यूनिवर्सिटीज़ ऑफ़ मिशिगन ऐंड वर्जिनिया
इंस्टिट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़
लैंग्वजिज़ ऐंड कल्चर्ज़ ऑफ़
एशिया ऐंड ऐफ़्रिका
तोक्यो
यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरेन स्टडीज़
Mellon Project
प्रेमचन्द
गोदान
(Devanagari text reconstituted from Professor K. Machida's roman
transcription)
Chapter Seven.
(unparagraphed text)
यह अभिनय जब समाप्त हुआ,
तो उधर रंगशाला
में धनुष-यज्ञ
समाप्त हो चुका था औरर सामाजिक प्रहसन की
तैयारी हो रही थी; मगर
इन सज्जनों को उससे विशेष दिलचस्पी न
थी।
केवल मिस्टर मेहता देखने
गये औरर आदि से अन्त तक जमे रहे।
उन्हें बड़ा मज़ा आ रहा था।
बीच-बीच
में तालियाँ बजाते थे औरर '
फिर कहो, फिर कहो ' का
आग्रह करके अभिनेताओं को
प्रोत्साहन भी देते जाते थे।
राय साहब ने इस प्रहसन में एक
मुक़दमेबाज़ देहाती ज़मींदार का ख़ाका उड़ाया था।
कहने को तो प्रहसन था; मगर करुणा से भरा हुआ।
नायक का बात-बात
में क़ानून की धाराओं का उल्लेख
करना, पत्नी पर केवल इसलिए
मुक़दमा दायर कर देना कि उसने भोजन
तैयार करने में ज़रा-सी देर कर दी, फिर
वकीलों के नख़रे औरर देहाती
गवाहों की चालाकियाँ औरर
झाँसे, पहले
गवाही के लिए चट-पट
तैयार हो जाना; मगर
इजलास पर तलबी के समय ख़ूब मनावन कराना औरर
नाना प्रकार के फ़रमाइशें करके उल्लू
बनाना, ये सभी दृश्य
देखकर लोग हँसी
के मारे लोटे जाते थे।
सबसे सुन्दर वह दृश्य था, जिसमें वकील गवाहों
को उनके बयान रटा रहा था।
गवाहों का बार-बार भूलें करना, वकील का बिगड़ना,
फिर नायक का देहाती बोली में गवाहों
को समझाना औरर अन्त में इजलास पर
गवाहों का बदल जाना,
ऐसा सजीव औरर सत्य था कि मिस्टर मेहता उछल
पड़े औरर तमाशा समाप्त होने पर नायक को
गले लगा लिया औरर सभी नटों को
एक-एक मेडल देने की
घोषणा की।
राय साहब के प्रति उनके मन में
श्रद्धा के भाव जाग उठे।
राय साहब स्टेज के पीछे ड्रामे
का संचालन कर रहे थे।
मेहता दौड़कर उनके गले लिपट
गये औरर मुग्ध होकर बोले
-- आपकी दृष्टि इतनी
पैनी है, इसका
मुझे अनुमान न था।
दूसरे दिन जलपान के बाद शिकार का
प्रोग्राम था।
वहीं किसी नदी के तट पर बाग़ में
भोजन बने, ख़ूब
जल-क्रीड़ा की जाय औरर शाम
को लोग घर आयँ।
देहाती जीवन का आनन्द उठाया जाय।
जिन मेहमानों को विशेष
काम था, वह तो बिदा
हो गये, केवल
वे ही लोग बच रहे जिनकी राय साहब से
घनिष्टता थी।
मिसेज़ खन्ना के सिर में
दर्द था, न जा
सकीं, औरर सम्पादकजी इस
मंडली से जले हुए थे औरर इनके
विरुद्ध एक लेख-माला
निकालकर इनकी ख़बर लेने के विचार में
मग्न थे।
सब-के-सब छटे
हुए गुंडे हैं।
हराम के पैसे उड़ाते हैं
औरर मूछों पर ताव देते हैं।
दुनिया में क्या हो रहा
है, इन्हें क्या ख़बर।
इनके पड़ोस में कौन मर रहा
है, इन्हें क्या परवा।
इन्हें तो अपने
भोग-विलास से काम
है।
यह मेहता,
जो फ़लिासफ़र बना फिरता है, उसे यही धुन है कि जीवन को
सम्पूर्ण बनाओ।
महीने में एक हज़ार मार लेते
हो, तुम्हें
अख़्तियार है, जीवन को
सम्पूर्ण बनाओ या परिपूर्ण बनाओ।
जिसको यह फ़क्रि दबाये डालती है कि
लड़कों का ब्याह कैसे हो, या बीमार स्त्री के लिए वैद्य
कैसे आयँ या अब की घर का किराया किसके घर
से आएगा, वह अपना जीवन
कैसे सम्पूर्ण बनाये!
छूटे साँड़ बने
दूसरों के खेत में मुँह
मारते फिरते हो औरर समझते हो
संसार में सब सुखी हैं।
तुम्हारी आँखें तब
खुलेंगी, जब
क्रान्ति होगी औरर तुमसे कहा जायगा
-- बचा, खेत में चलकर हल जोतो।
तब देखें, तुम्हारा जीवन कैसे सम्पूर्ण
होता है।
औरर वह जो है मालती, जो बहत्तर घाटों का पानी
पीकर भी मिस बनी फिरती है!
शादी नहीं करेगी, इससे जीवन बन्धन में पड़ जाता
है, औरर बन्धन
में जीवन का पूरा विकास नहीं होता।
बस जीवन का पूरा विकास इसी में
है कि दुनिया को लूटे जाओ औरर
निद्र्वन्द्व विलास किये जाओ!
सारे बन्धन तोड़ दो, धर्म औरर समाज को गोली
मारो, जीवन के
कर्तव्यों को पास न फटकने दो,
बस तुम्हारा जीवन
सम्पूर्ण हो गया।
इससे ज़्यादा आसान औरर क्या होगा।
माँ-बाप
से नहीं पटती,
उन्हें धता बताओ;
शादी मत करो, यह बन्धन
है; बच्चे
होंगे, यह
मोहपाश है; मगर
टैक्स क्यों देते हो?
क़ानून भी तो बन्धन है, उसे क्यों नहीं
तोड़ते?
उससे क्यों कन्नी काटते हो।
जानते हो न कि क़ानून की ज़रा भी अवज्ञा
की औरर बेड़ियाँ पड़ जायँगी।
बस वही बन्धन तोड़ो, जिसमें अपनी-भोग-लिप्सा
में बाधा नहीं पड़ती।
रस्सी को साँप बनाकर पीटो औरर
तीस मारखाँ बनो।
जीते साँप के पास जाओ ही
क्यों वह फुकार भी मारेगा तो, लहरें आने लगेंगी।
उसे आते देखो, तो दुम दबाकर भागो।
यह तुम्हारा सम्पूर्ण जीवन
है!
आठ बजे शिकार-पार्टी चली।
खन्ना ने कभी शिकार न खेला था,
बन्दूक़ की आवाज़ से
काँपते थे;
लेकिन मिस मालती जा रही थीं, वह कैसे रुक सकते थे।
मिस्टर तंखा को अभी तक एलेक्शन के
विषय में बातचीत करने का अवसर न मिला था।
शायद वहाँ वह अवसर मिल जाय।
राय साहब अपने इस इलाक़े में
बहुत दिनों से नहीं गये थे।
वहाँ का रंग-ढंग देखना चाहते थे।
कभी-कभी इलाक़े
में आने-जाने
से आदमियों से एक सम्बन्ध भी हो जाता
है औरर रोब भी रहता है।
कारकुन औरर प्यादे भी सचेत
रहते हैं।
मिरज़ा खुर्शेद को जीवन के
नये अनुभव प्राप्त करने का शौक़ था, विशेषकर ऐसे, जिनमें कुछ साहस दिखाना
पड़े।
मिस मालती अकेले कैसे
रहतीं।
उन्हें तो रसिकों का जमघट
चाहिए।
केवल मिस्टर मेहता शिकार खेलने
के सच्चे उत्साह से जा रहे थे।
राय साहब की इच्छा तो थी कि भोजन की
सामग्री,
रसोीया, कहार, ख़िदमतगार,
सब साथ चलें,
लेकिन मिस्टर मेहता ने उसका विरोध किया।
खन्ना ने कहा -- आख़िर वहाँ भोजन करेंगे या
भूखों मरेंगे?
मेहता ने जवाब दिया -- भोजन क्यों न
करेंगे, लेकिन
आज हम लोग ख़ुद अपना सारा काम करेंगे।
देखना तो चाहिए कि नौकरों
के बग़ैर हम ज़िन्दा रह सकते हैं या
नहीं।
मिस मालती पकायँगी औरर हम लोग
खायँगे।
देहातों में हाँडियाँ
औरर पत्तल मिल ही जाते हैं, औरर ईधन की कोई कमी नहीं।
शिकार हम करेंगे ही।
मालती ने गिला किया -- क्षमा कीजिए।
आपने रात मेरी क़लाई इतने ज़ोर
से पकड़ी कि अभी तक दर्द हो रहा है।
' काम तो हम
लोग करेंगे,
आप केवल बताती जाइएगा। '
मिरज़ा खुर्शेद बोले
-- अजी आप लोग तमाशा
देखते रहिएगा,
मैं सारा इन्तज़ाम कर दूँगा।
बात ही कौन-सी
है।
जंगल में हाँडी औरर
बर्तन ढूँढ़ना हिमाक़त है।
हिरन का शिकार कीजिए, भूनिए,
खाइए, औरर वहीं दरख़्त
के साये में खर्राटे लीजिए।
यही प्रस्ताव स्वीकृत हुआ।
दो मोटरें चलीं।
एक मिस मालती ड्राइव कर रही थीं,
दूसरी ख़ुद राय साहब।
कोई बीस-पचीस
मील पर पहाड़ी प्रान्त शुरू हो गया।
दोनों तरफ़ ऊँची पर्वतमाला
दौड़ी चली आ रही थी।
सड़क भी पेंचदार होती जाती थी।
कुछ दूर की चढ़ाई के बाद एकाएक ढाल आ गया
औरर मोटर नीचे की ओर चली।
दूर से नदी का पाट नज़र आया, किसी रोगी की भाँति
दुर्बल, निस्पन्द कगार पर
एक घने वटवृक्ष की छाँह में कारें
रोक दी गयीं औरर लोग उतरे।
यह सलाह हुई कि दो-दो की टोली बने औरर शिकार
खेलकर बारह बजे तक यहाँ आ जाय।
मिस मालती मेहता के साथ चलने
को तैयार हो गयीं।
खन्ना मन में ऐंठकर रह
गये।
जिस विचार से आये थे, उसमें जैसे पंचर
हो गया; अगर
जानते, मालती दग़ा
देगी, तो घर लौट
जाते; लेकिन राय साहब
का साथ उतना रोचक न होते हुए भी बुरा न
था।
उनसे बहुत-सी मुआमले की बात करनी थीं।
खुर्शेद औरर तंखा बच
रहे।
उनकी टोली बनी-बनायी थी।
तीनों टोलियाँ एक-एक तरफ़ चल दीं।
कुछ दूर तक पथरीली पगडंडी पर
मेहता के साथ चलने के बाद मालती ने कहा
-- तुम तो चले ही
जाते हो।
ज़रा दम ले लेने दो।
मेहता मुस्कराये -- अभी तो हम एक मील भी नहीं आये।
अभी से थक गयीं?
' थकीं
नहीं; लेकिन
क्यों न ज़रा दम ले लो। '
' जब तक कोई शिकार हाथ न आ
जाय, हमें आराम
करने का अधिकार नहीं। '
' मैं
शिकार खेलने न आयी थी। '
मेहता ने अनजान बनकर कहा -- अच्छा यह मैं न जानता था।
फिर क्या करने आयी थीं?
' अब
तुमसे क्या बताऊँ। '
हिरनों का एक झुंड चरता हुआ
नज़र आया।
दोनों एक चट्टान की आड़
में छिप गये औरर निशाना बाँधकर
गोली चलायी।
निशाना ख़ाली गया।
झुंड भाग निकला।
मालती ने पूछा -- अब?
' कुछ
नहीं, चलो फिर कोई
शिकार मिलेगा। '
दोनों कुछ देर तक
चुपचाप चलते रहे।
फिर मालती ने ज़रा रुककर कहा -- गर्मी के मारे बुरा हाल
हो रहा है।
आओ, इस
वृक्ष के नीचे बैठ जायँ।
' अभी नहीं।
तुम बैठना चाहती हो, तो बैठो।
मैं तो नहीं बैठता। '
' बड़े
निर्दयी हो तुम,
सच कहती हूँ। '
' जब तक कोई
शिकार न मिल जाय, मैं
बैठ नहीं सकता। '
' तब तो
तुम मुझे मार ही डालोगे।
अच्छा बताओ;
रात तुमने मुझे इतना क्यों
सताया?
मुझे तुम्हारे ऊपर बड़ा क्रोध
आ रहा था।
याद है,
तुमने मुझे क्या कहा था?
