यूनिवर्सिटीज़ ऑफ़ मिशिगन ऐंड वर्जिनिया
इंस्टिट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़
लैंग्वजिज़ ऐंड कल्चर्ज़ ऑफ़
एशिया ऐंड ऐफ़्रिका
तोक्यो
यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरेन स्टडीज़
Mellon Project
प्रेमचन्द
गोदान
(Devanagari text reconstituted from Professor K. Machida's roman
transcription)
Chapter Six.
(unparagraphed text)
जेठ की उदास औरर गर्म सन्ध्या
सेमरी की सड़कों औरर गलियों
में पानी के छिड़काव से शीतल औरर प्रसन्न
हो रही थी।
मंडप के चारों तरफ़
फूलों औरर पौधों के
गमले सजा दिये गये थे औरर बिजली
के पंखे चल रहे थे।
राय साहब अपने कारख़ाने में
बिजली बनवा लेते थे।
उनके सिपाही पीली वर्दियाँ
डाटे, नीले साफ़े
बाँधे, जनता पर
रोब जमाते फिरते थे।
नौकर उजले कुरते पहने
औरर केसरिया पाग बाँधे, मेहमानों औरर
मुखियों का आदर-सत्कार कर रहे थे।
उसी वक़्त एक मोटर सिंह-द्वार के सामने आकर रुकी औरर
उसमें से तीन महानुभाव उतरे।
वह जो खद्दर का कुरता औरर चप्पल
पहने हुए हैं उनका नाम पण्डित
ओंकारनाथ है।
आप दैनिक-पत्र
' बिजली ' के यशस्वी सम्पादक हैं, जिन्हें देश-चिन्ता ने घुला डाला है।
दूसरे महाशप जो कोट-पैंट में
हैं, वह हैं
तो वकील, पर वकालत न
चलने के कारण एक बीमा-कम्पनी की दलाली करते हैं औरर
ताल्लुक़ेदारों को महाजनों
औरर बैंकों से क़रज़ दिलाने
में वकालत से कहीं ज़्यादा कमाई करते
हैं।
इनका नाम है श्यामबिहारी तंखा औरर
तीसरे सज्जन जो रेशमी अचकन औरर तंग
पाजामा पहने हुए हैं, मिस्टर बी। मेहता, युनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र
के अध्यापक हैं।
ये तीनों सज्जन राय साहब के
सहपाठियों में हैं औरर
शगुन के उत्सव में निमंत्रित हुए
हैं।
आज सारे इलाक़े के असामी
आयेंगे औरर शगुन के रुपए
भेंट करेंगे।
रात को धनुष-यज्ञ होगा औरर मेहमानों की
दावत होगी।
होरी ने पाँच रुपए शगुन के
दे दिये हैं औरर एक गुलाबी मिरज़ई
पहने, गुलाबी पगड़ी
बाँधे, घुटने
तक कछनी काछे, हाथ
में एक खुरपी लिये औरर मुख पर पाउडर
लगवाये राजा जनक का माली बन गया है औरर गरूर
से इतना फूल उठा है मानो यह सारा उत्सव उसी
के पुरुषार्थ से हो रहा है।
राय साहब ने मेहमानों का
स्वागत किया।
दोहरे बदन के ऊँचे आदमी
थे, गठा हुआ
शरीर, तेजस्वी
चेहरा, ऊँचा
माथा, गोरा रंग,
जिस पर शर्बती रेशमी चादर
ख़ूब खिल रही थी।
पण्डित ओंकारनाथ ने पूछा
-- अबकी कौन-सा नाटक खेलने का विचार
है?
मेरे रस की तो यहाँ वही
वस्तु है।
राय साहब ने तीनों
सज्जनों को अपनी रावटी के सामने
कुर्सियों पर बैठाते हुए कहा
-- पहले तो
धनुष-यज्ञ होगा,
उसके बाद एक प्रहसन।
नाटक कोई अच्छा न मिला।
कोई तो इतना लम्बा कि शायद पाँच
घंटों में भी ख़तम न हो औरर
कोई इतना क्लिष्ट कि शायद यहाँ एक व्यक्ति भी उसका
अर्थ न समझे।
आख़िर मैंने स्वयम् एक प्रहसन लिख डाला, जो दो घंटों में
पूरा हो जायगा।
ओंकारनाथ को राय साहब की
रचना-शक्ति में
बहुत सन्देह था।
उनका ख़्याल था कि प्रतिभा तो ग़रीबी ही
में चमकती है दीपक की भाँति, जो अँधेरे ही में
अपना प्रकाश दिखाता है।
उपेक्षा के साथ, जिसे छिपाने की भी उन्होंने
चेष्टा नहीं की,
पण्डित ओंकारनाथ ने मुँह फेर लिया।
मिस्टर तंखा इन बेमतलब की
बातों में न पड़ना चाहते थे,
फिर भी राय साहब को दिखा
देना चाहते थे कि इस विषय में
उन्हें कुछ बोलने का अधिकार है।
बोले --
नाटक कोई भी अच्छा हो सकता है, अगर उसके अभिनेता अच्छे हों।
अच्छा-से-अच्छा नाटक
बुरे अभिनेताओं के हाथ में
पड़कर बुरा हो सकता है।
जब तक स्टेज पर शिक्षित अभिनेत्रियाँ
नहीं आतीं, हमारी
नाट्य-कला का उद्धार नहीं
हो सकता।
अबकी तो आपने कौंसिल
में प्रश्नों की धूम मचा दी।
मैं तो दावे के साथ कह सकता
हूँ कि किसी मेम्बर का रिकार्ड इतना शानदार
नहीं है।
दर्शन के अध्यापक मिस्टर मेहता इस
प्रशंसा को सहन न कर सकते थे।
विरोध तो करना चाहते थे पर
सिद्धान्त की आड़ में।
उन्होंने हाल ही में एक
पुस्तक कई साल के परिश्रम से लिखी थी।
उसकी जितनी धूम होनी चाहिए थी,
उसकी शतांश भी नहीं हुई
थी।
इससे बहुत दुखी थे।
बोले --
भाई, मैं
प्रश्नों का कायल नहीं।
मैं चाहता हूँ हमारा जीवन
हमारे सिद्धान्तों के अनुकूल
हो।
आप कृषकों के
शुभेच्छु हैं, उन्हें तरह-तरह की रियायत देना चाहते
हैं,
ज़मींदारों के अधिकार छीन लेना चाहते
हैं, बल्कि उन्हें
आप समाज का शाप कहते हैं, फिर भी आप ज़मींदार हैं, वैसे ही ज़मींदार
जैसे हज़ारों औरर ज़मींदार
हैं।
अगर आपकी धारणा है कि कृषकों
के साथ रियायत होनी चाहिए, तो पहले आप ख़ुद शुरू
करें --
काश्तकारों को बग़ैर नज़राने लिए
पट्टे लिख दें,
बेगार बन्द कर दें,
इज़ाफ़ा लगान को तिलांजलि दे दें,
चरावर ज़मीन छोड़ दें।
मुझे उन लोगों से ज़रा
भी हमदर्दी नहीं है,
जो बातें तो करते हैं
कम्युनिस्टों की-सी, मगर जीवन
है रईसों का-सा, उतना ही
विलासमय, उतना ही स्वार्थ
से भरा हुआ।
राय साहब को आघात पहुँचा।
वकील साहब के माथे पर बल पड़ गये
औरर सम्पादकजी के मुँह में
जैसे कालिख लग गयी।
वह ख़ुद समष्टिवाद के पुजारी
थे, पर सीधे घर
में आग न लगाना चाहते थे।
तंखा ने राय साहब की वकालत की
-- मैं समझता
हूँ, राय साहब का
अपने असामियों के साथ जितना अच्छा व्यवहार
है, अगर सभी ज़मींदार
वैसे ही हो जायँ, तो यह प्रश्न ही न रहे।
मेहता ने हथौड़े की दूसरी
चोट जमायी -- मानता
हूँ, आपका अपने
असामियों के साथ बहुत अच्छा बर्ताव
है, मगर प्रश्न यह है कि
उसमें स्वार्थ है या नहीं।
इसका एक कारण क्या यह नहीं हो सकता कि
मद्धिम आँच में भोजन स्वादिष्ट पकता
है?
गुड़ से मारनेवाला ज़हर से
मारनेवाले की अपेक्षा कहीं सफल हो सकता
है।
मैं तो केवल इतना जानता
हूँ, हम या तो
साम्यवादी हैं या नहीं हैं।
हैं तो उसका व्यवहार
करें, नहीं
हैं, तो बकना
छोड़ दें।
मैं नक़ली ज़िन्दगी का विरोधी
हूँ।
अगर मांस खाना अच्छा समझते हो
तो खुलकर खाओ।
बुरा समझते हो, तो मत खाओ, यह तो मेरी समझ में आता
है; लेकिन अच्छा समझना
औरर छिपकर खाना, यह
मेरी समझ में नहीं आता।
मैं तो इसे कायरता भी कहता
हूँ औरर धूर्तता भी, जो वास्तव में एक हैं।
राय साहब सभा-चतुर आदमी थे।
अपमान औरर आघात को धैर्य
औरर उदारता से सहने का उन्हें अभ्यास था।
कुछ असमंजस में पड़े हुए
बोले -- आपका विचार
बिल्कुल ठीक है मेहताजी।
आप जानते हैं, मैं आपकी साफ़गोई का कितना आदर करता
हूँ, लेकिन आप यह
भूल जाते हैं कि अन्य यात्राओं की
भाँति विचारों की यात्रा में भी पड़ाव
होते हैं,
औरर आप एक पड़ाव को छोड़कर दूसरे पड़ाव तक
नहीं जा सकते।
मानव-जीवन का
इतिहास इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
मैं उस वातावरण में पला
हूँ, जहाँ राजा
ईश्वर है औरर ज़मींदार ईश्वर का मन्त्री।
मेरे स्वर्गवासी पिता
असामियों पर इतनी दया करते थे कि पाले
या सूखे में कभी आधा औरर कभी पूरा
लगान माफ़ कर देते थे।
अपने बखार से अनाज निकालकर
असामियों को खिला देते थे।
घर के गहने बेचकर कन्याओं
के विवाह में मदद देते थे; मगर उसी वक़्त तक, जब तक प्रजा उनको सरकार औरर धर्मावतार
कहती रहे, उन्हें
अपना देवता समझकर उनकी पूजा करती रहे।
प्रजा का पालन उनका सनातन-धर्म था,
लेकिन अधिकार के नाम पर वह कौड़ी का एक दाँत भी
फोड़कर देना न चाहते थे।
मैं उसी वातावरण में पला
हूँ औरर मुझे गर्व है कि
मैं व्यवहार में चाहे जो कुछ
करूँ, विचारों
में उनसे आगे बढ़ गया हूँ औरर
यह मानने लग गया हूँ कि जब तक
किसानों को ये रियायतें अधिकार
के रूप में न मिलेंगी, केवल सद्भावना के आधार पर उनकी दशा
सुधर नहीं सकती।
स्वेच्छा अगर अपना स्वार्थ छोड़
दे, तो अपवाद है।
मैं ख़ुद सद्भावना करते हुए
भी स्वार्थ नहीं छोड़ सकता औरर चाहता
हूँ कि हमारे वर्ग को शासन औरर नीति
के बल से अपना स्वार्थ छोड़ने के लिए
मज़बूर कर दिया जाय।
इसे आप कायरता कहेंगे,
मैं इसे विवशता कहता
हूँ।
मैं इसे स्वीकार करता हूँ कि
किसी को भी दूसरे के श्रम पर मोटे
होने का अधिकार नहीं है।
उपजीवी होना घोर लज्जा की बात है।
कर्म करना प्राणीमात्र का धर्म है।
समाज की ऐसी व्यवस्था, जिसमें कुछ लोग मौज
करें औरर अधिक लोग पीसें औरर
खपें, कभी सुखद
नहीं हो सकती।
पूँजी औरर शिक्षा, जिसे मैं पूँजी ही का एक रूप
समझता हूँ, इनका क़िला
जितनी जल्द टूट जाय, उतना
ही अच्छा है।
जिन्हें पेट की रोटी मयस्सर
नहीं, उनके अफ़सर
औरर नियोजक दस-दस
पाँच-पाँच हज़ार
फटकारें, यह हास्यास्पद
है औरर लज्जास्पद भी।
इस व्यवस्था ने हम ज़मींदारों
में कितनी विलासिता,
कितना दुराचार, कितनी
पराधीनता औरर कितनी निर्लज्जता भर दी है,
यह मैं ख़ूब जानता
हूँ; लेकिन
मैं इन कारणों से इस व्यवस्था का
विरोध नहीं करता।
मेरा तो यह कहना है कि अपने
स्वार्थ की दृष्टि से भी इसका अनुमोदन
नहीं किया जा सकता।
इस शान को निभाने के लिए
हमें अपनी आत्मा की इतनी हत्या करनी पड़ती है कि
हममें आत्माभिमान का नाम भी नहीं रहा।
हम अपने असामियों को
लूटने के लिए मज़बूर हैं।
अगर अफ़सरों को क़ीमती-क़ीमती डालियाँ न दें,
तो बागी समझे
जायँ, शान से न
रहें, तो
कंजूस कहलायें।
प्रगति की ज़रा-सी आहट
पाते ही हम काँप उठते हैं, औरर अफ़सरों के पास फ़रियाद
लेकर दौड़ते हैं कि हमारी रक्षा कीजिए।
हमें अपने ऊपर विश्वास नहीं
रहा, न पुरुषार्थ ही रह
गया।
बस, हमारी दशा उन
बच्चों की-सी
है, जिन्हें चम्मच
से दूध पिलाकर पाला जाता है, बाहर से मोटे, अन्दर से दुर्बल, सत्वहीन औरर मुहताज।
मेहता ने ताली बजाकर कहा -- हियर,
हियर!
