यूनिवर्सिटीज़ ऑफ़ मिशिगन ऐंड वर्जिनिया
इंस्टिट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़
लैंग्वजिज़ ऐंड कल्चर्ज़ ऑफ़
एशिया ऐंड ऐफ़्रिका
तोक्यो
यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरेन स्टडीज़
Mellon Project
प्रेमचन्द
गोदान
(Devanagari text reconstituted from Professor K. Machida's roman
transcription)
Chapter Four.
(unparagraphed text)
होरी को रात भर नींद
नहीं आयी।
नीम के पेड़-तले अपनी बाँस की खाट पर पड़ा
बार-बार तारों की
ओर देखता था।
गाय के लिए एक नाँद गाड़नी है।
बैलों से अलग उसकी नाँद
रहे तो अच्छा।
अभी तो रात को बाहर ही रहेगी;
लेकिन चौमासे
में उसके लिए कोई दूसरी जगह ठीक करनी
होगी।
बाहर लोग नज़र लगा देते
हैं।
कभी-कभी तो
ऐसा टोना-टोटका कर
देते हैं कि गाय का दूध ही सूख जाता
है।
थन में हाथ ही नहीं लगाने
देती।
लात मारती है।
नहीं, बाहर
बाँधना ठीक नहीं।
औरर बाहर नाँद भी कौन गाड़ने
देगा।
कारिन्दा साहब नज़र के लिए मुँह
फ:ुलायेंगे।
छोटी छोटी बात के लिए राय साहब
के पास फ़रियाद ले जाना भी उचित नहीं।
औरर कारिन्दे के सामने मेरी
सुनता कौन है।
उनसे कुछ कहूँ, तो कारिन्दा दुश्मन हो जाय।
जल में रहकर मगर से बैर करना
लड़कपन है।
भीतर ही बाँधूँगा।
आँगन है तो छोटा-सा;
लेकिन एक मड़ैया डाल देने से काम चल
जायगा।
अभी पहला ही ब्यान है।
पाँच सेर से कम क्या दूध
देगी।
सेर-भर तो
गोबर ही को चाहिए।
रुपिया दूध देखकर कैसी ललचाती रहती
है।
अब पिये जितना चाहे।
कभी-कभी
दो-चार सेर
मालिकों को दे आया करूँगा।
कारिन्दा साहब की पूजा भी करनी ही होगी।
औरर भोला के रुपए भी दे देना
चाहिये।
सगाई के ढकोसले में उसे
क्यों डालूँ।
जो आदमी अपने ऊपर इतना विश्वास
करे, उससे दग़ा करना
नीचता है।
अस्सी रुपए की गाय मेरे विश्वास पर
दे दी।
नहीं यहाँ तो कोई एक
पैसे को नहीं पतियाता।
सन में क्या कुछ न
मिलेगा?
अगर पच्चीस रुपए भी दे दूँ, तो भोला को ढाढ़स हो
जाय।
धनिया से नाहक़ बता दिया।
चुपके से गाय लेकर बाँध
देता तो चकरा जाती।
लगती पूछने, किसकी गाय है?
कहाँ से लाये हो?।
ख़ूब दिक करके तब बताता; लेकिन जब पेट में बात
पचे भी।
कभी दो-चार
पैसे ऊपर से आ जाते हैं; उनको भी तो नहीं छिपा सकता।
औरर यह अच्छा भी है।
उसे घर की चिन्ता रहती है; अगर उसे मालूम हो जाय कि
इनके पास भी पैसे रहते हैं,
तो फिर नख़रे बघारने
लगे।
गोबर ज़रा आलसी है, नहीं मैं गऊ की ऐसी सेवा
करता कि जैसी चाहिए।
आलसी-वालसी कुछ
नहीं है।
इस उमिर में कौन आलसी नहीं
होता।
मैं भी दादा के सामने मटरगस्ती ही
किया करता था।
बेचारे पहर रात से कुट्टी
काटने लगते।
कभी द्वार पर झाड़ू लगाते, कभी खेत में खाद
फेंकते।
मैं पड़ा सोता रहता था।
कभी जगा देते, तो मैं बिगड़ जाता औरर घर
छोड़कर भाग जाने की धमकी देता था।
लड़के जब अपने माँ-बाप के सामने भी ज़िन्दगी का
थोड़ा-सा सुख न
भोगेंगे,
तो फिर जब अपने सिर पड़ गयी तो क्या
भोगेंगे?
दादा के मरते ही क्या मैंने घर
नहीं सँभाल लिया?
सारा गाँव यही कहता था कि होरी घर बरबाद
कर देगा; लेकिन सिर पर
बोझ पड़ते ही मैंने ऐसा चोला
बदला कि लोग देखते रह गये।
सोभा औरर हीरा अलग ही हो
गये, नहीं आज इस घर
की औरर ही बात होती।
तीन हल एक साथ चलते।
अब तीनों अलग-अलग चलते हैं।
बस, समय का
फेर है।
धनिया का क्या दोष था।
बेचारी जब से घर में
आयी, कभी तो आराम से
न बैठी।
डोली से उतरते ही सारा काम सिर पर
उठा लिया।
अम्मा को पान की तरह फेरती रहती थी।
जिसने घर के पीछे अपने को
मिटा दिया,
देवरानियों से काम करने को कहती
थी, तो क्या बुरा करती
थी।
आख़िर उसे भी तो कुछ आराम मिलना
चाहिये।
लेकिन भाग्य में आराम लिखा
होता तब तो मिलता।
तब देवरों के लिए मरती
थी, अब अपने
बच्चों के लिए मरती है।
वह इतनी सीधी,
ग़मख़ोर, निर्छल न
होती, तो आज
सोभा औरर हीरा जो मूँछों पर
ताव देते फिरते हैं, कहीं भीख माँगते होते।
आदमी कितना स्वार्थी हो जाता है।
जिसके लिए लड़ो वही जान का दुश्मन
हो जाता है।
होरी ने फिर पूर्व की ओर
देखा।
साइत भिनसार हो रहा है।
गोबर काहे को जगने लगा।
नहीं, कहके
तो यही सोया था कि मैं अँधेरे
ही चला जाऊँगा।
जाकर नाँद तो गाड़ दूँ, लेकिन नहीं, जब तक गाय द्वार पर न आ जाय, नाँद गाड़ना ठीक नहीं।
कहीं भोला बदल गये या औरर किसी
कारन से गाय न दी, तो
सारा गाँव तालियाँ पीटने लगेगा, चले थे गाय लेने।
पट्ठे ने इतनी फुर्ती से
नाँद गाड़ दी, मानो इसी
की कसर थी।
भोला है तो अपने घर का
मालिक; लेकिन जब लड़के
सयाने हो गये,
तो बाप की कौन चलती है।
कामता औरर जंगी अकड़ जायँ, तो क्या भोला अपने मन
से गाय मुझे दे देंगे,
कभी नहीं।
सहसा गोबर चौंककर उठ बैठा औरर
आँखें मलता हुआ बोला -- अरे!
यह तो भोर हो गया।
तुमने नाँद गाड़ दी दादा?
होरी गोबर के सुगठित शरीर
औरर चौड़ी छाती की ओर गर्व से देखकर
औरर मन में यह सोचते हुए कि
कहीं इसे गोरस मिलता, तो कैसा पट्ठा हो जाता,
बोला -- नहीं, अभी
नहीं गाड़ी।
सोचा,
कहीं न मिले, तो
नाहक़ भद्द हो।
गोबर ने त्योरी चढ़ाकर कहा
-- मिलेगी क्यों
नहीं?
' उनके मन
में कोई चोर पैठ जाय? '
' चोर
पैठे या डाकू, गाय
तो उन्हें देनी ही पड़ेगी। '
गोबर ने औरर कुछ न कहा।
लाठी कन्धे पर रखी औरर चल दिया।
होरी उसे जाते देखता हुआ
अपना कलेजा ठंठा करता रहा।
अब लड़के की सगाई में देर न करनी
चाहिये।
सत्रहवाँ लग गया; मगर करें कैसे?
कहीं पैसे के भी दरसन
हों।
जब से तीनों भाइयों
में अलगौझा हो गया, घर की साख जाती रही।
महतो लड़का देखने आते
हैं, पर घर की दशा
देखकर मुँह फीका करके चले जाते
हैं।
दो-एक राज़ी भी
हुए, तो रुपए
माँगते हैं।
दो-तीन
सौ लड़की का दाम चुकाये औरर इतना ही ऊपर
से ख़र्च करे, तब
जाकर ब्याह हो।
कहाँ से आये इतने रुपए।
रास खलिहान में तुल जाती है।
खाने-भर
को भी नहीं बचता।
ब्याह कहाँ से हो?
औरर अब तो सोना ब्याहने
योग्य हो गयी।
लड़के का ब्याह न हुआ, न सही।
लड़की का ब्याह न हुआ, तो सारी बिरादरी में हँसी
होगी।
पहले तो उसी की सगाई करनी है,
पीछे देखी जायगी।
एक आदमी ने आकर राम-राम किया औरर पूछा -- तुम्हारी कोठी में कुछ बाँस
होंगे महतो?
होरी ने देखा, दमड़ी बँसार सामने खड़ा है, नाटा काला,
ख़ूब मोटा, चौड़ा
मुँह, बड़ी-बड़ी मूँछें, लाल आँखें, कमर में बाँस काटने की
कटार खोंसे हुए।
साल में एक-दो बार आकर चिकें, कुरसियाँ,
मोढ़े,
टोकरियाँ आदि बनाने के लिए कुछ बाँस
काट ले जाता था।
होरी प्रसन्न हो गया।
मुट्ठी गर्म होने की कुछ
आशा बँधी।
चौधरी को ले जाकर अपनी
तीनों कोठियाँ दिखायीं, मोल-भाव किया औरर पच्चीस रुपए सैकड़े
में पचास बाँसों का बयाना ले
लिया।
फिर दोनों लौटे।
होरी ने उसे चिलम पिलायी,
जलपान कराया औरर तब रहस्यमय
भाव से बोला --
मेरे बाँस कभी तीस रुपए से कम में
नहीं जाते; लेकिन
तुम घर के आदमी हो, तुमसे क्या मोल-भाव करता।
तुम्हारा वह लड़का, जिसकी सगाई हुई थी, अभी परदेस से लौटा कि
नहीं?