तुम हमारे साथ चलेगा
दिलदार?
मैं न जानती थी, तुम इतने शरीर हो।
अच्छा, सच
कहना, तुम उस वक़्त
मुझे अपने साथ ले जाते? '
मेहता ने कोई जवाब न दिया,
मानो सुना ही नहीं।
दोनों कुछ दूर चलते
रहे।
एक तो जेठ की धूप, दूसरे पथरीला रास्ता।
मालती थककर बैठ गयी।
मेहता खड़े-खड़े बोले -- अच्छी बात है,
तुम आराम कर लो।
मैं यहीं आ जाऊँगा।
' मुझे
अकेले छोड़कर चले जाओगे? '
' मैं
जानता हूँ, तुम
अपनी रक्षा कर सकती हो। '
' कैसे
जानते हो? '
' नये
युग की देवियों की यही सिफ़त है।
वह मर्द का आश्रय नहीं
चाहतीं, उससे कन्धा
मिलाकर चलना चाहती हैं। '
मालती ने झेंपते हुए कहा
-- तुम कोरे
फ़लिासफ़र हो मेहता,
सच।
सामने वृक्ष पर एक मोर बैठा
हुआ था।
मेहता ने निशाना साधा औरर
बन्दूक़ चलायी।
मोर उड़ गया।
मालती प्रसन्न होकर बोली -- बहुत अच्छा हुआ।
मेरा शाप पड़ा।
मेहता ने बन्दूक़ कन्धे पर रखकर कहा
-- तुमने मुझे
नहीं, अपने आपको
शाप दिया।
शिकार मिल जाता,
तो मैं तुम्हें दस मिनट की
मुहलत देता।
अब तो तुमको फ़ौरन चलना
पड़ेगा।
मालती उठकर मेहता का हाथ पकड़ती हुई
बोली -- फ़लिासफ़रों
के शायद हृदय नहीं होता।
तुमने अच्छा किया, विवाह नहीं किया।
उस ग़रीब को मार ही डालते; मगर मैं यों न
छोड़ूँगी।
तुम मुझे छोड़कर नहीं जा
सकते।
मेहता ने एक झटके से हाथ छुड़ा
लिया औरर आगे बढ़े।
मालती सजलनेत्र होकर बोली
-- मैं कहती
हूँ, मत जाओ।
नहीं मैं इसी चट्टान पर सिर पटक
दूँगी।
मेहता ने तेज़ी से क़दम
बढ़ाये।
मालती उन्हें देखती रही।
जब वह बीस क़दम निकल गये, तो झुँझलाकर उठी औरर
उनके पीछे दौड़ी।
अकेले विश्राम करने में
कोई आनन्द न था।
समीप आकर बोली -- मैं तुम्हें इतना पशु न
समझती थी।
' मैं
जो हिरन मारूँगा, उसकी
खाल तुम्हें भेंट करूँगा। '
' खाल जाय भाड़
में।
मैं अब तुमसे बात न
करूँगी। '
' कहीं हम
लोगों के हाथ कुछ न लगा औरर
दूसरों ने अच्छे शिकार मारे तो
मुझे बड़ी झेंप होगी। '
एक चौड़ा नाला मुँह फैलाये
बीच में खड़ा था।
बीच की चट्टानें उसके
दाँतों से लगती थीं।
धार में इतना वेग था कि
लहरें उछली पड़ती थीं।
सूर्य मध्याह्न पर आ पहुँचा था
औरर उसकी प्यासी किरणें जल में क्रीड़ा कर रही
थीं।
मालती ने प्रसन्न होकर कहा -- अब तो लौटना पड़ा।
' क्यों?
उस पार चलेंगे।
यहीं तो शिकार
मिलेंगे। '
' धारा में
कितना वेग है।
मैं तो बह जाऊँगी। '
' अच्छी बात है।
तुम यहीं बैठो, मैं जाता हूँ। '
' हाँ आप जाइए।
मुझे अपनी जान से बैर नहीं
है। '
मेहता ने पानी में क़दम रखा
औरर पाँव साधते हुए चले।
ज्यों-ज्यों आगे जाते थे,
पानी गहरा होता जाता था।
यहाँ तक कि छाती तक आ गया।
मालती अधीर हो उठी।
शंका से मन चंचल हो उठा।
ऐसी विकलता तो उसे कभी न
होती थी।
ऊँचे स्वर में बोली
-- पानी गहरा है।
ठहर जाओ,
मैं भी आती हूँ।
' नहीं-नहीं, तुम
फिसल जाओगी।
धार तेज़ है। '
' कोई हरज़
नहीं, मैं आ रही
हूँ।
आगे न बढ़ना,
ख़बरदार। '
मालती साड़ी ऊपर चढ़ाकर नाले में
पैठी।
मगर दस हाथ आते-आते पानी उसकी कमर तक आ गया।
मेहता घबड़ाये।
दोनों हाथ से उसे लौट
जाने को कहते हुए बोले -- तुम यहाँ मत आओ
मालती!
यहाँ तुम्हारी गर्दन तक पानी है।
मालती ने एक क़दम औरर आगे बढ़कर कहा
-- होने दो।
तुम्हारी यही इच्छा है कि मैं मर
जाऊँ, तो
तुम्हारे पास ही मरूँगी।
मालती पेट तक पानी में थी।
धार इतनी तेज़ थी कि मालूम होता
था, क़दम उखड़ा।
मेहता लौट पड़े औरर मालती
को एक हाथ से पकड़ लिया।
मालती ने नशीली आँखों
में रोष भरकर कहा --
मैंने तुम्हारे-जैसे बेदर्द आदमी कभी न देखा
था।
बिल्कुल पत्थर हो।
ख़ैर, आज सता
लो, जितना सताते बने; मैं भी कभी समझूँगी।
मालती के पाँव उखड़ते हुए
मालूम हुए।
वह बन्दूक़ सँभालती हुई उनसे
चिमट गयी।
मेहता ने आश्वासन देते
हुए कहा -- तुम यहाँ
खड़ी नहीं रह सकती।
मैं तुम्हें अपने
कन्धे पर बिठाये लेता हूँ।
मालती ने भृकुटी टेढ़ी करके कहा
-- तो उस पार जाना क्या
इतना ज़रूरी है?
मेहता ने कुछ उत्तर न दिया।
बन्दूक़ कनपटी से कन्धे पर दबा ली
औरर मालती को दोनों हाथों
से उठाकर कन्धे पर बैठा लिया।
मालती अपनी पुलक को छिपाती हुई
बोली -- अगर कोई
देख ले?
' भद्दा तो
लगता है। '
दो पग के बाद उसने करुण स्वर
में कहा -- अच्छा
बताओ, मैं
यहीं पानी में डूब जाऊँ, तो तुम्हें रंज
हो या न हो?
मैं तो समझती हूँ,
तुम्हें बिलकुल
रंज न होगा।
मेहता ने आहत स्वर से कहा
-- तुम समझती
हो, मैं आदमी
नहीं हूँ?
' मैं
तो यही समझती हूँ, क्यों छिपाऊँ। '
' सच कहती हो
मालती? '
' तुम क्या
समझते हो? '
' मैं!
कभी बतलाऊँगा। '
पानी मेहता के गर्दन तक आ गया।
कहीं अगला क़दम उठाते ही सिर तक न आ जाय।
मालती का हृदय धक-धक करने लगा।
बोली,
मेहता, ईश्वर के लिए
अब आगे मत जाओ,
नहीं, मैं पानी
में कूद पड़ूँगी।
उस संकट में मालती को ईश्वर याद आया, जिसका वह मज़ाक़ उड़ाया करती थी।
जानती थी,
ईश्वर कहीं बैठा नहीं है जो आकर
उन्हें उबार लेगा;
लेकिन मन को जिस अवलम्बन औरर शक्ति की ज़रूरत
थी, वह औरर कहाँ मिल
सकती थी।
पानी कम होने लगा था।
मालती ने प्रसन्न होकर कहा -- अब तुम मुझे उतार दो।
' नहीं-नहीं,
चुपचाप बैठी रहो।
कहीं आगे कोई गढ़ा मिल जाय। '
' तुम
समझते होगे, यह
कितनी स्वार्थिनी है। '
' मुझे
इसकी मज़दूरी दे देना। '
मालती के मन में गुदगुदी
हुई।
' क्या मज़दूरी
लोगे? '
' यही कि जब
तुम्हें जीवन में ऐसा ही कोई
अवसर आय तो मुझे बुला लेना। '
किनारे आ गये।
मालती ने रेत पर अपनी साड़ी का पानी
निचोड़ा, जूते का
पानी निकाला,
मुँह-हाथ
धोया; पर ये शब्द
अपने रहस्यमय आशय के साथ उसके सामने
नाचते रहे।
उसने इस अनुभव का आनन्द उठाते
हुए कहा -- यह दिन याद
रहेगा।
मेहता ने पूछा -- तुम बहुत डर रही थीं?
' पहले
तो डरी; लेकिन फिर
मुझे विश्वास हो गया कि तुम हम
दोनों की रक्षा कर सकते हो। '
मेहता ने गर्व से मालती को
देखा -- इनके मुख
पर परिश्रम की लाली के साथ तेज था।
' मुझे यह
सुनकर कितना आनन्द आ रहा है, तुम यह समझ सकोगी मालती? '
' तुमने
समझाया कब।
उलटे औरर जंगलों
में घसीटते फिरते हो; औरर अभी फिर लौटती बार यही नाला पार करना
पड़ेगा।
तुमने कैसी आफ़त में जान
डाल दी।
मुझे तुम्हारे साथ रहना
पड़े, तो एक दिन न
पटे। '
मेहता मुस्कराये।
इन शब्दों का संकेत ख़ूब
समझ रहे थे।
' तुम
मुझे इतना दुष्ट समझती हो!
औरर जो मैं कहूँ कि
तुमसे प्रेम करता हूँ।
मुझसे विवाह करोगी? '
' ऐसे
काठ-कठोर से कौन
विवाह करेगा!
रात-दिन जलाकर मार
डालोगे। '
औरर मधुर नेत्रों से
देखा, मानी कह रही हो
-- इसका आशय तुम ख़ूब
समझते हो।
इतने बुद्धू नहीं हो।
मेहता ने जैसे सचेत
होकर कहा -- तुम सच
कहती हो मालती।
मैं किसी रमणी को प्रसन्न नहीं
रख सकता।
मुझसे कोई स्त्री प्रेम का स्वाँग
नहीं कर सकती।
मैं इसके अन्तस्तल तक पहुँच
जाऊँगा।
फिर मुझे उससे अरुचि हो जायगी।
मालती काँप उठी।
इन शब्दों में कितना सत्य था।
उसने पूछा -- बताओ,
तुम कैसे प्रेम से सन्तुष्ट
होगे?
' बस यही कि
जो मन में हो, वही मुख पर हो!
मेरे लिए रंग-रूप औरर हाव-भाव
औरर नाज़ो-अन्दाज़ का
मूल्य इतना ही है;
जितना होना चाहिए।
मैं वह भोजन चाहता
हूँ, जिससे आत्मा
की तृप्ति हो।
उत्तेजक औरर शोषक
पदार्थों की मुझे ज़रूरत नहीं। '
मालती ने ओठ सिकोड़कर ऊपर साँस
खींचते हुए कहा --
तुमसे कोई पेश न पायेगा।
एक ही घाघ हो।
अच्छा बताओ,
मेरे विषय में तुम्हारा क्या ख़याल
है?
