप्त
मुख से कहा --
भिक्षुक को एक ही द्वार पर भरपेट मिल जाय,
तो क्यों
द्वार-द्वार
घूमे?
झुनिया ने सदय भाव से उसकी
ओर ताका।
कितना भोला है, कुछ समझता ही नहीं।
' भिक्षुक
को एक द्वार पर भरपेट कहाँ मिलता है।
उसे तो चुटकी ही मिलेगी।
सर्बस तो तभी पाओगे,
जब अपना सर्बस
दोगे। '
' मेरे
पास क्या है झुनिया? '
' तुम्हारे
पास कुछ नहीं है?
मैं तो समझती हूँ,
मेरे लिए तुम्हारे
पास जो कुछ है, वह
बड़े-बड़े
लखपतियों के पास नहीं है।
तुम मुझसे भीख न माँगकर
मुझे मोल ले सकते हो। '
गोबर उसे चकित नेत्रों
से देखने लगा।
झुनिया ने फिर कहा -- औरर जानते हो, दाम क्या देना होगा?
मेरा होकर रहना पड़ेगा।
फिर किसी के सामने हाथ फैलाये
देखूँगी, तो
घर से निकाल दूँगी।
गोबर को जैसे
अँधेरे में टटोलते हुए इच्छित
वस्तु मिल गयी।
एक विचित्र भय-मिश्रित आनन्द से उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा।
लेकिन यह कैसे होगा?
झुनिया को रख ले, तो रखेली को लेकर घर
में रहेगा कैसे।
बिरादरी का झंझट जो है।
सारा गाँव काँव-काँव करने लगेगा।
सभी दुसमन हो जायँगे।
अम्माँ तो इसे घर में
घुसने भी न देगी।
लेकिन जब स्त्री होकर यह नहीं
डरती, तो पुरुष
होकर वह क्यों डरे।
बहुत होगा, लोग उसे अलग कर देंगे।
वह अलग ही रहेगा।
झुनिया जैसी औररत गाँव
में दूसरी कौन है?
कितनी समझदारी की बातें करती है।
क्या जानती नहीं कि मैं उसके
जोग नहीं हूँ।
फिर भी मुझसे प्रेम करती है।
मेरी होने
को राज़ी है।
गाँववाले निकाल
देंगे, तो क्या
संसार में दूसरा गाँव ही नहीं
है?
औरर गाँव क्यों
छोड़े?
मातादीन ने चमारिन बैठा ली, तो किसी ने क्या कर लिया।
दातादीन दाँत कटकटाकर रह गये।
मातादीन ने इतना ज़रूर किया कि अपना धरम बचा
लिया।
अब भी बिना असनान-पूजा किये मुँह में पानी
नहीं डालते।
दोनों जून अपना भोजन
आप पकाते हैं औरर अब तो अलग
भोजन नहीं पकाते।
दातादीन औरर वह साथ बैठकर खाते
हैं।
झिंगुरीसिंह ने बाम्हनी रख
ली, उनका किसी ने क्या कर
लिया?
उनका जितना आदर-मान तब था, उतना
ही आज भी है; बल्कि औरर
बढ़ गया।
पहले नौकरी खोजते फिरते
थे।
अब उसके रुपए से महाजन बन बैठे।
ठकुराई का रोब तो था ही, महाजनी का रोब भी जम गया।
मगर फिर ख़्याल आया, कहीं झुनिया दिल्लगी न कर रही हो।
पहले इसकी ओर से निश्चिन्त
हो जाना आवश्यक था।
उसने पूछा -- मन से कहती हो झूना कि ख़ाली लालच
दे रही हो?
मैं तो तुम्हारा हो
चुका; लेकिन तुम
भी हो जाओगी?
' तुम
मेरे हो चुके, कैसे जानूँ? '
' तुम जान भी
चाहो, तो दे
दूँ। '
' जान
देने का अरथ भी समझते हो? '
' तुम समझा
दो न। '
' जान
देने का अरथ है,
साथ रहकर निबाह करना।
एक बार हाथ पकड़कर उमिर भर निबाह करते
रहना, चाहे दुनिया
कुछ कहे, चाहे
माँ-बाप, भाई-बन्द, घर-द्वार सब कुछ छोड़ना पड़े।
मुँह से जान देनेवाले
बहुतों को देख चुकी।
भौरों की भाँति फूल का रस
लेकर उड़ जाते हैं।
तुम भी वैसे ही न उड़
जाओगे? '
गोबर के एक हाथ में गाय की
पगहिया थी।
दूसरे हाथ से उसने झुनिया
का हाथ पकड़ लिया।
जैसे बिजली के तार पर हाथ गया
हो।
सारी देह यौवन के पहले
स्पर्श से काँप उठी।
कितनी मुलायम, गुदगुदी,
कोमल कलाई!