चौधरी ने चिलम का दम लगाकर
खाँसते हुए कहा --
उस लौंडे के पीछे तो मर मिटा
महतो!
जवान बहू घर में बैठी थी
औरर वह बिरादरी की एक दूसरी औररत के साथ
परदेस में मौज करने चल दिया।
बहू भी दूसरे के साथ निकल गयी।
बड़ी नाकिस जात है, महतो, किसी की
नहीं होती।
कितना समझाया कि तू जो चाहे
खा, जो चाहे
पहन, मेरी नाक न
कटवा, मुदा कौन
सुनता है।
औररत को भगवान् सब कुछ
दे, रूप न दे, नहीं वह क़ाबू में
नहीं रहती।
कोठियाँ तो बँट गयी
होंगी?
होरी ने आकाश की ओर देखा
औरर मानो उसकी महानता में उड़ता हुआ
बोला -- सब कुछ
बँट गया चौधरी!
जिनको लड़कों की तरह पाला-पोसा,
वह अब बराबर के हिस्सेदार हैं; लेकिन भाई का हिस्सा खाने की अपनी
नीयत नहीं है।
इधर तुमसे रुपए
मिलेंगे, उधर
दोनों भाइयों को बाँट
दूँगा।
चार दिन की ज़िन्दगी में क्यों किसी
से छल-कपट करूँ।
नहीं कह दूँ कि बीस रुपए सैकड़े
में बेचे हैं तो उन्हें
क्या पता लगेगा।
तुम उनसे कहने थोड़े ही
जाओगे।
तुम्हें तो मैंने
बराबर अपना भाई समझा है।
व्यवहार में हम ' भाई ' के अर्थ
का कितना ही दुरुपयोग करें, लेकिन उसकी भावना में जो
पवित्रता है, वह हमारी
कालिमा से कभी मलिन नहीं होती।
होरी ने अप्रत्यक्ष रूप से यह प्रस्ताव
करके चौधरी के मुँह की ओर देखा कि
वह स्वीकार करता है या नहीं।
उसके मुख पर कुछ ऐसा मिथ्या
विनीत भाव प्रकट हुआ जो भिक्षा माँगते समय
मोटे भिक्षुकों पर आ जाता है।
चौधरी ने होरी का आसन पाकर
चाबुक जमाया -- हमारा
तुम्हारा पुराना भाई चारा है महतो, ऐसी बात है भला; लेकिन बात यह है कि ईमान आदमी
बेचता है, तो
किसी लालच से।
बीस रुपए नहीं मैं पन्द्रह रुपए
कहूँगा; लेकिन
जो बीस रुपए के दाम लो।
होरी ने खिसियाकर कहा -- तुम तो चौधरी
अँधेर करते हो,
बीस रुपए में कहीं ऐसे बाँस
जाते हैं?
' ऐसे
क्या, इससे अच्छे
बाँस जाते हैं दस रुपए पर, हाँ दस कोस औरर पच्छिम चले
जाओ।
मोल बाँस का नहीं है, शहर के नगीच होने का है।
आदमी सोचता है, जितनी देर वहाँ जाने में
लगेगी, उतनी देर
में तो दो-चार
रुपए का काम हो जायगा। '
सौदा पट गया।
चौधरी ने मिरज़ई उतार कर छान पर रख दी
औरर बाँस काटने लगा।
ऊख की सिंचाई हो रही थी।
हीरा-बहू
कलेवा लेकर कुएँ पर जा रही थी।
चौधरी को बाँस काटते देखकर
घूँघट के अन्दर से बोली -- कौन बाँस काटता है?
यहाँ बाँस न
कटेंगे।
चौधरी ने हाथ रोककर कहा -- बाँस मोल लिए हैं,
पन्द्रह रुपए सैकड़े का
बयाना हुआ है।
सेंत में नहीं काट रहे
हैं।
हीरा-बहू
अपने घर की मालकिन थी।
उसी के विद्रोह से
भाइयों में अलगौझा हुआ था।
धनिया को परास्त करके शेर हो
गयी थी।
हीरा कभी-कभी
उसे पीटता था।
अभी हाल में इतना मारा था कि वह कई दिन
तक खाट से न उठ सकी,
लेकिन अपनी पदाधिकार वह किसी तरह न छोड़ती थी।
हीरा क्रोध में उसे मारता
था; लेकिन चलता था उसी
के इशारों पर, उस
घोड़े की भाँति जो कभी-कभी स्वामी को लात मारकर भी उसी के आसन
के नीचे चलता है।
कलेवे की टोकरी सिर से उतार कर
बोली -- पन्द्रह रुपए
में हमारे बाँस न जायँगे।
चौधरी औररत जात से इस विषय
में बात-चीत करना
नीति-विरुद्ध समझते
थे।
बोले --
जाकर अपने आदमी को भेज दे।
जो कुछ कहना हो, आकर कहें।
हीरा-बहू का नाम
था पुन्नी।
बच्चे दो ही हुए थे।
लेकिन ढल गयी थी।
बनाव-सिंगार
से समय के आघात का शमन करना चाहती थी, लेकिन गृहस्थी में
भोजन ही का ठिकाना न था,
सिंगार के लिए पैसे कहाँ से आते।
इस अभाव औरर विवशता ने उसकी प्रकृति
का जल सुखाकर कठोर औरर शुष्क बना दिया
था, जिस पर एक बार फावड़ा भी
उचट जाता था।
समीप आकर चौधरी का हाथ पकड़ने की
चेष्टा करती हुई बोली -- आदमी को क्यों भेज दूँ।
जो कुछ कहना हो, मुझसे कहो न।
मैंने कह दिया, मेरे बाँस न कटेंगे।
चौधरी हाथ छुड़ाता था, औरर पुन्नी बार-बार पकड़ लेती थी।
एक मिनट तक यही हाथा-पाई होती रही।
अन्त में चौधरी ने उसे
ज़ोर से पीछे ढकेल दिया।
पुन्नी धक्का खाकर
गिर पड़ी; मगर फिर सँभली
औरर पाँव से तल्ली निकालकर चौधरी के
सिर, मुँह, पीठ पर अन्धाधुन्ध जमाने लगी।
बँसोर होकर उसे ढकेल
दे?
उसका यह अपमान!
मारती जाती थी औरर रोती भी जाती थी।
चौधरी उसे धक्का देकर -- नारी जाति पर बल का प्रयोग करके
-- गच्चा खा चुका था।
खड़े-खड़े
मार खाने के सिवा इस संकट से बचने की
उसके पास औरर कोई दवा न थी।
पुन्नी का रोना सुनकर होरी भी
दौड़ा हुआ आया।
पुन्नी ने उसे देखकर औरर
ज़ोर से चिल्लाना शुरू किया।
होरी ने समझा, चौधरी ने पुनिया को मारा
है।
ख़ून ने जोश मारा औरर
अलगौझे की ऊँची बाँध को तोड़ता
हुआ, सब कुछ अपने
अन्दर समेटने के लिए बाहर निकल पड़ा।
चौधरी को ज़ोर से एक लात जमाकर
बोला -- अब अपना भला
चाहते हो चौधरी,
तो यहाँ से चले जाओ, नहीं तुम्हारी लहास उठेगी।
तुमने अपने को समझा क्या
है?
तुम्हारी इतनी मजाल कि
मेरी बहू पर हाथ उठाओ।
चौधरी क़समें खा-खाकर अपनी सफ़ाई देने लगा।
तल्लियों की चोट में उसकी
अपराधी आत्मा मौन थी।
यह लात उसे निरपराध मिली औरर उसके
फूले हुए गाल आँसुओं से
भींग गये।
उसने तो बहू को छुआ भी
नहीं।
क्या वह इतना गँवार है कि महतो
के घर की औररतों पर हाथ उठायेगा।
होरी ने अविश्वास करके कहा
-- आँखों
में धूल मत झोंको
चौधरी, तुमने
कुछ कहा नहीं, तो
बहू झूठ-मूठ
रोती है?
रुपए की गर्मी है, तो वह निकाल दी जायगी।
अलग हैं तो क्या हुआ, हैं तो एक ख़ून।
कोई तिरछी आँख से
देखे, तो आँख
निकाल लें।
पुन्नी चंडी बनी हुई थी।
गला फाड़कर बोली -- तूने मुझे धक्का देकर गिरा
नहीं दिया?
खा जा अपने बेटे की क़सम!
हीरा को भी ख़बर मिली कि चौधरी औरर
पुनिया में लड़ाई हो रही है।
चौधरी ने पुनिया को धक्का दिया।
पुनिया ने उसे तल्लियों
से पीटा।
उसने पुर वहीं छोड़ा औरर
औरंगी लिए घटनास्थल की ओर चला।
गाँव में अपने क्रोध के
लिए प्रसिद्ध था।
छोटा डील, गठा
हुआ शरीर,
आँखें कौड़ी की तरह निकल आयी थीं औरर
गर्दन की नसें तन गयी थी; मगर उसे चौधरी पर क्रोध न था,
क्रोध था पुनिया पर।
वह क्यों चौधरी से
लड़ी?
क्यों उसकी इज़्ज़त मिट्टी में
मिला दी?