मेहता ने नटखटपन से मुस्कराकर
कहा -- तुम सब कुछ कर
सकती हो, बुद्धिमती
हो, चतुर
हो, प्रतिभावान
हो, दयालु
हो, चंचल
हो, स्वाभिमानी
हो, त्याग कर सकती
हो; लेकिन प्रेम
नहीं कर सकती।
मालती ने पैनी दृष्टि से
ताककर कहा -- झूठे हो
तुम, बिलकुल
झूठे।
मुझे तुम्हारा यह दावा निस्सार
मालूम होता है कि तुम नारी-हृदय तक पहुँच जाते
हो।
दोनों नाले के
किनारे-किनारे चले
जा रहे थे।
बारह बज चुके थे; पर अब मालती को न विश्राम की इच्छा
थी, न लौटने की।
आज के सम्भाषण में उसे एक
ऐसा आनन्द आ रहा था,
जो उसके लिए बिलकुल नया था।
उसने कितने ही विद्वानों
औरर नेताओं को एक मुस्कान
में, एक चितवन
में, एक रसीले
वाक्य में उल्लू बनाकर छोड़ दिया था।
ऐसी बालू की दीवार पर वह जीवन का आधार
नहीं रख सकती थी।
आज उसे वह कठोर, ठोस,
पत्थर-सी भूमि मिल गयी
थी, जो फावड़ों
से चिनगारियाँ निकाल रही थी औरर उसकी कठोरता
उसे उत्तरोत्तर मोह लेती थी।
धायँ की आवाज़ हुई।
एक लालसर नाले पर उड़ा जा रहा था।
मेहता ने निशाना मारा।
चिड़िया चोट खाकर
भी कुछ दूर उड़ी, फिर बीच
धार में गिर पड़ी औरर लहरों के साथ
बहने लगी।
' अब? '
' अभी जाकर लाता
हूँ।
जाती कहाँ है? '
यह कहने के साथ वह रेत में
दौड़े औरर बन्दूक़ किनारे पर रख गड़ाप से
पानी में कूद पड़े औरर बहाव की ओर
तैरने लगे; मगर
आध मील तक पूरा ज़ोर लगाने पर भी चिड़िया न पा
सके।
चिड़िया मर कर भी जैसे उड़ी जा रही थी।
सहसा उन्होंने देखा, एक युवती किनारे की एक झोपड़ी
से निकली, चिड़िया को
बहते देखकर साड़ी को जाँघों तक
चढ़ाया औरर पानी में घुस पड़ी।
एक क्षण में उसने चिड़िया पकड़ ली
औरर मेहता को दिखाती हुई बोली
-- पानी से निकल जाओ
बाबूजी, तुम्हारी
चिड़िया यह है।
मेहता युवती की चपलता औरर साहस
देखकर मुग्ध हो गये।
तुरन्त किनारे की ओर हाथ चलाये
औरर दो मिनट में युवती के पास जा
खड़े हुए।
युवती का रंग था तो काला औरर
वह भी गहरा, कपड़े बहुत
ही मैले औरर फूहड़, आभूषण के नाम पर केवल
हाथों में दो-दो मोटी चूड़ियाँ, सिर के बाल उलझे अलग-अलग।
मुख-मंडल
का कोई भाग ऐसा नहीं, जिसे सुन्दर या सुघड़ कहा जा
सके; लेकिन उस
स्वच्छ, निर्मल जलवायु
ने उसके कालेपन में ऐसा लावण्य भर
दिया था औरर प्रकृति की गोद में पलकर
उसके अंग इतने सुडौल, सुगठित औरर स्वच्छन्द हो
गये थे कि यौवन का चित्र खींचने के
लिए उससे सुन्दर कोई रूप न मिलता।
उसका सबल स्वास्थ्य जैसे मेहता के
मन में बल औरर तेज भर रहा था।
मेहता ने उसे धन्यवाद देते
हुए कहा -- तुम बड़े
मौक़े से पहुँच गयीं, नहीं मुझे न जाने कितनी
दूर तैरना पड़ता।
युवती ने प्रसन्नता से कहा
-- मैंने
तुम्हें तैरते आते देखा,
तो दौड़ी।
शिकार खेलने आये
होंगे?
' हाँ,
आये तो थे शिकार ही
खेलने; मगर
दोपहर हो गया औरर यही चिड़िया मिली है।
' तेंदुआ मारना चाहो, तो मैं उसका ठौर दिखा
दूँ।
रात को यहाँ रोज़ पानी पीने
आता है।
कभी-कभी
दोपहर में भी आ
जाता है। '
फिर ज़रा सकुचाकर सिर झुकाये
बोली -- उसकी खाल
हमें देनी पड़ेगी।
चलो मेरे द्वार पर।
वहाँ पीपल की छाया है।
यहाँ धूप में कब तक खड़े
रहोगे।
कपड़े भी तो गीले हो गये
हैं।
मेहता ने उसकी देह में चिपकी
हुई गीली साड़ी की ओर देखकर कहा -- तुम्हारे कपड़े भी तो
गीले हैं।
उसने लापरवाही से कहा -- ऊँह हमारा क्या, हम तो जंगल के हैं।
दिन-दिन भर
धूप औरर पानी में खड़े रहते
हैं।
तुम थोड़े ही रह सकते हो।
लड़की कितनी समझदार है औरर बिलकुल
गँवार।
' तुम खाल
लेकर क्या करेगी? '
' हमारे दादा
बाज़ार में बेचते हैं।
यही तो हमारा काम है। '
' लेकिन
दोपहरी यहाँ काटें, तो तुम खिलाओगी क्या? '
युवती ने लजाते हुए कहा
-- तुम्हारे खाने
लायक़ हमारे घर में क्या है।
मक्के की रोटियाँ खाओ, जो धरी हैं।
चिड़िये का सालन पका दूँगी।
तुम बताते जाना जैसे बनाना
हो।
थोड़ा-सा
दूध भी है।
हमारी गैया को एक बार तेंदुए
ने घेरा था।
उसे सींगों से भगाकर भाग
आयी, तब से
तेंदुआ उससे डरता है।
' लेकिन
मैं अकेला नहीं हूँ।
मेरे साथ एक औररत भी है। '
' तुम्हारी
घरवाली होगी? '
' नहीं,
घरवाली तो अभी नहीं
है, जान-पहचान की है। '
' तो
मैं दौड़कर उनको बुला लाती हूँ।
तुम चलकर छाँह में
बैठो। '
' नहीं-नहीं,
मैं बुला लाता हूँ। '
' तुम थक
गये होगे।
शहर का रहैया जंगल में काहे
आते होंगे।
हम तो जंगली आदमी हैं।
किनारे ही तो खड़ी होंगी। '
जब तक मेहता
कुछ बोलें, वह
हवा हो गयी।
मेहता ऊपर चढ़कर पीपल की छाँह में
बैठे।
इस स्वच्छन्द जीवन से उनके मन में
अनुराग उत्पन्न हुआ।
सामने की पर्वतमाला
दर्शन-तत्व की भाँति
अगम्य औरर अत्यन्त फैली हुई, मानो ज्ञान का विस्तार कर रही हो, मानो आत्मा उस ज्ञान को,
उस प्रकाश को, उस अगम्यता को,
उसके प्रत्यक्ष विराट् रूप में देख रही हो।
दूर के एक बहुत ऊँचे शिखर पर
एक छोटा-सा मन्दिर था,
जो उस अगम्यता में
बुद्धि की भाँति ऊँचा, पर खोया हुआ-सा खड़ा था,
मानो वहाँ तक पर मारकर पक्षी विश्राम लेना
चाहता है औरर कहीं स्थान नहीं पाता।
मेहता इन्हीं विचारों में
डूबे हुए थे कि युवती मिस मालती को
साथ लिये आ पहुँची, एक वन-पुष्प की
भाँति धूप में खिली हुई, दूसरी गमले के फूल की
भाँति धूप में मुरझायी औरर
निर्जीव।
मालती ने बेदिली के साथ कहा
-- पीपल की छाँह बहुत
अच्छी लग रही है क्या?
औरर यहाँ भूख के मारे प्राण
निकले जा रहे हैं।
युवती दो बड़े-बड़े मटके उठा लायी औरर बोली
-- तुम जब तक यहीं
बैठो, मैं अभी
दौड़कर पानी लाती हूँ, फिर चूल्हा जला दूँगी; औरर मेरे हाथ का
खाओ, तो मैं
एक छन में बाटियाँ सेंक
दूँगी, नहीं,
अपने आप सेंक
लेना।
हाँ,
गेहूँ का आटा मेरे घर में
नहीं है औरर यहाँ कहीं कोई दूकान
भी नहीं है कि ला दूँ।
मालती को मेहता पर क्रोध आ रहा था।
बोली --
तुम यहाँ क्यों आकर पड़ रहे?
मेहता ने चिढ़ाते हुए कहा
-- एक दिन ज़रा इस जीवन का आनन्द
भी तो उठाओ।
देखो,
मक्के की रोटियों में कितना स्वाद
है।
' मुझसे
मक्के की रोटियाँ खायी ही न जायँगी,
औरर किसी तरह निगल भी जाऊँ
तो हज़म न होंगी।
तुम्हारे साथ आकर मैं बहुत
पछता रही हूँ।
रास्ते-भर
दौड़ा के मार डाला औरर अब यहाँ लाकर पटक
दिया! '
मेहता ने कपड़े उतार दिये थे
औरर केवल एक नीला जाँघिया पहने
बैठे हुए थे।
युवती को मटके ले जाते
देखा, तो उसके हाथ
से मटके छीन लिये औरर कुएँ पर पानी
भरने चले।
दर्शन के गहरे अध्ययन में भी
उन्होंने अपने स्वास्थ्य की रक्षा की थी औरर
दोनों मटके लेकर चलते हुए उनकी
मांसल भुजाएँ औरर चौड़ी छाती औरर
मछलीदार जाँघें किसी यूनानी प्रतिमा के
सुगठित अंगों की भाँति उनके
पुरुषार्थ का परिचय दे रही थीं।
युवती उन्हें पानी खींचते
हुए अनुराग भरी आँखों से देख रही
थी।
वह अब उसकी दया के पात्र नहीं, श्रद्धा के पात्र हो गये
थे।
कुआँ बहुत गहरा था, कोई साठ हाथ, मटके भारी थे औरर मेहता कसरत का
अभ्यास करते रहने पर भी एक मटका
खींचते-खींचते शिथिल हो गये।
युवती ने दौड़कर उनके हाथ से
रस्सी छीन ली औरर बोली -- तुमसे न खिंचेगा।
तुम जाकर खाट पर बैठो, मैं खींचे लेती
हूँ।
मेहता अपने पुरुषत्व का यह अपमान न
सह सके।
रस्सी उसके हाथ से फिर ले ली औरर
ज़ोर मारकर एक क्षण में दूसरा मटका भी खींच
लिया औरर दोनों हाथों में
दोनों मटके लिए आकर झोंपड़ी के
द्वार पर खड़े हो गये।
युवती ने चटपट आग जलायी, लालसर के पंख झुलस
डाले।
छुरे से उसकी बोटियाँ
बनायीं औरर चूल्हे में आग जलाकर
मांस चढ़ा दिया औरर चूल्हे के दूसरे
ऐले पर कढ़ाई में दूध उबालने लगी।
औरर मालती भौंहें
चढ़ाये, खाट पर
खिन्न-मन पड़ी इस तरह यह
दृश्य देख रही थी मानो उसके आपरेशन की
तैयारी हो रही हो।
मेहता झोपड़ी के द्वार पर खड़े
होकर, युवती के
गृह-कौशल को
अनुरक्त नेत्रों से देखते हुए
बोले -- मुझे
भी तो कोई काम बताओ, मैं क्या करूँ?
युवती ने मीठी झिड़की के साथ कहा
-- तुम्हें कुछ
नहीं करना है, जाकर बाई
के पास बैठो,
बेचारी बहुत भूखी है।
दूध गरम हुआ जाता है, उसे पिला देना।
उसने एक घड़े से आटा निकाला औरर
गूँधने लगी।
मेहता उसके अंगों का विलास
देखते रहे।
युवती भी रह-रहकर उन्हें कनखियों से
देखकर अपना काम करने लगती थी।
मालती ने पुकारा -- तुम वहाँ क्या खड़े हो?
मेरे सिर में ज़ोर का दर्द
हो रहा है।
आधा सिर ऐसा फटा पड़ता है, जैसे गिर जायगा।
मेहता ने आकर कहा -- मालूम होता है, धूप लग गयी है।
' मैं क्या
जानती थी, तुम
मुझे मार डालने के लिए यहाँ ला रहे
हो। '
' तुम्हारे
साथ कोई दवा भी तो नहीं है? '
' क्या मैं
किसी मरीज़ को देखने आ रही थी, जो दवा लेकर चलती?
मेरा एक दवाओं का बक्स है,
वह सेमरी में है।
उफ़!
सिर फटा जाता है! '
मेहता ने उसके सिर की ओर ज़मीन
पर बैठकर धीरे-धीरे
उसका सिर सहलाना शुरू किया।
मालती ने आँखें बन्द कर लीं।
युवती हाथों में आटा
भरे, सिर के बाल
बिखेरे,
आँखें धुएँ से लाल औरर
सजल, सारी देह पसीने
में तर, जिससे
उसका उभरा हुआ वक्ष साफ़ झलक रहा था, आकर खड़ी हो गयी औरर मालती को
आँखें बन्द किये पड़ी देखकर बोली
-- बाई को क्या हो गया
है?
