यूनिवर्सिटीज़ ऑफ़ मिशिगन ऐंड वर्जिनिया
इंस्टिट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़
लैंग्वजिज़ ऐंड कल्चर्ज़ ऑफ़
एशिया ऐंड ऐफ़्रिका
तोक्यो
यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरेन स्टडीज़
मल्हार - Mellonsite for
Advanced Levels of Hindi-Urdu Acquisition and Research
प्रेमचन्द रचित
गोदान
(Devanagari text reconstituted from the roman transcription made
under the direction of Professors T. Nara and K. Machida of the Institute for Study of Languages and
Cultures of Asia and Africa at Tokyo University of Foreign Studies)
Chapter Three.
होरी अपने गाँव के समीप
पहुँचा, तो
देखा, अभी तक गोबर
खेत में ऊख गोड़ रहा है औरर
दोनों लड़कियाँ भी उसके साथ काम कर रही
हैं।
लू चल रही थी,
बगूले उठ रहे थे, भूतल धधक रहा था।
जैसे प्रकृति ने वायु
में आग घोल दिया हो।
यह सब अभी तक खेत में
क्यों हैं?
क्या काम के पीछे सब जान देने पर
तुले हुए हैं?
वह खेत की ओर चला औरर दूर ही
से चिल्लाकर बोला --
आता क्यों नहीं गोबर, क्या काम ही करता रहेगा? दोपहर ढल गया,
कुछ सूझता है कि
नहीं?
उसे
देखते ही तीनों ने कुदालें
उठा लीं औरर उसके साथ हो लिये।
गोबर साँवला, लम्बा, एकहरा
युवक था, जिसे इस काम
से रुचि न मालूम होती थी।
प्रसन्नता की जगह मुख पर असन्तोष
औरर विद्रोह था।
वह इसलिये काम में लगा हुआ था
कि वह दिखाना चाहता था,
उसे खाने-पीने की
कोई फ़क्रि नहीं है।
बड़ी लड़की सोना लज्जा-शील कुमारी थी,
साँवली,
सुडौल, प्रसन्न
औरर चपल।
गाढ़े की लाल साड़ी जिसे वह
घुटनों से मोड़ कर कमर में
बाँधे हुए थी,
उसके हलके शरीर पर कुछ लदी हुई सी थी,
औरर उसे प्रौढ़ता की गरिमा
दे रही थी।
छोटी रूपा पाँच-छ: साल की छोकरी थी, मैली, सिर पर
बालों का एक घोंसला-सा बना हुआ, एक
लँगोटी कमर में बाँधे, बहुत ही ढीठ औरर रोनी।
रूपा ने
होरी की टाँगों में लिपट कर कहा
-- काका!
देखो,
मैने एक ढेला भी नहीं छोड़ा।
बहन कहती है,
जा पेड़ तले बैठ।
ढेले न तोड़े जायँगे
काका, तो मिट्टी
कैसे बराबर होगी।
होरी
ने उसे गोद में उठाकर प्यार करते
हुए कहा -- तूने
बहुत अच्छा किया बेटी,
चल घर चलें।
कुछ देर अपने विद्रोह को
दबाये रहने के बाद गोबर बोला
-- यह तुम
रोज़-रोज़
मालिकों की ख़ुशामद करने क्यों
जाते हो?
बाक़ी न चुके तो प्यादा आकर
गालियाँ सुनाता है, बेगार देनी ही पड़ती है, नज़र-नज़राना सब तो हमसे भराया जाता है।
फिर किसी की क्यों सलामी करो!
इस समय
यही भाव होरी के मन में भी आ रहे
थे; लेकिन लड़के
के इस विद्रोह-भाव
को दबाना ज़रूरी था।
बोला --
सलामी करने न जायँ,
तो रहें कहाँ।
भगवान् ने जब ग़ुलाम बना दिया
है तो अपना क्या बस है।
यह इसी सलामी की बरकत है कि द्वार पर
मड़ैया डाल ली औरर किसी ने कुछ नहीं कहा।
घूरे ने द्वार पर खूँटा
गाड़ा था, जिस पर
कारिन्दों ने दो रुपए डाँड़ ले लिये
थे।
तलैया से कितनी मिट्टी हमने
खोदी, कारिन्दा ने
कुछ नहीं कहा।
दूसरा खोदे तो नज़र देनी
पड़े।
अपने मतलब के लिए सलामी करने
जाता हूँ, पाँव
में सनीचर नहीं है औरर न सलामी
करने में कोई बड़ा सुख मिलता है।
घंटों खड़े रहो, तब जाके मालिक को ख़बर होती
है।
कभी बाहर निकलते हैं, कभी कहला देते हैं कि
फ़ुरसत नहीं है।
गोबर
ने कटाक्ष किया -- बड़े
आदमियों की हाँ-में-हाँ
मिलाने में कुछ-न-कुछ आनन्द
तो मिलता ही है।
नहीं लोग मेम्बरी के लिए
क्यों खड़े हों?