आपकी ज़बान में जितनी बुद्धि
है, काश उसकी आधी भी
मस्तिष्क में होती!
खेद यही है कि सब कुछ समझते
हुए भी आप अपने विचारों को व्यवहार
में नहीं लाते।
ओंकारनाथ बोले -- अकेला चना भाड़ नहीं फोड़
सकता, मिस्टर मेहता!
हमें समय के साथ चलना भी है
औरर उसे अपने साथ चलाना भी।
बुरे कामों में ही
सहयोग की ज़रूरत नहीं होती।
अच्छे कामों के लिए भी सहयोग
उतना ही ज़रूरी है।
आप ही क्यों आठ सौ रुपए महीने
हड़पते हैं, जब
आपके करोड़ों भाई केवल आठ रुपए
में अपना निर्वाह कर रहे हैं?
राय साहब ने ऊपरी खेद, लेकिन भीतरी सन्तोष से
सम्पादकजी को देखा औरर बोले -- व्यक्तिगत बातों पर
आलोचना न कीजिए सम्पादक जी!
हम यहाँ समाज की व्यवस्था पर विचार कर रहे
हैं।
मिस्टर मेहता उसी ठंठे मन से
बोले --
नहीं-नहीं, मैं इसे बुरा नहीं
समझता।
समाज व्यक्ति ही से बनता है।
औरर व्यक्ति को भूलकर हम किसी व्यवस्था
पर विचार नहीं कर सकते।
मैं इसलिये इतना वेतन
लेता हूँ कि मेरा इस व्यवस्था पर विश्वास
नहीं है।
सम्पादकजी को अचम्भा हुआ -- अच्छा,
तो आप वर्तमान व्यवस्था के समर्थक
हैं?
' मैं इस
सिद्धान्त का समर्थक हूँ कि संसार
में छोटे-बड़े हमेशा रहेंगे, औरर उन्हें हमेशा रहना
चाहिए।
इसे मिटाने की चेष्टा करना
मानव-जाति के सर्वनाश
का कारण होगा। '
कुश्ती का जोड़ बदल गया।
राय साहब किनारे खड़े हो गये।
सम्पादक जी मैदान में उतरे
-- आप इस बीसवीं शताब्दी
में भी ऊँच-नीच का
भेद मानते हैं।
' जी हाँ,
मानता हूँ औरर बड़े
ज़ोरों से मानता हूँ।
जिस मत के आप समर्थक हैं,
वह भी तो कोई नयी चीज़
नहीं।
जब से मनुष्य में ममत्व का
विकास हुआ, तभी उस मत का
जन्म हुआ।
बुद्ध औरर प्लेटो औरर ईसा
सभी समाज में समता के प्रवर्तक थे।
यूनानी औरर रोमन औरर
सीरियाई, सभी
सभ्यताओं ने उसकी परीक्षा की पर अप्राकृतिक
होने के कारण कभी वह स्थायी न बन सकी। '
' आपकी
बातें सुनकर मुझे आश्चर्य हो
रहा है। '
' आश्चर्य
अज्ञान का दूसरा नाम है। '
' मैं
आपका कृतज्ञ हूँ!
अगर आप इस विषय पर कोई लेखमाला
शुरू कर दें। '
' जी, मैं इतना अहमक नहीं
हूँ, अच्छी रक़म
दिलवाइए, तो
अलबत्ता। '
' आपने
सिद्धान्त ही ऐसा लिया है कि खुले
ख़ज़ाने पब्लिक को लूट सकते हैं।
'
' मुझमें औरर आपमें अन्तर
इतना ही है कि मैं जो कुछ मानता
हूँ उस पर चलता हूँ।
आप लोग मानते कुछ
हैं, करते कुछ
हैं।
धन को आप किसी अन्याय से बराबर
फैला सकते हैं।
लेकिन बुद्धि को, चरित्र को, औरर रूप को,
प्रतिभा को औरर बल को बराबर फैलाना तो
आपकी शक्ति के बाहर है।
छोटे-बड़े का भेद केवल धन से ही तो
नहीं होता।
मैंने बड़े-बड़े धन-कुबेरों को
भिक्षुकों के सामने घुटने
टेकते देखा है,
औरर आपने भी देखा होगा।
रूप के चौखट पर बड़े-बड़े महीप नाक रगड़ते हैं।
क्या यह सामाजिक विषमता नहीं
है?
आप रूप की मिसाल देंगे।
वहाँ इसके सिवाय औरर क्या है कि
मिल के मालिक ने राज कर्मचारी का रूप ले लिया
है।
बुद्धि तब भी राज करती थी, अब भी करती है औरर हमेशा
करेगी।
तश्तरी में पान आ गये थे।
राय साहब ने मेहमानों को
पान औरर इलायची देते हुए कहा -- बुद्धि अगर स्वार्थ से
मुक्त हो, तो
हमें उसकी प्रभुता मानने में कोई
आपत्ति नहीं।
समाजवाद का यही आदर्श है।
हम साधु-महात्माओं के सामने इसीलिए सिर
झुकाते हैं कि उनमें त्याग का बल
है।
इसी तरह हम बुद्धि के हाथ में
अधिकार भी देना चाहते हैं, सम्मान भी,
नेतृत्व भी; लेकिन
सम्पत्ति किसी तरह नहीं।
बुद्धि का अधिकार औरर सम्मान व्यक्ति
के साथ चला जाता है,
लेकिन उसकी सम्पत्ति विष बोने के
लिए, उसके बाद औरर भी
प्रबल हो जाती है।
बुद्धि के बग़ैर किसी समाज का
संचालन नहीं हो सकता।
हम केवल इस बिच्छू का डंक तोड़
देना चाहते हैं।
दूसरी मोटर आ पहुँची औरर
मिस्टर खन्ना उतरे,
जो एक बैंक के मैनेजर औरर
शक्करमिल के मैनेजिंग डाइरेक्टर
हैं।
दो देवियाँ भी उनके साथ
थीं।
राय साहब ने दोनों
देवियों को उतारा।
वह जो खद्दर की साड़ी पहने बहुत
गम्भीर औरर विचारशील-सी
हैं, मिस्टर खन्ना की
पत्नी, कामिनी खन्ना
हैं।
दूसरी महिला जो ऊँची एड़ी का जूता
पहने हुए हैं औरर जिनकी
मुख-छवि पर हँसी
फूटी पड़ती है, मिस
मालती हैं।
आप इंगलैंड से डाक्टरी पढ़ आयी
हैं औरर अब प्रैकटिस करती हैं।
ताल्लुक़ेदारों के
महलों में उनका बहुत प्रवेश है।
आप नवयुग की साक्षात्् प्रतिमा हैं।
गात कोमल,
पर चपलता कूट-कूट कर
भरी हुई।
झिझक या संकोच का कहीं नाम
नहीं, मेक-अप में प्रवीण, बला की हाज़िर-जवाब,
पुरुष-मनोविज्ञान की अच्छी
जानकार, आमोद-प्रमोद को जीवन का तत्व
समझनेवाली,
लुभाने औरर रिझाने की कला में
निपुण।
जहाँ आत्मा का स्थान है, वहाँ प्रदर्शन; जहाँ हृदय का स्थान है, वहाँ हाव-भाव;
मनोद्गारों पर कठोर निग्रह, जिसमें इच्छा या अभिलाषा का
लोप-सा हो गया।
आपने मिस्टर मेहता से हाथ
मिलाते हुए कहा -- सच
कहती हूँ, आप सूरत
से ही फ़लिासफ़र मालूम होते हैं।
इस नयी रचना में तो आपने
आत्मवादियों को उधेड़कर रख दिया।
पढ़ते-पढ़ते
कई बार मेरे जी में ऐसा आया कि
आपसे लड़ जाऊँ।
फ़लिासफ़रों में सहृदयता
क्यों ग़ायब हो जाती है?
मेहता झेंप गये।
बिना-ब्याहे
थे औरर नवयुग की रमणियों से पनाह
माँगते थे।
पुरुषों की मंडली में
ख़ूब चहकते थे;
मगर ज्योंही कोई महिला आयी औरर आपकी ज़बान
बन्द हुई।
जैसे बुद्धि पर ताला लग जाता
था।
स्त्रियों से शिष्ट व्यवहार तक
करने की सुधि न रहती थी।
मिस्टर खन्ना ने पूछा -- फ़लिासफ़रों की सूरत
में क्या ख़ास बात होती है
देवीजी?
मालती ने मेहता की ओर
दया-भाव से देखकर कहा
-- मिस्टर मेहता बुरा न
मानें, तो बतला
दूँ।
खन्ना मिस मालती के उपासकों
में थे।
जहाँ मिस मालती जाय, वहाँ खन्ना का पहुँचना लाज़िम था।
उनके आस-पास
भौंरे की तरह मँडराते रहते थे।
हर समय उनकी यही इच्छा रहती थी कि मालती से
अधिक-से-अधिक वही बोलें, उनकी निगाह अधिक-से-अधिक उन्हीं
पर रहे।
खन्ना ने आँख मारकर कहा -- फ़लिासफ़र किसी की बात का बुरा नहीं
मानते।
उनकी यही सिफ़त है।
' तो
सुनिए, फ़लिासफ़र हमेशा
मुर्दा-दिल होते
हैं, जब
देखिए, अपने
विचारों में मगन बैठे हैं।
आपकी तरफ़ ताकेंगे, मगर आपको देखेंगे
नहीं; आप उनसे
बातें किये जायँ, कुछ सुनेंगे नहीं।
जैसे शून्य में उड़ रहे
हों। '
सब लोगों ने क़हक़हा मारा।
मिस्टर मेहता जैसे ज़मीन में
गड़ गये।
' आक्सफ़ोर्ड
में मेरे फ़लिासफ़ी के प्रोफ़ेसर मिस्टर
हसबेंड थे । । । '
खन्ना ने टोका -- नाम तो निराला है।
' जी हाँ,
औरर थे क्वाँरे । ।
। '
' मिस्टर मेहता
भी तो क्वाँरे हैं । । । '
' यह रोग सभी
फ़लिासफ़रों को होता है। '
अब मेहता को अवसर मिला।
बोले --
आप भी तो इसी मरज़ में गिरफ़्तार
हैं?
