यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
इन्स्टिट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़
लैंग्वजिज़ ऐंड कल्चर्ज़ ऑफ़
एशिया ऐंड ऐफ़्रिका
तोक्यो
यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ाॅरेन स्टडीज़
Mellon Project
प्रेमचन्द
गोदान
(Devanagari text reconstituted from Professor K. Machida's roman
transcription)
Chapter Twenty-seven.
(unparagraphed text)
गोबर को शहर आने पर
मालूम हुआ कि जिस अड्डे पर वह अपना
खोंचा लेकर बैठता था, वहाँ एक दूसरा खोंचेवाला
बैठने लगा है औरर गाहक अब गोबर को
भूल गये हैं।
वह घर भी अब उसे पिंजरे-सा लगता था।
झुनिया उसमें अकेली बैठी
रोया करती।
लड़का दिन-भर
आँगन में या द्वार पर खेलने का आदी था।
यहाँ उसके खेलने को कोई
जगह न थी।
कहाँ जाय?
द्वार पर मुश्किल से एक गज का रास्ता था।
दुर्गन्ध उड़ा करती थी।
गर्मी में कहीं बाहर
लेटने-बैठने की
जगह नहीं।
लड़का माँ को एक क्षण के लिए न
छोड़ता था।
औरर जब कुछ खेलने को न
हो, तो कुछ
खाने औरर दूध पीने के सिवा वह औरर
क्या करे?
घर पर कभी धनिया खेलाती, कभी रूपा,
कभी सोना, कभी
होरी, कभी पुनिया।
यहाँ अकेली झुनिया थी औरर
उसे घर का सारा काम करना पड़ता था।
औरर गोबर जवानी के नशे
में मस्त था।
उसकी अतृप्त लालसाएँ विषय-भोग के सागर में डूब
जाना चाहती थीं।
किसी काम में उसका मन न लगता।
खोंचा लेकर जाता, तो घंटे-भर ही में लौट आता।
मनोरंजन का कोई दूसरा सामान न
था।
पड़ोस के मजूर औरर इक्केवान
रात-रात भर ताश औरर
जुआ खेलते थे।
पहले वह भी ख़ूब खेलता था;
मगर अब उसके लिए केवल
मनोरंजन था,
झुनिया के साथ हासविलास।
थोड़े ही दिनों में
झुनिया इस जीवन से ऊब गयी।
वह चाहती थी,
कहीं एकान्त में जाकर बैठे, ख़ूब निश्चिन्त होकर
लेटे-सोये; मगर
वह एकान्त कहीं न मिलता।
उसे अब गोबर पर ग़ुस्सा आता।
उसने शहर के जीवन का कितना मोहक
चित्र खींचा था, औरर
यहाँ इस काल-कोठरी
के सिवा औरर कुछ नहीं।
बालक से भी उसे चिढ़ होती थी।
कभी-कभी वह उसे
मारकर बाहर निकाल देती औरर अन्दर से किवाड़ बन्द कर
लेती।
बालक
रोते-रोते बेदम
हो जाता।
उस पर विपत्ति यह कि उसे दूसरा बच्चा
पैदा होनेवाला था।
कोई आगे न पीछे।
अक्सर सिर में दर्द हुआ करता।
खाने से अरुचि हो गयी थी।
ऐसी तन्द्रा होती थी कि कोने
में चुपचाप पड़ी रहे।
कोई उससे न बोले-चाले;
मगर यहाँ गोबर का निष्ठुर प्रेम स्वागत
के लिए द्वार खटखटाता रहता था।
स्तन में दूध नाम को
नहीं; लेकिन लल्लू
छाती पर सवार रहता था।
देह के साथ उसका मन भी दुर्बल
हो गया।
वह जो संकल्प करती, उसे थोड़े-से आग्रह पर तोड़ देती।
वह लेटी होती औरर लल्लू आकर
ज़बरदस्ती उसकी छाती पर बैठ जाता औरर स्तन
मुँह में लेकर चबाने लगता।
वह अब दो साल का हो गया था।
बड़े तेज़ दाँत निकल आये थे।
मुँह में दूध न जाता,
तो वह क्रोध में
आकर स्तन में दाँत काट लेता; लेकिन झुनिया में अब
इतनी शक्ति भी न थी कि उसे छाती पर से ढकेल
दे।
उसे हरदम मौत
सामने खड़ी नज़र आती।
पति औरर पुत्र किसी से भी उसे
स्नेह न था।
सभी अपने मतलब के यार हैं।
बरसात के दिनों में जब
लल्लू को दस्त आने लगे औरर उसने
दूध पीना छोड़ दिया,
तो झुनिया को सिर से एक विपत्ति टल
जाने का अनुभव हुआ; लेकिन जब एक सप्ताह के बाद बालक मर
गया, तो उसकी स्मृति
पुत्र-स्नेह से सजीव
होकर उसे रुलाने लगी।
औरर जब गोबर बालक के मरने
के एक ही सप्ताह बाद फिर आग्रह करने लगा, तो उसने क्रोध से जलकर
कहा -- तुम कितने
पशु हो!