झुनिया ने उसका हाथ हटाया
नहीं, मानो इस
स्पर्श का उसके लिए कोई महत्व ही न हो।
फिर एक क्षण के बाद गम्भीर भाव से
बोली -- आज
तुमने मेरा हाथ पकड़ा है, याद रखना।
' ख़ूब याद
रखूँगा झूना औरर मरते दम तक
निबाहूँगा।
झुनिया अविश्वास-भरी मुस्कान से बोली -- इसी तरह तो सब कहते हैं
गोबर!
बल्कि इससे भी मीठे, चिकने शब्दों में।
अगर मन में कपट हो, मुझे बता दो।
सचेत हो जाऊँ।
ऐसों को मन नहीं देती।
उनसे तो ख़ाली हँस-बोल लेने का नाता रखती
हूँ।
बरसों से दूध लेकर बाज़ार
जाती हूँ।
एक-से-एक
बाबू, महाजन, ठाकुर,
वकील, अमले, अफ़सर अपना रसियापन दिखाकर मुझे
फँसा लेना चाहते हैं।
कोई छाती पर हाथ रखकर कहता है,
झुनिया, तरसा मत;
कोई मुझे रसीली, नसीली चितवन से घूरता है,
मानो मारे प्रेम के
बेहोश हो गया है, कोई रुपए दिखाता है, कोई गहने।
सब मेरी ग़ुलामी करने को
तैयार रहते हैं, उमिर भर, बल्कि उस
जनम में भी,
लेकिन मैं उन सबों की नस पहचानती
हूँ।
सब-के-सब
भौंरे रस लेकर उड़ जानेवाले।
मैं भी उन्हें ललचाती
हूँ, तिरछी
नज़रों से देखती हूँ, मुसकराती हूँ।
वह मुझे गधी बनाते
हैं, मैं
उन्हें उल्लू बनाती हूँ।
मैं मर जाऊँ, तो उनकी आँखों में
आँसू न आयेगा।
वह मर जायँ,
तो मैं कहूँगी, अच्छा हुआ,
निगोड़ा मर गया।
मैं तो जिसकी हो
जाऊँगी, उसकी
जनम-भर के लिए हो
जाऊँगी, सुख
में, दु:ख
में, सम्पत
में, बिपत
में, उसके साथ
रहूँगी।
हरजाई नहीं हूँ कि सबसे
हँसती-बोलती फिरूँ।
न रुपए की भूखी हूँ, न गहने-कपड़े की।
बस भले आदमी का संग चाहती
हूँ, जो
मुझे अपना समझे औरर जिसे मैं
भी अपना समझूँ।
एक पण्डित जी बहुत तिलक-मुद्रा लगाते हैं।
आध सेर दूध लेते हैं।
एक दिन उनकी घरवाली कहीं नेवते
में गयी थी।
मुझे क्या मालूम।
औरर दिनों की तरह दूध लिये
भीतर चली गयी।
वहाँ पुकारती हूँ, बहूजी,
बहूजी!
कोई बोलता ही नहीं।
इतने में देखती हूँ
तो पण्डितजी बाहर के किवाड़ बन्द किये चले आ
रहे हैं।
मैं समझ गयी इसकी नीयत ख़राब है।
मैंने डाँटकर पूछा
-- तुमने किवाड़
क्यों बन्द कर लिये?
क्या बहूजी कहीं गयी
हैं?
घर में सन्नाटा क्यों
है?
उसने कहा -- वह
एक नेवते में गयी हैं; औरर मेरी ओर दो पग
औरर बढ़ आया।
मैंने कहा -- तुम्हें दूध लेना हो
तो लो, नहीं
मैं जाती हूँ।
बोला -- आज
तो तुम यहाँ से न जाने पाओगी
झूनी रानी,
रोज़-रोज़
कलेजे पर छुरी चलाकर भाग जाती हो,
आज मेरे हाथ से न
बचोगी।
तुमसे सच कहती हूँ, गोबर,
मेरे रोएँ खड़े हो गये।
गोबर आवेश में बोला
-- मैं बच्चा को
देख पाऊँ, तो
खोदकर ज़मीन में गाड़ दूँ।
ख़ून चूस लूँ।
तुम मुझे दिखा तो देना।
' सुनो
तो, ऐसों का
मुँह तोड़ने के लिए मैं ही काफ़ी
हूँ।
मेरी छाती धक-धक करने लगी।
यह कुछ बदमासी कर बैठे, तो क्या करूँगी।
कोई चिल्लाना भी तो न
सुनेगा; लेकिन
मन में यह निश्चय न कर लिया था कि मेरी
देह छुई, तो
दूध की भरी हाँड़ी उसके मुँह पर पटक
दूँगी।
बला से चार-पाँच सेर दूध जायगा, बचा को याद तो हो जायगी।
कलेजा मज़बूत करके बोली
-- इस फेर में न
रहना पण्डितजी!