बँसोर से लड़ने-झगड़ने का उसे क्या प्रयोजन
था?
उसे जाकर हीरा से सारा समाचार कह देना
चाहिए था।
हीरा जैसा उचित समझता, करता।
वह उससे लड़ने क्यों
गयी?
उसका बस होता, तो वह पुनिया को पर्दे
में रखता।
पुनिया किसी बड़े से मुँह
खोलकर बातें करे, यह उसे असह्य था।
वह ख़ुद जितना उद्दंड था, पुनिया को उतना ही शान्त रखना
चाहता था।
जब भैया ने पन्द्रह रुपये
में सौदा कर लिया,
तो यह बीच में कूदनेवाली
कौन!
आते ही उसने पुन्नी का हाथ पकड़
लिया औरर घसीटता हुआ अलग ले जाकर लगा
लातें जमाने --
हरामज़ादी, तू हमारी नाक
कटाने पर लगी हुई है!
तू छोटे-छोटे आदमियों से लड़ती फिरती
है, किसकी पगड़ी नीची
होती है बता! ।
फ़्रफ़्रोक लात औरर जमाकरप्रप्र
हम तो वहाँ कले:ू की बाट देख
रहे हैं, तू
यहाँ लड़ाई ठाने बैठी है।
इतनी बेसर्मी!
आँख का पानी ऐसा गिर गया!
खोदकर गाड़ दूँगा।
पुन्नी हाय-हाय करती जाती थी औरर कोसती जाती
थी, ' तेरी मिट्टी उठे, तुझे हैज़ा हो जाय, तुझे मरी आये, देवी मैया तुझे लील
जायँ, तुझे
इन्पलुएंजा हो जाय।
भगवान् करे, तू कोढ़ी हो जाय।
हाथ-पाँव
कट-कट गिरें। '
औरर गालियाँ तो हीरा खड़ा-खड़ा सुनता रहा, लेकिन यह पिछली गाली उसे लग गयी।
हैज़ा, मरी आदि
में विशेष कष्ट न था।
इधर बीमार पड़े, उधर विदा हो गये, लेकिन कोढ़!
यह घिनौनी मौत, औरर उससे भी घिनौना जीवन।
वह तिलमिला उठा,
दाँत पीसता हुआ फिर पुनिया पर झपटा औरर
झोटे पकड़कर फिर उसका सिर ज़मीन पर रगड़ता हुआ
बोला -- हाथ-पाव कटकर गिर जायँगे, तो मैं तुझे
लेकर चाटूँगा!
तू ही मेरे बाल-बच्चों को पालेगी?
ऐं!
तू ही इतनी बड़ी गिरस्ती
चलायेगी?
तू तो दूसरा भरतार करके
किनारे खड़ी हो जायगी।
चौधरी को पुनिया की इस
दुर्गति पर दया आ गयी।
हीरा को उदारतापूर्वक समझाने
लगा -- हीरा महतो,
अब जाने दो, बहुत हुआ।
क्या हुआ,
बहू ने मुझे मारा।
मैं तो छोटा नहीं हो
गया।
धन्य भाग कि भगवान् ने यह तो
दिखाया।
हीरा ने चौधरी को डाँटा
-- तुम चुप रहो
चौधरी, नहीं
मेरे क्रोध में पड़ जाओगे
तो बुरा होगा।
औररत जात इसी तरह बकती है।
आज को तुमसे लड़ गयी, कल को दूसरों से लड़
जायगी।
तुम भले मानस हो, हँसकर टाल गये, दूसरा तो बरदास न करेगा।
कहीं उसने भी हाथ छोड़ दिया,
तो कितनी आबरू रह
जायेगी, बताओ।
इस ख़याल ने उसके क्रोध को फिर
भड़काया।
लपका था कि होरी ने दौड़कर पकड़ लिया
औरर उसे पीछे हटाते हुए बोला
-- अरे हो तो गया।
देख तो लिया दुनिया ने कि
बड़े बहादुर हो।
अब क्या उसे पीसकर पी
जाओगे?
हीरा अब भी बड़े भाई का अदब करता था।
सीधे-सीधे
न लड़ता था।
चाहता तो एक झटके में अपना हाथ
छुड़ा लेता; लेकिन
इतनी बेअदबी न कर सका।
चौधरी की ओर देखकर बोला
-- अब खड़े क्या ताकते
हो।
जाकर अपने बाँस काटो।
मैंने सही कर दिया।
पन्द्रह रुपए सैकड़े में तय
है।
कहाँ तो पुन्नी रो रही थी।
कहाँ झमककर उठी औरर अपना सिर पीटकर
बोली -- लगा दे घर में
आग, मुझे क्या करना
है।
भाग फूट गया कि तुम-जैसी क़साई के पाले पड़ी।
लगा दे घर में आग!
उसने कलेू की टोकरी वहीं
छोड़ दी औरर घर की ओर चली।
हीरा गरजा --
वहाँ कहाँ जाती हैं, चल कुएँ पर, नहीं ख़ून पी जाऊँगा।
पुनिया के पाँव रुक गये।
इस नाटक का दूसरा अंक न खेलना चाहती
थी।
चुपके से टोकरी उठाकर रोती
हुई कुएँ की ओर चली।
हीरा भी पीछे-पीछे चला।
होरी ने कहा -- अब फिर मार-धाड़ न
करना।
इससे औररत बेसरम हो जाती
है।
धनिया ने द्वार पर आकर हाँक लगायी
-- तुम वहाँ
खड़े-खड़े क्या तमाशा
देख रहे हो।
कोई तुम्हारी सुनता भी है कि
यों ही शिक्षा दे रहे हो।
उस दिन इसी बहू ने तुम्हें
घूँघट की आड़ में डाढ़ीजार कहा था, भूल गये।
बहुरिया होकर पराये मरदों
से लड़ेगी, तो
डाँटी न जायेगी।
होरी द्वार पर आकर नटखटपन के साथ
बोला -- औरर जो
मैं इसी तरह तुझे मारूँ?
' क्या कभी मारा
नहीं है, जो
मारने की साध बनी हुई है? '
' इतनी बेदरदी
से मारता, तो तू
घर छोड़कर भाग जाती!
पुनिया बड़ी ग़मख़ोर है। '
' ओहो!
ऐसे ही तो बड़े दरदवाले
हो।
अभी तक मार का दाग़ बना हुआ है।
हीरा मारता है तो दुलारता भी है।
तुमने ख़ाली मारना सीखा, दुलार करना सीखा ही नहीं।
मैं ही ऐसी हूँ कि
तुम्हारे साथ निबाह हुआ। '
' अच्छा रहने
दे, बहुत अपना बखान
न कर!
तू ही रूठ-रूठकर
नैहर भागती थी। '
जब महीनों ख़ुशामद करता था,
तब जाकर आती थी! '
' जब अपनी गरज
सताती थी, तब मनाने
जाते थे लाला!
मेरे दुलार से नहीं जाते
थे। '
' इसी से
तो मैं सबसे तेरा बखान करता
हूँ। '
वैवाहिक जीवन के प्रभात में
लालसा अपनी गुलाबी मादकता के साथ उदय होती
है औरर हृदय के सारे आकाश को अपने
माधुर्य की सुनहरी किरणों से
रंजित कर देती है।
फिर मध्याह्न का प्रखर ताप आता है, क्षण-क्षण पर
बगूले उठते हैं, औरर पृथ्वी काँपने लगती है।
लालसा का सुनहरा आवरण हट जाता है
औरर वास्तविकता अपने नग्न रूप में सामने
आ खड़ी है।
उसके बाद विश्राममय सन्ध्या आती
है, शीतल औरर
शान्त, जब हम थके हुए
पथिकों की भाँति दिन-भर की यात्रा का वृत्तान्त कहते औरर
सुनते हैं तटस्थ भाव से, मानो हम किसी ऊँचे शिखर पर
जा बैठे हैं जहाँ नीचे का
जन-रव हम तक नहीं
पहुँचता।
धनिया ने आँखों में
रस भरकर कहा --
चलो-चलो, बड़े बखान करनेवाले।
ज़रा-सा कोई काम
बिगड़ जाय, तो गरदन पर
सवार हो जाते हो।
होरी ने मीठे उलाहने के साथ
कहा -- ले, अब यही तेरी बेींसाफ़ी
मुझे अच्छी नहीं लगती धनिया!
भोला से पूछ, मैंने उनसे तेरे
बारे में क्या कहा था?
धनिया ने बात बदलकर कहा -- देखो, गोबर गाय लेकर आता है कि ख़ाली हाथ।
चौधरी ने पसीने में
लथ-पथ आकर कहा -- महतो,
चलकर बाँस गिन लो।
कल ठेला लाकर उठा ले जाऊँगा।
होरी ने बाँस गिनने की ज़रूरत न
समझी।
चौधरी ऐसा आदमी नहीं है।
फिर एकाध बाँस बेसी ही काट
लेगा, तो क्या।
रोज़ ही तो मँगनी बाँस
कटते रहते हैं।
सहालगों में तो मंडप
बनाने के लिए लोग दरजनों बाँस काट
ले जाते हैं।
चौधरी ने साढ़े सात रुपए निकालकर
उसके हाथ में रख दिये।
होरी ने गिनकर कहा -- औरर निकालो।
हिसाब से ढाई औरर होते
हैं।
चौधरी ने बेमुरौवती
से कहा -- पन्द्रह
रुपये में तय हुए हैं कि
नहीं?
' पन्द्रह रुपए
में नहीं, बीस
रुपये में। '
' हीरा महतो
ने तुम्हारे सामने पन्द्रह रुपये कहे
थे।
कहो तो बुला लाऊँ। '
' तय तो बीस
रुपये में ही हुए थे चौधरी!