'
जब सिर पर पड़ेगी तब मालूम
होगा बेटा, अभी
जो चाहे कह लो।
पहले मैं भी यही सब बातें
सोचा करता था; पर अब
मालूम हुआ कि हमारी गरदन दूसरों के
पैरों के नीचे दबी हुई है अकड़ कर
निबाह नहीं हो सकता। '
पिता पर
अपना क्रोध उतारकर गोबर कुछ शान्त हो गया
औरर चुपचाप चलने लगा।
सोना ने देखा, रूपा बाप की गोद में चढ़ी बैठी
है तो ईष्र्या हुई।
उसे डाँटकर बोली -- अब गोद से उतरकर पाँव-पाँव क्यों नहीं
चलती, क्या पाँव टूट
गये हैं?
रूपा ने
बाप की गरदन में हाथ डालकर ढिठाई से कहा
-- न उतरेंगे
जाओ।
काका, बहन
हमको रोज़ चिढ़ाती है कि तू रूपा है,
मैं सोना हूँ।
मेरा नाम कुछ औरर रख दो।
होरी
ने सोना को बनावटी रोष से देखकर
कहा -- तू इसे
क्यों चिढ़ाती है सोनिया?
सोना तो देखने को है।
निबाह तो रूपा से होता है।
रूपा न हो,
तो रुपए कहाँ से बनें, बता।
सोना
ने अपने पक्ष का समर्थन किया -- सोना न हो मोहन कैसे
बने, नथुनियाँ
कहाँ से आयें,
कंठा कैसे बने?
गोबर
भी इस विनोदमय विवाद में शरीक हो गया।
रूपा से बोला -- तू कह दे कि सोना तो सूखी
पत्ती की तरह पीला है,
रूपा तो उजला होता है जैसे सूरज।
सोना
बोली -- शादी-ब्याह में पीली साड़ी पहनी
जाती है, उजली साड़ी
कोई नहीं पहनता।
रूपा इस
दलील से परास्त हो गयी।
गोबर औरर होरी की कोई दलील
इसके सामने न ठहर सकी।
उसने क्षुब्ध आँखों से
होरी को देखा।
होरी
को एक नयी युक्ति सूझ गयी।
बोला --
सोना बड़े आदमियों के लिए है।
हम ग़रीबों के लिए तो रूपा ही
है।
जैसे जौ को राजा कहते
हैं, गेहूँ
को चमार; इसलिए न कि
गेहूँ बड़े आदमी खाते हैं,
जौ हम लोग खाते
हैं।
सोना
के पास इस सबल युक्ति का कोई जवाब न था।
परास्त होकर बोली -- तुम सब जने एक ओर
हो गये,
नहीं रुपिया को रुलाकर छोड़ती।
रूपा ने उँगली मटकाकर कहा -- ए राम,
सोना चमार -- ए
राम, सोना चमार।
इस
विजय का उसे इतना आनन्द हुआ कि बाप की
गोद में रह न सकी।
ज़मीन पर कूद पड़ी
औरर उछल-उछलकर यही रट
लगाने लगी -- रूपा
राजा, सोना चमार
-- रूपा राजा, सोना चमार!
ये लोग घर पहुँचे तो
धनिया द्वार पर खड़ी इनकी बाट जोह रही थी।
रुष्ट होकर बोली -- आज इतनी देर क्यों की
गोबर?
काम के पीछे कोई परान थोड़े
ही दे देता है।
फिर पति
से गर्म होकर कहा --
तुम भी वहाँ से कमाई करके लौटे
तो खेत में पहुँच गये।
खेत कहीं भागा जाता था!
द्वार पर
कुआँ था।
होरी औरर गोबर ने एक-एक कलसा पानी सिर पर उँड़ेला,
रूपा को नहलाया औरर
भोजन करने गये।
जौ की रोटियाँ थीं; पर गेहूँ-जैसी सुफ़ेद औरर चिकनी।
अरहर की दाल थी जिसमें कच्चे आम
पड़े हुए थे।
रूपा बाप की थाली में खाने बैठी।
सोना ने उसे ईष्र्या-भरी आँखों से
देखा, मानो कह रही
थी, वाह रे दुलार!
धनिया
ने पूछा -- मालिक
से क्या बात-चीत
हुई?
होरी
ने लोटा-भर पानी
चढ़ाते हुए कहा -- यही
तहसील-वसूल की बात थी
औरर क्या।
हम लोग समझते हैं, बड़े आदमी बहुत सुखी
होंगे; लेकिन
सच पूछो, तो वह
हमसे भी ज़्यादा दु:खी हैं।
हमें अपने पेट ही की चिन्ता
है, उन्हें
हज़ारों चिन्ताएँ घेरे रहती हैं।
राय साहब
ने औरर क्या-क्या कहा
था, वह कुछ होरी को
याद न था।
उस सारे कथन का ख़ुलासा-मात्र उसके स्मरण में चिपका
हुआ रह गया था।
गोबर
ने व्यंग्य किया --
तो फिर अपना इलाक़ा हमें क्यों नहीं
दे देते!
हम अपने खेत, बैल, हल,
कुदाल सब उन्हें
देने को तैयार हैं।
करेंगे बदला?
यह सब धूर्तता है, निरी मोटमरदी।
जिसे दु:ख होता है, वह दरजनों मोटरें
नहीं रखता, महलों
में नहीं रहता,
हलवा-पूरी नहीं खाता
औरर न नाच-रंग
में लिप्त रहता है।
मज़े से राज का सुख भोग रहे
हैं, उस पर दुखी
हैं!