झुनिया को अब लल्लू की स्मृति
लल्लू से भी कहीं प्रिय थी।
लल्लू जब तक सामने था वह उससे
जितना सुख पाती थी,
उससे कहीं ज़्यादा कष्ट पाती थी।
अब लल्लू उसके मन में आ
बैठा था, शान्त, स्थिर,
सुशील, सुहास।
उसकी कल्पना में अब वेदनामय आनन्द
था, जिसमें प्रत्यक्ष की
काली छाया न थी।
बाहरवाला लल्लू उसके भीतरवाले
लल्लू का प्रतिबिम्ब मात्र था।
प्रतिबिम्ब सामने न था जो असत्य
था, अस्थिर था।
सत्य रूप तो उसके भीतर था, उसकी आशाओं औरर
शुभेच्छाओं से सजीव।
दूध की जगह वह उसे अपना रक्त
पिला-पिलाकर पाल रही थी।
उसे अब वह बन्द कोठरी, औरर वह दुर्गन्धमयी वायु औरर
वह दोनों जून धुएँ में
जलना, इन बातों का
मानों ज्ञान ही न रहा।
वह स्मृति उसके भीतर बैठी हुई
जैसे उसे शक्ति प्रदान करती रहती।
जीते-जी
जो उसके जीवन का भार था, मरकर उसके प्राणों में समा
गया था।
उसकी सारी ममता अन्दर जाकर बाहर से उदासीन
हो गयी।
गोबर देर में आता है या
जल्द, रुचि से भोजन
करता है या नहीं,
प्रसन्न है या उदास, इसकी
अब उसे बिलकुल चिन्ता न थी।
गोबर क्या कमाता है औरर कैसे
ख़र्च करता है इसकी भी उसे परवा न थी।
उसका जीवन जो कुछ था, भीतर था,
बाहर वह केवल निर्जीव यन्त्र थी।
उसके शोक में भाग
लेकर, उसके
अन्तर्जीवन में पैठकर, गोबर उसके समीप जा सकता था, उसके जीवन का अंग बन सकता
था; पर वह उसके बाह्य
जीवन के सूखे तट पर आकर ही प्यासा लौट जाता
था।
एक दिन उसने रूखे स्वर में कहा
-- तो लल्लू के नाम
को कब तक रोये जायगी?
चार-पाँच
महीने तो हो गये।
झुनिया ने ठंडी साँस लेकर
कहा -- तुम मेरा
दु:ख नहीं समझ सकते।
अपना काम देखो।
मैं जैसी हूँ, वैसी पड़ी रहने दो।
' तेरे
रोते रहने से लल्लू लौट
आयेगा? '
झुनिया के पास इसका कोई जवाब न
था।
वह उठकर पतीली में कचालू के लिए
आलू उबालने लगी।
गोबर को ऐसा पाषाण-हृदय उसने न समझा था।
इस बेदर्दी ने लल्लू को
उसके मन में औरर सजग कर दिया।
लल्लू उसी का है, उसमें किसी का साझा नहीं, किसी का हिस्सा नहीं।
अभी तक लल्लू किसी अंश में
उसके हृदय के बाहर भी था, गोबर के हृदय में भी उसकी
कुछ ज्योति थी।
अब वह सम्पूर्ण रूप से उसका था।
गोबर ने खोंचे से
निराश होकर शक्कर के मिल में नौकरी कर ली
थी।
मिस्टर खन्ना ने पहले मिल से
प्रोत्साहित होकर हाल में यह दूसरा मिल
खोल दिया था।
गोबर को वहाँ बड़े
सबेरे जाना पड़ता,
औरर दिन-भर के बाद जब
वह दिया-जले घर
लौटता, तो उसकी
देह में ज़रा भी जान न रहती।
घर पर भी उसे इससे कम मेहनत न
करनी पड़ती थी; लेकिन
वहाँ उसे ज़रा भी थकन न होती थी।
बीच-बीच
में वह हँस-बोल भी लेता था।
फिर उस खुले हुए मैदान
में, उन्मुक्त आकाश
के नीचे, जैसे
उसकी क्षति पूरी हो जाती थी।
वहाँ उसकी देह चाहे जितना काम
करे, मन स्वच्छन्द रहता था।
यहाँ देह की उतनी मेहनत न
होने पर भी जैसे उस कोलाहल, उस गति औरर तूफ़ानी शोर का
उस पर बोझ-सा लदा रहता
था।
यह शंका भी बनी रहती थी कि न जाने कब
डाँट पड़ जाय।
सभी श्रमिकों की यही दशा थी।
सभी ताड़ी या शराब में अपनी दैहिक
थकान औरर मानसिक अवसाद को डुबाया करते
थे।
गोबर को भी शराब का चस्का पड़ा।
घर आता तो नशे में
चूर, औरर पहर रात
गये।
औरर आकर कोई-न-कोई बहाना
खोजकर झुनिया को गालियाँ देता,
घर से निकालने लगता
औरर कभी-कभी पीट भी
देता।
झुनिया को अब यह शंका होने
लगी कि वह रखेली है,
इसी से उसका यह अपमान हो रहा है।
ब्याहता होती,
तो गोबर की मजाल थी कि
उसके साथ यह बर्ताव करता।
बिरादरी उसे दंड देती, हुक़्क़ा-पानी बन्द कर देती।
उसने कितनी बड़ी भूल की कि इस कपटी के
साथ घर से निकल भागी।
सारी दुनिया में हँसी भी हुई
औरर हाथ कुछ न आया।
वह गोबर को अपना दुश्मन
समझने लगी।
न उसके खाने-पीने की परवाह करती, न अपने खाने-पीने की।
जब गोबर उसे मारता, तो उसे ऐसा क्रोध आता कि
गोबर का गला छुरे से रेत डाले।
गर्भ ज्यों-ज्यों पूरा होता जाता
है, उसकी चिन्ता बढ़ती जाती
है।
इस घर में तो उसकी मरन हो
जायगी।
कौन उसकी देखभाल करेगा, कौन उसे
सँभालेगा?
औरर जो गोबर इसी तरह
मारता-पीटता रहा, तब तो उसका जीवन नरक ही हो
जायगा।
एक दिन वह बम्बे पर पानी भरने
गयी, तो पड़ोस की एक
स्त्री ने पूछा -- कै
महीने का है रे?
झुनिया ने लजाकर कहा -- क्या जाने दीदी, मैंने तो गिना-गिनाया नहीं है।
दोहरी देह की, काली-कलूटी,
नाटी, कुरूपा, बड़े-बड़े स्तनोंवाली स्त्री थी।
उसका पति एक्का हाँकता था औरर वह ख़ुद
लकड़ी की दूकान करती थी।
झुनिया कई बार उसकी दूकान से लकड़ी
लायी थी।
इतना ही परिचय था।
मुस्कराकर बोली -- मुझे तो जान पड़ता है,
दिन पूरे हो गये
हैं।
आज ही कल में होगा।
कोई दाई-वाई ठीक
कर ली है?