मेहता बोले -- सिर में बड़ा दर्द है।
' पूरे सिर
में है कि आधे में? '
' आधे
में बतलाती हैं। '
' दाईं ओर
है, कि बाईं
ओर? '
' बाईं
ओर। '
' मैं अभी
दौड़ के एक दवा लाती हूँ।
घिसकर लगाते ही अच्छा हो जायगा। '
' तुम इस
धूप में कहाँ जाओगी? '
युवती ने सुना ही नहीं।
वेग से एक ओर जाकर
पहाड़ियों में छिप गयी।
कोई आधा घंटे बाद मेहता ने
उसे ऊँची पहाड़ी पर चढ़ते देखा।
दूर से बिलकुल गुड़िया-सी लग रही थी।
मन में सोचा -- इस जंगली छोकरी में सेवा का
कितना भाव औरर कितना व्यावहारिक ज्ञान है।
लू औरर धूप में आसमान पर
चढ़ी चली जा रही है।
मालती ने आँखें खोलकर
देखा -- कहाँ गयी वह
कलूटी।
ग़ज़ब की काली है, जैसे आबनूस का कुन्दा हो।
इसे भेज दो, राय साहब से कह आये, कार यहाँ भेज दें।
इस तपिश में मेरा दम निकल जायगा।
' कोई दवा
लेने गयी है।
कहती है,
उससे आधा-सीसी का दर्द
बहुत जल्द आराम हो जाता है! '
' इनकी दवाएँ
इन्हीं को फ़ायदा करती हैं, मुझे न करेंगी।
तुम तो इस छोकरी पर लट्टू
हो गये हो।
कितने छिछोरे हो।
जैसी रूह वैसे फ़रिश्ते! '
मेहता को कटु सत्य कहने
में संकोच न होता था।
' कुछ
बातें तो उसमें ऐसी हैं कि
अगर तुममें होतीं, तो तुम सचमुच देवी हो
जातीं। '
' उसकी
ख़ूबियाँ उसे मुबारक, मुझे देवी
बनने की इच्छा नहीं
है। '
' तुम्हारी इच्छा
हो, तो मैं
जाकर कार लाऊँ, यद्यपि कार
यहाँ आ भी सकेगी,
मैं नहीं कह सकता। '
' उस कलूटी
को क्यों नहीं भेज
देते? '
' वह तो दवा
लेने गयी है, फिर
भोजन पकायेगी। '
' तो आज आप
उसके मेहमान हैं।
शायद रात को भी यहीं रहने का विचार
होगा।
रात को शिकार भी तो अच्छा मिलते
हैं। '
मेहता ने इस आक्षेप से चिढ़कर कहा
-- इस युवती के प्रति
मेरे मन में जो प्रेम औरर
श्रद्धा है, वह
ऐसी है कि अगर मैं उसकी ओर वासना
से देखूँ तो आँखें फूट
जायँ।
मैं अपने किसी घनिष्ठ मित्र के
लिए भी इस धूप औरर लू में उस ऊँची
पहाड़ी पर न जाता।
औरर हम केवल घड़ी-भर के मेहमान हैं, यह वह जानती है।
वह किसी ग़रीब औररत के लिए भी इसी
तत्परता से दौड़ जायगी।
मैं विश्व-बन्धुत्व औरर विश्व-प्रेम पर केवल लेख लिख सकता
हूँ, केवल भाषण
दे सकता हूँ; वह उस
प्रेम औरर त्याग का व्यवहार कर सकती है।
कहने से करना कहीं कठिन है।
इसे तुम भी जानती हो।
मालती ने उपहास भाव से कहा -- बस-बस, वह देवी
है।
मैं मान गयी।
उसके वक्ष में उभार है, नितम्बों में भारीपन
है, देवी होने
के लिए औरर क्या चाहिए।
मेहता तिलमिला उठे।
तुरन्त उठे,
औरर कपड़े पहने जो सूख गये
थे, बन्दूक़ उठायी
औरर चलने को तैयार हुए।
मालती ने फुंकार मारी -- तुम नहीं जा सकते,
मुझे अकेली छोड़कर।
' तब कौन
जायगा? '
' वही तुम्हारी
देवी। '
मेहता हतबुद्धि-से खड़े थे।
नारी पुरुष पर कितनी आसानी से विजय पा
सकती है, इसका आज
उन्हें जीवन में पहला अनुभव हुआ।
वह दौड़ी हाँफती चली आ रही थी।
वही कलूटी युवती, हाथ में एक झाड़ लिये हुए।
समीप जाकर मेहता को कहीं जाने
को तैयार देखकर बोली -- मैं वह जड़ी खोज लायी।
अभी घिसकर लगाती हूँ; लेकिन तुम कहाँ जा रहे हो।
मांस तो पक गया होगा, मैं रोटियाँ सेंक
देती हूँ।
दो-एक खा
लेना।
बाई दूध पी लेगी।
ठंडा हो जाय, तो चले जाना।
उसने निस्संकोच भाव से
मेहता के अचकन की बटनें खोल दीं।
मेहता अपने को बहुत
रोके हुए थे।
जी होता था,
इस गँवारिन के चरणों को चूम
लें।
मालती ने कहा -- अपनी दवाई रहने दो।
नदी के किनारे, बरगद के नीचे हमारी मोटरकार खड़ी
है।
वहाँ औरर लोग होंगे।
उनसे कहना, कार
यहाँ लायें।
दौड़ी हुई जा।
युवती ने दीन नेत्रों
से मेहता को देखा।
इतनी मेहनत से बूटी लायी,
उसका यह अनादर।
इस गँवारिन की दवा इन्हें नहीं
जँची, तो न
सही, उसका मन रखने को
ही ज़रा-सी लगवा
लेतीं, तो क्या
होता।
उसने बूटी ज़मीन पर रखकर पूछा
-- तब तक तो चूल्हा
ठंडा हो जायगा बाईजी।
कहो तो रोटियाँ सेंककर
रख दूँ।
बाबूजी खाना खा लें, तुम दूध पी लो औरर
दोनों जने आराम करो।
तब तक मैं मोटरवाले को
बुला लाऊँगी।
वह झोपड़ी में गयी, बुझी हुई आग फिर जलायी।
देखा तो मांस उबल गया था।
कुछ जल भी गया था।
जल्दी-जल्दी
रोटियाँ सेंकी,
दूध गर्म था, उसे
ठंडा किया औरर एक कटोरे में मालती
के पास लायी।
मालती ने कटोरे के
भद्देपन पर मुँह बनाया; लेकिन दूध त्याग न सकी।
मेहता झोपड़ी के द्वार पर बैठकर
एक थाली में मांस औरर रोटियाँ
खाने लगे।
युवती खड़ी पंखा झल रही थी।
मालती ने युवती से कहा -- उन्हें खाने दे।
कहीं भागे नहीं जाते हैं।
तू जाकर गाड़ी ला।
युवती ने मालती की ओर एक बार
सवाल की आँखों से देखा, यह क्या चाहती हैं।
इनका आशय क्या है?
उसे मालती के चेहरे पर
रोगियों की-सी
नम्रता औरर कृतज्ञता औरर याचना न दिखायी दी।
उसकी जगह अभिमान औरर प्रमाद की झलक थी।
गँवारिन मनोभावों के
पहचानने में चतुर थी।
बोली --
मैं किसी की लौंडी नहीं हूँ
बाईजी!
तुम बड़ी हो, अपने घर की बड़ी हो।
मैं तुमसे कुछ
माँगने तो नहीं जाती।
मैं गाड़ी लेने न जाऊँगी।
मालती ने डाँटा -- अच्छा, तूने
गुस्ताख़ी पर कमर बाँधी!
बता तू किसके इलाक़े में रहती
है?
' यह राय साहब का
इलाक़ा है। '
' तो
तुझे उन्हीं राय साहब के हाथों
हंटरों से पिटवाऊँगी। '
' मुझे
पिटवाने से तुम्हें सुख मिले
तो पिटवा लेना बाईजी!
कोई रानी-महारानी थोड़ी हूँ कि लस्कर भेजनी
पड़ेगी। '
मेहता ने दो-चार कौर निगले थे कि मालती की यह
बातें सुनीं।
कौर कंठ में अटक गया।
जल्दी से हाथ धोया औरर
बोले -- वह नहीं
जायगी।
मैं जा रहा हूँ।
मालती भी खड़ी हो गयी -- उसे जाना पड़ेगा।
मेहता ने अँग्रेज़ी
में कहा -- उसका अपमान
करके तुम अपना सम्मान बढ़ा नहीं रही हो
मालती!
मालती ने फटकार बतायी -- ऐसी ही लौंडियाँ
मर्दों को पसन्द आती हैं, जिनमें औरर कोई गुण
हो या न हो, उनकी टहल
दौड़-दौड़कर प्रसन्न मन
से करें औरर अपना भाग्य सराहें कि इस
पुरुष ने मुझसे यह काम करने को
तो कहा।
वह देवियाँ हैं, शक्तियाँ हैं, विभूतियाँ हैं।
मैं समझती थी, वह पुरुषत्व तुममें कम-से-कम
नहीं है; लेकिन अन्दर
से, संस्कारों
से, तुम भी वही
बर्बर हो।
मेहता मनोविज्ञान के पण्डित थे।
मालती के मनोरहस्यों को
समझ रहे थे।
ईष्र्या का ऐसा अनोखा उदाहरण
उन्हें कभी न मिला था।
उस रमणी में, जो इतनी मृदु-स्वभाव, इतनी
उदार, इतनी प्रसन्नमुख
थी, ईष्र्या की ऐसी
प्रचंड ज्वाला!
बोले --
कुछ भी कहो,
मैं उसे न जाने दूँगा।
उसकी सेवाओं औरर
कृपाओं का यह पुरस्कार देकर मैं
अपनी नज़रों में नीच नहीं बन सकता।
मेहता के स्वर में कुछ
ऐसा तेज था कि मालती धीरे से उठी औरर
चलने को तैयार हो गयी।
उसने जलकर कहा -- अच्छा, तो
मैं ही जाती हूँ, तुम उसके चरणों की पूजा
करके पीछे आना।
मालती दो-तीन
क़दम चली गयी, तो
मेहता ने युवती से कहा -- अब मुझे आज्ञा दो बहन; तुम्हारा यह नेह, तुम्हारी नि:स्वार्थ सेवा
हमेशा याद रहेगी।
युवती ने दोनों
हाथों से,
सजलनेत्र होकर उन्हें प्रणाम किया औरर
झोपड़ी के अन्दर चली गयी।
दूसरी टोली राय साहब औरर खन्ना की
थी।
राय साहब तो अपने उसी रेशमी
कुरते औरर रेशमी चादर में थे।
मगर खन्ना ने शिकारी सूट डाटा था,
जो शायद आज ही के लिए
बनवाया गया था;
क्योंकि खन्ना को असामियों के
शिकार से इतनी फ़ुरसत कहाँ थी कि जानवरों
का शिकार करते।
खन्ना ठिंगने, इकहरे, रूपवान
आदमी थे;
गेहुँआ रंग,
बड़ी-बड़ी
आँखें,
मुँह पर चेचक के दाग़; बात-चीत
में बड़े कुशल।
कुछ दूर चलने के बाद खन्ना
ने मिस्टर मेहता का ज़िकर छेड़ दिया जो कल
से ही उनके मस्तिष्क में राहु की भाँति
समाये हुए थे।
बोले --
यह मेहता भी कुछ अजीब आदमी है।
मुझे तो कुछ बना हुआ
मालूम होता है।
राय साहब मेहता की इज़्ज़त करते थे
औरर उन्हें सच्चा औरर निष्कपट आदमी समझते
थे; पर खन्ना से
लेन-देन का व्यवहार
था, कुछ स्वभाव से
शान्ति-प्रिय भी थे,
विरोध न कर सके।
बोले --
मैं तो उन्हें केवल
मनोरंजन की वस्तु समझता हूँ।
कभी उनसे बहस नहीं करता।
औरर करना भी चाहूँ तो उतनी
विद्या कहाँ से लाऊँ।
जिसने जीवन के क्षेत्र में
कभी क़दम ही नहीं रखा, वह
अगर जीवन के विषय में कोई नया सिद्धान्त
अलापता है, तो
मुझे उस पर हँसी आती है।
मज़े से एक हज़ार माहवार फटकारते
हैं, न जोरू न
जाँता, न कोई चिन्ता न
बाधा, वह दर्शन न
बघारें, तो
कौन बघारे?
आप निद्र्वंद्व रहकर जीवन को
सम्पूर्ण बनाने का स्वप्न देखते
हैं।
ऐसे आदमी से क्या बहस की जाय।
' मैंने सुना चरित्र का अच्छा नहीं
है। '
' बेफ़क्रिी
में चरित्र अच्छा रह ही कैसे सकता है।
समाज में रहो औरर समाज के
कर्तव्यों औरर मर्यादाओं का पालन
करो तब पता चले! '
' मालती न
जाने क्या देखकर उन पर लट्टू हुई जाती
है। '
' मैं
समझता हूँ, वह
केवल तुम्हें जला रही है। '
' मुझे वह
क्या जलायेंगी।
बेचारी।
मैं उन्हें खिलौने
से ज़्यादा नहीं समझता। '
' यह तो न
कहो मिस्टर खन्ना, मिस
मालती पर जान तो देते हो तुम। '
' यों
तो मैं आपको भी यही इलज़ाम दे सकता
हूँ। '
' मैं
सचमुच खिलौना समझता हूँ।
आप उन्हें प्रतिमा बनाये हुए
हैं। '
खन्ना ने ज़ोर से क़हक़हा मारा,
हालाँकि हँसी की कोई बात
न थी!
' अगर एक लोटा
जल चढ़ा देने से वरदान मिल जाय, तो क्या बुरा है। '
अबकी राय साहब ने ज़ोर से क़हक़हा
मारा, जिसका कोई
प्रयोजन न था।
' तब आपने
उस देवी को समझा ही नहीं।
आप जितनी ही उसकी पूजा
करेंगे, उतना ही वह
आप से दूर भागेगी।
जितना ही दूर भागियेगा, उतना ही आपकी ओर
दौड़ेगी। '
' तब तो
उन्हें आपकी ओर दौड़ना चाहिए था। '
' मेरी
ओर!