होरी
ने झुँझलाकर कहा --
अब तुमसे बहस कौन करे भाई!
जैजात किसी से छोड़ी जाती है कि
वही छोड़ देंगे।
हमीं को खेती से क्या मिलता
है?
एक आने नफ़री की मजूरी भी तो
नहीं पड़ती।
जो दस रुपए महीने का भी नौकर
है, वह भी हमसे अच्छा
खाता-पहनता है, लेकिन खेतों को
छोड़ा तो नहीं जाता।
खेती छोड़ दें, तो औरर करें क्या?
नौकरी कहीं मिलती है?
फिर मरजाद भी तो पालना ही पड़ता है।
खेती में जो मरजाद है वह
नौकरी में तो नहीं है।
इसी तरह ज़मींदारों का हाल भी समझ
लो!
उनकी जान को भी तो सैकड़ों
रोग लगे हुए हैं, हाकिमों को रसद
पहुँचाओ, उनकी
सलामी करो,
अमलों को ख़ुश करो।
तारीख़ पर मालगुज़ारी न चुका
दें, तो हवालात
हो जाय , कुड़की आ जाय।
हमें तो कोई हवालात नहीं
ले जाता।
दो-चार
गलियाँ-घुड़कियाँ ही
तो मिलकर रह जाती
हैं।
गोबर
ने प्रतिवाद किया -- यह सब
कहने की बातें हैं।
हम लोग दाने-दाने को मुहताज हैं,
देह पर साबित कपड़े नहीं
हैं, चोटी का
पसीना एड़ी तक आता है, तब
भी गुज़र नहीं होता।
उन्हें क्या,
मज़े से गद्दी-मसनद
लगाये बैठे हैं, सैकड़ों नौकर-चाकर हैं,
हज़ारों आदमियों पर हुकूमत है।
रुपए न जमा होते हों; पर सुख तो सभी तरह का
भोगते हैं।
धन लेकर आदमी औरर क्या करता
है?
'
तुम्हारी समझ में हम
औरर वह बराबर हैं?
' भगवान्
ने तो सबको बराबर ही बनाया है। '
'
यह बात नहीं है
बेटा,
छोटे-बड़े भजवान
के घर से बनकर आते हैं।
सम्पत्ति बड़ी तपस्या से मिलती है।
उन्होंने पूर्वजन्म
में जैसे कर्म किये हैं,
उनका आनन्द भोग रहे
हैं।
हमने कुछ नहीं संचा, तो भोगें
क्या?
'
यह सब मन को समझाने की
बातें हैं।
भगवान् सबको बराबर बनाते
हैं।
यहाँ जिसके हाथ में लाठी
है, वह ग़रीबों
को कुचलकर बड़ा आदमी बन जाता है। '
'
यह तुम्हारा भरम है।
मालिक आज भी चार घंटे रोज़
भगवान् का भजन करते हैं। '
'
किसके बल पर यह भजन-भाव औरर दान-धर्म होता है? '
'
अपने बल पर। '
'
नहीं, किसानों के बल पर औरर
मज़दूरों के बल पर।
यह पाप का धन पचे कैसे?
इसीलिए दान-धर्म करना पड़ता है, भगवान् का भजन भी इसीलिए होता
है,
भूखे-नंगे रहकर
भगवान् का भजन करें, तो हम भी देखें।
हमें कोई दोनों
जून खाने को दे तो हम आठों
पहर भगवान् का जाप ही करते रहें।
एक दिन खेत में ऊख गोड़ना
पड़े तो सारी भक्ति भूल जाय। '
होरी
ने हार कर कहा -- अब
तुम्हारे मुँह कौन लगे भाई,
तुम तो भगवान् की
लीला में भी टाँग अड़ाते हो।
तीसरे
पहर गोबर कुदाल लेकर चला, तो होरी ने कहा -- ज़रा ठहर जाओ बेटा, हम भी चलते हैं।
तब तक थोड़ा-सा भूसा निकालकर रख दो।
मैंने भोला को
देने को कहा है।
बेचारा आजकल बहुत तंग है।
गोबर
ने अवज्ञा-भरी
आँखों से देखकर कहा -- हमारे पास बेचने को भूसा
नहीं है।
'
बेचता नहीं हूँ
भाई, यों ही दे रहा
हूँ।
वह संकट में है, उसकी मदद तो करनी ही पड़ेगी।
'
'
हमें तो
उन्होंने कभी एक गाय नहीं दे दी। '
'
दे तो रहा था; पर हमने ली ही नहीं। '
धनिया
मटक्कर बोली -- गाय
नहीं वह दे रहा था।
इन्हें गाय दे देगा!
आँख में अंजन लगाने
को कभी चिल्लू-भर
दूध तो भेजा नहीं, गाय देगा!