मैंने प्रतिज्ञा की है किसी फ़लिासफ़र
से शादी करूँगी औरर यह वर्ग शादी के नाम
से घबराता है।
हसबेंड साहब तो स्त्री को
देखकर घर में छिप जाते थे।
उनके शिष्यों में कई
लड़कियाँ थीं।
अगर उनमें से कोई कभी कुछ
पूछने के लिए उनके आफ़सि में चली
जाती थी तो आप ऐसे घबड़ा जाते
जैसे कोई शेर आ गया हो।
हम लोग उन्हें ख़ूब छेड़ा
करते थे, मगर थे
बेचारे सरल-हृदय।
कई हज़ार की आमदनी थी, पर मैंने उन्हें हमेशा एक
ही सूट पहने देखा।
उनकी एक विधवा बहन थी।
वही उनके घर का सारा प्रबन्ध करती थीं।
मिस्टर हसबेंड को तो खाने की
फ़क्रि ही न रहती थी।
मिलने-वालों के डर से अपने कमरे
का द्वार बन्द करके लिखा-पढ़ी
करते थे।
भोजन का समय आ जाता, तो उनकी बहन आहिस्ता से भीतर के
द्वार से उनके पास जाकर किताब बन्द कर देती
थीं, तब उन्हें
मालूम होता कि खाने का समय हो गया।
रात को भी भोजन का समय बँधा
हुआ था।
उनकी बहन कमरे की बत्ती बुझा दिया
करती थीं।
एक दिन बहन ने किताब बन्द करना चाहा,
तो आपने पुस्तक को
दोनों हाथों से दबा लिया औरर
बहन-भाई में
ज़ोर-आज़माई होने
लगी।
आख़िर बहन उनकी पहियेदार कुर्सी
को खींच कर भोजन के कमरे में
लायी। '
राय साहब बोले -- मगर मेहता साहब तो बड़े
ख़ुशमिज़ाज औरर मिलनसार हैं, नहीं इस हंगामे में
क्यों आते।
' तो आप
फ़लिासफ़र न होंगे।
जब अपनी चिन्ताओं से हमारे सिर
में दर्द होने लगता है, तो विश्व की चिन्ता सिर पर लादकर
कोई कैसे प्रसन्न रह सकता है! '
उधर सम्पादकजी श्रीमती खन्ना से अपनी
आर्थिक कठिनाइयों की कथा कह रहे थे
-- बस यों समझिए
श्रीमतीजी, कि सम्पादक का
जीवन एक दीर्घ विलाप है, जिसे सुनकर लोग दया करने के
बदले कानों पर हाथ रख लेते हैं।
बेचारा न अपना उपकार कर सके न
औररों का।
पब्लिक उससे आशा तो यह रखती है कि
हर-एक आन्दोलन में
वह सबसे आगे रहे जेल, जाय, मार
खाय, घर के माल-असबाब की क़ुर्क़ी कराये,
यह उसका धर्म समझा जाता
है, लेकिन उसकी
कठिनाइयों की ओर किसी का ध्यान नहीं।
हो तो वह सब कुछ।
उसे हर-एक
विद्या, हर-एक कला में पारंगत होना
चाहिए; लेकिन उसे
जीवित रहने का अधिकार नहीं।
आप तो आजकल कुछ लिखती ही नहीं।
आपकी सेवा करने का जो
थोड़ा-सा सौभाग्य
मुझे मिल सकता है, उससे क्यों मुझे वंचित
रखती हैं?
मिसेज़ खन्ना को कविता लिखने का
शौक़ था।
इस नाते से सम्पादकजी कभी-कभी उनसे मिल आया करते
थे; लेकिन घर के
काम-धन्धों में
व्यस्त रहने के कारण इधर बहुत दिनों
से कुछ लिख नहीं सकी थी।
सच बात तो यह है कि सम्पादकजी ने ही
उन्हें प्रोत्साहित करके कवि बनाया था।
सच्ची प्रतिभा उनमें बहुत कम थी।
' क्या
लिखूँ कुछ सूझता ही नहीं।
आपने कभी मिस मालती से कुछ
लिखने को नहीं कहा? '
सम्पादकजी उपेक्षा भाव से बोले
-- उनका समय मूल्यवान
है कामिनी देवी!
लिखते तो वह लोग
हैं, जिनके अन्दर
कुछ दर्द है,
अनुराग है, लगन
है, विचार है,
जिन्होंने धन औरर
भोग-विलास को जीवन
का लक्ष्य बना लिया, वह क्या
लिखेंगे।
कामिनी ने ईष्र्या-मिश्रित विनोद से कहा -- अगर आप उनसे कुछ लिखा
सकें, तो आपका
प्रचार दुगना हो जाय।
लखनऊ में तो ऐसा कोई रसिक
नहीं है, जो आपका
ग्राहक न बन जाय।
' अगर धन
मेरे जीवन का आदर्श होता, तो आज मैं इस दशा
में न होता।
मुझे भी धन कमाने की कला आती
है।
आज चाहूँ,
तो लाखों कमा सकता हूँ; लेकिन यहाँ तो धन को
कभी कुछ समझा ही नहीं।
साहित्य की सेवा अपने जीवन का ध्येय
है औरर रहेगा। '
' कम-से-कम
मेरा नाम तो ग्राहकों में
लिखवा दीजिए। '
' आपका नाम
ग्राहकों में नहीं, संरक्षकों में
लिखूँगा। '
' संरक्षकों में
रानियों-महारानियों को रखिए, जिनकी थोड़ी-सी ख़ुशामद करके आप अपने पत्र को
लाभ की चीज़ बना सकते हैं। '
' मेरी
रानी-महारानी आप हैं।
मैं तो आपके सामने किसी
रानी-महारानी की हक़ीक़त नहीं
समझता।
जिसमें दया औरर विवेक
है, वही मेरी रानी
है।
ख़ुशामद से मुझे घृणा
है। '
कामिनी ने चुटकी ली -- लेकिन मेरी ख़ुशामद तो आप कर
रहे हैं सम्पादकजी!
सम्पादकजी ने गम्भीर होकर
श्रद्धा-पूर्ण स्वर
में कहा -- यह
ख़ुशामद नहीं है देवीजी, हृदय के सच्चे उद्गार हैं।
राय साहब ने पुकारा -- सम्पादकजी, ज़रा इधर
आइएगा।
मिस मालती आपसे कुछ कहना चाहती
हैं।
सम्पादकजी की वह सारी अकड़ ग़ायब हो गयी।
नम्रता औरर विनय की मूरत्ति
बने हुए आकर खड़े हो गये।
मालती ने उन्हें सदय
नेत्रों से देखकर कहा -- मैं अभी कह रही थी कि दुनिया
में मुझे सबसे ज़्यादा डर
सम्पादकों से लगता है।
आप लोग जिसे चाहें, एक क्षण में बिगाड़ दें।
मुझी से चीफ़ सेक्रेटरी साहब
ने एक बार कहा -- अगर
मैं इस ब्लडी ओंकारनाथ को जेल
में बन्द कर सकूँ, तो अपने को भाग्यवान
समझूँ।
ओंकारनाथ की बड़ी-बड़ी मूँछें खड़ी हो गयीं।
आँखों में गर्व की
ज्योति चमक उठी।
यों वह बहुत ही शान्त प्रकृति
के आदमी थे; लेकिन
ललकार सुनकर उनका पुरुषत्व उत्तेजित हो
जाता था।
दृढ़ता भरे स्वर में बोले
-- इस कृपा के लिए आपका
कृतज्ञ हूँ।
उस बज़्म फ़्रफ़्रसभाप्रप्र में अपना ज़िक्र तो
आता है, चाहे किसी तरह
आये।
आप सेक्रेटरी महोदय से कह
दीजियेगा कि ओंकारनाथ उन आदमियों
में नहीं है जो इन
धमकियों
से डर जाय।
उसकी क़लम उसी वक़्त विश्राम लेगी,
जब उसकी जीवन-यात्रा समाप्त हो जायगी।
उसने अनीति औरर स्वेच्छाचार को जड़
से खोदकर फेंक देने का ज़िम्मा लिया
है।
मिस मालती ने औरर उकसाया -- मगर मेरी समझ में आपकी यह
नीति नहीं आती कि जब आप मामूली शिष्टाचार
से अधिकारियों का सहयोग प्राप्त कर सकते
हैं, तो
क्यों उनसे कन्नी काटते
हैं?
अगर आप अपनी आलोचनाओं
में आग औरर विष ज़रा कम दें, तो मैं वादा करती हूँ
कि आपको गवर्नमेंट से काफ़ी मदद दिला
सकती हूँ।
जनता को तो आपने देख लिया।
उससे अपील की,
उसकी ख़ुशामद की, अपनी
कठिनाइयों की कथा कही,
मगर कोई नतीजा न निकला।
अब ज़रा अधिकारियों को भी आज़मा
देखिए।
तीसरे महीने आप मोटर पर न
निकलने लगें,
औरर सरकारी दावतों में निमंत्रित न
होने लगें तो मुझे जितना
चाहें कोसिएगा।
तब यही रईस औरर नेशनलिस्ट जो आपकी
परवा नहीं करते,
आपके द्वार के चक्कर लगायेंगे।
ओंकारनाथ अभिमान के साथ
बोले -- यही तो
मैं नहीं कर सकता देवीजी!
मैंने अपने
सिद्धान्तों को सदैव ऊँचा औरर
पवित्र रखा है, औरर
जीते-जी उनकी रक्षा
करूँगा।
दौलत के पुजारी तो
गली-गली
मिलेंगे,
मैं सिद्धान्त के पुजारियों
में हूँ।
' मैं
इसे दम्भ कहती हूँ। '
' आपकी इच्छा।
'
' धन की आपको
परवा नहीं है? '
' सिद्धान्तों का ख़ून करके
नहीं। '
' तो
आपके पत्र में विदेशी वस्तुओं
के विज्ञापन क्यों होते
हैं?
मैंने किसी भी दूसरे पत्र
में इतने विदेशी विज्ञापन नहीं
देखे।
आप बनते तो हैं आदर्शवादी
औरर सिद्धान्तवादी, पर
अपने फ़ायदे के लिए देश का धन विदेश
भेजते हुए आपको ज़रा भी खेद नहीं
होता?
आप किसी तर्क से इस नीति का समर्थन
नहीं कर सकते। '
ओंकारनाथ के पास सचमुच
कोई जवाब न था।
उन्हें बग़लें झाँकते
देखकर राय साहब ने उनकी हिमायत की -- तो आख़िर आप क्या चाहती
हैं?
इधर से भी मारे जायँ, उधर से भी मारे जायँ,
तो पत्र कैसे
चले?