झुनिया ने भयातुर-स्वर में कहा -- मैं तो यहाँ किसी को
नहीं जानती।
' तेरा
मर्दुआ कैसा है,
जो कान में तेल डाले बैठा
है? '
' उन्हें
मेरी क्या फ़किर। '
' हाँ,
देख तो रही हूँ।
तुम तो सौर में
बैठोगी, कोई
करने-धरनेवाला चाहिए कि
नहीं।
सास-ननद,
देवरानी-जेठानी, कोई
है कि नहीं?
किसी को बुला लेना था। '
' मेरे लिए
सब मर गये। '
वह पानी लाकर जूठे बरतन
माँजने लगी, तो
प्रसव की शंका से हृदय में धड़कनें
हो रही थीं।
सोचने लगी -- कैसे क्या होगा भगवान््?
ऊह!
यही तो होगा मर जाऊँगी; अच्छा है,
जंजाल से छूट जाऊँगी।
शाम को उसके पेट में दर्द
होने लगा।
समझ गयी विपत्ति की घड़ी आ पहुँची।
पेट को एक हाथ से पकड़े हुए
पसीने से तर उसने चूल्हा जलाया, खिचड़ी डाली औरर दर्द से
व्याकुल होकर वहीं ज़मीन पर लेट रही।
कोई दस बजे रात को गोबर
आया, ताड़ी की दुर्गन्ध
उड़ाता हुआ।
लटपटाती हुई ज़बान से ऊटपटाँग बक रहा
था -- मुझे किसी की
परवाह नहीं है।
जिसे सौ दफ़े गरज हो
रहे, नहीं चला जाय।
मैं किसी का ताव नहीं सह सकता।
अपने माँ-बाप का ताव नहीं सहा, जिसने जनम दिया।
तब दूसरों का ताव क्यों
सहूँ।
जमादार आँखें दिखाता है।
यहाँ किसी की धौंस
सहनेवाले नहीं हैं।
लोगों ने पकड़ न लिया
होता, तो ख़ून पी
जाता, ख़ून!
कल देखूँगा बचा को।
फाँसी ही तो होगी।
दिखा दूँगा कि मर्द कैसे
मरते हैं।
हँसता हुआ अकड़ता हुआ, मूँछों पर ताव देता
हुआ फाँसी के तख़्ते पर जाऊँ, तो सही।
औररत की जात!
कितनी बेवफ़ा होती है।
खिचड़ी डाल दी औरर टाँग पसारकर सो
रही।
कोई खाय या न खाय, उसकी बला से।
आप मज़े से फुलके उड़ाती
है, मेरे लिए
खिचड़ी!
सता ले जितना सताते बने;
तुझे भगवान्
सतायेंगे जो न्याय करते हैं।
उसने झुनिया को जगाया नहीं।
कुछ बोला भी नहीं।
चुपके से खिचड़ी थाली में
निकाली औरर दो-चार
कौर निगलकर बरामदे में लेट रहा।
पिछले पहर उसे सर्दी लगी।
कोठरी में कम्बल लेने गया
तो झुनिया के कराहने की आवाज़ सुनी।
नशा उतर चुका था।
पूछा --
कैसा जी है झुनिया!
कहीं दरद है क्या?
' हाँ,
पेट में ज़ोर से
दरद हो रहा है। '
' तूने
पहले क्यों नहीं कहा।
अब इस बखत कहाँ जाऊँ? '
' किससे
कहती? '
' मैं क्या
मर गया था? '
' तुम्हें मेरे
मरने-जीने की क्या
चिन्ता? '
गोबर घबराया, कहाँ दाई खोजने जाय?
इस वक़्त वह आने ही क्यों लगी।
घर में कुछ है भी तो
नहीं, चुड़ैल
ने पहले बता दिया होता तो किसी से
दो-चार रुपए माँग लाता।
इन्हीं हाथों में
सौ-पचास रुपए हरदम पड़े
रहते थे, चार आदमी
ख़ुशामद करते थे।
इस कुलच्छनी के आते ही जैसे
लक्ष्मी रूठ गयी।
टके-टके
को मुहताज हो गया।
सहसा किसी ने पुकारा -- यह क्या तुम्हारी घरवाली कराह रही
है?
दरद तो नहीं हो रहा है?
यह वही मोटी औररत थी जिससे आज
झुनिया की बातचीत हुई थी, घोड़े को दाना खिलाने उठी थी।
झुनिया का कराहना सुनकर पूछने आ
गयी थी।
गोबर ने बरामदे में जाकर
कहा -- पेट में
दर्द है।
छटपटा रही है।
यहाँ कोई दाई मिलेगी?
' वह तो
मैं आज उसे देखकर ही समझ गयी थी।
दाई कच्ची सराय में रहती है।
लपककर बुला लाओ।
कहना, जल्दी चल।
तब तक मैं यहीं बैठी
हूँ। '
' मैंने तो कच्ची सराय नहीं
देखी, किधर
है? '
' अच्छा तुम
उसे पंखा झलते रहो, मैं बुलाये लाती हूँ।
यही कहते हैं, अनाड़ी आदमी किसी काम का नहीं।
पूरा पेट औरर दाई की ख़बर
नहीं। '
यह कहती हुई वह चल दी।
इसके मुँह पर तो लोग
इसे चुहिया कहते हैं, यही इसका नाम था;
लेकिन पीठ पीछे मोटल्ली कहा करते थे।
किसी को मोटल्ली कहते सुन
लेती थी, तो उसके
सात पुरखों तक चढ़ जाती थी।
गोबर को
बैठे दस मिनट भी न हुए होंगे कि
वह लौट आयी औरर बोली -- अब संसार में ग़रीबों का
कैसे निबाह होगा!
राँड़ कहती है, पाँच रुपए लूँगी -- तब चलूँगी।
औरर आठ आने रोज़।
बारहवें दिन एक साड़ी।
मैंने कहा तेरा मुँह
झुलस दूँ।
तू जा चूल्हे में!
मैं देख लूँगी।
बारह बच्चों की माँ यों ही
नहीं हो गयी हूँ।
तुम बाहर आ जाओ गोबरधन,
मैं सब कर लूँगी।
बखत पड़ने पर आदमी ही आदमी के काम आता
है।
चार बच्चे जना लिए तो दाई बन
बैठी!