होरी
ने क़सम खायी --
नहीं, जवानी क़सम,
अपनी पछाई गाय दे रहे
थे।
हाथ तंग है, भूसा-चारा
नहीं रख सके।
अब एक गाय बेचकर भूसा लेना
चाहते हैं।
मैंने सोचा, संकट में पड़े आदमी की गाय क्या
लूँगा।
थोड़ा-सा
भूसा दिये देता हूँ, कुछ रुपए हाथ आ जायँगे तो गाय
ले लूँगा।
थोड़ा-थोड़ा
करके चुका दूँगा।
अस्सी रुपए की है;
मगर ऐसी कि आदमी देखता रहे।
गोबर
ने आड़े हाथों लिया -- तुम्हारा यही धर्मात्मापन तो
तुम्हारी दुर्गत कर रहा है।
साफ़-साफ़ तो
बात है।
अस्सी रुपए की गाय है, हमसे बीस रुपए का भूसा ले
लें ओर गाय हमें दे दें।
साठ रुपए रह जायँगे, वह हम धीरे-धीरे दे देंगे।
होरी
रहस्यमय ढंग से मुस्कुराया -- मैंने ऐसी चाल
सोची है कि गाय सेंत-मेंत में हाथ आ जाय।
कहीं भोला की सगाई ठीक करनी है,
बस।
दो-चार मन
भूसा तो ख़ाली अपना रंग जमाने को
देता हूँ।
गोबर
ने तिरस्कार किया -- तो
तुम अब सब की सगाई ठीक करते
फिरोगे?
धनिया
ने तीखी आँखों से देखा -- अब यही एक उद्यम तो रह गया है।
नहीं देना है हमें भूसा
किसी को।
यहाँ भोली-भाली किसी का करज़ नहीं
खाया है।
होरी
ने अपनी सफ़ाई दी -- अगर
मेरे जतन से किसी का घर बस जाय, तो इसमें
कौन-सी बुराई
है?
गोबर
ने चिलम उठाई औरर आग लेने चला गया।
उसे यह झमेला बिल्कुल नहीं भाता
था।
धनिया
ने सिर हिला कर कहा --
जो उनका घर बसायेगा,
वह अस्सी रुपए की गाय लेकर चुप न होगा।
एक थैली गिनवायेगा।
होरी
ने पुचारा दिया -- यह
मैं जानता हूँ; लेकिन उनकी भलमनसी को भी तो
देखो।
मुझसे जब मिलता है, तेरा बखान ही करता है -- ऐसी लक्ष्मी है, ऐसी सलीके-दार है।
धनिया
के मुख पर स्निग्धता झलक पड़ी।
मनभाय मुड़िया हिलाये वाले भाव
से बोली --
मैं उनके बखान की भूखी नहीं
हूँ, अपना बखान
धरे रहें।
होरी
ने स्नेह-भरी मुस्कान
के साथ कहा --
मैंने तो कह दिया, भैया, वह नाक
पर मक्खी भी नहीं बैठने देती, गालियों से बात करती
है; लेकिन वह यही
कहे जाय कि वह औररत नहीं लक्षमी है।
बात यह है कि उसकी घरवाली ज़बान की बड़ी
तेज़ थी।
बेचारा उसके डर के मारे
भागा-भागा फिरता था।
कहता था, जिस दिन
तुम्हारी घरवाली का मुँह सबेरे देख
लेता हूँ, उस दिन
कुछ-न-कुछ ज़रूर हाथ लगता है।
मैंने कहा -- तुम्हारे हाथ लगता होगा, यहाँ तो रोज़ देखते
हैं, कभी पैसे
से भेंट नहीं होती।
'
तुम्हारे भाग ही खोटे
हैं, तो
मैं क्या करूँ। '
'
लगा अपनी घरवाली की बुराई
करने -- भिखारी को भीख
तक नहीं देती थी,
झाड़ू लेकर मारने दौड़ती थी, लालचिन ऐसी थी कि नमक तक
दूसरों के घर से माँग लाती
थी! '
'
मरने पर किसी की क्या बुराई
करूँ।
मुझे देखकर जल उठती थी। '
'
भोला बड़ा ग़मख़ोर था कि
उसके साथ निबाह कर दिया।
दूसरा होता तो ज़हर खाके मर
जाता।
मुझसे दस साल बड़े
होंगे भोला;
पर राम-राम पहले ही
करते हैं। '
'
तो क्या कहते थे कि जिस
दिन तुम्हारी घरवाली का मुँह देख लेता
हूँ, तो क्या
होता है? '
'
उस दिन भगवान्
कहीं-न-कहीं से कुछ भेज देते
हैं। '
'
बहुएँ भी तो वैसी ही
चटोरिन आयी हैं।
अबकी सबों ने दो रुपए के
ख़रबूज़े उधार खा डाले।
उधार मिल जाय, फिर
उन्हें चिन्ता नहीं होती कि देना पड़ेगा
या नहीं। '
'
औरर भोला रोते
काहे को हैं?
गोबर
आकर बोला -- भोला दादा
आ पहुँचे।
मन दो मन भूसा है, वह उन्हें दे दो, फिर उनकी सगाई ढूँढ़ने
निकलो।
धनिया
ने समझाया -- आदमी द्वार
पर बैठा है उसके लिए खाट-वाट तो डाल नहीं दी, ऊपर से लगे भुनभुनाने।
कुछ तो भलमंसी सीखो।
कलसा ले जाओ, पानी भरकर रख दो, हाथ-मुँह
धोयें, कुछ
रस-पानी पिला दो।
मुसीबत में ही आदमी
दूसरों के सामने हाथ फैलाता है।
होरी
बोला -- रस-वस का काम
नहीं है, कौन कोई पाहुने
हैं।
धनिया
बिगड़ी -- पाहुने
औरर कैसे होते हैं!