मिस मालती ने दया करना न सीखा था।
' पत्र नहीं
चलता, तो बन्द कीजिए।
अपना पत्र चलाने के लिए आपको
विदेशी वस्तुओं के प्रचार का कोई अधिकार
नहीं।
अगर आप मज़बूर हैं, तो सिद्धान्त का ढोंग
छोड़िए।
मैं तो सिद्धान्तवादी
पत्रों को देखकर जल उठती हूँ।
जी चाहता है,
दियासलाई दिखा दूँ।
जो व्यक्ति कर्म औरर वचन में
सामंजस्य नहीं रख सकता, वह औरर चाहे जो कुछ हो
सिद्धान्तवादी नहीं है। '
मेहता खिल उठे।
थोड़ी देर पहले उन्होंने
ख़ुद इसी विचार का प्रतिपादन किया था।
उन्हें मालूम हुआ कि इस रमणी
में विचार की शक्ति भी है, केवल तितली नहीं।
संकोच जाता रहा।
' यही बात अभी
मैं कह रहा था।
विचार औरर व्यवहार में सामंजस्य
का न होना ही धूर्तता है, मक्कारी है। '
मिस मालती प्रसन्न मुख से बोली
-- तो इस विषय
में आप औरर मैं एक हैं,
औरर मैं भी फ़लिासफ़र
होने का दावा कर सकती हूँ।
खन्ना की जीभ में खुजली हो
रही थी।
बोले --
आपका एक-एक अंग फ़लिासफ़ी
में डूबा हुआ है।
मालती ने उनकी लगाम खींची -- अच्छा,
आपको भी फ़लिासफ़ी में दख़ल है।
मैं तो समझती थी, आप बहुत पहले अपनी फ़लिासफ़ी
को गंगा में डुबो बैठे।
नहीं, आप
इतने बैंकों औरर कम्पनियों
के डाइरेक्टर न होते।
राय साहब ने खन्ना को सँभाला
-- तो क्या आप समझती
हैं कि फ़लिासफ़रों को हमेशा
फ़ाकेमस्त रहना चाहिए।
' जी हाँ।
फ़लिासफ़र अगर मोह पर विजय न पा
सके, तो फ़लिासफ़र
कैसा? '
' इस लिहाज़ से
तो शायद मिस्टर मेहता भी फ़लिासफ़र न
ठहरें! '
मेहता ने जैसे आस्तीन चढ़ाकर कहा
-- मैंने तो
कभी यह दावा नहीं किया राय साहब!
मैं तो इतना ही जानता हूँ
कि जिन औरजारों से लोहार काम करता
है, उन्हीं
औरजारों से सोनार नहीं करता।
क्या आप चाहते हैं, आम भी उसी दशा में
फलें-फूलें
जिसमें बबूल या ताड़?
मेरे लिए धन केवल उन
सुविधाओं का नाम है जिनमें
मैं अपना जीवन सार्थक कर सकूँ।
धन मेरे लिए बढ़ने औरर
फलने-फूलनेवाली
चीज़ नहीं, केवल साधन
है।
मुझे धन की बिल्कुल इच्छा
नहीं, आप वह साधन
जुटा दें,
जिसमें मैं अपने जीवन का उपयोग
कर सकूँ।
ओंकारनाथ समष्टिवादी थे।
व्यक्ति की इस प्रधानता को कैसे स्वीकार
करते?
' इसी तरह हर एक
मज़दूर कह सकता है कि उसे काम करने की
सुविधाओं के लिए एक हज़ार महीने की ज़रूरत
है। '
' अगर आप
समझते हैं कि उस मज़दूर के बग़ैर
आपका काम नहीं चल सकता,
तो आपको वह सुविधाएँ देनी
पड़ेंगी।
अगर वही काम दूसरा मज़दूर
थोड़ी-सी मज़दूरी
में कर दे, तो
कोई वजह नहीं कि आप पहले मज़दूर की
ख़ुशामद करें। '
' अगर
मज़दूरों के हाथ में अधिकार
होता, तो
मज़दूरों के लिए स्त्री औरर शराब भी उतनी ही
ज़रूरी सुविधा हो जाती जितनी फ़लिासफ़रों
के लिए। '
' तो आप
विश्वास मानिए, मैं
उनसे ईष्र्या न करता। '
' जब आपका जीवन
सार्थक करने के लिए स्त्री इतनी आवश्यक है,
तो आप शादी क्यों
नहीं कर लेते?
'
मेहता ने निस्संकोच भाव से
कहा -- इसीलिए कि मैं
समझता हूँ, मुक्त
भोग आत्मा के विकास में बाधक नहीं
होता।
विवाह तो आत्मा को औरर जीवन
को पिंजरे में बन्द कर देता है।
खन्ना ने इसका समर्थन किया
-- बन्धन औरर निग्रह
पुरानी थ्योरियाँ हैं।
नयी थ्योरी है मुक्त भोग।
मालती ने चोटी पकड़ी -- तो अब मिसेज़ खन्ना को
तलाक़ के लिए तैयार रहना चाहिए।
' तलाक़ का बिल
पास तो हो। '
' शायद उसका पहला
उपयोग आप ही करेंगे। '
कामिनी ने मालती की ओर विष-भरी आँखों से देखा
औरर मुँह सिकोड़ लिया, मानो कह रही है -- खन्ना तुम्हें मुबारक
रहें, मुझे
परवा नहीं।
मालती ने मेहता की तरफ़ देखकर कहा
-- इस विषय में
आपके क्या विचार हैं मिस्टर मेहता?
मेहता गम्भीर हो गये।
वह किसी प्रश्न पर अपना मत प्रकट करते
थे, तो जैसे
अपनी सारी आत्मा उसमें डाल देते थे।
' विवाह को
मैं सामाजिक समझौता समझता हूँ
औरर उसे तोड़ने का अधिकार न पुरुष को
है न स्त्री को।
समझौता करने के पहले आप
स्वाधीन हैं,
समझौता हो जाने के बाद आपके हाथ कट
जाते हैं। '
' तो आप
तलाक़ के विरोधी हैं, क्यों?
'
' पक्का। '
' औरर
मुक्त भोग वाला सिद्धान्त? '
' वह उनके लिए
है, जो विवाह नहीं
करना चाहते। '
' अपनी आत्मा का
सम्पूर्ण विकास सभी चाहते हैं; फिर विवाह कौन करे औरर
क्यों करे? '
' इसीलिए कि
मुक्ति सभी चाहते हैं; पर ऐसे बहुत कम हैं,
जो लोभ से अपना गला
छुड़ा सकें। '
' आप
श्रेष्ठ किसे समझते हैं, विवाहित जीवन को या अविवाहित
जीवन को? '
' समाज की
दृष्टि से विवाहित जीवन को, व्यक्ति की दृष्टि से अविवाहित
जीवन को। '
धनुष-यज्ञ का
अभिनय निकट था।
दस से एक तक धनुष-यज्ञ, एक से तीन
तक प्रहसन, यह प्रोग्राम
था।
भोजन की तैयारी शुरू हो गयी।
मेहमानों के लिए बँगले
में रहने का अलग-अलग प्रबन्ध था।
खन्ना-परिवार
के लिए दो कमरे रखे गये थे।
औरर भी कितने ही मेहमान आ गये
थे।
सभी अपने-अपने कमरों में गये
औरर कपड़े बदल-बदलकर
भोजनालय में जमा हो गये।
यहाँ छूत-छात का कोई भेद न था।
सभी जातियों औरर वर्णों
के लोग साथ भोजन करने बैठे।
केवल सम्पादक ओंकारनाथ सबसे
अलग अपने कमरे में फलाहार करने गये।
औरर कामिनी खन्ना को सिर दर्द
हो रहा था,
उन्होंने भोजन करने से इनकार किया।
भोजनालय में
मेहमानों की संख्या पच्चीस से कम न थी।
शराब भी थी औरर मांस भी।
इस उत्सव के लिए राय साहब अच्छी क़िस्म की शराब
ख़ास तौर पर खिंचवाते थे?
खींची जाती थी दवा के नाम से;
पर होती थी ख़ालिस शराब।
मांस भी कई तरह के पकते
थे, कोफ़ते,
कबाब औरर पुलाव।
मुरग़,
मुर्ग़ियाँ,
बकरा, हिरन, तीतर,
मोर, जिसे जो
पसन्द हो, वह खाये।
भोजन शुरू हो गया तो मिस
मालती ने पूछा --
सम्पादकजी कहाँ रह गये?
किसी को भेजो राय साहब, उन्हें पकड़ लाये।
राय साहब ने कहा -- वह वैष्णव हैं, उन्हें यहाँ बुलाकर क्यों
बेचारे का धर्म नष्ट करोगी।
बड़ा ही आचारनिष्ठ आदमी है।
' अजी औरर कुछ न सही, तमाशा तो रहेगा। '
सहसा एक सज्जन को देखकर उसने
पुकारा -- आप भी तशरीफ़
रखते हैं मिरज़ा खुर्शेद, यह काम आपके सुपुर्द।
आपकी लियाकत की परीक्षा हो जायगी।
मिरज़ा खुर्शेद
गोरे-चिट्टे
आदमी थे,
भूरी-भूरी
मूँछें, नीली
आँखें, दोहरी
देह, चाँद के बाल
सफ़ाचट।
छकलिया अचकन औरर चूड़ीदार पाजामा
पहने थे।
ऊपर से हैट लगा लेते थे।
वोटिंग के समय चौंक
पड़ते थे औरर नेशनलिस्टों की तरफ़
वोट देते थे।
सूफ़ी मुसलमान थे।
दो बार हज कर आये थे; मगर शराब ख़ूब पीते थे।
कहते थे,
जब हम ख़ुदा का एक हुक्म भी कभी नहीं
मानते, तो दीन के
लिए क्यों जान दें!
बड़े दिल्लगीबाज़, बेफ़क्रिे जीव थे।
पहले बसरे में ठीके का
कारोबार करते थे।
लाखों कमाये, मगर शामत आयी कि एक मेम से आशनाई कर बैठे।
मुक़दमेबाज़ी हुई।
जेल जाते-जाते बचे।
चौबीस घंटे के अन्दर मुल्क
से निकल जाने का हुक्म
हुआ।
जो कुछ जहाँ था, वहीं छोड़ा,
औरर सिफऱ् पचास हज़ार लेकर भाग खड़े हुए।
बम्बई में उनके एजेंट थे।
सोचा था,
उनसे हिसाब-किताब कर
लें औरर जो कुछ निकलेगा उसी
में ज़िन्दगी काट देंगे, मगर एजेंटों ने जाल करके
उनसे वह पचास हज़ार भी ऐंठ लिये।
निराश होकर वहाँ से लखनऊ चले।
गाड़ी में एक महात्मा से साक्षात््
हुआ।
महात्माजी ने उन्हें सब्ज़ बाग़ दिखाकर
उनकी घड़ी,
अँगूठियाँ, रुपए सब
उड़ा लिये।
बेचारे लखनऊ पहुँचे
तो देह के कपड़ों के सिवा औरर
कुछ न था।
राय साहब से पुरानी मुलाक़ात थी।
कुछ उनकी मदद से औरर कुछ अन्य
मित्रों की मदद से एक जूते की दूकान
खोल ली।
वह अब लखनऊ की सबसे चलती हुई
जूते की दूकान थी चार-पाँच सौ रोज़ की बिक्री थी।
जनता को उन पर थोड़े ही
दिनों में इतना विश्वास हो गया कि एक
बड़े भारी मुस्लिम ताल्लुक़ेदार को नीचा
दिखाकर कौंसिल में पहुँच गये।
अपनी जगह पर बैठे-बैठे बोले -- जी नहीं,
मैं किसी का दीन नहीं बिगाड़ता।
यह काम आपको ख़ुद करना चाहिए।
मज़ा तो जब है कि आप उन्हें शराब
पिलाकर छोड़ें।
यह आपके हुस्न के जादू की आज़माइश
है।
चारों तरफ़ से आवाज़ें
आयीं -- हाँ-हाँ,
मिस मालती, आज अपना कमाल
दिखाइए।
मालती ने मिरज़ा को ललकारा, कुछ इनाम दोगे?
' सौ रुपए की एक
थैली! '
' हुश!
सौ रुपए!
लाख रुपए का धर्म बिगाड़ूँ सौ
के लिए। '
' अच्छा, आप ख़ुद अपनी फ़ीस बताइए। '
' एक हज़ार,
कौड़ी कम नहीं। '
' अच्छा
मंज़ूर। '
' जी
नहीं, लाकर मेहताजी
के हाथ में रख दीजिए। '
मिरज़ाजी ने तुरन्त सौ रुपए का
नोट जेब से निकाला औरर उसे दिखाते
हुए खड़े होकर बोले -- भाइयो!