वह झुनिया के पास जा बैठी औरर
उसका सिर अपनी जाँघ पर रखकर उसका पेट सहलाती हुई
बोली -- मैं
तो आज तुझे देखते ही समझ गयी थी।
सच पूछो,
तो इसी धड़के में आज मुझे नींद
नहीं आयी।
यहाँ तेरा कौन सगा बैठा है।
झुनिया ने दर्द से दाँत
जमाकर ' सी ' करते हुए कहा -- अब न बचूँगी दीदी!
हाय!
मैं तो भगवान् से
माँगने न गयी थी।
एक को पाला-पोसा।
उसे तुमने छीन लिया, तो फिर इसका कौन काम था।
मैं मर जाऊँ माता, तो तुम बच्चे पर दया करना।
उसे पाल-पोस लेना।
भगवान् तुम्हारा भला करेंगे।
चुहिया स्नेह से उसके केश
सुलझाती हुई बोली -- धीरज धर बेटी,
धीरज धर।
अभी छन-भर
में कष्ट कटा जाता है।
तूने भी तो जैसे
चुप्पी साध ली थी।
इसमें किस बात की लाज!
मुझसे बता दिया होता, तो मैं मौलवी साहब
के पास से तावीज़ ला देती।
वही मिरज़ाजी जो इस हाते में
रहते हैं।
इसके बाद झुनिया को कुछ होश
न रहा।
नौ बजे सुबह उसे होश
आया, तो उसने
देखा, चुहिया शिशु
को लिए बैठी है औरर वह साफ़ साड़ी पहने
लेटी हुई है।
ऐसी कमज़ोरी थी, मानो देह में रक्त का नाम न
हो।
चुहिया रोज़ सबेरे आकर
झुनिया के लिए हरीरा औरर हलवा पका जाती औरर
दिन में भी कई बार आकर बच्चे को उबटन मल
जाती औरर ऊपर से दूध पिला जाती।
आज चौथा दिन था; पर झुनिया के स्तनों में
दूध न उतरा था।
शिशु रो-रोकर गला फाड़े
लेता था; क्योंकि
ऊपर का दूध उसे पचता न था।
एक छन को भी चुप न होता था।
चुहिया अपना स्तन उसके मुँह
में देती।
बच्चा एक क्षण चूसता; पर जब दूध न निकलता, तो फिर चीख़ने लगता।
जब चौथे दिन साँझ तक भी
झुनिया के दूध न उतरा, तो चुहिया घबरायी।
बच्चा सूखता चला जाता था।
नख़ास पर एक पेंशनर डाक्टर रहने
थे।
चुहिया उन्हें ले आयी।
डाक्टर ने देख-भाल कर कहा -- इसकी
देह में ख़ून तो है ही नहीं,
दूध कहाँ से आये।
समस्या जटिल हो गयी।
देह में ख़ून लाने के लिए
महीनों पुष्टिकारक दवाएँ खानी
पड़ेंगी, तब कहीं
दूध उतरेगा।
तब तक तो इस मांस के
लोथड़े का ही काम तमाम हो जायगा।
पर रात हो गयी थी।
गोबर ताड़ी पिये ओसारे
में पड़ा था।
चुहिया बच्चे को चुप कराने
के लिए उसके मुँह में अपनी छाती
डाले हुए थी कि सहसा उसे ऐसा मालूम
हुआ कि उसकी छाती में दूध आ गया है।
प्रसन्न होकर बोली -- ले झुनिया, अब तेरा बच्चा जी जायगा, मेरे दूध आ गया।
झुनिया ने चकित होकर कहा
-- तुम्हें दूध आ
गया?
' नहीं
री, सच! '
' मैं
तो नहीं पतियाती। '
' देख
ले! '
उसने अपना स्तन दबाकर दिखाया।
दूध की धार फूट निकली।
झुनिया ने पूछा -- तुम्हारी छोटी बिटिया तो आठ साल
से कम की नहीं है!
' हाँ,
आठवाँ है; लेकिन मुझे दूध बहुत
होता था। '
' इधर तो
तुम्हें कोई बाल-बच्चा नहीं हुआ। '
' वही लड़की
पेट-पोछनी थी।
छाती बिलकुल सूख गयी थी; लेकिन भगवान् की लीला
है, औरर क्या? '
अब से चुहिया चार-पाँच बार आकर बच्चे को दूध पिला
जाती।
बच्चा पैदा तो हुआ था
दुर्बल, लेकिन
चुहिया का स्वस्थ दूध पीकर गदराया जाता था।
एक दिन चुहिया नदी स्नान करने चली गयी।
बच्चा भूख के मारे छटपटाने लगा।
चुहिया दस बजे लौटी, तो झुनिया बच्चे को
कन्धे से लगाये झुला रही थी औरर बच्चा
रोये जाता था।
चुहिया ने बच्चे को उसकी
गोद से लेकर दूध पिला देना चाहा;
पर झुनिया ने उसे
झिड़ककर कहा -- रहने दो।
अभागा मर जाय,
वही अच्छा।
किसी का एहसान तो न लेना पड़ेगा।
चुहिया गिड़गिड़ाने लगी।
झुनिया ने बड़े अदरावन के बाद
बच्चा उसकी गोद में दिया।
लेकिन झुनिया औरर गोबर
में अब भी न पटती थी।
झुनिया के मन में बैठ गया
था कि यह पक्का मतलबी,
बेदर्द आदमी है;
मुझे केवल भोग की वस्तु समझता है।
चाहे मैं मरूँ या जिऊँ;
उसकी इच्छा पूरी किये
जाऊँ, उसे बिलकुल
ग़म नहीं।
सोचता होगा, यह मर जायगी,
तो दूसरी लाऊँगा;
लेकिन मुँह धो रखें बच्चू।
मैं ही ऐसी अल्हड़ थी कि तुम्हारे
फन्दे में आ गयी।
तब तो पैरों पर सिर रखे
देता था।
यहाँ आते ही न जाने क्यों