रोज़-रोज़
तो तुम्हारे द्वार पर नहीं
आते?
इतनी दूर से धूप-घाम में आये हैं, प्यास लगी ही होगी।
रुपिया, देख
डब्बे में तमाखू है कि नहीं,
गोबर के मारे काहे को बची होगी।
दौड़कर एक पैसे का तमाखू
सहुआइन की दुकान से ले ले।
भोला
की आज जितनी ख़ातिर हुई,
औरर कभी न हुई होगी।
गोबर ने खाट डाल दी, सोना रस घोल लायी, रूपा तमाखू भर लायी।
धनिया द्वार पर किवाड़ की आड़ में खड़ी
अपने कानों से अपना बखान सुनने
के लिए अधीर हो रही थी।
भोला
ने चिलम हाथ में लेकर कहा -- अच्छी घरनी घर में आ जाय,
तो समझ लो लक्ष्मी आ गयी।
वही जानती है छोटे-बड़े का आदर-सत्कार कैसे करना चाहिए।
धनिया
के हृदय में उल्लास का कम्पन हो रहा था।
चिन्ता औरर निराशा औरर अभाव से आहत
आत्मा इन शब्दों में एक कोमल शीतल
स्पर्श का अनुभव कर रही थी।
होरी
जब भोला का खाँचा उठाकर भूसा लाने अन्दर
चला, तो धनिया भी
पीछे-पीछे चली।
होरी ने कहा -- जाने कहाँ से इतना बड़ा खाँचा
मिल गया।
किसी भड़भूजे से माँग लिया
होगा।
मन-भर से कम
में न भरेगा।
दो खाँचे भी दिये, तो दो मन निकल
जायँगे।
धनिया
फूली हुई थी।
मलामत की आँखों से देखती
हुई बोली -- या तो
किसी को नेवता न दो, औरर दो तो भरपेट खिलाओ।
तुम्हारे पास फूल-पत्र लेने थोड़े ही आये
हैं कि चँगेरी लेकर चलते।
देते ही हो, तो तीन खाँचे दे दो।
भला आदमी लड़कों को क्यों
नहीं लाया।
अकेले कहाँ तक ढोयेगा।
जान निकल जायगी।
'
तीन खाँचे तो मेरे दिये न दिये
जायँगे ! '
'
तब क्या एक खाँचा देकर
टालोगे?
गोबर से कह दो, अपना खाँचा भरकर उनके साथ चला
जाय। '
'
गोबर ऊख गोड़ने जा रहा
है। '
'
एक दिन न गोड़ने से ऊख न
सूख जायगी। '
'
यह तो उनका काम था कि किसी
को अपने साथ ले लेते।
भगवान् के दिये दो-दो बेटे हैं। '
'
न होंगे घर पर।
दूध लेकर बाज़ार गये
होंगे। '
'
यह तो अच्छी दिल्लगी है कि अपना
माल भी दो औरर उसे घर तक पहुँचा भी
दो।
लाद दे, लदा
दे, लादनेवाला साथ कर
दे। '
'
अच्छा भाई, कोई मत जाय।
मैं पहुँचा दूँगी।
बड़ों की सेवा करने में
लाज नहीं है। '
'
औरर तीन खाँचे
उन्हें दे दूँ, तो अपने बैल क्या
खायेंगे? '
'
यह सब तो नेवता
देने के पहले ही सोच लेना था।
न हो,
तुम औरर गोबर दोनों जने
चले जाओ। '
'
मुरौवत मुरौवत की
तरह की जाती है, अपना घर
उठाकर नहीं दे दिया जाता! '
'
अभी ज़मींदार का प्यादा आ
जाय, तो अपने सिर पर
भूसा लादकर पहुँचाओगे तुम,
तुम्हारा लड़का, लड़की सब।
औरर वहाँ साइत मन-दो-मन लकड़ी भी
फाड़नी पड़े। '
'
ज़मींदार की बात औरर
है। '
'
हाँ, वह डंडे के ज़ोर से काम
लेता है न। '
'
उसके खेत नहीं
जोतते? '
'
खेत जोतते
हैं, तो लगान
नहीं देते? '
'
अच्छा भाई, जान न खा, हम
दोनों चले जायँगे।
कहाँ-से-कहाँ
मैंने इन्हें भूसा देने
को कह दिया।
या तो चलेगी नहीं, या चलेगी तो दौड़ने
लगेगी। '
तीनों खाँचे भूसे से भर
दिये गये।
गोबर कुढ़ रहा था।
उसे अपने बाप के व्यवहारों
में ज़रा भी विश्वास न था।
वह समझता था, यह
जहाँ जाते हैं,
वहीं कुछ-न-कुछ घर से खो आते
हैं।
धनिया प्रसन्न थी।
रहा होरी, वह
धर्म औरर स्वार्थ के बीच में
डूब-उतरा रहा था।
होरी
औरर गोबर मिलकर एक खाँचा बाहर लाये।
भोला ने तुरन्त अपने
अँगोछे का बीड़ा बनाकर सिर पर रखते हुए कहा
-- मैं इसे रखकर अभी
भागा आता हूँ।
एक खाँचा औरर लूँगा।
होरी
बोला -- एक नहीं,
अभी दो औरर भरे धरे
हैं।
औरर तुम्हें आना नहीं
पड़ेगा।
मैं औरर गोबर एक-एक खाँचा लेकर तुम्हारे साथ
ही चलते हैं।
भोला
स्तम्भित हो गया।
होरी उसे अपना भाई बल्कि उससे भी
निकट जान पड़ा।
उसे अपने भीतर एक ऐसी तृप्ति का
अनुभव हुआ,
जिसने मानो उसके सम्पूर्ण जीवन को
हरा कर दिया।
तीनों भूसा लेकर चले, तो राह में बातें
होने लगीं।
भोला
ने पूछा -- दशहरा आ रहा
है, मालिकों के
द्वार पर तो बड़ी धूमधाम होगी?