मैं उस रसिक-समाज से बिलकुल बाहर हूँ मिस्टर
खन्ना, सच कहता हूँ।
मुझमें जितनी बुद्धि,
जितना बल है, वह इस इलाक़े के प्रबन्ध में
ही ख़र्च हो जाता है।
घर के जितने प्राणी हैं, सभी अपनी-अपनी धुन में मस्त; कोई उपासना में, कोई विषय-वासना में।
कोऊ काहू में मगन, कोऊ काहू में मगन।
औरर इन सब अजगरों को भक्ष्य
देना मेरा काम है,
कर्तव्य है।
मेरे बहुत से ताल्लुक़ेदार
भाई भोग-विलास करते
हैं, यह सब
मैं जानता हूँ।
मगर वह लोग घर फूँककर तमाशा
देखते हैं।
क़रज़ का बोझ सिर पर लदा जा रहा है,
रोज़ डिग्रियाँ हो रही
हैं।
जिससे लेते हैं, उसे देना नहीं
जानते, चारों तरफ़
बदनाम।
मैं तो ऐसी ज़िन्दगी से मर
जाना अच्छा समझता हूँ।
मालूम नहीं, किस संस्कार से मेरी आत्मा में
ज़रा-सी जान बाक़ी रह गयी,
जो मुझे देश
औरर समाज के बन्धन में बाँधे
हुए है।
सत्याग्रह-आन्दोलन छिड़ा।
मेरे सारे भाई शराब-क़बाब में मस्त थे।
मैं अपने को न रोक सका।
जेल गया औरर लाखों रुपए की
ज़ेरबारी उठाई औरर अभी तक उसका तावान दे रहा
हूँ।
मुझे उसका पछतावा नहीं है।
बिलकुल नहीं।
मुझे उसका गर्व है।
मैं उस आदमी को आदमी नहीं
समझता, जो देश
औरर समाज की भलाई के लिए उद्योग न करे
औरर बलिदान न करे।
मुझे क्या अच्छा लगता है कि
निर्जीव किसानों का रक्त चूसूँ
औरर अपने परिवारवालों की वासनाओं
की तृप्ति के साधन जुटाऊँ; मगर करूँ क्या?
जिस व्यवस्था में पला औरर
जिया, उससे घृणा
होने पर भी उसका मोह त्याग नहीं सकता
औरर उसी चरखे में रात-दिन पड़ा रहता हूँ कि किसी तरह
इज़्ज़त-आबरू बची रहे,
औरर आत्मा की हत्या न
होने पाये।
ऐसा आदमी मिस मालती क्या, किसी भी मिस के पीछे नहीं पड़
सकता, औरर पड़े तो
उसका सर्वनाश ही समझिये।
हाँ,
थोड़ा-सा मनोरंजन
कर लेना दूसरी बात है।
मिस्टर खन्ना भी साहसी आदमी थे, संग्राम में आगे
बढ़नेवाले।
दो बार जेल हो आये थे।
किसी से दबना न जानते थे।
खद्दर न पहनते थे औरर फ़्र:ांस
की शराब पीते थे।
अवसर पड़ने पर बड़ी-बड़ी तकलीफ़ें झेल सकते थे।
जेल में शराब छुई तक
नहीं, औरर ए। क्लास
में रहकर भी सी। क्लास की रोटियाँ खाते
रहे, हालाँकि, उन्हें हर तरह का आराम मिल सकता
था; मगर रण-क्षेत्र में जानेवाला रथ भी तो
बिना तेल के नहीं चल सकता।
उनके जीवन में थोड़ी-सी रसिकता लाज़िमा थी।
बोले --
आप संन्यासी बन सकते हैं, मैं तो नहीं बन सकता।
मैं तो समझता हूँ,
जो भोगी नहीं
है, वह संग्राम
में भी पूरे उत्साह से नहीं जा सकता।
जो रमणी से प्रेम नहीं कर
सकता, उसके
देश-प्रेम में
मुझे विश्वास नहीं।
राय साहब मुस्कराये -- आप मुझी पर आवाज़ें कसने
लगे।
' आवाज़ नहीं
है, तत्व की बात
है। '
' शायद
हो। '
' आप अपने
दिल के अन्दर पैठकर देखिए तो पता
चले। '
' मैंने तो पैठकर देखा
है, औरर मैं
आपको विश्वास दिलाता हूँ, वहाँ औरर चाहे जितनी
बुराइयाँ हों,
विषय की लालसा नहीं है। '
' तब
मुझे आपके ऊपर दया आती है।
आप जो इतने दुखी औरर निराश
औरर चिन्तित हैं,
इसका एकमात्र कारण आपका निग्रह है।
मैं तो यह नाटक खेलकर रहूँगा, चाहे दु:खान्त ही क्यों न
हो!
वह मुझसे मज़ाक़ करती है, दिखाती है कि मुझे तेरी
परवाह नहीं है;
लेकिन मैं हिम्मत हारनेवाला मनुष्य
नहीं हूँ।
मैं अब तक उसका मिज़ाज नहीं समझ
पाया।
कहाँ निशाना ठीक बैठेगा, इसका निश्चय न कर सका। '
' लेकिन वह
कुंजी आपको शायद ही मिले।
मेहता शायद आपसे बाज़ी मार ले
जायँ। '
एक हिरन कई हिरनियों के साथ चर रहा
था, बड़े
सींगोंवाला,
बिलकुल काला।
राय साहब ने निशाना बाँधा।
खन्ना ने रोका -- क्यों हत्या करते हो यार?
बेचारा चर रहा है, चरने दो।
धूप तेज़ हो गयी है, आइए कहीं बैठ जायँ।
आप से कुछ बातें करनी
हैं।
राय साहब ने बन्दूक़ चलायी; मगर हिरन भाग गया।
बोले -- एक
शिकार मिला भी तो निशाना ख़ाली गया।
' एक हत्या से
बचे। '
' आपके
इलाक़े में ऊख होती है? '
' बड़ी कसरत
से। '
' तो फिर
क्यों न हमारे शुगर मिल में शामिल
हो जाइए।
हिस्से धड़ाधड़ बिक रहे हैं।
आप ज़्यादा नहीं एक हज़ार हिस्से ख़रीद
लें? '
' ग़ज़ब किया,
मैं इतने रुपए कहाँ
से लाऊँगा? '
' इतने नामी
इलाक़ेदार औरर आपको रुपयों की कमी!
कुछ पचास हज़ार ही तो होते
हैं।
उनमें भी अभी २५ फ़ीसदी ही देना
है। '
' नहीं भाई
साहब, मेरे पास इस
वक़्त बिलकुल रुपए नहीं हैं। '
' रुपए जितने
चाहें, मुझसे
लीजिए।
बैंक आपका है।
हाँ, अभी
आपने अपनी ज़िन्दगी इंश्योर्ड न करायी
होगी।
मेरी कम्पनी में एक अच्छी-सी पालिसी लीजिए।
सौ-दो
सौ रुपए तो आप बड़ी आसानी से हर महीने
दे सकते हैं औरर इकट्ठ:ी रक़म मिल जायगी
-- चालीस-पचास हज़ार।
लड़कों के लिए इससे अच्छा प्रबन्ध आप
नहीं कर सकते।
हमारी नियमावली देखिए।
हम पूर्ण सहकारिता के सिद्धान्त पर
काम करते हैं।
दफ़्तर औरर कर्मचारियों के
ख़र्च के सिवा नफ़े की एक पाई भी किसी की जेब
में नहीं जाती।
आपको आश्चर्य होगा कि इस नीति
से कम्पनी चल कैसे रही है।
औरर मेरी सलाह से
थोड़ा-सा
स्पेकुलेशन का काम भी शुरू कर दीजिए।
यह जो आज सैकड़ों करोड़पति
बने हुए हैं,
सब इसी स्पेकुलेशन से बने हैं।
रूई, शक्कर,
गेहूँ, रबर किसी जिंस का सट्टा कीजिए।
मिनटों में लाखों का
वारा-न्यारा होता है।
काम ज़रा अटपटा है।
बहुत से लोग गच्चा खा जाते
हैं, लेकिन
वही, जो अनाड़ी हैं।
आप जैसे अनुभवी, सुशिक्षित औरर दूरन्देश
लोगों के लिए इससे ज़्यादा नफ़े का काम
ही नहीं।
बाज़ार का चढ़ाव-उतार
कोई आकस्मिक घटना नहीं।
इसका भी विज्ञान है।
एक बार उसे ग़ौर से देख
लीजिए, फिर क्या मजाल कि
धोखा हो जाय। '
राय साहब कम्पनियों पर अविश्वास
करते थे,
दो-एक बार इसका उन्हें
कड़वा अनुभव हो भी चुका था, लेकिन मिस्टर खन्ना को
उन्होंने अपनी आँखों से
बढ़ते देखा था औरर उनकी कार्यदक्षता के क़ायल
हो गये थे।
अभी दस साल पहले जो व्यक्ति
बैंक में क्लर्क था, वह केवल अपने अध्यवसाय, पुरुषार्थ औरर प्रतिभा से
शहर में पुजता है।
उसकी सलाह की उपेक्षा न की जा सकती थी।
इस विषय में अगर खन्ना उनके
पथ-प्रदर्शक हो
जायँ, तो
उन्हें बहुत कुछ कामयाबी हो सकती है।
ऐसा अवसर क्यों छोड़ा जाय।
तरह-तरह के प्रश्न
करते रहे।
सहसा एक देहाती एक बड़ी-सी टोकरी में कुछ
जड़ें, कुछ
पत्तियाँ, कुछ फल
लिये जाता नज़र आया।
खन्ना ने पूछा -- अरे, क्या
बेचता है?
देहाती सकपका गया।
डरा, कहीं
बेगार में न पकड़
जाय।
बोला --
कुछ तो नहीं मालिक!
यही घास-पात
है।
' क्या करेगा
इनका? '
' बेचूँगा मालिक!
जड़ी-बूटी
है। '
' कौन-कौन सी
जड़ी बूटी है,
बता? '
देहाती ने अपना औरषधालय
खोलकर दिखलाया।
मामूली चीज़ें थीं जो
जंगल के आदमी उखाड़कर ले जाते हैं
औरर शहर में अत्तारों के हाथ
दो-चार आने
में बेच आते हैं।
जैसे मकोय, कंघी,
सहदेीया,
कुकरौंधे,
धतूरे के बीज,
मदार के फूल,
करजे, घमची आदि।
हर-एक चीज़ दिखाता
था औरर रटे हुए शब्दों में
उसके गुण भी बयान करता जाता था।
यह मकोय है सरकार!
ताप हो,
मन्दाग्नि हो, तिल्ली
हो, धड़कन हो,
शूल हो, खाँसी हो,
एक खोराक में आराम हो जाता है।
यह धतूरे के बीज हैं
मालिक, गठिया हो,
बाई हो । । ।
खन्ना ने दाम पूछा -- उसने आठ आने कहे।
खन्ना ने एक रुपया फेंक दिया औरर
उसे पड़ाव तक रख आने का हुक्म दिया।
ग़रीब ने मुँह-माँगा दाम ही नहीं पाया, उसका दुगुना पाया।
आशीर्वाद देता चला गया।
राय साहब ने पूछा -- आप यह घास-पात
लेकर क्या करेंगे?
खन्ना ने मुस्कराकर कहा -- इनकी अशफिऱ्याँ बनाऊँगा।
मैं कीमियागर हूँ।
यह आपको शायद नहीं मालूम।
' तो
यार, वह मन्त्र हमें
सिखा दो। '
' हाँ-हाँ,
शौक़ से।
मेरी शागिर्दी कीजिए।
पहले सवा सेर लड्डू लाकर
चढ़ाइए, तब बताऊँगा।
बात यह है कि मेरा तरह-तरह के आदमियों से साबक़ा पड़ता
है।
कुछ ऐसे लोग भी आते
हैं, जो
जड़ी-बूटियों पर
जान देते हैं।
उनको इतना मालूम हो जाय कि यह
किसी फ़कीर की दी हुई बूटी है, फिर आपकी ख़ुशामद करेंगे,
नाक रगड़ेंगे, औरर आप वह चीज़ उन्हें दे
दें, तो हमेशा
के लिए आपके ळ्णी हो जायँगे।
एक रुपए में अगर दस-बीस बुद्धुओं पर एहसान का
नमदा कसा जा सके, तो
क्या बुरा है।
ज़रा से एहसान से बड़े-बड़े काम निकल जाते हैं।
राय साहब ने कुतूहल से पूछा
-- मगर इन बूटियों
के गुण आपको याद कैसे
रहेंगे?
खन्ना ने क़हक़हा मारा -- आप भी राय साहब!