अब तुम्हारी जीत है, जो चाहो कहो।
ढाई रुपये निकलते हैं, तुम दो ही दे दो। '
मगर चौधरी कच्ची गोलियाँ न
खेला था।
अब उसे किसका डर।
होरी के मुँह में तो
ताला पड़ा हुआ था।
क्या कहे, माथा
ठोंककर रह गया।
बस इतना बोला -- यह अच्छी बात नहीं है, चौधरी, दो
रुपए दबाकर राजा न हो जाओगे।
चौधरी तीक्ष्ण स्वर में बोला
-- औरर तुम क्या
भाइयों के थोड़े-से पैसे दबाकर राजा हो
जाओगे?
ढाई रुपये पर अपना ईमान बिगाड़ रहे
थे, उस पर मुझे
उपदेस देते हो।
अभी परदा खोल दूँ, तो सिर नीचा हो जाय।
होरी पर जैसे सैकड़ों
जूते पड़ गये।
चौधरी तो रुपए सामने ज़मीन पर
रखकर चला गया; पर वह नीम
के नीचे बैठा बड़ी देर तक पछताता रहा।
वह कितना लोभी औरर स्वार्थी,
इसका उसे आज पता चला।
चौधरी ने ढाई रुपए दे दिये
होते, तो वह
ख़ुशी से कितना फूल उठता।
अपनी चालाकी को सराहता कि
बैठे-बैठाये ढाई
रुपए मिल गये।
ठोकर खाकर ही
तो हम सावधानी के साथ पग उठाते हैं।
धनिया अन्दर चली गयी थी।
बाहर आयी तो रुपए ज़मीन पर पड़े
देखे, गिनकर बोली
-- औरर रुपए क्या
हुए, दस न चाहिए?
होरी ने लम्बा मुँह बनाकर कहा
-- हीरा ने पन्द्रह रुपए
में दे दिये,
तो मैं क्या करता।
' हीरा पाँच
रुपए में दे दे।
हम नहीं देते इन
दामों। '
' वहाँ
मार-पीट हो रही थी।
मैं बीच में क्या
बोलता। '
होरी ने अपनी पराजय अपने मन
में ही डाल ली,
जैसे कोई चोरी से आम तोड़ने
के लिए पेड़ पर चढ़े औरर गिर पड़ने पर
धूल झाड़ता हुआ उठ खड़ा हो कि कोई देख न
ले।
जीतकर आप अपनी धोखेबाज़ियों
की डींग मार सकते हैं; जीत से सब-कुछ माफ़ है।
हार की लज्जा तो पी जाने की ही वस्तु
है।
धनिया पति को फटकारने लगी।
ऐसे सुअवसर उसे बहुत कम
मिलते थे।
होरी उससे चतुर था; पर आज बाज़ी धनिया के हाथ थी।
हाथ मटकाकर बोली -- क्यों न हो, भाई ने पन्द्रह रुपये कह दिये,
तो तुम कैसे
टोकते।
अरे राम-राम!
लाड़ले भाई का दिल छोटा हो जाता कि
नहीं।
फिर जब इतना बड़ा अनर्थ हो रहा था कि
लाड़ली बहू के गले पर छुरी चल रही थी,
तो भला तुम कैसे
बोलते।
उस बखत कोई तुम्हारा सरबस लूट
लेता, तो भी
तुम्हें सुध न होती।
होरी चुपचाप सुनता रहा।
मिनका तक नहीं।
झुँझलाहट हुई, क्रोध आया,
ख़ून खौला, आँख
जली, दाँत पिसे;
लेकिन बोला नहीं।
चुपके-से कुदाल उठायी औरर ऊख गोड़ने
चला।
धनिया ने कुदाल छीनकर कहा -- क्या अभी सबेरा है जो ऊख
गोड़ने चले?
सूरज देवता माथे पर आ गये।
नहाने-धोने जाओ।
रोटी तैयार है।
होरी ने घुन्नाकर कहा -- मुझे भूख नहीं है।
धनिया ने जले पर नोन छिड़का
-- हाँ काहे को
भूख लगेगी।
भाई ने बड़े-बड़े लड्डू खिला दिये हैं
न!
भगवान् ऐसे सपूत भाई
सबको दें।
होरी बिगड़ा।
क्रोध अब रस्सियाँ तुड़ा रहा था
-- तू आज मार खाने पर
लगी हुई है।
धनिया ने नक़ली विनय का नाटक करके कहा
-- क्या करूँ, तुम दुलार ही इतना करते
हो कि मेरा सिर फिर गया है।
' तू घर
में रहने देगी कि नहीं? '
' घर
तुम्हारा, मालिक
तुम, मैं भला
कौन होती हूँ
तुम्हें घर से
निकालनेवाली। '
होरी आज धनिया से किसी तरह पेश
नहीं पा सकता।
उसकी अक्ल जैसे कुन्द हो गयी
है।
इन व्यंग्य-बाणों के रोकने के लिए
उसके पास कोई ढाल नहीं है।
धीरे से कुदाल रख दी औरर गमछा
लेकर नहाने चला गया।
लौटा कोई आध घंटे
में; मगर गोबर
अभी तक न आया था।
अकेले कैसे भोजन करे।
लौंडा वहाँ जा कर सो रहा।
भोला की वह मदमाती छोकरी है न
झुनिया।
उसके साथ हँसी-दिल्लगी कर रहा होगा।
कल भी तो उसके पीछे लगा हुआ
था।
नहीं गाय दी,
तो लौट क्यों नहीं आया।
क्या वहाँ ढई देगा।
धनिया ने कहा -- अब खड़े क्या हो?
गोबर साँझ को आयेगा।
होरी ने औरर कुछ न कहा।
कहीं धनिया फिर न कुछ कह बैठे।
भोजन करके नीम की छाँह में
लेट रहा।
रूपा रोती हुई आई नंगे बदन एक
लँगोटी लगाये,
झबरे बाल इधर-उधर
बिखरे हुए।
होरी की छाती पर लोट गयी।
उसकी बड़ी बहन सोना कहती है -- गाय आयेगी, तो उसका गोबर मैं
पाथूँगी।
रूपा यह नहीं बरदाश्त कर
सकती।
सोना ऐसी कहाँ की बड़ी रानी है कि
सारा गोबर आप पाथ डाले।
रूपा उससे किस बात में कम है।
सोना रोटी पकाती है, तो क्या रूपा बरतन नहीं
माँजती?
सोना पानी लाती है, तो क्या रूपा कुएँ पर रस्सी नहीं
ले जाती?
सोना तो कलसा भरकर इठलाती चली आती
है।
रस्सी समेटकर रूपा ही लाती है।
गोबर दोनों साथ पाथती
हैं।
सोना खेत गोड़ने जाती
है, तो क्या रूपा बकरी
चराने नहीं जाती?
फिर सोना क्यों अकेली गोबर
पाथेगी?
यह अन्याय रूपा कैसे सहे?
होरी ने उसके भोलेपन पर
मुग्ध होकर कहा --
नहीं, गाय का गोबर
तू पाथना सोना गाय के पास जाये तो
भगा देना।
रूपा ने पिता के गले में हाथ
डालकर कहा -- दूध भी
मैं ही दुहूँगी।
' हाँ-हाँ,
तू न दुहेगी तो
औरर कौन दुहेगा? '
' वह मेरी गाय
होगी।
' हाँ,
सोलहो आने
तेरी। '
रूपा प्रसन्न होकर अपनी विजय का शुभ
समाचार पराजिता सोना को सुनाने चली
गयी।
गाय मेरी होगी, उसका दूध मैं
दुहूँगी, उसका
गोबर मैं पाथूँगी, तुझे कुछ न मिलेगा।
सोना उम्र से किशोरी, देह के गठन में
युवती औरर बुद्धि से बालिका थी,
जैसे उसका यौवन
उसे आगे खींचता था, बालपन पीछे।
कुछ बातों में इतनी
चतुर कि ग्रेजुएट युवतियों
को पढ़ाये, कुछ
बातों में इतनी अल्हड़ कि शिशुओं
से भी पीछे।
लम्बा, रूखा,
किन्तु प्रसन्न मुख,
ठोड़ी नीचे को खिंची
हुई, आँखों
में एक प्रकार की तृप्ति न केशों
में तेल, न
आँखों में काजल, न देह पर कोई आभूषण, जैसे गृहस्थी के भार
ने यौवन को दबाकर बौना कर दिया हो।
सिर को एक झटका देकर बोली
-- जा तू गोबर पाथ।
जब तू दूध दुहकर रखेगी तो
मैं पी जाऊँगी।
' मैं
दूध की हाँड़ी ताले में बन्द करके
रखूँगी। '
' मैं
ताला तोड़ कर दूध निकाल लाऊँगी। '
यह कहती हुई वह बाग़ की तरफ़ चल दी।
आम गदरा गये थे।
हवा के झोंकों से एकाध
ज़मीन पर गिर पड़ते थे, लू के मारे चुचके, पीले;
लेकिन बाल-वृन्द
उन्हें टपके समझकर बाग़ को घेरे
रहते थे।
रूपा भी बहन के पीछे हो ली।
जो काम सोना करे, वह रूपा ज़रूर करेगी।
सोना के विवाह की बातचीत हो रही
थी, रूपा के विवाह की
कोई चर्चा नहीं करता; इसलिए वह स्वयम् अपने विवाह के लिए
आग्रह करती है।
उसका दूल्हा कैसा होगा, क्या-क्या
लायेगा, उसे
कैसे रखेगा,
उसे क्या खिलायेगा,
क्या पहनायेगा, इसका वह
बड़ा विशद वर्णन करती,
जिसे सुनकर कदाचित्् कोई बालक उससे
विवाह करने पर राज़ी न होता।
साँझ हो रही थी।
होरी ऐसा अलसाया कि ऊख गोड़ने
न जा सका।
बैलों को नाँद में
लगाया, सानी-खली दी औरर एक चिलम भरकर पीने
लगा।
इस फ़सल में सब कुछ खलिहान
में तौल देने पर भी अभी उस पर कोई
तीन सौ क़रज़ था, जिस पर
कोई सौ रुपए सूद के बढ़ते जाते
थे।
मँगरू साह से आज पाँच साल हुए बैल
के लिए साठ रुपए लिए थे,
उसमें साठ दे चुका था; पर वह साठ रुपए ज्यों-के-त्यों
बने हुए थे।
दातादीन पण्डित से तीस रुपए लेकर आलू
बोये थे।
आलू तो चोर खोद ले
गये, औरर उस तीस
के इन तीन बरसों में सौ हो
गये थे।
दुलारी विधवा सहुआइन थी, जो गाँव में नोन
तेल तमाखू की दूकान रखे हुए थी।
बटवारे के समय उससे चालीस रुपए
लेकर भाइयों को देना पड़ा था।
उसके भी लगभग सौ रुपए हो गये
थे, क्योंकि
आने रुपये का ब्याज था।
लगान के भी अभी पच्चीस रुपए बाक़ी पड़े
हुए थे औरर दशहरे के दिन शगुन के
रुपयों का भी कोई प्रबन्ध करना था।
बाँसों के रुपए बड़े अच्छे
समय पर मिल गये।
शगुन की समस्या हल हो जायगी;
लेकिन कौन जाने।
यहाँ तो एक धेला भी हाथ में
आ जाय, तो गाँव
में शोर मच जाता है, औरर लेनदार चारों तरफ़ से
नोचने लगते हैं, ये पाँच रुपये तो वह शगुन
में देगा, चाहे
कुछ हो जाय; मगर अभी
ज़िन्दगी के दो बड़े-बड़े काम सिर पर सवार थे।
गोबर औरर सोना का विवाह।
बहुत हाथ बाँधने पर भी तीन
सौ से कम ख़र्च न होंगे।
ये तीन सौ किसके घर से
आयेंगे?