'
हाँ, तम्बू सामियाना गड़ गया है।
अब की लीला में मैं भी काम
करूँगा।
राय साहब ने कहा है, तुम्हें राजा जनक का माली बनना
पड़ेगा। '
'
मालिक तुमसे बहुत
ख़ुश हैं। '
'
उनकी दया है। '
एक क्षण
के बाद भोला ने फिर पूछा -- सगुन करने के रुपए का कुछ
जुगाड़ कर लिया है?
माली बन जाने से तो गला न
छूटेगा।
होरी
ने मुँह का पसीना पोंछकर कहा -- उसी की चिन्ता तो मारे डालती
है दादा -- अनाज तो
सब-का-सब खलिहान में ही तुल गया।
ज़मींदार ने अपना लिया, महाजन ने अपना लिया।
मेरे लिए पाँच सेर अनाज बच रहा।
यह भूसा तो मैंने
रातोंरात ढोकर छिपा दिया था, नहीं तिनका भी न बचता।
ज़मींदार तो एक ही हैं; मगर महाजन तीनतीन हैं,
सहुआइन अलग, मँगरू अलग औरर दातादीन पण्डित अलग।
किसी का ब्याज भी पूरा न चुका।
ज़मींदार के भी आधे रुपए बाक़ी पड़
गये।
सहुआइन से फिर रुपए उधार लिये
तो काम चला।
सब तरह किफ़ायत कर के देख लिया
भैया, कुछ नहीं
होता।
हमारा जनम इसी लिए हुआ है कि अपना रक्त
बहायें औरर बड़ों का घर भरें।
मूलका दुगना सूद भर चुका;
पर मूल ज्यों-का-त्यों सिर पर सवार है।
लोग कहते हैं, सर्दी-गर्मी में, तीरथ-बरत
में हाथ बाँधकर ख़रच करो।
मुदा रास्ता कोई नहीं दिखाता।
राय साहब ने बेटे के ब्याह
में बीस हज़ार लुटा दिये।
उनसे कोई कुछ नहीं कहता।
मँगरू ने अपने बाप के
क्रिया-करम में पाँच
हज़ार लगाये।
उनसे कोई कुछ नहीं पूछता।
वैसा ही मरजाद तो सबका है।
भोला
ने करुण भाव से कहा --
बड़े आदमियों की बराबरी तुम कैसे कर
सकते हो भाई?
'
आदमी तो हम भी हैं।
'
कौन कहता है कि हम तुम
आदमी हैं।
हममें आदमियत कहाँ?
आदमी वह हैं, जिनके पास धन है, अख़्तियार है,
इलम है, हम लोग
तो बैल हैं औरर जुतने के
लिए पैदा हुए हैं।
उसपर एक दूसरे को देख नहीं
सकता।
एका का नाम नहीं।
एक किसान दूसरे के खेत पर न
चढ़े तो कोई जाफ़ा कैसे करे, प्रेम तो संसार से उठ
गया। '
बूढ़ों के लिए अतीत के सुखों
औरर वर्तमान के दु:खों औरर
भविष्य के सर्वनाश से ज़्यादा मनोरंजक
औरर कोई प्रसंग नहीं होता।
दोनों मित्र अपने-अपने दुखड़े रोते
रहे।
भोला ने अपने बेटों
के करतूत सुनाये, होरी ने अपने भाइयों का
रोना रोया औरर तब एक कुएँ पर बोझ
रखकर पानी पीने के लिए बैठ गये।
गोबर ने बनिये से लोटा
माँगा औरर पानी खींचने लगा।
भीला
ने सहृदयता से पूछा -- अलगौझे के समय तो
तुम्हें बड़ा रंज हुआ होगा।
भाइयों को तो तुमने
बेटों की तरह पाला था।
होरी
आद्र्र कंठ से बोला -- कुछ न पूछो दादा, यही जी चाहता था कि कहीं जाके डूब
मरूँ।
मेरे जीते जी सब कुछ हो
गया।
जिनके पीछे अपनी जवानी धूल
में मिला दी, वही
मेरे मुद्दई हो गये औरर झगड़े
की जड़ क्या थी?
यही कि मेरी घरवाली हार में काम
करने क्यों नहीं जाती।
पूछो, घर
देखनेवाला भी कोई चाहिए कि नहीं।
लेना-देना, धरना
उठाना, सँभालना-सहेजना, यह कौन करे।
फिर वह घर बैठी तो नहीं रहती
थी, झाड़ू-बुहारू,
रसोई, चौका-बरतन,
लड़कों की देख-भाल
यह कोई थोड़ा काम है।
सोभा की औररत घर सँभाल लेती
कि हीरा की औररत में यह सलीका था?