बड़े मज़े की बातें करते
हैं।
जिस बूटी में जो गुण
चाहे बता दीजिए, वह आपकी
लियाक़त पर मुनहसर है।
सेहत तो रुपए में आठ आने
विश्वास से होती है।
आप जो इन बड़े-बड़े अफ़सरों को देखते
हैं, औरर इन लम्बी
पूँछवाले विद्वानों को,
औरर इन रईसों
को, ये सब
अन्धविश्वासी होते हैं।
मैं तो वनस्पति-शास्त्र के प्रोफ़ेसर को जानता
हूँ, जो
कुकरौंधे का नाम भी नहीं जानते।
इन विद्वानों का मज़ाक़ तो
हमारे स्वामीजी ख़ूब उड़ाते हैं।
आपको तो कभी उनके दर्शन न
हुए होंगे।
अबकी आप आयेंगे, तो उनसे मिलाऊँगा।
जब से मेरे बग़ीचे में
ठहरे हैं,
रात-दिन लोगों का
ताँता लगा रहता है।
माया तो उन्हें छू भी नहीं
गयी।
केवल एक बार दूध पीते हैं।
ऐसा विद्वान महात्मा मैंने
आज तक नहीं देखा।
न जाने कितने वष.ाम्प्ऌा२५२ऌ हिमालय पर तप
करते रहे।
पूरे सिद्ध पुरुष हैं।
आप उनसे अवश्य दीक्षा लीजिए।
मुझे विश्वास है, आपकी यह सारी कठिनाइयाँ छूमन्तर
हो जायँगी।
आपको देखते ही आपका
भूत-भविष्य सब कह
सुनायेंगे।
ऐसे प्रसन्नमुख हैं कि
देखते ही मन खिल उठता है।
ताज्जुब तो यह है कि ख़ुद
इतने बड़े महात्मा हैं; मगर संन्यास औरर त्याग मन्दिर औरर
मठ, सम्प्रदाय औरर पन्थ,
इन सबको ढोंग कहते
हैं, पाखंड
कहते हैं,
रूढ़ियों के बन्धन को तोड़ो औरर
मनुष्य बनो,
देवता बनने का ख़याल छोड़ो।
देवता बनकर तुम मनुष्य न
रहोगे।
राय साहब के मन में शंका
हुई।
महात्माओं में उन्हें भी
वह विश्वास था, जो
प्रभुता-वालों
में आम तौर पर होता है।
दुखी प्राणी को आत्मचिन्तन में
जो शान्ति मिलती है।
उसके लिए वह भी लालायित रहते थे।
जब आर्थिक कठिनाइयों से निराश
हो जाते, मन
में आता, संसार
से मुँह मोड़कर एकान्त में जा
बैठें औरर मोक्ष की चिन्ता करें।
संसार के बन्धनों को वह भी
साधारण मनुष्यों की भाँति आत्मोन्नति
के मार्ग की बाधाएँ समझते थे औरर
इनसे दूर हो जाना ही उनके जीवन का भी
आदर्श था; लेकिन
संन्यास औरर त्याग के बिना बन्धनों
को तोड़ने का औरर क्या उपाय है?
' लेकिन जब
वह संन्यास को ढोंग कहते
हैं, तो ख़ुद
क्यों संन्यास लिया है? '
' उन्होंने संन्यास कब लिया है
साहब, वह तो कहते
हैं -- आदमी को अन्त
तक काम करते रहना चाहिए।
विचार-स्वातन्त्र्य
उनके उपदेशों का तत्व है। '
' मेरी समझ
में कुछ नहीं आ रहा है।
विचार-स्वातन्त्र्य का
आशय क्या है? '
' समझ
में तो मेरे भी कुछ नहीं
आता, अबकी आइए, तो उनसे बातें
हों।
वह प्रेम को जीवन का सत्य कहते
हैं।
औरर इसकी ऐसी सुन्दर व्याख्या करते
हैं कि मन मुग्ध हो जाता है। '
' मिस मालती
को उनसे मिलाया या नहीं? '
' आप भी दिल्लगी
करते हैं।
मालती को भला इनसे क्या मिलता । ।
। '
वाक्य पूरा न हुआ था कि वह सामने
झाड़ी में सरसराहट की आवाज़ सुनकर चौंक
पड़े औरर प्राण-रक्षा की
प्रेरणा से राय साहब के पीछे आ गये।
झाड़ी में से एक तेंदुआ
निकला औरर मन्द गति से सामने की ओर चला।
राय साहब ने बन्दूक़ उठायी औरर निशाना
बाँधना चाहते थे कि खन्ना ने कहा
-- यह क्या करते हैं
आप?
ख़्वाहमख़्वाह उसे छेड़ रहे हैं।
कहीं लौट पड़े तो?
' लौट क्या
पड़ेगा, वहीं ढेर
हो जायगा। '
' तो
मुझे उस टीले पर चढ़ जाने दीजिए।
मैं शिकार का ऐसा शौक़ीन
नहीं हूँ। '
' तब क्या शिकार
खेलने चले थे? '
' शामत औरर
क्या। '
राय साहब ने बन्दूक़ नीचे कर ली।
' बड़ा अच्छा शिकार
निकल गया।
ऐसे अवसर कम मिलते
हैं। '
' मैं
तो अब यहाँ नहीं ठहर सकता।
ख़तरनाक जगह है। '
' एकाध शिकार
तो मार लेने दीजिए।
ख़ाली हाथ लौटते शर्म आती
है। '
' आप
मुझे कृपा करके कार के पास पहुँचा
दीजिए, फिर चाहे
तेंदुए का शिकार कीजिए या चीते का। '
' आप बड़े
डरपोक हैं मिस्टर खन्ना, सच। '
' व्यर्थ
में अपनी जान ख़तरे में डालना
बहादुरी नहीं है। '
' अच्छा तो आप
ख़ुशी से लौट सकते हैं। '
' अकेला? '
' रास्ता
बिलकुल साफ़ है। '
' जी नहीं।
आपको मेरे साथ चलना
पड़ेगा। '
राय साहब ने बहुत समझाया; मगर खन्ना ने एक न मानी।
मारे भय के उनका चेहरा पीला पड़ गया
था।
उस वक़्त अगर झाड़ी में से एक गिलहरी
भी निकल आती, तो वह चीख़
मारकर गिर पड़ते।
बोटी-बोटी
काँप रही थी।
पसीने से तर हो गये
थे!
राय साहब को लाचार होकर उनके साथ
लौटना पड़ा।
जब दोनों आदमी बड़ी दूर निकल
आये, तो खन्ना
के होश ठिकाने आये।
बोले --
ख़तरे से नहीं डरता; लेकिन ख़तरे के मुँह
में उँगली डालना हिमाक़त है।
' अजी जाओ
भी।
ज़रा-सा
तेंदुआ देख लिया, तो जान निकल गयी। '
' मैं
शिकार खेलना उस ज़माने का संस्कार समझता
हूँ, जब आदमी पशु
था।
तब से संस्कृति बहुत आगे
बढ़ गयी है। '
' मैं मिस
मालती से आपकी क़लई खोलूँगा। '
' मैं
अहिंसावादी होना लज्जा की बात नहीं समझता।
'
' अच्छा, तो यह आपका अहिंसावाद था।
शाबाश! '
खन्ना ने गर्व से कहा -- जी हाँ,
यह मेरा अहिंसावाद था।
आप बुद्ध औरर शंकर के नाम पर
गर्व करते हैं औरर पशुओं की
हत्या करते हैं,
लज्जा आपको आनी चाहिए, न
कि मुझे।
कुछ दूर दोनों फिर
चुपचाप चलते रहे।
तब खन्ना बोले -- तो आप कब तक आयँगे?
मैं चाहता हूँ, आप पालिसी का फ़ार्म आज ही भर
दें औरर शक्कर के हिस्सों का भी।
मेरे पास दोनों फ़ार्म
भी मौजूद हैं।
राय साहब ने चिन्तित स्वर में कहा
-- ज़रा सोच लेने
दीजिए।
' इसमें
सोचने की ज़रूरत नहीं। '
तीसरी टोली मिरज़ा खुर्शेद
औरर मिस्टर तंखा की थी।
मिरज़ा खुर्शेद के लिए भूत
औरर भविष्य सादे काग़ज़ की भाँति था।
वह वर्तमान में रहते थे।
न भूत का पछतावा था, न भविष्य की चिन्ता।
जो कुछ सामने आ जाता था,
उसमें जी-जान से लग जाते थे।
मित्रों की मंडली में वह
विनोद के पुतले थे।
कौंसिल में उनसे ज़्यादा
उत्साही मेम्बर कोई न था।
जिस प्रश्न के पीछे पड़ जाते, मिनिस्टरों को रुला
देते।
किसी के साथ रू-रियायत करना नहीं जानते थे।
बीच-बीच
में परिहास भी करते जाते थे।
उनके लिए आज जीवन था, कल का पता नहीं।
ग़ुस्सेवर भी ऐसे थे कि ताल
ठोंककर सामने आ जाते थे।
नम्रता के सामने दंडवत करते
थे; लेकिन जहाँ
किसी ने शान दिखायी औरर यह हाथ धोकर उसके
पीछे पड़े।
न अपना लेना याद रखते थे,
न दूसरों का देना।
शौक़ था शायरी का औरर शराब का।
औररत केवल मनोरंजन की
वस्तु थी।
बहुत दिन हुए हृदय का दिवाला निकाल
चुके थे।
मिस्टर तंखा दाँव-पेंच के आदमी थे, सौदा पटाने में,
मुआमला सुलझाने
में, अड़ंगा
लगाने में,
बालू से तेल निकालने में,
गला दबाने में,
दुम झाड़कर निकल जाने
में बड़े सिद्धहस्त।
कहिये रेत में नाव चला
दें, पत्थर पर दूब
उगा दें।
ताल्लुक़ेदारों को
महाजनों से क़रज़ दिलाना, नयी कम्पनियाँ खोलना, चुनाव के अवसर पर उम्मेदवार
खड़े करना, यही उनका
व्यवसाय था।
ख़ासकर चुनाव के समय उनकी तक़दीर चमकती
थी।
किसी पोढ़े उम्मेद-वार को खड़ा करते, दिलोज़ान से उसका काम करते औरर
दस-बीस हज़ार बना
लेते।
जब काँग्रेस का ज़ोर था
काँग्रेस के उम्मेदवारों के
सहायक थे।
जब साम्प्रदायिक दल का ज़ोर हुआ, तो हिन्दूसभा की ओर से
काम करने लगे; मगर इस
उलट-फेर के समर्थन
के लिए उनके पास ऐसी दलीलें थीं कि
कोई उँगली न दिखा सकता था।
शहर के सभी रईस, सभी हुक्काम,
सभी अमीरों से उनका याराना था।
दिल में चाहे लोग उनकी नीति
पसन्द न करें; पर वह
स्वभाव के इतने नम्र थे कि कोई
मुँह पर कुछ न कह सकता था।
मिरज़ा खुर्शेद ने रूमाल से
माथे का पसीना पोंछकर कहा -- आज तो शिकार खेलने के लायक़ दिन
नहीं है।
आज तो कोई मुशायरा होना चाहिए
था।
वकील ने समर्थन किया -- जी हाँ,
वहीं बाग़ में।
बड़ी बहार रहेगी।
थोड़ी देर के बाद मिस्टर तंखा
ने मामले की बात छेड़ी।
' अबकी चुनाव
में बड़े-बड़े
गुल खिलेंगे।
आपके लिए भी मुश्किल है। '
मिरज़ा विरक्त मन से बोले
-- अबकी मैं खड़ा ही न
हूँगा।
तंखा ने पूछा -- क्यों?
मुफ़्त की बकबक कौन करे।
फ़ायदा ही क्या!
मुझे अब इस डेमाक्रेसी
में भक्ति नहीं रही।
ज़रा-सा काम औरर
महीनों की बहस।
हाँ, जनता की
आँखों में धूल झोंकने
के लिए अच्छा स्वाँग है।
इससे तो कहीं अच्छा है कि एक
गवर्नर रहे, चाहे
वह हिन्दुस्तानी हो, या
अँग्रेज़, इससे
बहस नहीं।
एक इंजिन जिस गाड़ी को बड़े मज़े
से हज़ारों मील खींच ले जा सकता
है, उसे दस हज़ार आदमी
मिलकर भी उतनी तेज़ी से नहीं खींच
सकते।
मैं तो यह सारा तमाशा देखकर
कौंसिल से बेज़ार हो गया हूँ।
मेरा बस चले, तो कौंसिल में आग लगा
दूँ।
जिसे हम डेमाक्रेसी कहते
हैं, वह व्यवहार
में बड़े-बड़े
व्यापारियों औरर ज़मींदारों का राज्य
है, औरर कुछ
नहीं।
चुनाव में वही बाज़ी ले जाता
है, जिसके पास रुपए
हैं।
रुपए के ज़ोर से उसके लिए सभी
सुविधाएँ तैयार हो जाती हैं।
बड़े-बड़े
पण्डित, बड़े-बड़े मौलवी, बड़े-बड़े
लिखने औरर बोलनेवाले, जो अपनी ज़बान औरर क़लम से
पब्लिक को जिस तरफ़ चाहें फेर
दें, सभी
सोने के देवता के पैरों पर
माथा रगड़ते हैं।
मैंने तो इरादा कर लिया
है, अब एलेक्शन के
पास न जाऊँगा!