कितना चाहता है कि किसी से एक पैसा
क़रज़ न ले, जिसका आता
है, उसका पाई-पाई चुका दे; लेकिन हर तरह का कष्ट उठाने पर भी गला
नहीं छूटता।
इसी तरह सूद बढ़ता जायगा औरर एक दिन उसका
घर-द्वार सब नीलाम हो
जायगा, उसके
बाल-बच्चे निराश्रय
होकर भीख माँगते फिरेंगे।
होरी जब काम-धन्धे से छुट्टी पाकर चिलम पीने
लगता था, तो यह चिन्ता एक
काली दीवार की भाँति चारों ओर से
घेर लेती थी,
जिसमें से निकलने की उसे कोई गली
न सूझती थी।
अगर सन्तोष था तो यही कि यह विपत्ति
अकेले उसी के सिर न थी।
प्राय:सभी किसानों का यही हाल था।
अधिकांश की दशा तो इससे भी बदतर
थी।
शोभा औरर हीरा को उससे अलग
हुए अभी कुल तीन साल हुए थे; मगर दोनों पर
चार-चार सौ का बोझ लद
गया।
झींगुर दो हल की खेती करता
है।
उस पर एक हज़ार से कुछ बेसी ही
देना है।
जियावन महतो के घर-भिखारी भीख भी नहीं पाता; लेकिन करजे का कोई ठिकाना नहीं।
यहाँ कौन बचा है।
सहसा सोना औरर रूपा दोनों
दौड़ी हुई आयीं औरर एक साथ बोलीं
-- भैया गाय ला रहे
हैं।
आगे-आगे
गाय, पीछे-पछे भीया हैं।
रूपा ने पहले गोबर को आते
देखा था।
यह ख़बर सुनाने की सुर्ख़रूई
उसे मिलनी चाहिए थी।
सोना बराबर की हिस्सेदार हुई जाती
है, यह उससे
कैसे सहा जाता।
उसने आगे बढ़कर कहा -- पहले मैंने देखा था।
तभी दौड़ी।
बहन ने तो पीछे से देखा।
सोना इस दावे को स्वीकार न कर सकी।
बोली --
तूने भैया को कहाँ पहचाना।
तू तो कहती थी, कोई गाय भागी आ रही है।
मैंने ही कहा, भैया हैं।
दोनों फिर बाग़ की तरफ़
दौड़ीं, गाय का स्वागत
करने के लिए।
धनिया औरर होरी दोनों गाय
बाँधने का प्रबन्ध करने लगे।
होरी बोला -- चलो, जल्दी
से नाँद गाड़ दें।
धनिया के मुख पर जवानी चमक उठी थी
-- नहीं, पहले थाली में थोड़ा-सा आटा औरर गुड़ घोलकर रख
दें।
बेचारी धूप में चली होगी।
प्यासी होगी।
तुम जाकर नाँद गाड़ो, मैं घोलती हूँ।
' कहीं एक
घंटी पड़ी थी।
उसे ढूँढ़ ले।
उसके गले में
बाँधेंगे। '
' सोना
कहाँ गयी।
सहुआइन की दुकान से
थोड़ा-सा काला डोरा
मँगवा लो, गाय
को नज़र बहुत लगती है। '
' आज मेरे
मन की बड़ी भारी लालसा पूरी हो गयी। '
धनिया अपने हार्दिक उल्लास को
दबाये रखना चाहती थी।
इतनी बड़ी सम्पदा अपने साथ कोई नयी
बाधा न लाये, यह शंका
उसके निराश हृदय में कम्पन डाल रही थी।
आकाश की ओर देखकर बोली -- गाय के आने का आनन्द तो जब
है कि उसका पौरा भी अच्छा हो।
भगवान् के मन की बात है।
मानो वह भगवान् को भी धोखा
देना चाहती थी।
भगवान् को भी दिखाना चाहती थी कि इस
गाय के आने से उसे इतना आनन्द नहीं
हुआ कि ईष्र्यालु भगवान् सुख का पलड़ा
ऊँचा करने के लिए कोई नयी विपत्ति
भेज दें।
वह अभी आटा घोल ही रही थी कि गोबर गाय
को लिये बालकों के एक जुलूस
के साथ द्वार पर पहुँचा।
होरी दौड़कर गाय के गले से
लिपट गया।
धनिया ने आटा छोड़ दिया औरर जल्दी
से एक पुरानी साड़ी का काला किनारा फाड़कर गाय के
गले में बाँध दिया।
होरी श्रद्धा-विह्वल नेत्रों से गाय को
देख रहा था, मानो
साक्षात्् देवीजी ने घर में पदार्पण
किया हो।
आज भगवान् ने यह दिन दिखाया कि उसका
घर गऊ के चरणों से पवित्र हो गया।
यह सौभाग्य!
न जाने किसके पुण्य-प्रताप से।
धनिया ने भयातुर होकर कहा
-- खड़े क्या हो,
आँगन में नाँद गाड़
दो।
आँगन में, जगह कहाँ है? '
' बहुत जगह
है। '
' मैं
तो बाहर ही गाड़ता हूँ। '
' पागल न
बनो।
गाँव का हाल जानकर भी अनजान बनते
हो। '
' अरे
बित्ते-भर के
आँगन में गाय कहाँ बँधेगी
भाई? '
' जो बात
नहीं जानते,
उसमें टाँग मत अड़ाया करो।
संसार-भर की
बिद्दा तुम्हीं नहीं पढ़े हो। '
होरी सचमुच आपे में न था।
गऊ उसके लिए केवल भक्ति औरर
श्रद्धा की वस्तु नहीं, सजीव सम्पत्ति भी थी।
वह उससे अपने द्वार की शोभा
औरर अपने घर का गौरव बढ़ाना चाहता था।
वह चाहता था,
लोग गाय को द्वार पर बँधे देखकर
पूछें -- यह किसका
घर है?
लोग कहें -- होरी महतो का।
तभी लड़कीवाले भी उसकी विभूति से
प्रभावित होंगे।
आँगन में बँधी, तो कौन
देखेगा?
धनिया इसके विपरीत सशंक थी।
वह गाय को सात परदों के अन्दर
छिपाकर रखना चाहती थी।
अगर गाय आठों पहर कोठरी में
रह सकती, तो शायद वह
उसे बाहर न निकालने देती।
यों हर बात में होरी की जीत
होती थी।
वह अपने पक्ष पर अड़ जाता था औरर धनिया
को दबना पड़ता था,
लेकिन आज धनिया के सामने होरी की एक न
चली।
धनिया लड़ने पर तैयार हो गयी।
गोबर,
सोना औरर रूपा, सारा
घर होरी के पक्ष में था; पर धनिया ने अकेले सब को परास्त
कर दिया।
आज उसमें एक विचित्र आत्म-विश्वास औरर होरी में
एक विचित्र विनय का उदय हो गया था।
मगर तमाशा कैसे रुक सकता था।
गाय डोली में बैठकर तो
आयी न थी।
कैसे सम्भव था कि गाँव में
इतनी बड़ी बात हो जाय औरर तमाशा न लगे।
जिसने सुना, सब काम छोड़कर देखने दौड़ा।
यह मामूली देशी गऊ नहीं है।
भोला के घर से अस्सी रुपये
में आयी है।
होरी अस्सी रुपए क्या देंगे,
पचास-साठ रुपए में लाये होंगे।
गाँव के इतिहास में
पचास-साठ रुपए की गाय का आना
भी अभूतपूर्व बात थी।
बैल तो पचास रुपए के भी
आये, सौ के भी
आये, लेकिन गाय
के लिए इतनी बड़ी रक़म किसान क्या खा के ख़र्च
करेगा।
यह तो ग्वालों ही का कलेजा
है कि अँजुलियों रुपए गिन आते
हैं।
गाय क्या है,
साक्षात्् देवी का रूप है।
दर्शकों, आलोचकों का ताँता लगा हुआ
था, औरर होरी
दौड़-दौड़कर सबका सत्कार कर
रहा था।
इतना विनम्र,
इतना प्रसन्न चित्त वह कभी न था।
सत्तर साल के बूढ़े पण्डित दातादीन
लठिया टेकते हुए आये औरर पोपले
मुँह से बोले -- कहाँ हो होरी, तनिक हम भी तुम्हारी गाय देख लें।
सुना बड़ी सुन्दर है।
होरी ने दौड़कर पालागन किया औरर
मन में अभिमानमय उल्लास का आनन्द उठाता
हुआ, बड़े सम्मान
से पण्डितजी को आँगन में ले गया।
महाराज ने गऊ को अपनी पुरानी
अनुभवी आँखों से देखा, सींगे देखीं, थन देखा, पुट्ठा देखा औरर घनी सफ़ेद
भौंहों के नीचे छिपी हुई
आँखों में जवानी की उमंग भरकर
बोले -- कोई
दोष नहीं है बेटा, बाल-भौंरी, सब
ठीक।
भगवान् चाहेंगे, तो तुम्हारे भाग खुल
जायेंगे,
ऐसे अच्छे लच्छन हैं कि वाह!