जब से अलगौझा हुआ है,
दोनों घरों
में एक जून रोटी पकती है।
नहीं सब को दिन में चार बार
भूख लगती थी।
अब खायँ चार दफ़े, तो देखूँ।
इस मालिकपन में गोबर की माँ की
जो दुर्गती हुई है, वह मैं ही जानता हूँ।
बेचारी अपनी देवरानियों के
फटे-पुराने कपड़े
पहनकर दिन काटती थी, ख़ुद
भूखी सो रही होगी; लेकिन बहुओं के लिए जलपान
तक का ध्यान रखती थी।
अपनी देह पर गहने के नाम कच्चा धागा
भी न था,
देवरानियों के लिए दो-दो चार-चार
गहने बनवा दिये।
सोने के
न सही चाँदी के तो हैं।
जलन यही थी कि यह मालिक क्यों है।
बहुत अच्छा हुआ कि अलग हो गये।
मेरे सिर से बला टली।
भोला
ने एक लोटा पानी चढ़ाकर कहा -- यही हाल घर-घर
है भैया!
भाइयों की बात ही क्या, यहाँ तो लड़कों से
भी नहीं पटती औरर पटती इसलिए नहीं कि
मैं किसी की कुचाल देखकर मुँह
नहीं बन्द कर सकता।
तुम जुआ खेलोगे,
चरस पीओगे, गाँजे के दम
लगाओगे, मगर
आये किसके घर से?
ख़रचा करना चाहते हो तो
कमाओ; मगर कमाई तो
किसी से न होगी।
ख़रच दिल खोलकर करेंगे।
जेठा कामता सौदा लेकर बाज़ार
जायगा, तो आधे
पैसे ग़ायब।
पूछो तो कोई जवाब नहीं।
छोटा जंगी है, वह संगत के पीछे मतवाला रहता
है।
साँझ हुई औरर ढोल-मजीरा लेकर बैठ गये।
संगत को मैं बुरा नहीं
कहता।
गाना-बजाना
ऐब नहीं; लेकिन
यह सब काम फ़ुरसत के हैं।
यह नहीं कि घर का तो कोई काम न
करो, आठों पहर उसी
धुन में पड़े रहो।
जाती है मेरे सिर; सानी-पानी
मैं करूँ,
गाय-भ्ैंस मैं
दुहूँ, दूध
लेकर बाज़ार मैं जाऊँ।
यह गृहस्थी जी का जंजाल है,
सोने की हँसिया,
जिसे न उगलते बनता
है, न निगलते।
लड़की है,
झुनिया, वह भी नसीब की
खोटी।
तुम तो उसकी सगाई में आये
थे।
कितना अच्छा घर-बर
था।
उसका आदमी बम्बई में दूध की दूकान
करता था।
उन दिनों वहाँ हिन्दू-मुसलमानों में
दंगा हुआ, तो किसी
ने उसके पेट में छूरा भोंक
दिया।
घर ही चौपट हो गया।
वहाँ अब उसका निबाह नहीं।
जाकर लिवा लाया कि दूसरी सगाई कर
दूँगा; मगर वह राज़ी ही
नहीं होती।
औरर दोनों भावजें
हैं कि रात-दिन उसे
जलाती रहती हैं।
घर में महाभारत मचा रहता है।
विपत की मारी यहाँ आई, यहाँ भी चैन नहीं।
इन्हीं
दुखड़ों में रास्ता कट गया।
भोला का पुरवा था तो
छोटा; मगर बहुत
गुलज़ार।
अधिकतर अहीर ही बसते थे।
औरर किसानों के देखते
इनकी दशा बहुत बुरी न थी।
भोला गाँव का मुखिया था।
द्वार पर बड़ी-सी
चरनी थी जिस पर दस-बारह
गायें-भ्ैंसें खड़ी सानी खा रही थीं।
ओसारे में एक बड़ा-सा तख़्त पड़ा था जो शायद दस
आदमियों से भी न उठता।
किसी खूँटी पर ढोलक लटक रही थी किसी
पर मजीरा।
एक ताख पर कोई पुस्तक बस्ते
में बँधी रखी हुई थी, जो शायद रामायण हो।
दोनों बहुएँ सामने
बैठी गोबर पाथ रही थीं औरर झुनिया
चौखट पर खड़ी थी।
उसकी आँखें लाल थीं औरर नाक
के सिरे पर भी सुर्ख़ी थी।
मालूम होता था, अभी रोकर उठी है।
उसके मांसल, स्वस्थ, सुगठित
अंगों में मानो यौवन
लहरें मार रहा था।
मुँह बड़ा औरर गोल था,
कपोल फूले
हुए, आँखें
छोटी औरर भीतर धँसी हुई, माथा पतला; पर
वक्ष का उभार औरर गात का वही गुदगुदापन
आँखों को खींचता था।
उस पर छपी हुई गुलाबी साड़ी उसे
औरर भी शोभा प्रदान कर रही थी।
भोला
को देखते ही उसने लपककर उनके सिर से
खाँचा उतरवाया।
भोला ने गोबर औरर होरी
के खाँचे उतरवाये औरर झुनिया
से बोले --
पहले एक चिलम भर ला, फिर
थोड़ा-सा रस बना ले।
पानी न हो तो गगरा ला, मैं खींच दूँ।
होरी महतो को पहचानती है
न?