मेरा प्रोपेगंडा अब
डेमाक्रेसी के ख़िलाफ़ होगा। '
मिरज़ा साहब ने कुरान की आयतों
से सिद्ध किया कि पुराने ज़माने के
बादशाहों के आदर्श कितने ऊँचे
थे।
आज तो हम उसकी तरफ़ ताक भी नहीं
सकते।
हमारी आँखों में
चकाचौंध आ जायगी।
बादशाह को ख़ज़ाने की एक कौड़ी भी निजी
ख़र्च में लाने का अधिकार न था।
वह किताबें नक़ल करके, कपड़े सीकर, लड़कों को पढ़ाकर अपना गुज़र करता
था।
मिरज़ा ने आदर्श महीपों की एक
लम्बी सूची गिना दी।
कहाँ तो वह प्रजा को पालनेवाला
बादशाह, औरर कहाँ आजकल
के मन्त्री औरर मिनिस्टर,
पाँच, छ:, सात, आठ
हज़ार माहवार मिलना चाहिए।
यह लूट है या डेमाक्रसी!
हिरनों का एक झुंड चरता हुआ
नज़र आया।
मिरज़ा के मुख पर शिकार का जोश चमक
उठा।
बन्दूक़ सँभाली औरर निशाना मारा।
एक काला-सा हिरन गिर
पड़ा।
वह मारा!
इस उन्मत्त ध्वनि के साथ मिरज़ा भी
बेतहाशा दौड़े।
बिलकुल बच्चों की तरह
उछलते,
कूदते, तालियाँ
बजाते।
समीप ही एक वृक्ष पर एक आदमी लकड़ियाँ काट
रहा था।
वह भी चट-पट
वृक्ष से उतरकर मिरज़ाजी के साथ दौड़ा।
हिरन की गर्दन में गोली लगी
थी, उसके
पैरों में कम्पन हो रहा था औरर
आँखें पथरा गयी थीं।
लकड़हारे ने हिरन को करुण
नेत्रों से देखकर कहा -- अच्छा पट्ठ:ा था,
मन-भर से कम न होगा।
हुकुम हो, तो मैं उठाकर पहुँचा
दूँ?
मिरज़ा कुछ बोले नहीं।
हिरन की टँगी हुई, दीन वेदना से भरी आँखें
देख रहे थे।
अभी एक मिनट पहले इसमें जीवन था।
ज़रा-सा पत्ता भी
खड़कता, तो कान खड़े
करके चौकड़ियाँ भरता हुआ निकल भागता।
अपने मित्रों औरर बाल-बच्चों के साथ ईश्वर की उगाई
हुई घास खा रहा था; मगर अब
निस्पन्द पड़ा है।
उसकी खाल उधेड़ लो, उसकी बोटियाँ कर डालो, उसका क़ीमा बना डालो, उसे ख़बर न होगी।
उसके क्रीड़ामय जीवन में जो
आकर्षण था, जो आनन्द
था, वह क्या इस निर्जीव शव
में है?
कितनी सुन्दर गठन थी, कितनी प्यारी आँखें, कितनी मनोहर छवि?
उसकी छलाँगें हृदय में
आनन्द की तरंगें पैदा कर देती
थीं, उसकी
चौकड़ियों के साथ हमारा मन भी
चौकड़ियाँ भरने लगता था।
उसकी स्फूर्ति जीवन-सा बिखेरती चलती थी, जैसे फूल सुगन्ध बिखेरता
है; लेकिन अब!
उसे देखकर ग्लानि होती है।
लकड़हारे ने पूछा -- कहाँ पहुँचाना होगा
मालिक?
मुझे भी दो-चार पैसे दे देना।
मिरज़ाजी जैसे ध्यान से
चौंक पड़े।
बोले --
अच्छा उठा ले।
कहाँ चलेगा?
' जहाँ
हुकुम हो मालिक। '
' नहीं,
जहाँ तेरी इच्छा हो,
वहाँ ले जा।
मैं तुझे देता
हूँ। '
लकड़हारे ने मिरज़ा की ओर
कुतूहल से देखा।
कानों पर विश्वास न आया।
' अरे नहीं
मालिक, हुज़ूर ने
सिकार किया है, तो हम
कैसे खा लें। '
' नहीं-नहीं
मैं ख़ुशी से कहता हूँ, तुम इसे ले जाओ।
तुम्हारा घर यहाँ से कितनी दूर
है? '
' कोई आधा
कोस होगा मालिक! '
' तो
मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा।
देखूँगा, तुम्हारे बाल-बच्चे कैसे ख़ुश होते
हैं। '
' ऐसे
तो मैं न ले जाऊँगा सरकार!
आप इतनी दूर से आये, इस कड़ी धूप में सिकार
किया, मैं कैसे
उठा ले जाऊँ?
' उठा उठा,
देर न कर।
मुझे मालूम हो गया तू
भला आदमी है। '
लकड़हारे ने डरते-डरते औरर रह-रह कर मिरज़ाजी के मुख की ओर सशंक
नेत्रों से देखते हुए कि कहीं
बिगड़ न जायँ, हिरन को
उठाया।
सहसा उसने हिरन को छोड़ दिया औरर
खड़ा होकर बोला --
मैं समझ गया मालिक,
हज़ूर ने इसकी हलाली नहीं की।
मिरज़ाजी ने हँसकर कहा -- बस-बस, तूने
ख़ूब समझा।
अब उठा ले औरर घर चल।
मिरज़ाजी धर्म के इतने पाबन्द न
थे।
दस साल से उन्होंने नमाज़ न पढ़ी
थी।
दो महीने में एक दिन व्रत रख
लेते थे।
बिलकुल निराहार, निर्जल; मगर
लकड़हारे को इस ख़याल से जो सन्तोष
हुआ था कि हिरन अब इन लोगों के लिए
अखाद्य हो गया है,
उसे फीका न करना चाहते थे।
लकड़हारे ने हलके मन से हिरन
को गरदन पर रख लिया औरर घर की ओर चला।
तंखा अभी तक-तटस्थ से वहीं पेड़ के नीचे
खड़े थे।
धूप में हिरन के पास जाने
का कष्ट क्यों उठाते।
कुछ समझ में न आ रहा था कि
मुआमला क्या है;
लेकिन जब लकड़हारे को उल्टी दिशा में
जाते देखा, तो
आकर मिरज़ा से बोले -- आप उधर कहाँ जा रहे हैं
हज़रत!
क्या रास्ता भूल गये?
मिरज़ा ने अपराधी भाव से मुस्कराकर कहा
-- मैंने शिकार इस
ग़रीब आदमी को दे दिया।
अब ज़रा इसके घर चल रहा हूँ।
आप भी आइए न।
तंखा ने मिरज़ा को कुतूहल की
दृष्टि से देखा औरर बोले
-- आप अपने होश
में हैं या नहीं।
' कह नहीं
सकता।
मुझे ख़ुद नहीं मालूम।
'
' शिकार इसे
क्यों दे दिया?
'
इसीलिए कि उसे पाकर इसे जितनी ख़ुशी
होगी, मुझे या
आपको न होगी। '
तंखा खिसियाकर बोले -- जाइए!
सोचा था,
ख़ूब कबाब उड़ायेंगे, सो आपने सारा मज़ा किरकिरा कर दिया।
ख़ैर, राय साहब
औरर मेहता कुछ न कुछ लायेंगे ही।
कोई ग़म नहीं।
मैं इस एलेक्शन के बारे
में कुछ अरज़ करना चाहता हूँ।
आप नहीं खड़ा होना चाहते न
सही, आपकी जैसी
मरज़ी; लेकिन आपको
इसमें क्या ताम्मुल है कि जो लोग
खड़े हो रहे हैं, उनसे इसकी अच्छी क़ीमत वसूल की जाय।
मैं आपसे सिफऱ् इतना चाहता
हूँ कि आप किसी पर यह भेद न खुलने
दें कि आप नहीं खड़े हो रहे
हैं।
सिफऱ् इतनी मेहरबानी कीजिए मेरे
साथ।
ख़्वाजा जमाल ताहिर इसी शहर से खड़े
हो रहे हैं।
रईसों के वोट
सोलहों आने उनकी तरफ़ हैं ही,
हुक्काम भी उनके मददगार
हैं।
फिर भी पबलिक पर आपका जो असर है,
इससे उनकी कोर दब रही है।
आप चाहें तो आपको उनसे
दस-बीस हज़ार रुपए महज़ यह ज़ाहिर
कर देने के मिल सकते हैं कि आप उनकी
ख़ातिर बैठ जाते हैं । । ।
नहीं मुझे अरज़ कर लेने
दीजिए।
इस मुआमले में आपको
कुछ नहीं करना है।
आप बेफ़क्रि बैठे रहिए।
मैं आपकी तरफ़ से एक
मेनिफ़ेस्टो निकाल दूँगा।
औरर उसी शाम को आप मुझसे दस
हज़ार नक़द वसूल कर लीजिए।
मिरज़ा साहब ने उनकी ओर हिकारत से
देखकर कहा -- मैं
ऐसे रुपए पर औरर आप पर लानत भेजता
हूँ।
मिस्टर तंखा ने ज़रा भी बुरा नहीं
माना।
माथे पर बल तक न आने दिया।
' मुझ पर आप
जितनी लानत चाहें भेजें; मगर रुपए पर लानत भेजकर आप अपना ही
नुक़सान कर रहे हैं। '
' मैं
ऐसी रक़म को हराम समझता हूँ। '
' आप शरीयत
के इतने पाबन्द तो नहीं हैं। '
' लूट की कमाई
को हराम समझने के लिए शरा का पाबन्द
होने की ज़रूरत नहीं है। '
' तो इस
मुआमले में क्या आप अपना फ़ैसला तब्दील नहीं कर
सकते? '
' जी
नहीं। '
' अच्छी बात
है, इसे जाने
दीजिए।
किसी बीमा कम्पनी के डाइरेक्टर बनने
में तो आपको कोई एतराज़ नहीं
है?
आपको कम्पनी का एक हिस्सा भी न ख़रीदना
पड़ेगा।
आप सिफऱ् अपना नाम दे दीजिएगा। '
' जी
नहीं, मुझे यह भी
मंज़ूर नहीं है।
मैं कई कम्पनियों का
डाइरेक्टर, कई का
मैनेजिंग एजेंट, कई का चेयरमैन था।
दौलत मेरे पाँव चूमती थी।
मैं जानता हूँ, दौलत से आराम औरर
तकल्लुफ़ के कितने सामान जमा किये जा
सकते हैं; मगर यह
भी जानता हूँ कि दौलत इंसान को कितना
ख़ुद-ग़रज़ बना देती
है, कितना
ऐश-पसन्द, कितना मक्कार, कितना बेग़ैरत। '
वकील साहब को फिर कोई प्रस्ताव करने का
साहस न हुआ।
मिरज़ाजी की बुद्धि औरर प्रभाव
में उनका जो विश्वास था, वह बहुत कम हो गया।
उनके लिए धन ही सब कुछ था औरर
ऐसे आदमी से,
जो लक्ष्मी को ठोकर मारता हो, उनका कोई मेल न हो सकता था।
लकड़हारा हिरन को कन्धे पर रखे लपका
चला जा रहा था।
मिरज़ा ने भी क़दम बढ़ाया; पर स्थूलकाय तंखा पीछे रह गये।
उन्होंने पुकारा -- ज़रा सुनिए, मिरज़ाजी, आप
तो भागे जा रहे हैं।
मिरज़ाजी ने बिना
रुके हुए जवाब दिया --
वह ग़रीब बोझ लिये इतनी तेज़ी से चला जा
रहा है।
हम क्या अपना बदन लेकर भी उसके बराबर
नहीं चल सकते?
लकड़हारे ने हिरन को एक ठूँठ पर
उतारकर रख दिया था औरर दम
लेने लगा था।
मिरज़ा साहब ने आकर पूछा -- थक गये, क्यों?
लकड़हारे ने सकुचाते हुए कहा
-- बहुत भारी है
सरकार!
' तो
लाओ, कुछ दूर
मैं ले चलूँ। '
लकड़हारा हँसा।
मिरज़ा डील-डौल
में उससे कहीं ऊँचे औरर
मोटे-ताज़े
थे, फिर भी वह
दुबला-पतला आदमी उनकी इस
बात पर हँसा।
मिरज़ाजी पर जैसे चाबुक पड़ गया।
' तुम
हँसे क्यों?
क्या तुम समझते हो, मैं इसे नहीं उठा
सकता? '
लकड़हारे ने मानो क्षमा माँगी
-- सरकार आप लोग बड़े
आदमी हैं।
बोझ उठाना तो हम-जैसे मजूरों ही का काम है।
' मैं
तुम्हारा दुगुना जो हूँ। '
' इससे क्या
होता है मालिक! '
मिरज़ाजी का पुरुषत्व अपना औरर अपमान न
सह सका।
उन्होंने बढ़कर हिरन को गर्दन
पर उठा लिया औरर चले;
मगर मुशिकल से पचास क़दम चले
होंगे कि गर्दन फटने लगी; पाँव थरथराने लगे औरर
आँखों में तितिलियाँ उड़ने
लगीं।
कलेजा मज़बूत किया औरर एक बीस क़दम
ओर चले।
कम्बख़्त कहाँ रह गया?