यह हम सब मरदों की इज़्ज़त का मामला
है।
अगर मिस मालती की फ़रमाइश न पूरी
हुई, तो हमारे लिए
कहीं मुँह दिखाने की जगह न रहेगी;
अगर मेरे पास रुपए
होते तो मैं मिस मालती की
एक-एक अदा पर एक-एक लाख कुरबान कर देता।
एक पुराने शायर ने अपने
माशूक़ के एक काले तिल पर समरक़न्द औरर
बोखारा के सूबे कुरबान कर दिये
थे।
आज आप सभी साहबों की जवाँमरदी
औरर हुस्नपरस्ती का इम्तहान है।
जिसके पास जो कुछ हो,
सच्चे सूरमा की तरह निकालकर
रख दे।
आपको इल्म की क़सम, माशूक़ की अदाओं की क़सम, अपनी इज़्ज़त की क़सम, पीछे क़दम न हटाइए।
मरदो!
रुपए ख़र्च हो
जायँगे, नाम
हमेशा के लिए रह जायगा।
ऐसा तमाशा लाखों में भी
सस्ता है।
देखिए, लखनऊ
के हसीनों की रानी एक जाहिद पर अपने हुस्न
का मन्त्र कैसे चलाती है?
भाषण समाप्त करते ही मिरज़ाजी ने हर एक की
जेब की तलाशी शुरू कर दी।
पहले मिस्टर खन्ना की तलाशी हुई।
उनकी जेब से पाँच रुपए निकले।
मिरज़ा ने मुँह फीका करके कहा
-- वाह खन्ना साहब, वाह!
!
नाम बड़े दर्शन थोड़े।
इतनी कम्पनियों के डाइरेक्टर,
लाखों की आमदनी औरर
आपके जेब में पाँच रुपए!
लाहौल बिला कूबत!
कहाँ हैं मेहता?
आप ज़रा जाकर मिसेज़ खन्ना से
कम-से-कम सौ रुपए वसूल कर लायें।
खन्ना खिसियाकर बोले -- अजी,
उनके पास एक पैसा भी न होगा।
कौन जानता था कि यहाँ आप तलाशी
लेना शुरू करेंगे?
' ख़ैर आप
ख़ामोश रहिए।
हम अपनी तक़दीर तो आज़मा लें।
'
' अच्छा तो
मैं जाकर उनसे पूछता हूँ। '
' जी
नहीं, आप यहाँ से
हिल नहीं सकते।
मिस्टर मेहता,
आप फ़लिासफ़र हैं,
मनोविज्ञान के पण्डित।
देखिए अपनी भेद न कराइएगा। '
मेहता शराब पीकर मस्त हो जाते
थे।
उस मस्ती में उनका दर्शन उड़ जाता था
औरर विनोद सजीव हो जाता था।
लपककर मिसेज़ खन्ना के पास गये
औरर पाँच मिनट ही में मुँह
लटकाये लौट आये।
मिरज़ा ने पूछा -- अरे क्या ख़ाली हाथ?
राय साहब हँसे -- क़ाज़ी के घर चूहे भी सयाने।
मिरज़ा ने कहा --
हो बड़े ख़ुशनसीब खन्ना, ख़ुदा की क़सम!
मेहता ने क़हक़हा मारा औरर जेब
से सौ-सौ रुपए
के पाँच नोट निकाले।
मिरज़ा ने लपककर उन्हें गले लगा
लिया।
चारों तरफ़ से आवाज़ें
आने लगीं -- कमाल
है, मानता हूँ
उस्ताद, क्यों न
हो, फ़लिासफ़र ही जो
ठहरे!
मिरज़ा ने नोटों को
आँखों से लगाकर कहा -- भई मेहता, आज
से मैं तुम्हारा शागिर्द हो गया।
बताओ, क्या
जादू मारा?
मेहता अकड़कर,
लाल-लाल आँखों
से ताकते हुए बोले -- अजी कुछ नहीं।
ऐसा कौन-सा बड़ा काम था।
जाकर पूछा, अन्दर
आऊँ?
बोलीं --
आप हैं मेहताजी,
आइए!
मैंने अन्दर जाकर कहा, वहाँ लोग ब्रिज खेल
रहे हैं।
अँगूठी एक हज़ार से कम की नहीं
है।
आपने तो देखा है।
बस वही।
आपके पास रुपए हों, तो पाँच सौ रुपए देकर एक
हज़ार की चीज़ ले लीजिए।
ऐसा मौक़ा फिर न मिलेगा।
मिस मालती ने इस वक़्त रुपए न
दिये, तो बेदाग़
निकल जायँगी।
पीछे से कौन देता है,
शायद इसीलिए उन्होंने
अँगूठी निकाली है कि पाँच सौ रुपए
किसके पास धरे होंगे।
मुसकराईं औरर चट अपने बटुवे
से पाँच नोट निकालकर दे दिये, औरर बोलीं -- मैं बिना कुछ लिये घर
से नहीं निकलती।
न जाने कब क्या ज़रूरत पड़े।
खन्ना खिसियाकर बोले -- जब हमारे प्रोफ़ेसरों
का यह हाल है, तो
यूनिवर्सिटी का ईश्वर ही मालिक है।
खुर्शेद ने घाव पर नमक छिड़का
-- अरे तो ऐसी
कौन-सी बड़ी रक़म है
जिसके लिए आपका दिल बैठा जाता है।
ख़ुदा झूठ न बुलवाये तो यह
आपकी एक दिन की आमदनी है।
समझ लीजिएगा, एक
दिन बीमार पड़ गये औरर जायगा भी तो मिस
मालती ही के हाथ में।
आपके दर्द-ए-जिगर की दवा मिस
मालती ही के पास तो है।
मालती ने ठोकर मारी -- देखिए मिरज़ाजी तबेले में
लतिआहुज अच्छी नहीं।
मिरज़ा ने दुम हिलायी -- कान पकड़ता हूँ देवीजी।
मिस्टर तंखा की तलाशी हुई।
मुश्किल से दस रुपए निकले, मेहता की जेब से केवल
अठन्नी निकली।
कई सज्जनों ने एक-एक,
दो-दो रुपए ख़ुद
दे दिये।
हिसाब जोड़ा गया, तो तीन सौ की कमी थी।
यह कमी राय साहब ने उदारता के साथ
पूरी कर दी।
सम्पादकजी ने मेवे औरर फल
खाये थे औरर ज़रा कमर सीधी कर रहे थे कि
राय साहब ने जाकर कहा --
आपको मिस मालती याद रही हैं।
ख़ुश होकर बोले -- मिस मालती मुझे याद कर रही
हैं, धन्य-भाग!
राय साहब के साथ ही हाल में आ
विराजे।
उधर नौकरों ने
मेज़ें साफ़ कर दी थीं।
मालती ने आगे बढ़कर उनका स्वागत किया।
सम्पादकजी ने नम्रता दिखायी -- बैठिए तकल्लुफ़ न कीजिए।
मैं इतना बड़ा आदमी नहीं हूँ।
मालती ने श्रद्धा भरे स्वर
में कहा -- आप
तकल्लुफ़ समझते होंगे, मैं समझती हूँ,
मैं अपना सम्मान बढ़ा रही
हूँ; यों आप
अपने को कुछ समझें औरर आपको
शोभा भी नहीं देता है लेकिन यहाँ
जितने सज्जन जमा हैं, सभी आपकी राष्ट्र औरर साहित्य-सेवा से भली-भाँति परिचित हैं।
आपने इस क्षेत्र में जो
महत्वपूर्ण काम किया है, अभी चाहे लोग उसका मूल्य न
समझें; लेकिन वह
समय बहुत दूर नहीं है -- मैं तो कहती हूँ वह समय आ
गया है -- जब हर-एक नगर में आपके नाम की
सड़कें बनेंगी,
क्लब बनेंगे, टाउन
हालों में आपके चित्र लटकाये
जायेंगे।
इस वक़्त जो थोड़ी बहुत जागृति
है, वह आप ही के
महान् उद्योग का प्रसाद है।
आपको यह जानकर आनन्द होगा कि देश
में अब आपके ऐसे अनुयायी पैदा
हो गये हैं जो आपके
देहात-सुधार
आन्दोलन में आपका हाथ बँटाने को
उत्सुक हैं, औरर
उन सज्जनों की बड़ी इच्छा है कि यह काम संगठित
रूप से किया जाय औरर एक देहात-सुधार संघ स्थापित किया जाय, जिसके आप सभापति हों।
ओंकारनाथ के जीवन में यह
पहला अवसर था कि उन्हें चोटी के
आदमियों में इतना सम्मान मिले।
यों वह कभी-कभी आम जलसों में
बोलते थे औरर कई सभाओं के
मन्त्री औरर उपमन्त्री भी थे; लेकिन शिक्षित-समाज में अब तक उनकी उपेक्षा ही की थी।
उन लोगों में वह किसी तरह
मिल न पाते थे,
इसीलिए आम जलसों में उनकी निष्क्रियता
औरर स्वार्थांधता की शिकायत किया करते
थे, औरर अपने पत्र
में एक-एक को
रगेदते थे।
क़लम तेज़ थी,
वाणी कठोर, साफ़गोई की
जगह उच्छृंखलता कर बैठते थे, इसलिए लोग उन्हें ख़ाली
ढोल समझते थे।
उसी समाज में आज उनका इतना
सम्मान!
कहाँ हैं आज ' स्वराज ' औरर
' स्वाधीन भारत ' औरर ' हंटर ' के
सम्पादक, आकर देखें
औरर अपना कलेजा ठंठा करें।
आज अवश्य ही देवताओं की उन पर
कृपादृष्टि है।
सदुद्योग कभी निष्फल नहीं
जाता, यह ऋषियों का
वाक्य है।
वह स्वयम् अपनी नज़रों में
उठ गये।
कृतज्ञता से पुलकित होकर
बोले --
देवीजी, आप तो
मुझे काँटों में घसीट रही
हैं।
मैंने तो जनता की जो
कुछ भी सेवा की, अपना
कर्तव्य समझकर की।
मैं इस सम्मान को अपना
नहीं, उस उद्देश्य का
सम्मान समझ रहा हूँ,
जिसके लिए मैंने अपना जीवन अर्पित कर
दिया है, लेकिन
मेरा नम्र-निवेदन
है कि प्रधान का पद किसी प्रभावशाली पुरुष को दिया
जाय, मैं
पदों में विश्वास नहीं रखता।
मैं तो सेवक हूँ
औरर सेवा करना चाहता हूँ।
मिस मालती इसे किसी तरह स्वीकार नहीं कर
सकतीं।
सभापति पण्डितजी को बनना पड़ेगा।
नगर में उसे ऐसा प्रभावशाली
व्यक्ति दूसरा नहीं दिखायी देता।
जिसकी क़लम में जादू है,
जिसकी ज़बान में जादू
है, जिसके व्यक्तित्व
में जादू है,
वह कैसे कहता है कि वह प्रभावशाली नहीं है।
वह ज़माना गया,
जब धन औरर प्रभाव में मेल था।
अब प्रतिभा औरर प्रभाव के मेल का
युग है।
सम्पादकजी को यह पद अवश्य स्वीकार करना
पड़ेगा।
मन्त्री मिस मालती होंगी।
इस सभा के लिए एक हज़ार का चन्दा भी हो गया
है औरर अभी तो सारा शहर औरर प्रान्त पड़ा हुआ
है।
चार-पाँच लाख
मिल जाना मामूली बात है।
ओंकारनाथ पर कुछ नशा-सा चढ़ने लगा।
उनके मन में जो एक प्रकार की
फुरहरी सी उठ रही थी,
उसने गम्भीर उत्तरदायित्व का रूप धारण कर लिया।
बोले --
मगर यह आप समझ लें,
मिस मालती, कि यह बड़ी
ज़िम्मेदारी का काम है औरर आपको अपना बहुत
समय देना पड़ेगा।
मैं अपनी तरफ़ से आपको
विश्वास दिलाता हूँ कि आप सभा-भवन में मुझे सबसे
पहले मौजूद पायँगी।
मिरज़ाजी ने पुचारा दिया -- आपका बड़े-से-बड़ा
दुश्मन भी यह नहीं कह सकता कि आप अपना फ़रज़ अदा
करने में कभी किसी से पीछे रहे।
मिस मालती ने देखा, शराब कुछ-कुछ
असर करने लगी है,
तो औरर भी गम्भीर बनकर बोलीं -- अगर हम लोग इस काम की महानता न
समझते, तो न यह
सभा स्थापित होती औरर न आप इसके सभापति
होते।
हम किसी रईस या ताल्लुक़ेदार को
सभापति बनाकर धन ख़ूब बटोर सकते
हैं, औरर सेवा
की आड़ में स्वार्थ सिद्ध कर सकते
हैं, लेकिन यह
हमारा उद्देश्य नहीं।
हमारा एकमात्र उद्देश्य जनता की सेवा
करना है।
औरर उसका सबसे बड़ा साधन आपका पत्र
है।
हमने निश्चय किया है कि हर-एक नगर औरर गाँव में उसका
प्रचार किया जाय औरर जल्द-से-जल्द उसकी
ग्राहक-संख्या को
बीस हज़ार तक पहुँचा दिया जाय।
प्रान्त की सभी म्युनिसिपैलिटियों
औरर जिला बोर्ड के चेयरमैन
हमारे मित्र हैं।
कई चेयरमैन तो यहीं विराजमान
हैं।
अगर हर-एक ने
पाँच-पाँच सौ
प्रतियाँ भी ले लीं,
तो पचीस हज़ार प्रतियाँ तो आप यक़ीनी
समझें।
फिर राय साहब औरर मिरज़ा साहब की यह सलाह
है कि कौंसिल में इस विषय का एक प्रस्ताव
रखा जाय कि प्रत्येक गाँव के लिए ' बिजली ' की
एक प्रति सरकारी तौर पर मँगाई जाय, या कुछ वार्षिक सहायता स्वीकार की जाय।
औरर हमें पूरा विश्वास है
कि यह प्रस्ताव पास हो जायगा।
ओंकारनाथ ने जैसे नशे
में झूमते हुए कहा -- हमें गवर्नर के पास
डेपुटेशन ले जाना होगा।
मिरज़ा खुर्शेद बोले
-- ज़रूर-ज़रूर!