जैसे इसका मिज़ाज ही बदल गया।
जाड़ा आ गया था;
पर न ओढ़न, न बिछावन।
रोटी-दाल
से जो दो-चार रुपए
बचते, ताड़ी में उड़
जाते थे।
एक पुराना लिहाफ़ था।
दोनों उसी में
सोते थे;
लेकिन फिर भी उनमें सौ कोस का अन्तर था।
दोनों एक ही करवट में रात काट
देते।
गोबर का जी शिशु को गोद
में लेकर खेलाने के लिए तरसकर रह
जाता था।
कभी-कभी वह रात
को उठाकर उसका प्यारा मुखड़ा देख लिया करता;
लेकिन झुनिया की ओर
से उसका मन खिंचता था।
झुनिया भी उससे बात न करती, न उसकी कुछ सेवा ही करती औरर
दोनों के बीच में यह मालिन्य समय
के साथ लोहे के मोर्चे की
भाँति गहरा, दृढ़
औरर कठोर होता जाता था।
दोनों एक दूसरे की
बातों का उलटा ही अर्थ निकालते, वही जिससे आपस का द्वेष
औरर भड़के।
औरर कई दिनों तक एक-एक वाक्य को मन में पाले
रहते औरर उसे अपना रक्त पिला-पिलाकर एक दूसरे पर झपट पड़ने के
लिए तैयार करते रहते, जैसे शिकारी कुत्ते
हों।
उधर गोबर के कारख़ाने में भी
आये दिन एक-न-एक हंगामा उठता रहता था।
अबकी बजट में शक्कर पर डयूटी लगी थी।
मिल के मालिकों को मजूरी
घटाने का अच्छा बहाना मिल गया।
डयूटी से अगर पाँच की हानि थी,
तो मजूरी घटा देने
से दस का लाभ था।
इधर महीनों से इस मिल में
भी यही मसला छिड़ा हुआ था।
मजूरों का संघ हड़ताल करने
को तैयार बैठा हुआ था।
इधर मजूरी घटी औरर उधर हड़ताल हुई।
उसे मजूरी में धेले की
कटौती भी स्वीकार न थी।
जब इस तेज़ी के दिनों
में मजूरी में एक धेले की भी
बढ़ती नहीं हुई, तो
अब वह घाटे में क्यों साथ दे!
मिरज़ा खुर्शेद संघ के
सभापति औरर पण्डित ओंकारनाथ, ' बिजली ' -सम्पादक,
मन्त्री थे।
दोनों ऐसी हड़ताल कराने पर
तुले हुए थे कि मिल-मालिकों को कुछ दिन याद रहे।
मजूरों को भी हड़ताल से
क्षति पहुँचेगी,
यहाँ तक कि हज़ारों आदमी रोटियों
को भी मुहताज हो जायँगे, इस पहलू की ओर उनकी निगाह
बिलकुल न थी।
औरर गोबर हड़तालियों
में सबसे आगे था।
उद्दंड स्वभाव का था ही, ललकारने की ज़रूरत थी।
फिर वह मारने-मरने को न डरता था।
एक दिन झुनिया ने उसे जी कड़ा करके
समझाया भी -- तुम
बाल-बच्चेवाले आदमी
हो, तुम्हारा इस तरह आग
में कूदना अच्छा नहीं।
इस पर गोबर बिगड़ उठा -- तू कौन
होती है मेरे
बीच में बोलनेवाली
?
मैं तुझसे सलाह नहीं
पूछता।
बात बढ़ गयी औरर गोबर ने
झुनिया को ख़ूब पीटा।
चुहिया ने आकर झुनिया
को छुड़ाया औरर गोबर को
डाँटने लगी।
गोबर के सिर पर शैतान
सवार था।
लाल-लाल
आँखें निकालकर बोला -- तुम मेरे घर
में मत आया करो चूहा, तुम्हारे आने का
कुछ काम नहीं।
चुहिया ने व्यंग के साथ
कहा -- तुम्हारे
घर में न आऊँगी, तो मेरी रोटियाँ
कैसे चलेंगी।
यहीं से माँग-जाँचकर ले जाती
हूँ, तब तवा
गर्म होता है।
मैं न होती लाला,
तो यह बीबी आज
तुम्हारी लातें खाने के लिए
बैठी न होती।
गोबर घूँसा तानकर
बोला --
मैंने कह दिया, मेरे घर में न आया
करो।
तुम्हीं ने इस चुड़ैल का
मिज़ाज आसमान पर चढ़ा दिया है।
चुहिया वहीं डटी हुई नि:शंक खड़ी
थी, बोली -- अच्छा अब चुप रहना गोबर!
बेचारी अधमरी लड़कोरी औररत को
मारकर तुमने कोई बड़ी जवाँमर्दी का काम
नहीं किया है।
तुम उसके लिए क्या करते हो कि
तुम्हारी मार सहे?
एक रोटी खिला देते हो
इसलिए?
अपने भाग बखानो कि ऐसी गऊ
औररत पा गये हो।
दूसरी होती, तो तुम्हारे मुँह में
झाड़ू मारकर निकल गई होती।
मुहल्ले के लोग जमा हो
गये औरर चारों ओर से गोबर पर
फटकारें पड़ने लगीं।
वही लोग,
जो अपने घरों में अपनी
स्त्रियों को रोज़ पीटते थे,
इस वक़्त न्याय औरर दया के
पुतले बने हुए थे।
चुहिया औरर शेर हो गयी औरर
फ़रियाद करने लगी -- डाढ़ीजार
कहता है मेरे घर न आया करो।
बीबी-बच्चा
रखने चला है, यह
नहीं जानता कि बीबी-बच्चों का पालना बड़े
गुर्दे का काम है।
इससे पूछो, मैं न होती तो आज यह बच्चा
जो बछड़े की तरह कुलेलें कर रहा
है, कहाँ
होता?