मैं अहीर की लड़की हूँ।
मूँछ का एक-एक बाल चुनवा लूँगी।
यही लिखा है तुम्हारे
पोथी-पत्रे में
कि दूसरों की बहू-बेटी को अपने घर में बन्द
करके बेईज़्ज़त करो।
इसीलिए तिलक-मुद्रा का जाल बिछाये बैठे
हो?
लगा हाथ जोड़ने, पैरों पड़ने -- एक प्रेमी का मन रख दोगी, तो तुम्हारा क्या बिगड़
जायगा, झूना रानी!
कभी-कभी
ग़रीबों पर दया किया करो, नहीं भगवान्
पूछेंगे,
मैंने तुम्हें इतना रूपधन दिया
था, तुमने उससे
एक ब्राह्मण का उपकार भी नहीं किया, तो क्या जवाब दोगी?
बोले,
मैं विप्र हूँ,
रुपए-पैसे का दान
तो रोज़ ही पाता हूँ, आज रूप का दान दे दो।
' मैंने यों ही उसका मन
परखने को कह दिया,
मैं पचास रुपए लूँगी।
सच कहती हूँ गोबर, तुरन्त कोठरी में गया
औरर दस-दस के पाँच
नोट निकालकर मेरे हाथों में
देने लगा औरर जब मैंने नोट
ज़मीन पर गिरा दिये औरर द्वार की ओर चली,
तो उसने मेरा हाथ पकड़
लिया।
मैं तो पहले ही से
तैयार थी।
हाँड़ी उसके मुँह पर दे मारी।
सिर से पाँव तक सराबोर हो
गया।
चोट भी ख़ूब लगी।
सिर पकड़कर बैठ गया औरर लगा
हाय-हाय करने।
मैंने देखा, अब यह कुछ नहीं कर सकता, तो पीठ में दो
लातें जमा दीं औरर किवाड़ खोलकर
भागी। '
गोबर ठट्ठा मारकर बोला -- बहुत अच्छा किया तुमने।
दूध से नहा गया होगा।
तिलक-मुद्रा
भी धुल गयी होगी।
मूँछें भी क्यों न उखाड़
लीं?
' दूसरे
दिन मैं फिर उसके घर गयी।
उसकी घरवाली आ गयी थी।
अपने बैठक में सिर में
पट्टी बाँधे पड़ा था।
मैंने कहा -- कहो तो कल की तुम्हारी करतूत
खोल दूँ पण्डित !
लगा हाथ
जोड़ने।
मैंने कहा -- अच्छा थूककर चाटो, तो छोड़ दूँ।
सिर ज़मीन पर रगड़कर कहने लगा -- अब मेरी इज़्ज़त तुम्हारे हाथ
है झूना, यही समझ
लो कि पण्डिताइन मुझे जीता न
छोड़ेंगी।
मुझे भी उस पर दया आ गयी। '
गोबर को उसकी दया बुरी लगी
-- यह तुमने क्या
किया?
उसकी औररत से जाकर कह क्यों
नहीं दिया?
जूतों से पीटती।
ऐसे पाखण्डियों पर दया न करनी
चाहिए।
तुम मुझे कल उनकी सूरत दिखा
दो, फिर देखना कैसी
मरम्मत करता हूँ।
झुनिया ने उसके अर्ध-विकसित यौवन को देखकर कहा
-- तुम उसे न
पाओगे।
ख़ासा देव है।
मुफ़्त का माल उड़ाता है कि नहीं।
गोबर अपने यौवन का यह तिरस्कार
कैसे सहता।
डींग मारकर बोला -- मोटे होने से क्या होता
है।
यहाँ फ़ौलाद की हड्डियाँ हैं।
तीन सौ डंड रोज़ मारता हूँ।
दूध-घी
नहीं मिलता, नहीं अब
तक सीना यों निकल आया होता।
यह कहकर उसने छाती फैला कर दिखायी।
झुनिया ने आश्वस्त
आँखों से देखा -- अच्छा, कभी दिखा
दूँगी।
लेकिन यहाँ तो सभी एक-से हैं, तुम किस-किस की
मरम्मत करोगे।
न जाने मरदों की क्या आदत है कि
जहाँ कोई जवान,
सुन्दर औररत देखी औरर बस लगे
घूरने, छाती
पीटने।
औरर यह जो बड़े आदमी कहलाते
हैं, ये तो
निरे लम्पट होते हैं।
फिर मैं तो कोई सुन्दरी
नहीं हूँ । । ।
गोबर ने आपत्ति की -- तुम!