बस रातिब न कम होने पाये।
एक-एक बाछा सौ-सौ का होगा।
होरी ने आनन्द के सागर में डुबकियाँ खाते हुए कहा
-- सब आपका असीरबाद
है, दादा!
दातादीन ने सुरती की पीक थूकते
हुए कहा -- मेरा असीरबाद
नहीं है बेटा,
भगवान् की दया है।
यह सब प्रभु की दया है।
रुपए नगद दिये?
होरी ने बे-पर की उड़ाई।
अपने महाजन के सामने भी अपनी
समृद्धि-प्रदर्शन का
ऐसा अवसर पाकर वह कैसे छोड़े।
टके की नयी टोपी सिर पर रखकर जब हम
अकड़ने लगते हैं, ज़रा देर के लिए किसी सवारी पर बैठकर
जब हम आकाश में उड़ने लगते
हैं, तो इतनी बड़ी
विभूति पाकर क्यों न उसका दिमाग़ आसमान पर
चढ़े।
बोला --
भोला ऐसा भलामानस नहीं है महाराज!
नगद गिनाये,
पूरे चौकस।
अपने महाजन के सामने यह डींग
मारकर होरी ने नादानी तो की थी; पर दातादीन के मुख पर
असन्तोष का कोई चिह्न न दिखायी दिया।
इस कथन में कितना सत्य है,
यह उनकी उन बूझी
आँखों से छिपा न रह सका जिनमें
ज्योति की जगह अनुभव छिपा बैठा था।
प्रसन्न होकर बोले -- कोई हरज़ नहीं बेटा, कोई हरज़ नहीं।
भगवान् सब कल्यान करेंगे।
पाँच सेर दूध है इसमें
बच्चे के लिए छोड़कर।
धनिया ने तुरन्त टोका -- अरे नहीं महाराज, इतना दूध कहाँ।
बुढ़िया तो हो गयी है।
फिर यहाँ रातिब कहाँ धरा है।
दातादीन ने मर्म-भरी आँखों से देखकर उसकी
सतर्कता को स्वीकार किया, मानो कह रहे हों, ' गृहिणी का यही धर्म है, सीटना मरदों का काम है,
उन्हें सीटने
दो। '
फिर रहस्य-भरे
स्वर में बोले -- बाहर न बाँधना, इतना कहे देते हैं।
धनिया ने पति की ओर विजयी
आँखों से देखा, मानो कह रही हो -- लो अब तो मानोगे।
दातादीन से बोली -- नहीं महाराज,
बाहर क्या बाँधेंगे, भगवान् दें तो इसी आँगन
में तीन गायें औरर बँध सकती
हैं।
सारा गाँव गाय देखने आया।
नहीं आये तो सोभा औरर हीरा
जो अपने सगे भाई थे।
होरी के हृदय में
भाइयों के लिए अब भी कोमल स्थान था।
वह दोनों आकर देख लेते
औरर प्रसन्न हो जाते तो उसकी
मनोकामना पूरी हो जाती।
साँझ हो गयी।
दोनों पुर लेकर लौट
आये।
इसी द्वार से निकले, पर पूछा कुछ नहीं।
होरी ने डरते-डरते धनिया से कहा -- न सोभा आया,
न हीरा।
सुना न होगा?
धनिया बोली -- तो यहाँ कौन उन्हें
बुलाने जाता है।
' तू बात
तो समझती नहीं।
लड़ने के लिए तैयार रहती है।
भगवान् ने जब यह दिन दिखाया
है, तो हमें
सिर झुकाकर चलना चाहिए।
आदमी को अपने संगों के
मुँह से अपनी भलाई-बुराई सुनने की जितनी लालसा
होती है,
बाहरवालों के मुँह से नहीं।
फिर अपने भाई लाख
बुरे हों, हैं तो अपने भाई ही।
अपने हिस्से-बखरे के लिए सभी लड़ते
हैं, पर इससे
ख़ून थोड़े ही बट जाता है।
दोनों को बुलाकर दिखा
देना चाहिए।
नहीं कहेंगे गाय
लाये, हमसे कहा तक
नहीं। '
धनिया ने नाक सिकोड़कर कहा -- मैंने तुमसे
सौ बार हज़ार बार कह दिया मेरे मुँह पर
भाइयों का बखान न किया करो, उनका नाम सुनकर मेरी देह में
आग लग जाती है।
सारे गाँव ने सुना, क्या उन्होंने न सुना
होगा?
कुछ इतनी दूर भी तो नहीं
रहते।
सारा गाँव देखने आया, उन्हीं के पाँवों
में मेंहदी लगी हुई थी; मगर आये कैसे?
जलन हो रही होगी कि इसके घर गाय आ
गयी।
छाती फटी जाती होगी।
दिया-बत्ती का
समय आ गया था।
धनिया ने जाकर देखा, तो बोतल में मिट्टी का
तेल न था।
बोतल उठा कर तेल लाने चली गयी।
पैसे होते, तो रूपा को भेजती, उधार लाना था, कुछ मुँह देखी कहेगी;
कुछ लल्लो-चप्पो करेगी, तभी तो तेल उधार मिलेगा।
होरी ने रूपा को बुलाकर प्यार
से गोद में बैठाया औरर कहा
-- ज़रा जाकर देख, हीरा काका आ गये कि नहीं।
सोभा काका को भी देखती आना।
कहना, दादा ने
तुम्हें बुलाया है।
न आये, हाथ
पकड़कर खींच लाना।
रूपा ठुनककर बोली -- छोटी काकी मुझे डाँटती है।
' काकी के पास
क्या करने जायगी।
फिर सोभा-बहू तो तुझे प्यार करती
है? '
' सोभा काका
मुझे चिढ़ाते हैं, कहते हैं . . . मैं न कहूँगी। '
' क्या कहते
हैं, बता? '
' चिढ़ाते
हैं। '
' क्या कहकर
चिढ़ाते हैं? '
' कहते
हैं, तेरे लिए
मूस पकड़ रखा है।
ले जा,
भूनकर खा ले। '
होरी के अन्तस्तल में
गुदगुदी हुई।
' तू कहती
नहीं, पहले तुम
खा लो, तो
मैं खाऊँगी। '
' अम्माँ
मने करती हैं।
कहती हैं उन लोगों के
घर न जाया करो। '
' तू अम्माँ
की बेटी है कि दादा की? '
रूपा ने उसके गले में हाथ
डालकर कहा -- अम्माँ की,
औरर हँसने लगी।
' तो फिर
मेरी गोद से उतर जा।
आज मैं तुझे अपनी थाली
में न खिलाऊँगा। '
घर में एक ही फूल की थाली थी,
होरी उसी थाली में खाता
था।
थाली में खाने का गौरव
पाने के लिए रूपा होरी के साथ खाती थी।
इस गौरव का परित्याग कैसे
करे?
हुमककर बोली -- अच्छा, तुम्हारी।
' तो फिर
मेरा कहना मानेगी कि अम्माँ का? '
' तुम्हारा। '
' तो जाकर हीरा
औरर सोभा को खींच ला। '
' औरर जो
अम्माँ बिगड़ें। '
' अम्माँ से
कहने कौन जायगा। '
रूपा कूदती हुई हीरा के घर चली।
द्वेष का मायाजाल बड़ी-बड़ी मछलियों को ही फँसाता है।
छोटी मछलियाँ या तो उसमें
फँसती ही नहीं या तुरन्त निकल जाती हैं।
उनके लिए वह घातक जाल क्रीड़ा की वस्तु
है, भय की नहीं।
भाइयों से होरी की बोलचाल
बन्द थी; पर रूपा
दोनों घरों में आती-जाती थी।
बच्चों से क्या बैर!
लेकिन रूपा घर से निकली ही थी कि धनिया
तेल लिए मिल गयी।
उसने पूछा -- साँझ की बेला कहाँ जाती है,
चल घर।
रूपा माँ को प्रसन्न करने के
प्रलोभन को न रोक सकी।
धनिया ने डाँटा -- चल घर, किसी
को बुलाने नहीं जाना है।
रूपा का हाथ पकड़े हुए वह घर आयी औरर
होरी से बोली --
मैंने तुमसे हज़ार बार कह दियाॡ
मेरे लड़कों को किसी के
घर न भेजा करो।
किसी ने कुछ कर-करा दिया, तो
मैं तुम्हें लेकर
चाटूँगी?