फिर
होरी से बोला --
घरनी के बिना घर नहीं रहता भैया।
पुरानी कहावत है -- नाटन खेती बहुरियन घर।
नाटे बैल क्या खेती
करेंगे औरर बहुएँ क्या घर
सँभालेंगी।
जब से इसकी माँ मरी है, जैसे घर की बरकत ही उठ गयी।
बहुएँ आटा पाथ लेती हैं।
पर गृहस्थी चलाना क्या जानें।
हाँ,
मुँह चलाना ख़ूब जानती हैं।
लौंडे कहीं फड़ पर जमे
होंगे।
सब-के-सब आलसी
हैं, कामचोर।
जब तक जीता हूँ, इनके पीछे मरता हूँ।
मर जाऊँगा,
तो आप सिर पर हाथ धरकर रोयेंगे।
लड़की भी वैसी ही है।
छोटा-सा
अढ़ौना भी करेगी,
तो भुन-भुनाकर।
मैं तो सह लेता
हूँ, ख़सम
थोड़े ही सहेगा।
झुनिया एक हाथ में भरी हुई चिलम, दूसरे में लोटे
का रस लिये बड़ी फुर्ती से आ पहुँची।
फिर रस्सी औरर कलसा लेकर पानी भरने
चली।
गोबर ने उसके हाथ से कलसा
लेने के लिए हाथ बढ़ाकर झेंपते
हुए कहा -- तुम रहने
दो, मैं भरे
लाता हूँ।
झुनिया ने कलसा न दिया।
कुएँ के जगत पर जाकर मुस्कराती
हुई बोली -- तुम
हमारे मेहमान हो।
कहोगे एक लोटा पानी भी किसी ने
न दिया।
'
मेहमान काहे से हो
गया।
तुम्हारा पड़ोसी ही तो
हूँ। '
'
पड़ोसी साल-भर में एक बार भी सूरत न
दिखाये, तो
मेहमान ही है। '
'
रोज़-रोज़ आने से मरजाद भी तो
नहीं रहती। '
झुनिया हँसकर तिरछी नज़रों से देखती
हुई बोली -- वही मरजाद
तो दे रही हूँ।
महीने में एक बेर
आओगे, ठंडा पानी
दूँगी।
पन्द्रहवें दिन आओगे,
चिलम पाओगे।
सातवें दिन आओगे, ख़ाली बैठने को माची
दूँगी।
रोज़-रोज़
आओगे, कुछ न
पाओगे।
'
दरसन तो दोगी? '
'
दरसन के लिए पूजा करनी
पड़ेगी। '
यह
कहते-कहते जैसे
उसे कोई भूली हुई बात याद आ गयी।
उसका मुँह उदास हो गया।
वह विधवा है।
उसके नारीत्व के द्वार पर पहले उसका
पति रक्षक बना बैठा रहता था।
वह निश्चिन्त थी।
अब उस द्वार पर कोई रक्षक न था, इसलिए वह उस द्वार को सदैव बन्द
रखती है।
कभी-कभी घर के
सूनेपन से उकताकर वह द्वार खोलती
है; पर किसी को
आते देखकर भयभीत होकर दोनों पट
भेड़ लेती है।
गोबर
ने कलसा भरकर निकाला।
सबों ने रस पिया औरर एक चिलम
तमाखू औरर पीकर लौटे।
भोला ने कहा -- कल तुम आकर गाय ले जाना
गोबर, इस बखत तो
सानी खा रही है।
गोबर
की आँखें उसी गाय पर लगी हुई थी औरर
मन-ही-मन वह मुग्ध हुआ जाता था।
गाय इतनी सुन्दर औरर सुडौल
है, इसकी उसने कल्पना
भी न की थी।
होरी
ने लोभ को रोककर कहा -- मँगवा लूँगा, जल्दी क्या है?
'
तुम्हें जल्दी न
हो, हमें तो
जल्दी है।
उसे द्वार पर देखकर तुम्हें
वह बात याद रहेगी। '
'
उसकी मुझे बड़ी फ़किर है
दादा! '
'
तो कल गोबर को
भेज देना। '
दोनों ने अपने-अपने खाँचे सिर पर रखे औरर
आगे बढ़े।
दोनों इतने प्रसन्न थे
मानो ब्याह करके लौटे हों।
होरी को तो अपनी चिर संचित
अभिलाषा के पूरे होने का हर्ष
था, औरर बिना
पैसे के।
गोबर को इससे भी बहुमूल्य
वस्तु मिल गयी थी।
उसके मन में अभिलाषा जाग उठी थी।
अवसर पाकर
उसने पीछे की तरफ़ देखा।
झुनिया द्वार पर खड़ी थी, मत्त आशा की भाँति अधीर,
चंचल।
Proceed to Chapter Four.
Return to Mellon Project indexpage.
Recoded: 20 Sept. 1999 to 6 Oct 1999.
Chapter Three posted: 7 Oct. 1999.
Paragraphed: 9 Oct 1999.
Updated: 10 Oct 1999.