' उनसे कहना
होगा कि किसी सभ्य शासन के लिए यह कितनी लज्जा
औरर कलंक की बात है कि ग्रामोत्थान का
अकेला पत्र होने पर भी ' बिजली ' का अस्तित्व
तक नहीं स्वीकार किया जाता। '
मिरज़ा खुर्शेद ने कहा -- अवश्य-अवश्य!
' मैं
गर्व नहीं करता।
अभी गर्व करने का समय नहीं
आया; लेकिन मुझे
इसका दावा है कि ग्राम्य-संगठन के लिए ' बिजली ' ने
जितना उद्योग किया है । । । '
मिस्टर मेहता ने सुधारा -- नहीं महाशय, तपस्या कहिए।
' मैं
मिस्टर मेहता को धन्यवाद देता हूँ।
हाँ, इसे
तपस्या ही कहना चाहिए, बड़ी
कठोर तपस्या।
' बिजली '
ने जो तपस्या की
है, वह इस प्रान्त के ही
नहीं, इस राष्ट्र
के इतिहास में अभूतपूर्व
है। '
मिरज़ा खुर्शेद बोले
-- ज़रूर-ज़रूर!
मिस मालती ने एक पेग औरर दिया
-- हमारे संघ ने यह
निश्चय भी किया है कि कौंसिल में अब
की जो जगह ख़ाली हो,
उसके लिए आपको उम्मेदवार खड़ा किया जाय।
आपको केवल अपनी स्वीकृति देनी
होगी।
शेष सारा काम हम लोग कर
लेंगे।
आपको न ख़र्च से मतलब, न प्रोपेगेंडा, न दौड़-धूप से।
ओंकारनाथ की आँखों की
ज्योति दुगुनी हो गयी।
गर्व-पूर्ण नम्रता से बोले
-- मैं आप
लोगों का सेवक हूँ, मुझसे जो काम चाहे
ले लीजिए।
' हम
लोगों को आपसे ऐसी ही आशा
है।
हम अब तक झूठे देवताओं
के सामने नाक रगड़ते-रगड़ते हार गये औरर कुछ हाथ न लगा।
अब हमने आप में सच्चा
पथ-प्रदर्शक, सच्चा गुरु पाया है औरर इस
शुभ दिन के आनन्द में आज हमें
एकमन, एकप्राण होकर अपने
अहंकार को, अपने
दम्भ को तिलांजलि दे देना चाहिए।
हममें आज से कोई ब्राह्मण
नहीं है, कोई
शूद्र नहीं है,
कोई हिन्दू नहीं है, कोई मुसलमान नहीं है, कोई ऊँच नहीं है,
कोई नीच नहीं है।
हम सब एक ही माता के बालक, एक ही गोद के
खेलनेवाले, एक ही
थाली के खानेवाले भाई हैं।
जो लोग भेद-भाव में विश्वास रखते
हैं, जो लोग
पृथकता औरर कट्टरता के उपासक हैं,
उनके लिए हमारी सभा में
स्थान नहीं है।
जिस सभा के सभापति पूज्य
ओंकारनाथजी जैसे विशाल-हृदय व्यक्ति हों, उस सभा में ऊँच-नीच का,
खान-पान का औरर
जाति-पाँति का भेद
नहीं हो सकता।
जो महानुभाव एकता में औरर
राष्ट्रीयता में विश्वास न रखते
हों, वे कृपा
करके यहाँ से उठ जायँ।
राय साहब ने शंका की -- मेरे विचार में एकता का यह आशय
नहीं है कि सब लोग खान-पान का विचार छोड़ दें।
मैं शराब नहीं पीता, तो क्या मुझे इस सभा से
अलग हो जाना पड़ेगा?
मालती ने निर्मम स्वर में कहा
-- बेशक अलग हो जाना
पड़ेगा।
आप इस संघ में रहकर किसी तरह का
भेद नहीं रख सकते।
मेहता जी ने घड़े को ठोका
-- मुझे सन्देह
है कि हमारे सभापतिजी स्वयम् खान-पान की एकता में विश्वास
नहीं रखते हैं।
ओंकारनाथ का चेहरा जर्द पड़ गया।
इस बदमाश ने यह क्या बेवक्त की शहनाई
बजा दी।
दुष्ट कहीं गड़े मुर्दे न
उखाड़ने लगे,
नहीं, यह सारा सौभाग्य
स्वप्न की भाँति शून्य में विलीन हो
जायगा।
मिस मालती ने उनके मुँह की
ओर जिज्ञासा की दृष्टि से देखकर दृढ़ता
से कहा -- आपका सन्देह
निराधार है मेहता महोदय!
क्या आप समझते हैं कि राष्ट्र की
एकता का ऐसा अनन्य उपासक,
ऐसा उदारचेता पुरुष, ऐसा रसिक कवि इस निरर्थक औरर
लज्जा-जनक भेद को मान्य
समझेगा?
ऐसी शंका करना उसकी राष्ट्रीयता का
अपमान करना है।
ओंकारनाथ का मुख-मंडल प्रदीप्त हो गया।
प्रसन्नता औरर सन्तोष की आभा झलक पड़ी।
मालती ने उसी स्वर में कहा
-- औरर इससे भी अधिक
उनकी पुरुष-भावना का।
एक रमणी के हाथों से शराब का
प्याला पाकर वह कौन भद्र पुरुष है जो
इनकार कर दे?
यह तो नारी-जाति का अपमान होगा, उस नारी-जाति का
जिसके नयन-बाणों
से अपने हृदय को बिन्धवाने की लालसा
पुरुष-मात्र में
होती है, जिसकी
अदाओं पर मर-मिटने
के लिए बड़े-बड़े
महीप लालायित रहते हैं।
लाइए, बोतल
औरर प्याले, औरर
दौर चलने दीजिए।
इस महान् अवसर पर किसी तरह की
शंका, किसी तरह की
आपत्ति राष्ट्र-द्रोह से कम नहीं।
पहले हम अपने सभापति की सेहत का
जाम पीयेंगे।
बफऱ्, शराब
औरर सोडा पहले ही से तैयार था।
मालती ने ओंकारनाथ को
अपने हाथों से लाल विष से भरा हुआ
ग्लास दिया, औरर
उन्हें कुछ ऐसी जादू-भरी चितवन से देखा कि उनकी सारी
निष्ठा, सारी
वर्ण-श्रेष्ठता
काफ़ूर हो गयी।
मन ने कहा --
सारा आचार-विचार
परिस्थितियों के अधीन है।
आज तुम दरिद्र हो, किसी मोटरकार को धूल उड़ाते
देखते हो, तो
ऐसा बिगड़ते हो कि उसे पत्थरों
से चूर-चूर कर
दो; लेकिन क्या
तुम्हारे मन में कार की लालसा नहीं
है?
परिस्थिति ही विधि है औरर कुछ
नहीं।
बाप-दादों
ने नहीं पी थी, न पी
हो।
उन्हें ऐसा अवसर ही कब मिला था।
उनकी जीविका पोथी-पत्रों पर थी।
शराब लाते कहाँ से, औरर पीते भी तो जाते
कहाँ?
फिर वह तो रेलगाड़ी पर न चढ़ते
थे, कल का पानी न
पीते थे,
अँग्रेज़ी पढ़ना पाप समझते थे।
समय कितना बदल गया है।
समय के साथ अगर नहीं चल
सकते, तो वह
तुम्हें पीछे छोड़कर चला जायगा।
ऐसी महिला के कोमल हाथों
से विष भी मिले,
तो शिरोधार्य करना चाहिये।
जिस सौभाग्य के लिए बड़े-बड़े राजे तरसते
हैं; वह आज उनके
सामने खड़ा है।
क्या वह उसे ठुकरा सकते
हैं?
उन्होंने ग्लास ले लिया औरर
सिर झुकाकर अपनी कृतज्ञता दिखाते हुए एक ही
साँस में पी गये औरर तब
लोगों को गर्व भरी आँखों
से देखा, मानो कह
रहे हों, अब
तो आपको मुझ पर विश्वास आया।
क्या समझते हैं, मैं निरा पोंगा पण्डित
हूँ।
अब तो मुझे दम्भी औरर
पाखंडी कहने का साहस नहीं कर सकते?
हाल में ऐसा शोर गुल मचा
कि कुछ न पूछो,
जैसे पिटारे में बन्द गहगहे निकल
पड़े हों।
वाह देवीजी!
क्या कहना है!
कमाल है मिस मालती, कमाल है।
तोड़ दिया,
नमक का क़ानून तोड़ दिया, धर्म का क़िला तोड़ दिया, नेम का घड़ा फोड़ दिया!