ऐसा ही बड़ा परेम है, तो आप क्यों नहीं
जाते?
अभी पेट नहीं भरा जान पड़ता है।
होरी नाँद जमा रहा था।
हाथों में मिट्टी
लपेटे हुए अज्ञान का अभिनय करके बोला
-- किस बात पर बिगड़ती है
भाई!
यह तो अच्छा नहीं लगता कि अन्धे
कूकर की तरह हवा को भूँका करे।
धनिया को कुप्पी में तेल
डालना था, इस समय झगड़ा न
बढ़ाना चाहती थी।
रूपा भी लड़कों में जा मिली।
पहर रात से ज़्यादा जा चुकी थी।
नाँद गड़ चुकी थी।
सानी औरर खली डाल दी गयी थी।
गाय मनमारे उदास बैठी थी, जैसे कोई वधू
ससुराल आयी हो।
नाँद में मुँह तक न डालती
थी।
होरी औरर गोबर खाकर आधी-आधी रोटियाँ उसके लिए
लाये, पर उसने
सूँघा तक नहीं।
मगर यह कोई नयी बात न थी।
जानवरों को भी बहुधा घर
छूट जाने का दु:ख होता है।
होरी बाहर खाट पर बैठ कर चिलम पीने
लगा, तो फिर
भाइयों की याद आयी।
नहीं, आज इस
शुभ अवसर पर वह भाइयों की उपेक्षा नहीं
कर सकता।
उसका हृदय वह विभूति पाकर विशाल हो
गया था।
भाइयों से अलग हो गया
है, तो क्या हुआ।
उनका दुश्मन तो नहीं है।
यही गाय तीन साल पहले आयी
होती, तो सभी का उस
पर बराबर अधिकार होता।
औरर कल को यही गाय दूध देने
लगेगी, तो क्या वह
भाइयों के घर दूध न भेजेगा या दही
न भेजेगा?
ऐसा तो उसका धरम नहीं है।
भाई उसका बुरा चेतें, वह क्यों उसका बुरा
चेते।
अपनी-अपनी करनी
तो अपने-अपने
साथ है।
उसने नारियल खाट के पाये से
लगाकर रख दिया औरर हीरा के घर की ओर चला।
सोभा का घर भी उधर ही था।
दोनों अपने-अपने द्वार पर लेटे हुए थे।
काफ़ी अँधेरा था।
होरी पर उनमें से किसी की निगाह
नहीं पड़ी।
दोनों में कुछ
बातें हो रही थीं।
होरी ठिठक गया औरर उनकी बातें
सुनने लगा।
ऐसा आदमी कहाँ है, जो अपनी चर्चा सुनकर टाल जाय।
हीरा ने कहा --
जब तक एक में थे,
एक बकरी भी नहीं ली।
अब पछाई गाय ली जाती है।
भाई का हक़ मारकर किसी को फलते-फूलते नहीं देखा।
सोभा बोला -- यह तुम अन्याय कर रहे हो हीरा!
भैया ने एक-एक पैसे का हिसाब दे दिया था।
यह मैं कभी न मानूँगा कि
उन्होंने पहले की कमाई छिपा रखी थी।
' तुम
मानो चाहे न मानो, है यह पहले की कमाई। '
' किसी पर झूठा
इलज़ाम न लगाना चाहिए। '
' अच्छा तो यह
रुपए कहाँ से आ गये?
कहाँ से हुन बरस पड़ा।
उतने ही खेत तो हमारे पास भी
हैं।
उतनी ही उपज हमारी भी है।
फिर क्यों हमारे पास कफ़न को
कौड़ी नहीं औरर उनके घर नयी गाय आती
है? '
' उधार लाये
होंगे। '
' भोला उधार
देनेवाला आदमी नहीं है। '
' कुछ भी
हो, गाय है बड़ी
सुन्दर, गोबर लिये
जाता था, तो
मैंने रास्ते में देखा। '
' बेईमानी का
धन जैसे आता है,
वैसे ही जाता है।
भगवान् चाहेंगे, तो बहुत दिन गाय घर
में न रहेगी। '
होरी से औरर न सुना गया।
वह बीती बातों को बिसारकर
अपने हृदय में स्नेह औरर
सौहार्द भरे भाइयों के पास आया था।
इस आघात ने जैसे उसके हृदय
में छेद कर दिया औरर वह रस-भाव उसमें किसी तरह नहीं टिक रहा था।
लत्ते औरर चिथड़े ठूँसकर
अब उस प्रवाह को नहीं रोक सकता।
जी में एक उबाल आया कि उसी क्षण इस
आक्षेप का जवाब दे;
लेकिन बात बढ़ जाने के भय से चुप रह
गया।
अगर उसकी नीयत साफ़ है, तो कोई कुछ नहीं कर सकता।
भगवान् के सामने वह
निर्दोष है।
दूसरों की उसे परवाह नहीं।
उलटे पाँव लौट आया।
औरर वह जला हुआ तम्बाकू पीने
लगा।
लेकिन जैसे वह विष प्रतिक्षण उसकी
धमनियों में फैलता जाता था।
उसने सो जाने का प्रयास किया,
पर नींद न आयी।
बैलों के पास जाकर उन्हें
सहलाने लगा, विष शान्त न
हुआ।
दूसरी चिलम भरी; लेकिन उसमें भी कुछ रस न था।
विष ने जैसे चेतना को
आक्रान्त कर दिया हो।
जैसे नशे में चेतना
एकांगी हो जाती है,
जैसे फैला हुआ पानी एक दिशा में बहकर
वेगवान हो जाता है, वही मनोवृत्ति उसकी हो रही थी।
उसी उन्माद की दशा में वह अन्दर गया।
अभी द्वार खुला हुआ था।
आँगन में एक किनारे चटाई पर
लेटी हुई धनिया सोना से देह दबवा रही थी
औरर रूपा जो रोज़ साँझ होते ही
सो जाती थी, आज खड़ी गाय
का मुँह सहला रही थी।
होरी ने जाकर गाय को
खूँटे से खोल लिया औरर द्वार की
ओर ले चला।
वह इसी वक़्त गाय को भोला के घर
पहुँचाने का दृढ़ निश्चय कर चुका था।
इतना बड़ा कलंक सिर पर लेकर वह अब गाय
को घर में नहीं रख सकता।
किसी तरह नहीं।
धनिया ने पूछा -- कहाँ लिये जाते हो रात
को?
होरी ने एक पग बढ़ाकर कहा -- ले जाता हूँ भोला के
घर।
लौटा दूँगा।
धनिया को विस्मय हुआ, उठकर सामने आ गयी औरर बोली
-- लौटा क्यों
दोगे?
लौटाने के लिए ही लाये थे।
' हाँ इसके
लौटा देने में ही कुशल
है? '
' क्यों
बात क्या है?
इतने अरमान से लाये औरर अब
लौटाने जा रहे हो?
क्या भोला रुपए माँगते
हैं? '
' नहीं,
भोला यहाँ कब
आया? '
' तो फिर क्या
बात हुई? '
' क्या करोगी
पूछकर? '
धनिया ने लपककर पगहिया उसके हाथ
से छीन ली।
उसकी चपल बुद्धि ने जैसे
उड़ती हुई चिड़िया पकड़ ली।
बोली --
तुम्हें भाइयों का डर हो, तो जाकर उसके पैरों
पर गिरो।
मैं किसी से नहीं डरती।
अगर हमारी बढ़ती देखकर किसी की छाती फटती
है, तो फट जाय,
मुझे परवाह नहीं है।
होरी ने विनीत स्वर में कहा
-- धीरे-धीरे बोल महरानी!
कोई सुने, तो कहे,
ये सब इतनी रात गये लड़ रहे हैं!
मैं अपने कानों से क्या
सुन आया हूँ,
तू क्या जाने!
यहाँ चरचा हो रही है कि
मैंने अलग होते समय रुपए दबा लिये
थे औरर भाइयों को धोखा दिया
था, यही रुपए अब निकल रहे
हैं। '
' हीरा कहता
होगा? '
' सारा गाँव कह
रहा है!
हीरा को क्यों बदनाम करूँ। '
' सारा गाँव
नहीं कह रहा है,
अकेला हीरा कह रहा है।
मैं अभी जाकर पूछती हूँ न कि
तुम्हारे बाप कितने रुपए छोड़कर मरे थे।
डाढ़ीजारों के पीछे हम बरबाद
हो गये, सारी ज़िन्दगी
मिट्टी में मिला दी,
पाल-पोसकर संडा
किया, औरर अब हम
बेईमान हैं!
मैं कहे देती हूँ,
अगर गाय घर के बाहर निकली,
तो अनर्थ हो जायगा।
रख लिये हमने रुपए, दबा लिये, बीच
खेत दबा लिये।
डंके की चोट कहती हूँ,
मैंने हंडे भर
अशफिऱ्याँ छिपा लीं।
हीरा औरर सोभा औरर संसार को
जो करना हो, कर
ले।
क्यों न रुपए रख लें?
दो-दो
संडों का ब्याह नहीं किया, गौना नहीं किया? '
होरी सिटपिटा गया।
धनिया ने उसके हाथ से पगहिया छीन
ली, औरर गाय को
खूँटे से बाँधकर द्वार की ओर चली।
होरी ने उसे पकड़ना चाहा; पर वह बाहर जा चुकी थी।
वहीं सिर थामकर बैठ गया।
बाहर उसे पकड़ने की चेष्टा करके
वह कोई नाटक नहीं दिखाना चाहता था।
धनिया के क्रोध को ख़ूब जानता
था।
बिगड़ती है,
तो चंडी बन जाती है।
मारो,
काटो, सुनेगी
नहीं; लेकिन हीरा भी
तो एक ही ग़ुस्सेवर है।
कहीं हाथ चला दे तो परलै ही
हो जाय।
नहीं, हीरा
इतना मूरख नहीं है।
मैंने कहाँ-से-कहाँ यह
आग लगा दी।
उसे अपने आप पर क्रोध
आने लगा।
बात मन में रख लेता,
तो क्यों यह
टंटा खड़ा होता।
सहसा धनिया का कर्कश स्वर कान
में आया।
हीरा की गरज भी सुन पड़ी।
फिर पुन्नी की पैनी पीक भी
कानों में चुभी।
सहसा उसे
गोबर की याद आयी।
बाहर लपककर उसकी खाट देखी।
गोबर वहाँ न था।
ग़ज़ब हो गया!