जैसे इस लाश में सीसा भर दिया
गया हो।
ज़रा मिस्टर तंखा की गर्दन पर रख
दूँ, तो मज़ा
आये।
मशक की तरह जो फूले चलते
हैं, ज़रा उसका मज़ा भी
देखें; लेकिन
बोझा उतारें कैसे?
दोनों अपने दिल में
कहेंगे, बड़ी
जवाँमर्दी दिखाने चले थे।
पचास क़दम में चीं बोल
गये।
लकड़हारे ने चुटकी ली -- कहो मालिक, कैसे रंग-ढंग हैं।
बहुत हलका है न?
मिरज़ाजी को बोझ कुछ हलका
मालूम होने लगा।
बोले --
उतनी दूर तो ले ही जाऊँगा, जितनी दूर तुम लाये हो।
' कई दिन गर्दन
दुखेगी मालिक! '
' तुम क्या
समझते हो,
मैं यों ही फूला हुआ
हूँ! '
' नहीं
मालिक, अब तो ऐसा
नहीं समझता।
मुदा आप हैरान न हों; वह चट्टान है, उस पर उतार दीजिए। '
' मैं अभी
इसे इतनी ही दूर औरर ले जा सकता
हूँ। '
' मगर यह अच्छा
तो नहीं लगता कि मैं ठाला चलूँ
औरर आप लदे रहें। '
मिरज़ा साहब ने चट्टान पर हिरन को
उतारकर रख दिया।
वकील साहब भी आ पहुँचे।
मिरज़ा ने दाना फेंका -- अब आप को भी कुछ दूर ले
चलना पड़ेगा जनाब!
वकील साहब की नज़रों में अब
मिरज़ाजी का कोई महत्व न था।
बोले --
मुआफ़ कीजिए।
मुझे अपनी पहलवानी का दावा नहीं
है।
' बहुत भारी
नहीं है, सच। '
' अजी रहने भी
दीजिए। '
' आप अगर इसे
सौ क़दम ले चलें, तो मैं वादा करता हूँ आप
मेरे सामने जो तजवीज़
रखेंगे, उसे
मंज़ूर कर लूँगा। '
' मैं इन
चकमों में नहीं आता। '
' मैं
चकमा नहीं दे रहा हूँ, वल्लाह।
आप जिस हलके से कहेंगे खड़ा
हो जाऊँगा।
जब हुक्म देंगे, बैठ जाऊँगा।
जिस कम्पनी का डाइरेक्टर, मेम्बर,
मुनीम, कनवेसर,
जो कुछ कहिएगा, बन जाऊँगा।
बस सौ क़दम ले चलिए।
मेरी तो ऐसे ही
दोस्तों से निभती है, जो मौक़ा पड़ने पर सब कुछ कर
सकते हों। '
तंखा का मन चुलबुला उठा।
मिरज़ा अपने क़ौल के पक्के
हैं, इसमें
कोई सन्देह न था।
हिरन ऐसा क्या बहुत भारी होगा।
आख़िर मिरज़ा इतनी दूर ले ही आये।
बहुत ज़्यादा थके तो नहीं जान
पड़ते; अगर इनकार करते
हैं तो सुनहरा अवसर हाथ से जाता है।
आख़िर ऐसा क्या कोई पहाड़ है।
बहुत होगा, चार-पाँच
पँसेरी होगा।
दो-चार दिन
गर्दन ही तो दुखेगी!
जेब में रुपए हों, तो थोड़ी-सी बीमारी सुख की वस्तु है।
' सौ क़दम की
रही। '
' हाँ,
सौ क़दम।
मैं गिनता चलूँगा। '
' देखिए,
निकल न जाइएगा। '
' निकल
जानेवाले पर लानत भेजता हूँ। '
तंखा ने जूते का फ़ीता फिर से
बाँधा, कोट उतारकर
लकड़हारे को दिया,
पतलून ऊपर चढ़ाया, रूमाल
से मुँह पोंछा औरर इस तरह हिरन
को देखा, मानो
ओखली में सिर देने जा रहे
हों।
फिर हिरन को उठाकर गर्दन पर रखने की
चेष्टा की।
दो-तीन बार
ज़ोर लगाने पर लाश गर्दन पर तो आ
गयी; पर गर्दन न उठ सकी।
कमर झुक गयी,
हाँफ उठे औरर लाश को ज़मीन पर
पटकनेवाले थे कि मिरज़ा ने उन्हें
सहारा देकर आगे बढ़ाया।
तंखा ने एक डग इस तरह उठाया
जैसे दलदल में पाँव रख रहे
हों।
मिरज़ा ने बढ़ावा दिया -- शाबाश!
मेरे शेर, वाह-वाह!
तंखा ने एक डग औरर रखा।
मालूम हुआ, गर्दन टूटी जाती है।
' मार लिया
मैदान!
जीते रहो पट्ठे! '
तंखा दो डग औरर बढ़े।
आँखें निकली पड़ती थीं।
' बस, एक बार औरर ज़ोर मारो
दोस्त।
सौ क़दम की शर्त ग़लत।
पचास क़दम की ही रही। '
वकील साहब का बुरा हाल था।
वह बेजान हिरन शेर की तरह उनको
दबोचे हुए, उनका
हृदय-रक्त चूस रहा था।
सारी शक्तियाँ जवाब दे चुकी थीं।
केवल लोभ, किसी लोहे की धरन की तरह छत को
सँभाले हुए था।
एक से पच्चीस हज़ार तक की गोटी थी।
मगर अन्त में वह शहतीर भी जवाब दे
गयी।
लोभी की कमर भी टूट गयी।
आँखों के सामने
अँधेरा छा गया।
सिर में चक्कर आया औरर वह शिकार
गर्दन पर लिये पथरीली ज़मीन पर गिर पड़े।
मिरज़ा ने तुरन्त उन्हें उठाया
औरर अपने रूमाल से हवा करते हुए उनकी पीठ
ठोंकी।
' ज़ोर तो
यार तुमने ख़ूब मारा; लेकिन तक़दीर के खोटे
हो। '
तंखा ने हाँफते हुए लम्बी
साँस खींचकर कहा --
आपने तो आज मेरी जान ही ले ली थी।
दो मन से कम न होगा ससुर।
मिरज़ा ने हँसते हुए कहा
-- लेकिन भाईजान
मैं भी तो इतनी दूर उठाकर लाया ही था।
वकील साहब ने ख़ुशामद करनी शुरू की
-- मुझै तो आपकी
फ़रमाइश पूरी करनी थी।
आपको तमाशा देखना था, वह आपने देख लिया।
अब आपको अपना वादा पूरा करना होगा।
' आपने
मुआहदा कब पूरा किया। '
' कोशिश
तो जान तोड़कर की। '
' इसकी सनद
नहीं। '
लकड़हारे ने फिर हिरन उठा लिया था औरर
भागा चला जा रहा था।
वह दिखा देना चाहता था कि तुम
लोगों ने काँख-कूँखकर दस क़दम इसे उठा लिया, तो यह न समझो कि पास हो
गये।
इस मैदान में मैं
दुर्बल होने पर भी तुमसे आगे
रहूँगा।
हाँ, कागद
तुम चाहे जितना काला करो औरर झूठे
मुक़दमे चाहे जितने बनाओ।
एक नाला मिला,
जिसमें बहुत थोड़ा पानी था।
नाले के उस पार टीले पर एक
छोटा-सा
पाँच-छ: घरों का
पुरवा था औरर कई लड़के इमली के पेड़ के
नीचे खेल रहे थे।
लकड़हारे को देखते ही
सबों ने दौड़कर उसका स्वागत किया औरर
लगे पूछने --
किसने मारा बापू?
कैसे मारा,
कहाँ मारा, कैसे
गोली लगी, कहाँ
लगी, इसी को क्यों
लगी, औरर हिरनों
को क्यों न लगी?
लकड़हारा हूँ-हाँ करता इमली के नीचे पहुँचा
औरर हिरन को उतार कर पास की झोपड़ी से
दोनों महानुभावों के लिए खाट
लेने दौड़ा।
उसके चारों लड़कों औरर
लड़कियों ने शिकार को अपने चार्ज
में ले लिया औरर अन्य लड़कों को
भगाने की चेष्टा करने लगे।
सबसे छोटे बालक ने कहा
-- यह हमारा है।
उसकी बड़ी बहन ने, जो चौदह-पन्द्रह साल की थी, मेहमानों की ओर देखकर
छोटे भाई को डाँटा -- चुप, नहीं
सिपाई पकड़ ले जायगा।
मिरज़ा ने लड़के को छेड़ा
-- तुम्हारा नहीं हमारा
है।
बालक ने हिरन पर बैठकर अपना क़ब्ज़ा
सिद्ध कर दिया औरर बोला -- बापू तो लाये हैं।
बहन ने सिखाया -- कह दे भैया,
तुम्हारा है।
इन बच्चों की माँ बकरी के लिए
पत्तियाँ तोड़ रही थी।
दो नये भले आदमियों
को देखकर उसने ज़रा-सा घूँघट निकाल लिया औरर शर्मायी
कि उसकी साड़ी कितनी मैली,
कितनी फटी, कितनी उटंगी
है।
वह इस वेष में
मेहमानों के सामने कैसे
जाय?
औरर गये बिना
काम नहीं चलता।
पानी-वानी
देना है।
अभी दोपहर होने में कुछ
कसर थी; लेकिन मिरज़ा साहब
ने दोपहरी इसी गाँव में काटने का
निश्चय किया।
गाँव के आदमियों को जमा
किया।
शराब मँगवायी, शिकार पका, समीप
के बाज़ार से घी औरर मैदा मँगाया औरर
सारे गाँव को भोज दिया।
छोटे-बड़े स्त्री-पुरुष सबों ने दावत उड़ायी।
मर्दों ने ख़ूब शराब पी
औरर मस्त होकर शाम तक गाते रहे।
औरर मिरज़ाजी बालकों के साथ
बालक, शराबियों
के साथ शराबी,
बूढ़ों के साथ बूढ़े, जवानों के साथ जवान
बने हुए थे।
इतनी देर में सारे गाँव
से उनका इतना घनिष्ठ परिचय हो गया था,
मानो यहीं के निवासी
हों।
लड़के तो उनपर लदे पड़ते थे।
कोई उनकी फुँदनेदार टोपी सिर
पर रखे लेता था,
कोई उनकी राइफ़ल कन्धे पर रखकर अकड़ता हुआ चलता
था, कोई उनकी क़लाई की घड़ी
खोलकर अपनी क़लाई पर बाँध लेता था।
मिरज़ा ने ख़ुद ख़ूब देशी शराब पी
औरर झूम-झूमकर
जंगली आदमियों के साथ गाते रहे।
जब ये लोग सूर्यास्त के
समय यहाँ से बिदा हुए तो
गाँव-भर के
नर-नारी इन्हें बड़ी
दूर तक पहुँचाने आये।
कई तो रोते थे।
ऐसा सौभाग्य उन ग़रीबों के
जीवन में शायद पहली ही बार आया हो कि किसी
शिकारी ने उनकी दावत की हो।
ज़रूर यह कोई राजा है, नहीं तो इतना दरियाव दिल किसका होता
है।
इनके दर्शन फिर काहे को
होंगे!
कुछ दूर चलने के बाद मिरज़ा
ने पीछे फिरकर देखा औरर बोले
-- बेचारे कितने
ख़ुश थे।
काश मेरी ज़िन्दगी में ऐसे
मौक़े रोज़ आते।
आज का दिन बड़ा मुबारक था।
तंखा ने बेरुखी के साथ कहा
-- आपके लिए मुबारक
होगा, मेरे लिए
तो मनहूस ही था।
मतलब की कोई बात न हुई।
दिन-भर
जँगलों औरर पहाड़ों की ख़ाक
छानने के बाद अपना-सा
मुँह लिये लौट जाते हैं।
मिरज़ा ने निर्दयता से कहा
-- मुझे आपके साथ
हमदर्दी नहीं है।
दोनों आदमी जब बरगद के
नीचे पहुँचे,
तो दोनों टोलियाँ लौट
चुकी थीं।
मेहता मुँह लटकाये हुए
थे।
मालती विमन-सी
अलग बैठी थी, जो नयी
बात थी।
राय साहब औरर खन्ना दोनों
भूखे रह गये थे औरर किसी के
मुँह से बात न निकलती थी।
वकील साहब इसलिए दुखी थे कि मिरज़ा
ने उनके साथ बेवफ़ाई की।
अकेले मिरज़ा साहब प्रसन्न थे
औरर वह प्रसन्नता अलौकिक थी।
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Recoded: 20 Sept. 1999 to 6 Oct 1999.
Chapter Seven posted: 13 Oct. 1999.