तुम्हें देखकर तो यही जी
चाहता है कि कलेजे में बिठा लें।
झुनिया ने उसकी पीठ में
हलका-सा घूँसा जमाया
-- लगे औररों की तरह
तुम भी चापलूसी करने।
मैं जैसी कुछ
हूँ, वह मैं
जानती हूँ।
मगर इन लोगों को तो
जवान मिल जाय।
घड़ी-भर मन
बहलाने को औरर क्या चाहिये।
गुन तो आदमी उसमें देखता
है, जिसके साथ
जनम-भर निबाह करना हो।
सुनती भी हूँ औरर देखती भी
हूँ, आजकल बड़े
घरों की विचित्र लीला है।
जिस महल्ले में मेरी ससुराल
है, उसी में
गपडू-गपडू नाम के
कासमीरी रहते थे।
बड़े भारी आदमी थे।
उनके यहाँ पाँच सेर दूध
लगता था।
उनकी तीन लड़कियाँ थीं।
कोई बीस-बीस,
पच्चीस-पच्चीस की
होंगी।
एक-से-एक सुन्दर।
तीनों बड़े कालिज में
पढ़ने जाती थीं।
एक साइत कालिज में पढ़ाती भी थी।
तीन सौ का महीना पाती थी।
सितार वह सब बजावें, हरमुनियाँ वह सब
बजावें,
नाचें वह,
गावें वह; लेकिन
ब्याह कोई न करती थी।
राम जाने, वह
किसी मरद को पसन्द नहीं करती थीं कि मरद उन्हीं
को पसन्द नहीं करता था।
एक बार मैंने बड़ी बीबी से
पूछा, तो हँसकर
बोलीं -- हम लोग
यह रोग नहीं पालते; मगर भीतर-ही-भीतर ख़ूब
गुलछर्रे उड़ाती थीं।
जब देखूँ, दो-चार
लौंडे उनको घेरे हुए हैं।
जो सबसे बड़ी थी, वह तो कोट-पतलून पहनकर घोड़े पर सवार होकर
मर्दों के साथ सैर करने जाती थी।
सारे सहर में उनकी लीला मशहूर
थी।
गपडू बाबू सिर नीचा किये,
जैसे मुँह
में कालिख-सी
लगाये रहते थे।
लड़कियों को डाँटते
थे, समझाते
थे; पर सब-की-सब
खुल्लमखुल्ला कहती थीं -- तुमको हमारे बीच में बोलने का कुछ मजाल नहीं
है।
हम अपने मन की रानी हैं, जो हमारी इच्छा होगी, वह हम करेंगे।
बेचारा बाप जवान-जवान लड़कियों से क्या बोले।
मारने-बाँधने से रहा, डाँटने-डपटने से रहा; लेकिन भाई बड़े आदमियों की
बातें कौन चलाये।
वह जो कुछ करें, सब ठीक है।
उन्हें तो बिरादरी औरर
पंचायत का भी डर नहीं।
मेरी समझ में तो यही नहीं
आता कि किसी का रोज़-रोज़ मन कैसे बदल जाता है।
क्या आदमी गाय-बकरी
से भी गया-बीता हो
गया है?
लेकिन किसी को बुरा नहीं कहती
भाई!