गोबर भी वहाँ पहुँच गया।
अब कुशल नहीं।
उसका नया ख़ून है, न जाने क्या कर बैठे; लेकिन होरी वहाँ कैसे
जाय?
हीरा कहेगा, आप
बोलते नहीं, जाकर
इस डाइन को लड़ने के लिए भेज दिया।
कोलाहल प्रतिक्षण प्रचंड होता जाता था।
सारे गाँव में जाग पड़ गयी।
मालूम होता था, कहीं आग लग गयी है, औरर लोग खाट से उठ-उठ बुझाने दौड़े जा रहे
हैं।
इतनी देर तक तो वह ज़ब्त किये
बैठा रहा।
फिर न रह गया।
धनिया पर क्रोध आया।
वह क्यों चढ़कर लड़ने गयी।
अपने घर में आदमी न जाने
किसको क्या कहता है।
जब तक कोई मुँह पर बात न
कहे, यही समझना चाहिए कि
उसने कुछ नहीं कहा।
होरी की कृषक प्रकृति झगड़े से
भागती थी।
चार बातें सुनकर ग़म खा जाना
इससे कहीं अच्छा है कि आपस में तनाज़ा
हो।
कहीं मार-पीट
हो जाय तो थाना-पुलिस हो,
बँधे-बँधे
फिरो, सब की चिरौरी
करो, अदालत की धूल
फाँको,
खेती-बारी जहन्नुम
में मिल जाय।
उसका हीरा पर तो कोई बस न था;
मगर धनिया को तो वह
ज़बरदस्ती खींच ला सकता है।
बहुत होगा, गालियाँ दे लेगी, एक-दो दिन रूठी
रहेगी, थाना-पुलिस की नौबत तो न
आयेगी।
जाकर हीरा के द्वार पर सबसे दूर
दीवार की आड़ में खड़ा हो गया।
एक सेनापति की भाँति मैदान
में आने के पहले परिस्थिति को अच्छी
तरह समझ लेना चाहता था।
अगर अपनी जीत हो रही है, तो बोलने की कोई ज़रूरत
नहीं; हार हो रही
है, तो तुरन्त
कूद पड़ेगा।
देखा तो वहाँ पचासों आदमी
जमा हो गये हैं।
पण्डित दातादीन,
लाला पटेश्वरी,
दोनों ठाकुर,
जो गाँव के करता-धरता थे, सभी
पहुँचे हुए हैं।
धनिया का पल्ला हलका हो रहा था।
उसकी उग्रता जनमत को उसके विरुद्ध
किये देती थी।
वह रणनीति में कुशल न थी।
क्रोध में ऐसी जली-कटी सुना रही थी कि लोगों
की सहानुभूति उससे दूर होती जाती थी।
वह गरज रही थी --
तू हमें देखकर क्यों जलता
है?
हमें देखकर क्यों तेरी
छाती फटती है?
पाल-पोसकर
जवान कर दिया, यह उसका इनाम
है?
हमने न पाला होता तो आज कहीं
भीख माँगते होते।
रूख की छाँह भी न मिलती।
होरी को ये शब्द ज़रूरत से
ज़्यादा कठोर जान पड़े।
भाइयों का पालना-पोसना तो उसका धर्म था।
उनके हिस्से की जायदाद तो उसके
हाथ में थी।
कैसे न पालता-पोसता?
दुनिया में कहीं मुँह
दिखाने लायक़ रहता?
हीरा ने जवाब दिया -- हम किसी का कुछ नहीं जानते।
तेरे घर में
कुत्तों की तरह एक टुकड़ा खाते थे
औरर दिन-भर काम करते
थे।
जाना ही नहीं कि लड़कपन औरर जवानी
कैसी होती है।
दिन-दिन भर
सूखा गोबर बीना करते थे।
उस पर भी तू बिना
दस गाली दिये रोटी न देती थी।
तेरी-जैसी
राच्छसिन के हाथ में पड़कर ज़िन्दगी तलख़ हो
गयी।
धनिया औरर भी तेज़ हुई -- ज़बान सँभाल, नहीं जीभ खींच लूँगी।
राच्छसिन तेरी औररत होगी।
तू है किस फेर में
मूँड़ी-काटे,
टुकड़े-ख़ोर,
नमक-हराम।
दातादीन ने टोका -- इतना कटु-वचन
क्यों कहती है धनिया?
नारी का धरम है कि ग़म
खाय।
वह तो उजड्ड: है, क्यों उसके मुँह लगती
है?
लाला पटेश्वरी पटवारी ने उसका
समर्थन किया -- बात का
जवाब बात है, गाली
नहीं।
तूने लड़कपन में उसे
पाला-पोसा; लेकिन यह क्यों भूल
जाती है कि उसकी जायदाद तेरे हाथ में
थी?
धनिया ने समझा, सब-के-सब मिलकर
मुझे नीचा दिखाना चाहते हैं।
चौमुख लड़ाई लड़ने के लिए
तैयार हो गयी --
अच्छा, रहने दो
लाला!
मैं सबको पहचानती हूँ।
इस गाँव
में रहते बीस साल हो गये।
एक-एक की
नस-नस पहचानती हूँ।
मैं गाली दे रही हूँ,
वह फूल बरसा रहा है,
क्यों?
दुलारी सहुआइन ने आग पर घी डाला
-- बाक़ी बड़ी गाल-दराज़ औररत है भाई!
मरद के मुँह लगती है।
होरी ही जैसा मरद है कि इसका निबाह
होता है।
दूसरा मरद होता तो एक दिन न पटती।
अगर हीरा इस समय ज़रा नर्म हो
जाता, तो उसकी जीत
हो जाती; लेकिन
ये गालियाँ सुनकर आपे से बाहर हो
गया।
औररों को अपने पक्ष
में देखकर वह कुछ शेर हो रहा था।
गला फाड़कर बोला -- चली जा मेरे द्वार से, नहीं जूतों से बात
करूँगा।
झोंटा पकड़कर उखाड़ लूँगा।
गाली देती है डाइन!
बेटे का घमंड हो गया है।
ख़ून । । ।
पाँसा पलट गया।
होरी का ख़ून खौल उठा।
बारूद में जैसे चिनगारी पड़ गयी
हो।
आगे आकर बोला -- अच्छा बस, अब
चुप हो जाओ हीरा,
अब नहीं सुना जाता।
मैं इस औररत को क्या
कहूँ।
जब मेरी पीठ में धूल लगती
है, तो इसी के
कारन।
न जाने क्यों इससे चुप
नहीं रहा जाता।
चारों ओर से हीरा पर बौछार
पड़ने लगी।
दातादीन ने निर्लज्ज कहा, पटेश्वरी ने गुंडा
बनाया,
झिंगुरीसिंह ने शैतान की उपाधि दी।
दुलारी सहुआइन ने कपूत कहा।
एक उद्दंड शब्द ने धनिया का पल्ला हल्का कर
दिया था।
दूसरे उग्र शब्द ने हीरा को
गच्चे में डाल दिया।
उस पर होरी के संयत वाक्य ने
रही-सही कसर भी पूरी कर दी।
हीरा सँभल गया।
सारा गाँव उसके विरुद्ध हो गया।
अब चुप रहने में ही उसकी
कुशल है।
क्रोध के नशे में भी इतना
होश उसे बाक़ी था।
धनिया का कलेजा दूना हो गया।
होरी से बोली -- सुन लो कान खोल के।
भाइयों के लिए मरते रहते
हो।
ये भाई हैं, ऐसे भाई का मुँह न देखे।
यह मुझे जूतों से
मारेगा।
खिला-पिला । । ।
होरी ने डाँटा -- फिर क्यों बक-बक करने लगी तू!
घर क्यों नहीं जाती?
धनिया ज़मीन पर बैठ गयी औरर आर्त
स्वर में बोली --
अब तो इसके जूते खा के जाऊँगी।
ज़रा इसकी मरदूमी देख लूँ,
कहाँ है गोबर?
अब किस दिन काम आयेगा?
तू देख रहा है बेटा, तेरी माँ को जूते
मारे जा रहे हैं!
यों विलाप करके उसने अपने
क्रोध के साथ होरी के क्रोध को भी
क्रियाशील बना डाला।
आग को फूँक-फूँक कर उसमें ज्वाला पैदा कर दी।
हीरा पराजित-सा
पीछे हट गया।
पुन्नी उसका हाथ पकड़कर घर की ओर
खींच रही थी।
सहसा धनिया ने सिंहनी की
भाँति झपटकर हीरा को इतने ज़ोर
से धक्का दिया कि वह धम से गिर पड़ा औरर बोली
-- कहाँ जाता
है, जूते
मार, मार जूते,
देखूँ तेरी
मरदूमी!
होरी ने दौड़कर उसका हाथ पकड़ लिया
औरर घसीटता हुआ घर ले चला।
Return to Mellon Project indexpage.
Proceed to Chapter Five.
Recoded: 20 Sept. 1999 to 6 Oct 1999.
Chapter Four posted: 10 Oct. 1999.
Updated: 12 Oct 1999.