औररत को मारकर जवानी दिखाता है।
मैं न हुई तेरी बीबी, नहीं यही जूती उठाकर मुँह
पर तड़ातड़ जमाती औरर कोठरी में ढकेलकर
बाहर से किवाड़ बन्द कर देती।
दाने को तरस जाते।
गोबर झल्लाया हुआ अपने काम पर चला
गया।
चुहिया औररत न होकर मर्द
होती, तो मज़ा चखा
देता।
औररत के मुँह क्या लगे।
मिल में असन्तोष के बादल
घने होते जा रहे थे।
मज़दूर ' बिजली ' की
प्रतियाँ जेब में लिये फिरते औरर
ज़रा भी अवकाश पाते,
तो दो-तीन मज़दूर
मिलकर उसे पढ़ने लगते।
पत्र की बिक्री ख़ूब बढ़ रही थी।
मज़दूरों के नेता '
बिजली ' कार्यालय में आधी रात तक
बैठे हड़ताल की स्कीमें बनाया करते औरर
प्रात:काल जब पत्र में यह समाचार
मोटे-मोटे
अक्षरों में छपता, तो जनता टूट पड़ती औरर पत्र की
कापियाँ दूने-तिगुने दाम पर बिक जातीं।
उधर कम्पनी के डायरेक्टर भी अपनी घात
में बैठे हुए थे।
हड़ताल हो जाने में ही उनका हित
था।
आदमियों की कमी तो है नहीं।
बेकारी बढ़ी हुई है; इसके आधे वेतन पर ऐसे ही
आदमी आसानी से मिल सकते हैं।
माल की तैयारी में एकदम आधी बचत
हो जायगी।
दस-पाँच दिन
काम का हरज़ होगा, कुछ
परवाह नहीं।
आख़िर यह निश्चय हो गया कि मज़ूरी
में कमी का ऐलान कर दिया जाय।
दिन औरर समय नियत कर दिया गया, पुलिस को सूचना दे दी
गयी।
मजूरों को कानोंकान
ख़बर न थी।
वे अपनी घात में थे।
उसी वक़्त हड़ताल करना चाहते थे;
जब गोदाम में
बहुत थोड़ा माल रह जाय औरर माँग की
तेज़ी हो।
एकाएक एक दिन जब मजूर लोग शाम को
छुट्टी पाकर चलने लगे, तो डायरेक्टरों का ऐलान
सुना दिया गया।
उसी वक़्त पुलिस आ गयी।
मजूरों को अपनी इच्छा के
विरुद्ध उसी वक़्त हड़ताल करनी पड़ी, जब गोदाम में इतना माल भरा
हुआ था कि बहुत तेज़ माँग होने पर
भी छ: महीने से पहले न उठ सकता था।
मिरज़ा खुर्शेद ने यह ख़बर
सुनी, तो
मुस्कराये,
जैसे कोई मनस्वी योद्धा अपने
शत्रु के रण-कौशल
पर मुग्ध हो गया हो।
एक क्षण विचारों में डूबे
रहने के बाद बोले -- अच्छी बात है।
अगर डायरेक्टरों की यही इच्छा
है, तो यही सही।
हालतें उनके मुआफ़क़ि
हैं; लेकिन
हमें न्याय का बल है।
वह लोग नये आदमी रखकर अपना काम
चलाना चाहते हैं।
हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि
उन्हें एक भी नया आदमी न मिले।
यही हमारी फ़तह होगी।
' बिजली '
-कार्यालय में उसी वक़्त ख़तरे की
मीटिंग हुई,
कार्य-कारिणी समिति का भी
संगठन हुआ,
पदाधिकारियों का चुनाव हुआ औरर आठ
बजे रात को मजूरों का लम्बा
जुलूस निकला।
दस बजे रात को कल का सारा
प्रोग्राम तय किया गया औरर यह ताकीद कर दी गयी कि
किसी तरह का दंगा-फ़साद न
होने पाये।
मगर सारी कोशिश बेकार हुई।
हड़तालियों ने नये
मजूरों का टिड्ड:ी-दल मिल के द्वार पर खड़ा देखा, तो इनकी हिंसा-वृत्ति क़ाबू के बाहर हो गयी।
सोचा था,
सौ-सौ
पचास-पचास आदमी रोज़
भर्ती के लिए आयेंगे।
उन्हें समझा-बुझाकर या धमका कर भगा देंगे।
हड़तालियों की संख्या देखकर
नये लोग आप ही भयभीत हो
जायँगे, मगर यहाँ
तो नक्शा ही कुछ औरर था; अगर यह सारे आदमी भर्ती हो
गये, हड़तालियों
के लिए समझौते की कोई आशा ही न थी।
तय हुआ कि नये आदमियों को
मिल में जाने ही न दिया जाये।
बल-प्रयोग
के सिवा औरर कोई उपाय न था।
नया दल भी लड़ने-मरने पर तैयार था।
उनमें अधिकांश ऐसे
भुखमरे थे,
जो इस अवसर को किसी तरह भी न छोड़ना चाहते
थे।
भूखों मर जाने से या
अपने बाल-बच्चों
को भूखों मरते देखने से
तो यह कहीं अच्छा था कि इस परिस्थिति से लड़कर
मरें।
दोनों दलों में
फ़ौजदारी हो गयी।
' बिजली '
-सम्पादक
तो भाग खड़े हुए,
बेचारे मिरज़ाजी पिट गये औरर उनकी रक्षा
करते हुए गोबर भी बुरी तरह घायल हो
गया।
मिरज़ाजी पहलवान आदमी थे औरर
मँजे हुए फिकैत, अपने ऊपर कोई गहरा वार न पड़ने दिया।
गोबर गँवार था।
पूरा लट्ठ मारना जानता था; पर अपनी रक्षा करना न जानता था,
जो लड़ाई में मारने
से ज़्यादा महत्व की बात है।
उसके एक हाथ की हड्ड:ी टूट गयी,
सिर खुल गया औरर अन्त
में वह वहीं ढेर हो गया।
कन्धों पर अनगिनती लाठियाँ पड़ी
थीं, जिससे उसका
एक-एक अंग चूर हो
गया था।
हड़तालियों ने उसे गिरते
देखा, तो भाग खड़े
हुए।
केवल दस-बारह
जँचे हुए आदमी मिरज़ा को घेरकर खड़े