ओंकारनाथ के कंठ के नीचे
शराब का पहुँचना था कि उनकी रसिकता वाचाल हो
गयी।
मुस्कराकर बोले -- मैंने अपने धर्म की थाती
मिस मालती के कोमल हाथों में
सौंप दी औरर मुझे विश्वास
है, वह उसकी यथोचित
रक्षा करेंगी।
उनके चरण-कमलों के इस प्रसाद पर मैं
ऐसे एक हज़ार धर्मों को न्योछावर कर
सकता हूँ।
क़हक़हों से हाल गूँज उठा।
सम्पादकजी का चेहरा फूल उठा था, आँखें झुकी पड़ती
थीं।
दूसरा ग्लास भरकर बोले -- यह मिस मालती की सेहत का जाम
है।
आप लोग पियें औरर
उन्हें आशीर्वाद दें।
लोगों ने फिर
अपने-अपने ग्लास ख़ाली
कर दिये।
उसी वक़्त मिरज़ा खुर्शेद ने एक
माला लाकर सम्पादकजी के गले में डाल दी
औरर ।
बोले --
सज्जनो, फ़दिवी ने अभी
अपने पूज्य सदर साहब की शान में एक क़सीदा कहा
है।
आप लोगों की इजाज़त हो
तो सुनाऊँ।
चारों तरफ़ से आवाज़ें
आयीं -- हाँ-हाँ, ज़रूर
सुनाइए।
ओंकारनाथ भंग तो आये दिन
पिया करते थे औरर उनका मस्तिष्क उसका अभ्यस्त हो
गया था, मगर शराब पीने
का उन्हें यह पहला अवसर था।
भंग का नशा मन्थर गति से एक स्वप्न की
भाँति आता था औरर मस्तिष्क पर मेघ के समान
छा जाता था।
उनकी चेतना बनी रहती थी।
उन्हें ख़ुद मालूम होता था कि
इस समय उनकी वाणी बड़ी लच्छेदार है, औरर उनकी कल्पना बहुत प्रबल।
शराब का नशा उनके ऊपर सिंह की भाँति
झपटा औरर दबोच बैठा।
वह कहते कुछ हैं, मुँह से निकलता कुछ
है।
फिर यह ज्ञान भी जाता रहा।
वह क्या कहते हैं औरर क्या करते
हैं, इसकी सुधि ही
न रही।
यह स्वप्न का रोमानी वैचित्र्य न था,
जागृति का वह चक्कर था,
जिसमें साकार निराकार हो
जाता है।
न जाने कैसे उनके मस्तिष्क
में यह कल्पना जाग उठी कि क़सीदा पढ़ना कोई बड़ा
अनुचित काम है।
मेज़ पर हाथ पटककर बोले -- नहीं,
कदापि नहीं।
यहाँ कोई क़सीदा नयी ओगा, नयी ओगा।
हम सभापति हैं।
हमारा हुक्म है।
हम अबी इस सबा को तोड़ सकते
हैं।
अबी तोड़ सकते हैं।
सभी को निकाल सकते हैं।
कोई हमारा कुछ नहीं कर सकता।
हम सभापति हैं।
कोई दूसरा सभापति नयी है।
मिरज़ा ने हाथ जोड़कर कहा -- हुज़ूर, इस क़सीदे में तो आपकी तारीफ़ की
गयी है।
सम्पादकजी ने लाल, पर ज्योतिहीन नेत्रों से
देखा -- तुम हमारी
तारीप क्यों की?
क्यों की?
बोलो,
क्यों हमारी तारीप की?
हम किसी का नौकर नयी है।
किसी के बाप का नौकर नयी है,
किसी साले का दिया नहीं
खाते।
हम ख़ुद सम्पादक है।
हम ' बिजली
' का सम्पादक है।
हम उसमें सबका तारीप करेगा।
देवीजी, हम
तुम्हारा तारीप नयी करेगा।
हम कोई बड़ा आदमी नयी है।
हम सबका ग़ुलाम है।
हम आपका चरण-रज
है।
मालती देवी हमारी लक्ष्मी, हमारा सरस्वती,
हमारी राधा . . .
यह कहते हुए वे मालती के
चरणों की तरफ़ झुके औरर मुँह
के बल फ़र्श पर गिर
पड़े।
मिरज़ा खुर्शेद ने दौड़कर
उन्हें सँभाला औरर कुर्सियाँ हटाकर
वहीं ज़मीन पर लिटा दिया।
फिर उनके कानों के पास
मुँह ले जाकर बोले -- राम-राम सत्त
है!
कहिए तो आपका जनाज़ा निकालें।
राय साहब ने कहा -- कल देखना कितना बिगड़ता है।
एक-एक को
अपने पत्र में रगेदेगा।
औरर ऐसा-ऐसा रगेदेगा कि आप भी याद
करेंगे!
एक ही दुष्ट है, किसी पर दया नहीं करता।
लिखने में तो अपना जोड़
नहीं रखता।
ऐसा गधा आदमी कैसे इतना अच्छा
लिखता है, यह रहस्य है।
कई आदमियों ने सम्पादकजी को
उठाया औरर ले जाकर उनके कमरे में लिटा
दिया।
उधर पंडाल में धनुष-यज्ञ हो रहा था।
कई बार इन लोगों को
बुलाने के लिए आदमी आ चुके थे।
कई हुक्काम भी पंडाल में आ
पहुँचे थे।
लोग उधर जाने को तैयार हो
रहे थे कि सहसा एक अफ़गान आकर खड़ा हो गया।
गोरा रंग,
बड़ी-बड़ी
मूँछें,
ऊँचा क़द, चौड़ा
सीना, आँखों
में निर्भयता का उन्माद भरा हुआ, ढीला नीचा कुरता, पैरों में शलवार, ज़री के काम की सदरी, सिर पर पगड़ी औरर कुलाह, कन्धे में चमड़े का
बैग लटकाये, कन्धे
पर बन्दूक़ रखे औरर कमर में तलवार
बाँधे न जाने किधर से आ खड़ा हो गया
औरर गरजकर बोला --
ख़बरदार!
कोई यहाँ से मत जाओ।
अमारा साथ का आदमी पर डाका पड़ा हैं।
यहाँ का जो सरदार है।
वह अमारा आदमी को लूट लिया है,
उसका माल तुमको देना
होगा!
एक-एक कौड़ी
देना होगा।
कहाँ है सरदार, उसको बुलाओ।
राय साहब ने सामने आकर
क्रोध-भरे स्वर
में कहा -- ' कैसी लूट!
कैसा डाका?
यह तुम लोगों का काम है।
यहाँ कोई किसी को नहीं
लूटता।
साफ़-साफ़
कहो, क्या मामला
है?
अफ़गान ने आँखें निकालीं
औरर बन्दूक़ का कुन्दा ज़मीन पर पटककर बोला
-- अमसे पूछता है
कैसा लूट, कैसा
डाका?
तुम लूटता है, तुम्हारा आदमी लूटता है।
अम यहाँ की कोठी का मालिक है।
अमारी कोठी में पचास जवान है।
अमारा आदमी रुपए तहसील कर लाता था।
एक हज़ार।
वह तुम लूट लिया, औरर कहता है कैसा डाका?
अम बतलायेगा कैसा डाका होता है।
अमारा पचीसों जवान अबी आता है।
अम तुम्हारा गाँव लूट लेगा।
कोई साला कुछ नयीं कर सकता,
कुछ नयीं कर सकता।
खन्ना ने अफ़गान के तेवर
देखे तो चुपके से उठे कि निकल
जायँ।
सरदार ने ज़ोर से डाँटा
-- काँ जाता
तुम?
कोई कई नयीं जा सकता।
नयीं अम सबको क़तल कर देगा।
अबी फैर कर देगा।
अमारा तुम कुछ नयीं कर सकता।
अम तुम्हारा पुलिस से नयीं डरता।
पुलिस का आदमी अमारा सकल देखकर भागता
है।
अमारा अपना काँसल है, अम उसको खत लिखकर लाट साहब के पास जा
सकता है।
अम याँ से किसी को नयीं
जाने देगा।
तुम अमारा एक हज़ार रुपया लूट लिया।
अमारा रुपया नयीं देगा, तो अम किसी को ज़िन्दा नहीं
छोड़ेगा।
तुम सब आदमी दूसरों के
माल को लूट करता है औरर याँ माशूक़
के साथ शराब पीता है।
मिस मालती उसकी आँख बचाकर कमरे से
निकलने लगीं कि वह बाज़ की तरह टूटकर उनके
सामने आ खड़ा हुआ औरर बोला -- तुम इन बदमाशों से
अमारा माल दिलवाये,
नयीं अम तुमको उठा ले जायगा औरर अपनी
कोठी में जशन मनायेगा।
तुम्हारा हुस्न पर अम आशिक़ हो गया।
या तो अमको एक हज़ार अबी-अबी दे दे या तुमको
अमारे साथ चलना पड़ेगा।
तुमको अम नहीं छोड़ेगा।
अम तुम्हारा आशिक़ हो गया है।
अमारा दिल औरर जिगर फटा जाता है।
अमारा इस जगह पचीस जवान है।
इस जिला में हमारा पाँच सौ
जवान काम करता है।
अम अपने क़बीले का खान है।
अमारे क़बीला में दस हज़ार सिपाही
हैं।
अम क़ाबुल के अमीर से लड़ सकता है।
अँग्रेज़ सरकार अमको बीस हज़ार
सालाना ख़िराज देता है।
अगर तुम हमारा रुपया नयीं
देगा, तो अम गाँव
लूट लेगा औरर तुम्हारा माशूक़ को उठा
ले जायगा।
ख़ून करने में अमको
लुतफ़ आता है।
अम ख़ून का दरिया बहा देगा!
मजलिस पर आतंक छा गया।
मिस मालती अपना चहकना भूल गयीं।
खन्ना की पिंडलियाँ काँप रही
थीं।
बेचारे चोट-चपेट के भय से एक मंज़िले
बँगले में रहते थे।
ज़ीने पर चढ़ना उनके लिए सूली पर
चढ़ने से कम न था।
गरमी में भी डर के मारे कमरे
में सोते थे।
राय साहब को ठकुराई का अभिमान था।
वह अपने ही गाँव में एक पठान
से डर जाना हास्यास्पद समझते थे, लेकिन उसकी बन्दूक़ को क्या
करते।
उन्होंने ज़रा भी चीं-चपड़ किया औरर इसने बन्दूक़
चलायी।
हूश तो होते ही हैं
ये सब, औरर निशाना
भी इन सबों का कितना अचूक होता
है; अगर उसके हाथ
में बन्दूक़ न होती, तो राय साहब उससे सींग मिलाने
को भी तैयार हो जाते।
मुश्किल यही थी कि दुष्ट किसी को
बाहर नहीं जाने देता।
नहीं,
दम-के-दम में सारा गाँव जमा हो जाता
औरर इसके पूरे जत्थे को
पीट-पाटकर रख देता।
आख़िर उन्होंने दिल मज़बूत किया
औरर जान पर खेलकर बोले -- हमने आपसे कह दिया कि हम
चोर-डाकू नहीं
हैं।
मैं यहाँ की कौंसिल का
मेम्बर हूँ औरर यह देवीजी लखनऊ की
सुप्रसिद्ध डाक्टर हैं।
यहाँ सभी शरीफ़ औरर इज़्ज़तदार लोग
जमा हैं।
हमें बिलकुल ख़बर नहीं,
आपके आदमियों को
किसने लूटा?
आप जाकर थाने में रपट कीजिए।
खान ने ज़मीन पर पैर पटके,
प्ैंतरे बदले औरर
बन्दूक़ को कन्धे से उतारकर हाथ में
लेता हुआ दहाड़ा -- मत
बक-बक करो।
काउंसिल का मेम्बर को अम इस तरह
पैरों से कुचल देता है।
फ़्रफ़्रज़मीन पर पाँव रगड़ता हैप्रप्र
अमारा हाथ मज़बूत है, अमारा दिल मज़बूत है, अम ख़ुदा ताला के सिवा औरर किसी
से नयीं डरता।
तुम अमारा रुपया नहीं देगा,
तो अम फ़्रफ़्रराय साहब की तरफ़ इशारा
करप्रप्र अभी तुमको कतल कर देगा।
अपनी तरफ़ बन्दूक़ की नली देखकर राय साहब
झुककर मेज़ के बराबर आ गये।
अजीब मुसीबत में जान फँसी थी।
शैतान बरबस कहे जाता है, तुमने हमारे रुपए लूट
लिये।
न कुछ सुनता है, न कुछ समझता है, न किसी को बाहर जाने-आने देता है।
नौकर-चाकर,
सिपाही-प्यादे, सब धनुष-यज्ञ देखने में मग्न थे।
ज़मींदारों के नौकर
यों भी आलसी औरर काम-चोर होते ही हैं, जब तक दस दफ़े न पुकारा जाय
बोलते ही नहीं;
औरर इस वक़्त तो वे एक शुभ काम में
लगे हुए थे।
धनुष-यज्ञ
उनके लिए केवल तमाशा नहीं, भगवान् की लीला थी; अगर एक आदमी भी इधर आ जाता, तो सिपाहियों को ख़बर हो
जाती औरर दम-भर
में खान का सारा खानपन निकल जाता, डाढ़ी के एक-एक बाल नुच जाते।
कितना ग़ुस्सेवर है।
होते भी तो जल्लाद हैं।
न मरने का ग़म, न जीने की ख़ुशी।
मिरज़ा साहब ने चकित नेत्रों
से देखा -- क्या
बताऊँ, कुछ अक्ल काम
नहीं करती।
मैं आज अपना पिस्तौल घर ही छोड़
आया, नहीं मज़ा चखा
देता।
खन्ना रोना मुँह बनाकर
बोले -- कुछ रुपए
देकर किसी तरह इस बला को टालिए।
राय साहब ने मालती की ओर देखा
-- देवीजी, अब आपकी क्या सलाह है?