मन को जैसा बनाओ, वैसा बनता है।
ऐसों को भी देखती
हूँ, जिन्हें
रोज़-रोज़ की
दाल-रोटी के बाद
कभी-कभी मुँह का सवाद
बदलने के लिए हलवा-पूरी भी चाहिए।
औरर ऐसों को भी देखती
हूँ, जिन्हें घर
की रोटी-दाल देखकर ज्वर
आता है।
कुछ बेचारियाँ ऐसी भी
हैं, जो अपनी
रोटी-दाल में ही
मगन रहती हैं।
हलवा-पूरी
से उन्हें कोई मतलब नहीं।
मेरी दोनों भावजों ही
को देखो।
हमारे भाई काने-कुबड़े नहीं हैं, दस जवानों में एक जवान
हैं; लेकिन
भावजों को नहीं भाते।
उन्हें तो वह चाहिए, जो सोने की बालियाँ
बनवाये, महीन
साड़ियाँ लाये,
रोज़ चाट खिलाये।
बालियाँ औरर मिठाइयाँ मुझे
भी कम अच्छी नहीं लगतीं; लेकिन जो कहो कि इसके लिए अपनी
लाज बेचती फिरूँ तो भगवान् इससे
बचायँ।
एक के साथ मोटा-झोटा खा-पहनकर
उमिर काट देना, बस अपना
तो यही राग है।
बहुत करके तो मर्द ही
औररतों को बिगाड़ते हैं।
जब मर्द इधर-उधर ताक-झाँक
करेगा तो औररत भी आँख लड़ायेगी।
मर्द दूसरी औररतों के
पीछे दौड़ेगा,
तो औररत भी ज़रूर मर्दों के पीछे
दौड़ेगी।
मर्द का हरजाईपन औररत को भी उतना ही
बुरा लगता है, जितना
औररत का मर्द को।
यही समझ लो।
मैंने तो अपने आदमी
से साफ़-साफ़ कह दिया था,
अगर तुम इधर-उधर लपके,
तो मेरी भी जो इच्छा होगी वह करूँगी।
यह चाहो कि तुम तो अपने मन की
करो औरर औररत को मार के डर से
अपने क़ाबू में रखो, तो यह न होगा।
तुम खुले-ख़ज़ाने करते हो, वह छिपकर करेगी।
तुम उसे जलाकर सुखी नहीं रह
सकते।
गोबर के लिए यह एक नयी दुनिया की
बातें थीं।
तन्मय होकर सुन रहा था।
कभी-कभी तो
आप-ही-आप उसके पाँव रुक जाते, फिर सचेत होकर चलने लगता।
झुनिया ने पहले अपने रूप
से मोहित किया था।
आज उसने अपने ज्ञान औरर अनुभव
से भरी बातों औरर अपने सतीत्व के
बखान से मुग्ध कर लिया।
ऐसी रूप,
गुण, ज्ञान की आगरी उसे
मिल जाय, तो धन्य भाग।
फिर वह क्यों पंचायत औरर बिरादरी
से डरे?
झुनिया ने जब देख लिया कि उसका
गहरा रंग जम गया, तो
छाती पर हाथ रखकर जीभ दाँत से काटती हुई
बोली -- अरे, यह तो तुम्हारा गाँव आ
गया!
तुम भी बड़े मुरहे हो,
मुझसे कहा भी नहीं कि
लौट जाओ।
यह कहकर वह लौट
पड़ी।
गोबर ने आग्रह करके कहा
-- एक छन के लिए मेरे
घर क्यों नहीं चली चलती?
अम्माँ भी तो देख लें।
झुनिया ने लज्जा से
आँखें चुराकर कहा -- तुम्हारे घर यों न जाऊँगी।
मुझे तो यही अचरज होता है
कि मैं इतनी दूर कैसे आ गयी।
अच्छा, बताओ
अब कब आओगे?
रात को मेरे द्वार पर अच्छी
संगत होगी।
चले आना,
मैं अपने पिछवाड़े मिलूँगी।
' औरर जो
न मिली? '
' तो लौट
जाना। '
' तो फिर
मैं न आऊँगा। '
' आना
पड़ेगा, नहीं कहे
देती हूँ। '
' तुम भी
वचन दो कि मिलोगी? '
' मैं
वचन नहीं देती। '
' तो
मैं भी नहीं आता। '
' मेरी बला
से! '
झुनिया अँगूठा दिखाकर चल दी।
प्रथम-मिलन
में ही दोनों एक दूसरे पर
अपना-अपना अधिकार जमा
चुके थे।
झुनिया जानती थी, वह आयेगा,
कैसे न आयेगा?
गोबर जानता था, वह मिलेगी,
कैसे न मिलेगी?
गोबर जब अकेला
गाय को
हाँकता हुआ चला,
तो ऐसा लगता था,
मानो स्वर्ग से गिर पड़ा है।
Return to Mellon Project indexpage.
Proceed to Chapter Six.
Recoded: 20 Sept. 1999 to 6 Oct 1999.
Chapter Five posted: 12 Oct. 1999.