रहे।
नये आदमी विजय-पताका उड़ाते हुए मिल में दाख़िल
हुए औरर पराजित हड़ताली अपने हताहतों
को उठा-उठाकर अस्पताल
पहुँचाने लगे; मगर अस्पताल में इतने
आदमियों के लिए जगह न थी।
मिरज़ाजी तो ले लिये गये।
गोबर की मरहम-पट्टी करके उसके घर पहुँचा दिया
गया।
झुनिया ने गोबर की वह
चेष्टाहीन लोथ देखी तो उसका नारीत्व जाग
उठा।
अब तक उसने उसे सबल के रूप
में देखा था,
जो उस पर शासन करता था,
डाँटता था, मारता था।
आज वह अपंग था, निस्सहाय था,
दयनीय था।
झुनिया ने खाट पर झुककर
आँसू भरी आँखों से गोबर
को देखा औरर घर की दशा का ख़याल करके उसे
गोबर पर एक ईष्र्यामय क्रोध आया।
गोबर जानता था कि घर में एक
पैसा नहीं है वह यह भी जानता था कि कहीं
से एक पैसा मिलने की आशा नहीं है।
यह जानते हुए भी, उसके बार-बार
समझाने पर भी, उसने
यह विपत्ति अपने ऊपर ली।
उसने कितनी बार कहा था -- तुम इस झगड़े में न
पड़ो, आग लगाने
वाले आग लगाकर अलग हो जायँगे, जायगी ग़रीबों के सिर;
लेकिन वह कब उसकी
सुनने लगा था।
वह तो उसकी बैरिन थी।
मित्र तो वह लोग थे, जो अब मज़े से
मोटरों में घूम रहे हैं।
उस क्रोध में एक प्रकार की तुष्टि
थी, जैसे हम उन
बच्चों को कुरसी से गिर पड़ते
देखकर, जो
बार-बार मना करने पर
खड़े होने से बाज़ न आते थे,
चिल्ला उठते हैं
-- अच्छा हुआ, बहुत अच्छा, तुम्हारा सिर क्यों न दो हो
गया।
लेकिन एक ही क्षण में गोबर का
करुण-क्रन्दन सुनकर उसकी सारी
संज्ञा सिहर उठी।
व्यथा में डूबे हुए यह शब्द
उसके मुँह से निकले -- हाय-हाय!
सारी देह भुरकस हो गयी।
सबों को तनिक भी दया न आयी।
वह उसी तरह बड़ी देर तक गोबर का
मुँह देखती रही।
वह क्षीण होती हुई आशा से जीवन का
कोई लक्षण पा लेना चाहती थी।
औरर प्रति-क्षण
उसका धैर्य अस्त होने वाले सूर्य
की भाँति डूबता जाता था, औरर भविष्य का अन्धकार उसे अपने अन्दर
समेट लेता था।
सहसा चुहिया ने आकर पुकारा
-- गोबर का क्या हाल
है, बहू!
मैने तो अभी सुना।
दूकान से दौड़ी आयी हूँ।
झुनिया के रुके हुए आँसू
उबल पड़े; कुछ बोल
न सकी।
भयभीत आँखों से चुहिया की
ओर देखा।
चुहिया ने गोबर का मुँह
देखा, उसकी छाती पर हाथ
रखा, औरर आश्वासन
भरे स्वर में बोली -- यह चार दिन में अच्छे हो
जायँगे।
घबड़ा मत।
कुशल हुई।
तेरा सोहाग बलवान था।
कई आदमी उसी दंगे में मर
गये।
घर में कुछ रुपए-पैसे हैं?
झुनिया ने लज्जा से सिर हिला दिया।
' मैं
लाये देती हूँ।
थोड़ा-सा
दूध लाकर गर्म कर ले। '
झुनिया ने उसके पाँव पकड़कर कहा
-- दीदी, तुम्ही मेरी माता हो।
मेरा दूसरा कोई नहीं है।
जाड़ों की उदास सन्ध्या आज औरर भी उदास
मालूम हो रही थी।
झुनिया ने चूल्हा जलाया औरर
दूध उबालने लगी।
चुहिया बरामदे में बच्चे
को लिये खिला रही थी।
सहसा झुनिया भारी कंठ से बोली
-- मैं बड़ी अभागिन
हूँ दीदी।
मेरे मन में ऐसा आ रहा
है, जैसे
मेरे ही कारन इनकी यह दशा हुई है।
जी कुढ़ता है, तब मन दुखी होता ही है, फिर गालियाँ भी निकलती
हैं, सराप भी निकलता
है।
कौन जाने मेरी गालियों ।।।
इसके आगे वह कुछ न कह सकी।
आवाज़ आँसुओं के
रेले में बह गयी।
चुहिया ने अंचल से उसके
आँसू पोंछते हुए कहा -- कैसी बातें सोचती
है बेटी!
यह तेरे सिन्दूर का भाग है कि यह
बच गये।
मगर हाँ, इतना
है कि आपस में लड़ाई हो, तो मुँह से चाहे जितना बक
ले, मन में कीना
न पाले।
बीज अन्दर पड़ा, तो अँखुआ निकले बिना नहीं
रहता।
झुनिया ने कम्पन-भरे स्वर में पूछा -- अब मैं क्या करूँ दीदी?
चुहिया ने ढाढ़स दिया -- कुछ नहीं बेटी!
भगवान् का नाम ले।
वही ग़रीबों की रक्षा करते हैं।
उसी समय गोबर ने आँखें
खोलीं औरर झुनिया को सामने
देखकर याचना भाव से क्षीण-स्वर में बोला -- आज बहुत चोट खा गया झुनिया!
मैं किसी से कुछ नहीं
बोला।
सबों ने अनायास मुझे
मारा।
कहा-सुना माफ़
कर!
तुझे सताया था, उसी का यह फल मिला।
थोड़ी देर का औरर मेहमान
हूँ।
अब न बचूँगा।
मारे दरद के सारी देह फटी जाती है।
चुहिया ने अन्दर आकर कहा -- चुपचाप पड़े रहो।
बोलो-चालो नहीं।
मरोगे नहीं, इसका मेरा जुम्मा।
गोबर के मुख पर आशा की
रेखा झलक पड़ी।
बोला -- सच
कहती हो, मैं
मरूँगा नहीं?
' हाँ,
नहीं मरोगे।
तुम्हें हुआ क्या है?