मालती का मुख-मंडल तमतमा रहा था।
बोलीं --
होगा क्या, मेरी इतनी
बेीज़्ज़ती हो रही है औरर आप लोग
बैठे देख रहे हैं!
बोस मर्दों के होते
एक उजड्ड: पठान मेरी इतनी दुर्गति कर रहा है
औरर आप लोगों के ख़ून में
ज़रा भी गर्मी नहीं आती!
आपको जान इतनी प्यारी है?
क्यों एक आदमी बाहर जाकर शोर
नहीं मचाता?
क्यों आप लोग उस पर झपटकर
उसके हाथ से बन्दूक़ नहीं छीन
लेते?
बन्दूक़ ही तो चलायेगा?
चलाने दो।
एक या दो की जान ही तो जायगी?
जाने दो।
मगर देवीजी मर जाने को जितना
आसान समझती थीं औरर लोग न समझते
थे।
कोई आदमी बाहर निकलने की फिर हिम्मत
करे औरर पठान ग़ुस्से में आकर
दस-पाँच फैर कर
दे, तो यहाँ सफ़ाया
हो जायगा।
बहुत होगा, पुलिस उसे फाँसी की सज़ा दे
देगी।
वह भी क्या ठीक।
एक बड़े क़बीले का सरदार है।
उसे फाँसी देते हुए सरकार भी
सोच-विचार करेगी।
ऊपर से दबाव पड़ेगा।
राजनीति के सामने न्याय को कौन
पूछता है।
हमारे ऊपर उलटे मुक़दमे दायर
हो जायँ औरर दंडकारी पुलिस बिठा दी
जाय, तो आश्चर्य
नहीं; कितने मज़े
से हँसी-मज़ाक़ हो
रहा था।
अब तक ड्रामा का आनन्द उठाते होते।
इस शैतान ने आकर एक नयी विपत्ति खड़ी
कर दी, औरर ऐसा जान
पड़ता है, बिना
दो-एक ख़ून किये
मानेगा भी नहीं।
खन्ना ने मालती को फटकारा -- देवीजी, आप तो हमें ऐसा लताड़ रही
हैं मानो अपनी प्राण रक्षा करना कोई पाप
है, प्राण का मोह
प्राणी-मात्र में होता
है औरर हम लोगों में भी
हो, तो कोई लज्जा
की बात नहीं।
आप हमारी जान इतनी सस्ती समझती
हैं; यह देखकर
मुझे खेद होता है।
एक हज़ार का ही तो मुआमला है।
आपके पास मुफ़्त के एक हज़ार
हैं, उसे देकर
क्यों नहीं बिदा कर देतीं?
आप ख़ुद अपनी बेीज़्ज़ती करा रही
हैं, इसमें
हमारा क्या दोष?
राय साहब ने गर्म होकर कहा
-- अगर इसने देवीजी
को हाथ लगाया, तो
चाहे मेरी लाश यहीं तड़पने लगे,
मैं उससे भिड़
जाऊँगा।
आख़िर वह भी आदमी ही तो है।
मिरज़ा साहब ने सन्देह से सिर हिलाकर
कहा -- राय साहब, आप अभी इन सबों के मिज़ाज
से वाक़िफ़ नहीं हैं।
यह फैर करना शुरू करेगा, तो फिर किसी को ज़िन्दा न
छोड़ेगा।
इनका निशाना बेखता होता है।
मि। तंखा बेचारे आनेवाले
चुनाव की समस्या सुलझने आये थे।
दस-पाँच हज़ार
का वारा-न्यारा करके घर
जाने का स्वप्न देख रहे थे।
यहाँ जीवन ही संकट में पड़ गया।
बोले --
सबसे सरल उपाय वही है, जो अभी खन्नाजी ने बतलाया।
एक हज़ार ही की बात है औरर रुपए
मौजूद हैं,
तो आप लोग क्यों इतना
सोच-विचार कर रहे
हैं?
मिस मालती ने तंखा को
तिरस्कार-भरी आँखों
से देखा।
' आप लोग
इतने कायर हैं, यह
मैं न समझती थी। '
' मैं भी
यह न समझता था कि आप को रुपए इतने प्यारे
हैं औरर वह भी मुफ़्त के! '
' जब आप
लोग मेरा अपमान देख सकते
हैं, तो अपने
घर की स्त्रियों का अपमान भी देख सकते
होंगे? '
' तो आप भी
पैसे के लिए अपने घर के
पुरुषों को होम करने में
संकोच न करेंगी। '
खान इतनी देर तक झल्लाया हुआ-सा इन लोगों की गिटपिट
सुन रहा था।
एका-एक गरजकर
बोला -- अम अब नयीं
मानेगा।
अम इतनी देर यहाँ खड़ा है, तुम लोग कोई जवाब
नहीं देता।
( जेब से
सीटी निकालकर ) अम
तुमको एक लमहा औरर देता है; अगर तुम रुपया नहीं देता
तो अम सीटी बजायेगा औरर अमारा पचीस जवान
यहाँ आ जायगा।
बस!
फिर आँखों में प्रेम की
ज्वाला भरकर उसने मिस मालती को देखा।
' तुम
अमारे साथ चलेगा दिलदार!
अम तुम्हारे ऊपर फ़दिा हो जायगा।
अपना जान तुम्हारे क़दमों पर रख
देगा।
इतना आदमी तुम्हारा आशिक़ है; मगर कोई सच्चा आशिक़ नहीं।
सच्चा इश्क़ क्या है, अम दिखा देगा।
तुम्हारा इशारा पाते ही अम अपने
सीने में खंजर चुबा सकता है।
'
मिरज़ा ने घिघियाकर कहा -- देवीजी,
ख़ुदा के लिए इस मूज़ी को रुपए दे दीजिए।
खन्ना ने हाथ जोड़कर याचना की
-- हमारे ऊपर दया करो
मिस मालती!
राय साहब तनकर बोले -- हर्गिज़ नहीं।
आज जो कुछ होना है, हो जाने दीजिये।
या तो हम ख़ुद मर जायँगे,
या इन जालिमों को
हमेशा के लिए सबक़ दे देंगे।
तंखा ने राय साहब को डाँट
बतायी -- शेर की माँद
में घुसना कोई बहादुरी नहीं है।
मैं इसे मूर्खता समझता
हूँ।
मगर मिस मालती के मनोभाव कुछ
औरर ही थे।
खान के लालसाप्रदीप्त नेत्रों
ने उन्हें आश्वस्त कर दिया था औरर अब इस
कांड में उन्हें मनचलेपन का आनन्द आ
रहा था।
उनका हृदय कुछ देर इन
नरपुँगवों के बीच में रहकर
उनके बर्बर प्रेम का आनन्द उठाने के लिए
ललचा रहा था।
शिष्ट प्रेम की दुर्बलता औरर
निर्जीवता का उन्हें अनुभव हो चुका
था।
आज अक्खड़, अनघड़
पठानों के उन्मत्त प्रेम के लिए उनका मन
दौड़ रहा था, जैसे
संगीत का आनन्द उठाने के बाद कोई मस्त
हाथियों की लड़ाई देखने के लिए
दौड़े।
उन्होंने खाँ साहब के
सामने जाकर निश्शंक भाव से कहा -- तुम्हें रुपये नहीं
मिलेंगे।
खान ने हाथ बढ़ाकर कहा -- तो अम तुमको लूट ले
जायगा।
' तुम
इतने आदमियों के बीच से हमें
नहीं ले जा सकता। '
' अम
तुमको एक हज़ार आदमियों के बीच से
ले जा सकता है। '
' तुमको
जान से हाथ धोना पड़ेगा। '
' अम अपने
माशूक़ के लिए अपने जिस्म का एक-एक बोटी नुचवा सकता है। '
उसने मालती का हाथ पकड़कर खींचा।
उसी वक़्त होरी ने कमरे में
क़दम रखा।
वह राजा जनक का माली बना हुआ था औरर
उसके अभिनय ने देहातियों को
हँसाते-हँसाते
लोटा दिया था।
उसने सोचा मालिक अभी तक क्यों
नहीं आये।
वह भी तो आकर देखें कि
देहाती इस काम में कितने कुशल
होते हैं।
उनके यार-दोस्त भी देखें।
कैसे मालिक को
बुलाये?
वह अवसर खोज रहा था, औरर ज्योंही मुहलत मिली,
दौड़ा हुआ यहाँ
आया; मगर यहाँ का दृश्य
देखकर भौचक्का-सा खड़ा रह
गया।
सब लोग चुप्पी साधे, थर-थर
काँपते, कातर
नेत्रों से खान को देख रहे
थे औरर ख़ान मालती को अपनी तरफ़ खींच रहा
था।
उसकी सहज बुद्धि ने परिस्थिति का
अनुमान कर लिया।
उसी वक़्त राय साहब ने पुकारा -- होरी,
दौड़कर जा औरर सिपाहियों को
बुला, ला जल्द
दौड़!
होरी पीछे मुड़ा था कि ख़ान ने
उसके सामने बन्दूक़ तानकर डाँटा -- कहाँ जाता है सुअर, हम गोली मार देगा।
होरी गँवार था।
लाल पगड़ी देखकर उसके प्राण निकल जाते
थे; लेकिन मस्त
साँड़ पर लाठी लेकर पिल पड़ता था।
वह कायर न था,
मारना औरर मरना दोनों ही जानता था;
मगर पुलिस के
हथकंडों के सामने उसकी एक न चलती थी।
बँधे-बँधे कौन फिरे, रिश्वत के रुपए कहाँ से
लाये, बाल-बच्चों को किस पर
छोड़े; मगर जब मालिक
ललकारते हैं,
तो फिर किसका डर।
तब तो वह मौत के मुँह
में भी कूद सकता है।
उसने झपटकर ख़ान की कमर पकड़ी औरर
ऐसा अड़ंगा मारा कि ख़ान चारों खाने
चित्त ज़मीन पर आ रहे औरर लगे पश्तों
में गालियाँ देने।
होरी उनकी छाती पर चढ़
बैठा औरर ज़ोर से दाढ़ी पकड़कर खींची।
दाढ़ी उसके हाथ में आ गयी।
ख़ान ने तुरन्त अपनी कुलाह उतार
फेंकी औरर ज़ोर मारकर खड़ा हो गया।
अरे!
यह तो मिस्टर मेहता हैं।
वही!
लोगों ने चारों तरफ़
से मेहता को घेर लिया।
कोई उनके गले लगता, कोई उनकी पीठ पर थपकियाँ
देता था औरर मिस्टर मेहता के चेहरे पर
न हँसी थी, न
गर्व; चुपचाप खड़े
थे, मानो कुछ
हुआ ही नहीं।
मालती ने नक़ली रोष से कहा
-- आपने यह बहुरूपपन
कहाँ सीखा?
मेरा दिल अभी तक धड़-धड़ कर रहा है।
मेहता ने मुस्कराते हुए कहा
-- ज़रा इन भले
आदमियों की जवाँमर्दी की परीक्षा ले रहा
था।
जो गुस्ताख़ी हुई हो, उसे क्षमा कीजिएगा।
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me a gmail message at peter.e.hook and I will post the remaining
chapters. However, it will be some time before I can paragraph them.
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Recoded: 20 Sept. 1999 to 6 Oct 1999.
Chapter Six posted: 12 Oct. 1999.