ज़रा सिर में चोट आ गयी है
औरर हाथ की हड्ड:ी उतर गयी है।
ऐसी चोटें मरदों
को रोज़ ही लगा करती हैं।
इन चोटों से कोई नहीं
मरता। '
' अब मैं
झुनिया को कभी न मारूँगा। '
' डरते
होगे कि कहीं झुनिया तुम्हें न
मारे। '
' वह मारेगी
भी, तो न
बोलूँगा। '
' अच्छा
होने पर भूल जाओगे। '
' नहीं
दीदी, कभी न
भूलूँगा। '
गोबर इस समय बच्चों की-सी बातें किया करता।
दस-पाँच मिनट
अचेत-सा पड़ा रहता।
उसका मन न जाने कहाँ-कहाँ उड़ता फिरता।
कभी देखता, वह
नदी में डूबा जा रहा है, औरर झुनिया उसे बचाने के
लिए नदी में चली आ रही है।
कभी देखता,
कोई दैत्य उसकी छाती पर सवार है औरर
झुनिया की शकल की कोई देवी उसकी रक्षा कर रही है।
औरर बार-बार
चौंककर पूछता --
मैं मरूँगा तो नहीं
झुनिया?
तीन दिन उसकी यही दशा रही औरर झुनिया
ने रात को जागकर औरर दिन को उसके
सामने खड़े रहकर जैसे मौत से उसकी
रक्षा की।
बच्चे को चुहिया सँभाले
रहती।
चौथे दिन झुनिया एक्का लाई औरर
सबों ने गोबर को उस पर लादकर अस्पताल
पहुँचाया।
वहाँ से लौटकर गोबर को
मालूम हुआ कि अब वह सचमुच बच जायगा।
उसने आँखों में
आँसू भरकर कहा --
मुझे क्षमा कर दो झुन्ना!
इन तीन-चार
दिनों में चुहिया के तीन-चार रुपए ख़र्च हो गये
थे, औरर अब
झुनिया को उससे कुछ लेते
संकोच होता था।
वह भी कोई मालदार तो थी नहीं।
लकड़ी की बिक्री के रुपए झुनिया को
दे देती।
आख़िर झुनिया ने कुछ काम करने का
विचार किया।
अभी गोबर को अच्छे होने
में महीनों लगेंगे।
खाने-पीने
को भी चाहिए,
दवा-दारू को भी चाहिए।
वह कुछ काम करके खाने-भर को तो ले ही आयेगी।
बचपन से उसने गउओं का पालन
औरर घास छीलना सीखा था।
यहाँ गउएँ कहाँ थीं; हाँ वह घास छील सकती थी।
मुहल्ले के कितने ही
स्त्री-पुरुष बराबर शहर के
बाहर घास छीलने जाते थे, औरर आठ-दस
आने कमा लेते थे।
वह प्रात:काल गोबर को हाथ-मुँह धुलाकर औरर बच्चे
को उसे सौंपकर घास छीलने निकल जाती
औरर तीसरे पहर तक भूखी-प्यासी घास छीलती रहती।
फिर उसे मंडी में ले जाकर
बेचती औरर शाम को घर आती।
रात को भी वह गोबर की नींद
सोती औरर गोबर की नींद जागती; मगर इतना कठोर श्रम करने पर
भी उसका मन ऐसा प्रसन्न रहता, मानो झूले पर बैठी गा रही
है; रास्ते-भर साथ की स्त्रियों औरर
पुरुषों से चुहल औरर विनोद
करती जाती।
घास छीलते समय भी सबों
में हँसी-दिल्लगी
होती रहती।
न क़िस्मत का रोना, न मुसीबत का गिला।
जीवन की सार्थकता में, अपनों के लिए कठिन से
कठिन त्याग में,
औरर स्वाधीन सेवा में जो उल्लास
है, उसकी ज्योति
एक-एक अंग पर चमकती रहती।
बच्चा अपने पैरों पर खड़ा
होकर जैसे तालियाँ बजा-बजाकर ख़ुश होता है, उसी का वह अनुभव कर रही थी; मानो उसके प्राणों
में आनन्द का कोई सोता खुल गया हो।
औरर मन स्वस्थ हो, तो देह कैसे अस्वस्थ रहे!
उस एक महीने में जैसे उसका
कायाकल्प हो गया हो।
उसके अंगों में अब
शिथिलता नहीं, चपलता
है, लचक है, औरर सुकुमारता है।
मुख पर वह पीलापन नहीं रहा, ख़ून की गुलाबी चमक है।
उसका यौवन जो बन्द कोठरी
में पड़े-पड़े
अपमान औरर कलह से कुंठित हो गया
था, वह मानो ताज़ी हवा
औरर प्रकाश पाकर लहलहा उठा है।
अब उसे किसी बात पर क्रोध नहीं आता।
बच्चे के ज़रा-सा रोने पर जो वह झुँझला
उठा करती थी, अब जैसे
उसके धैर्य औरर प्रेम का अन्त ही न था।
इसके ख़िलाफ़ गोबर अच्छा होते
जाने पर भी कुछ उदास रहता था।
जब हम अपने किसी प्रियजन पर अत्याचार
करते हैं, औरर
जब विपत्ति आ पड़ने से हममें इतनी शक्ति
आ जाती है कि उसकी तीव्र व्यथा का अनुभव
करें, तो उससे
हमारी आत्मा में जागृति का उदय हो जाता
है, औरर हम उस
बेजा व्यवहार का प्रायश्चित करने के लिए
तैयार हो जाते हैं।
गोबर वही प्रायश्चित के लिए व्याकुल
हो रहा था।
अब उसके जीवन का रूप बिलकुल दूसरा
होगा, जिसमें
कटुता की जगह मृदुता होगी, अभिमान की जगह नम्रता।
उसे अब ज्ञात हुआ कि सेवा करने का
अवसर बड़े सौभाग्य से मिलता है, औरर वह इस अवसर को कभी न
भूलेगा।
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Recoded: 20 Sept. 1999 to 6 Oct 1999.
Chapter Twenty-seven posted: 13 Oct. 1999.